लिफ्ट वाली लड़की bharat Thakur द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

लिफ्ट वाली लड़की

बदन को गुजरती हुई पवन के झोंके ने सहलाया। मैं अचेतन से चेतन की ओर धीरे धीरे अग्रसर हो रहा था। हल्की सी रोशनी भी मानो आंखों को चुभ रही थी। सर बुरी तरह चकरा रहा था। जैसे तैसे मैं उठ बैठा और आस पास नज़र घूमाने लगा। लोगो की चहल पहल थोड़ी दूर थी। मैं किसी छज्जे के नीचे बैठा था। पास से गंदी गटर बह रही थी और कूड़ा कर्कट भी बिखरा पड़ा हुआ था। मैं लड़खड़ाकर उठा। प्यास से गला रुंध हुए जा रहा था। कपड़ो की तरफ देखा तो कुछ खून के धब्बे से दिखाई दिए। लगा जैसे मेरा ही खून था। सर से रह रह कर दर्द का एहसास हो रहा था। हाथो को दर्द की तरफ घूमने भर से ही मुँह से आह निकल गयी। कोई चोट थी जिसका जख्म ताज़ा सा लग रहा था। कल हुआ क्या था? काफी याद करने के बाद भी याद नही आ रहा था। बस इतना याद है कि मैं गाड़ी चला रहा था, और कुछ याद नही आ रहा है। क्या हुआ था मुझे? मैं यहां कैसे और कब आ गया? विचार मन मे कौंध ही रहे थे कि मी कदम चहल पहल की ओर यकायक बढ़ने लगे। मैं धीरे धीरे उस जगह से बाहर आना चाहता था। अब बदबू भी महसूस हो रही थी जो असहनीय थी। सहसा विचार मन मे उठा, मेरी गाड़ी?? मेरी गाड़ी कहा है? नज़रे यहां वहां घुमाकर देख ली पर गाड़ी दिखी नही। मैंने जेब मे हाथ डाला और मोबाइल को ढूंढना चाहा पर वो मेरे पेंट की पीछे की जेब मे मिला। ओफ्फो बैटरी भी ऑफ है। पॉकेट को खंगाल कर देखा तो कुछ रुपये थे जो नाकाफी लग रहे थे। थैंक गॉड क्रेडिट कार्ड तो है। एक खडे रिक्शावाला से पूछा ये कौन सी जगह है? उसने मुझे और मेरे कपड़ो को देखते हुए मन मे जरूर सोचा होगा कि ये बेवड़ा अभी सुबह सुबह चिर निंद्रा से उठा है।

"कॉटन ग्रीन है! आपको कहा जाना है?"
"कॉटन ग्रीन!! मैं तो दहिसर की तरफ जा रहा था।"
"तुम किधर कु जा रहे थे? जिधर कु भी जा रहे थे पर अब तुम कॉटन ग्रीन की देशपांडे रोड पर खडेले हो!"
उसने अपनी बात पूरी की।

"चलो मुझे नजदीक के रेलवे स्टेशन छोड़ो" और मैं उसकी रिक्शा में बैठ गया। मन मे कई सवाल उठ रहे थे। आखिर हुआ क्या था कल रात?? दिमाग पर जोर दे रहा था पर हल्का हल्का धुंधलापन ही नज़र आ रहा था। कोई लड़की!! हा कोई लड़की थी। जिसे गाड़ी के वाइपर से बारिश की झड़ी में धुंधली परछाई नज़र आ रही थी। वाईपर की आवाज की तरह मेरा दिल भी धड़क - धड़क कर रहा था। चेहरा तो ठीक ढंग से अब याद नही आ रहा है। पर बड़ी ही प्यारी सुनहरी सी थी। पतली सी हल्के रंग की सूट, मानो उसके बदन से चिपक ही गयी थी। ऐसा लग रहा था मानो मूर्तिकार भी इसके सामने नतमस्तक हो जाये। बालो से पानी की बूंदे उसके नरम नरम होठो को सींच रही थी। मानो गुलाब की पंखुड़ियो को बूंदे आ आकर छलक रही थी। बहुत गजब लग रही थी।

"मेरी गाड़ी खराब हो गयी है। मोबाइल भी ऑफ हो गया है। क्या आप इन नम्बरो पर फोन कर देगे प्लीज काशी मीरा से मेरे लिए सहायता आ जायेगी।" उसने सकपकाते हुए कहा।

मैंने जेब से मोबाइल निकाला। "धत्त तेरे की! मेरे मोबाइल की बैटरी भी ऑफ है।"

आज तो मै भी मोबाइल चार्ज करना भूल गया था। इस कार में चार्जर भी नही है।

"क्या आप काशी मीरा तक छोड़ देंगे प्लीज?"

मेरा दिमाग तो ना कह रहा था पर दिल नही मान रहा था। हाइवे पर अक्सर ऐसी घटना होती रहती है जहा अंजान व्यक्तियों को लिफ्ट के बहाने लूट लिया जाता है। मन मे कश्मकश चल ही रही थी कि आवाज आई।

"प्लीज! यहां इस वक़्त मेरी मदद कीजिये और आप तो पुलिस वाले हो। इसलिए मैने गाड़ी रुकवाई।"

मैं तो भूल ही गया था कि आज गाड़ी तो मैं सुभान की लेकर आया हु। कासरवडवली जो कि ठाणे स्टेशन से घोडबंदर रोड पर करीब 12 किलोमीटर दूर है। नया शहर बसा है। वही आज उसके फ्लैट का मुहूर्त था। मेरी तवेरा गाड़ी की आज उसे जरूरत थी अपने मेहमानों के लिये। सो उसने अपनी आल्टो गाड़ी दी मुझे घर जाने के लिए। और जैसे कि हर पुलिस वाले कि गाड़ी पर लिखा हुआ होता है, उसी तरह उसकी गाड़ी पर भी लिखा हुआ था।

'मुम्बई पुलिस'

"साब! ये आ गया कॉटन ग्रीन स्टेशन"

मेरी जैसे तंद्रा टूटी हो। तुरंत रिक्शे से बाहर आया और उसे 20 का नोट थमाया।

थोड़ा और सोच विवेक! हुआ क्या था कल? वो रात, बारिश और लड़की! किसी फिल्मी प्लाट की तरह लग रहा है। शायद उसीने कुछ किया हो? चोर कही की। मेरी गाड़ी भी ले उड़ी होगी। पोलिस की गाड़ी उड़ा ली उसने। ध्यान था उसे फिर भी उसने ऐसा क्यो किया?

स्टेशन से ट्रैन पकड़कर मैं सीधे अपने घर की ओर रवाना हुआ। कॉटन ग्रीन हार्बर लाइन का स्टेशन है। मुझे दहिसर जाना था उसके लिए मुझे ट्रैन दो बार बदलनी थी। ट्रैन ने अपनी गति पकड़ी और मेरे दिमाग मे भी जैसे फिल्मी कैमरे की रील चल रही हो, फ़्लैश बैक की!

"आओ बैठो!"

कार छोटी सी है। पर भारत भर के कई लोगो की ये पहली कार थी। कार में हल्का हल्का म्यूजिक बज रहा था। और मैं कांच में उसी लड़की को देख रहा था। बला की खूबसूरत थी वो। अपने बालों से पानी छलका रही थी मानो घटाओ को ईर्ष्या हो गयी उसके बालो से। उसकी आंखों में एक अलग ही चमक थी। आंखे और भी सुंदर हो जाती थी जब हल्की सी मुस्कान उसके होठो पर करवट लेती। उसकी गर्दन सुराहीदार और लचकदार थी। मन मे बार बार कसक उठ रही थी। कभी ऐसे न लगा मुझे जो अब सिर्फ चंद मिनटों में लग रहा था। जैसे जैसे वो मेरे झहन में बसने लगी थी वैसे वैसे मदहोशी छाने लगी थी मेरे दिल मे। बात क्या करूँ? कैसे करूँ? यही सोच रहा था।

"आई एम विवेक"
"जी मैं सनाया हु"
" नाइस नेम"

लड़की के सामने पता नही क्यो मैं अंग्रेजी ही झाड़ने लग जाता हूं।

"कहा जा रहे हो? आई मीन कहा से आ रहे हो?" जा तो अब मीरा रोड ही थी। पता नही कैसी हड़बड़ाहट में सवाल पूछ बैठा। उसकी खूबसूरती के सामने मेरा मन नतमस्तक हो गया था।

"जी मैं विरार से आ रही थी। गलत टर्न ले लिया और यहां फंस गई। अंधेरे में साइन बोर्ड दिखे ही नही।"

"ओके! वैसे भी इस तरफ की सड़को पर लाइट नही होती। लाजमी है कि साइन बोर्ड दिखे न हो।"

उसने हामी में सिर हिलाया। मन बार बार उसे देखना चाह रहा था। पर अंधेरे में गाड़ी भी तो चलानी थी। जानबूझकर मैं 40 की स्पीड में चला रहा था जिससे और मौका मिले मुझे उससे बात करने का।

बाते करते करते हमने एक दूजे की पसंद नापसंद को भी पूछा। हमारे शौक,परिवार के बारे में वभी बाते हुई। लगा जैसे हम दोनो एक दूसरे को पहले से जानते हो। हमारे शौक, पसंद, नापसंद लगभग एक जैसे थी। मेरे छोटे छोटे मजाक पर उसका खिलखिलाकर हंसना। शुभानल्लाह! गजब दिखती थी वो। लगता था जैसे उसके मदहोशी के आलम में समा जाऊ। वो गीले होने की वजह से कॉप भी रही थी। मैंने होटल फाउंटेन पर गाड़ी रोकी।

"लेट्स हेव अ कॉफी फर्स्ट। इससे आप को बेहतर लगेगा।"

सनाया का अटपटापन सहज लग रहा था कि कैसे किसी अजनबी के साथ इत्ती रात को होटल में जाये और कॉफी पिये। पर अब काशी मीरा ज्यादा दूर नही था। सनाया भी साथ उतरी और सीधे वाशरूम की तरफ हो ली। मैंने दो कप कॉफी और सैंडविच का आर्डर किया। थोड़ी ही देर में सनाया आई और टेबल की तरफ बढ़ी। उसके आते हुए ऐसा लग रहा था मानो जन्नत खुद चलकर पास आई हो। उसमे एक अलग ही खुशबू थी जो मुझे रह रह कर उसकी ओर खींच रही थी। काफी के टेबल पर जैसे एक ताजगी आ गयी हम दोनों में। इस चकाचौंध में अब हम एक दुसरे को आंखों को अच्छे से निहार रहे थे। वर्जिश से कसा हुआ बदन, और नैन नक्श उभरे हुए किसी मोडल से कम नही हु मैं।

"सनाया! एक बात पुछु? प्लीज बुरा मत समझना के इत्ती रात को इस वक़्त किसी अनजान के सात बैठे हो और पर्सनल चीजे शेयर कर रहे हो। पर डु यु हैव एनी बॉयफ्रेंड? जस्ट ऐसे ही पूछ लिया। अगर जवाब नही देना है तो कोई नही"

और मैं यहां वहां देखने लगा। सनाया मेरी नर्वसनेस को भाप चुकी थी। सनाया को ये भी पता था कि मैं उसे लगभग घूर ही रहा था गाड़ी चलाते हुए। किसी भी लड़की के लिए ये बहुत ही आसान है पता लगाना की कौन उसे घूर रहा है और कौन नही? कौन किस नज़र से घूर रहा है ये भी उन्हें पता रहता है। सनाया को न जाने क्यों पर मुझ पर विश्वास आ गया था कि मैं अच्छा इंसान हु। हमारे बीच इस छोटी सी मुलाकात के रंग कुछ इस तरह बिखरे हुए थे के रह रह कर लग रहा था कि ये रात और सफर कभी खत्म न हो।

"नो! आई एम सिंगल" और वो मुस्कुराई। जैसे कई नगाड़े बज गए मन मे और मेरी खुशी संभलते नही सम्भली।

"वेरी गुड़, मी टू.. एम सिंगल..... ओह्ह सॉरी"

और सनाया फिर से खिलखिलाकर हसने लगी। अबकी बार रहा न गया और मेरे हाथों ने उसके हाथों को छूने की गुस्ताखी कर दी। हाथ के छूते ही वो चुप हो गयी और मेरे हाथसे अपना हाथ जल्दी से हटाते हुए टेबल पर से खड़ी हो गयी।

"हमे अब चलना चाहिए।"
"आई एम सॉरी.."

मैंने मुह को नीचे रखकर इतना बोला ही था कि सनाया होटल के गेट के पास तक पहुच चुकी थी। आंखे मिलाने की हिम्मत न हो रही थी। मैंने बिल चुकाया और उसकी गाड़ी की तरफ बढ़ चला।

गाड़ी के पास आकर देखा तो वो नदारद थी। मैंने यहां वहां देखा तो नही दिखी। मुझे लगा वो शायद गाड़ी की तरफ ही निकली थी होटल के गेट से बाहर पड़ने के बाद। पर बिल चुकाने के चक्कर मे ध्यान नही दिया। ओह्ह शिट! मेरी एक गलती से वो नाराज हो गयी और बिना बताए ही चली गयी। मैं फिर भी उसे ढूंढ रहा था यहाँ वहां। मुझे पता था कि उसके पास कोई साधन नही है। और ऐसी रात में किसी ने उसका बुरा कर दिया तो मैं अपने आप को कभी माफ नही कर पाता। पता नही किया हुआ के कुछ चंद पलो की ये मुलाकात से मैं उसके लिए इतना प्रोटेक्टिव क्यो हो गया। क्या करूँ? वापस जाऊ होटल में देखने। मैं फिर होटल की तरफ बढ़ने लगा। इतने में आवाज आई,

"विवेक, आई एम हियर"

वो पास ही लगी घुमटियो से कुछ सामान लेकर आ रही थी। मेरी जैसे सांस में सांस आई हो और बौखलाहट में बोल पड़ा।

"मुझे लगा तुम चले गए"

"ऐसे कैसे तुमको छोड़कर जा सकती हूं" तुम सुनते ही वापस नगाड़े बजने लगे दिल में जोर से धड़क -धड़क - धडक।

न जाने क्यों ये छोटी सी मुलाकात इत्ती प्यारी लगने लगी। पहले आजतक कभी ऐसा न लगा। कैसे मैं इस पर बिल्कुल मन्त्र मुग्ध हो गया हूं ये मुझे नही पता।

"भूख लगीं मुझे" उसने सकुचाते हुए कहा।

"पर अभी तो होटल से आए है हम!"

उसने अपना सिर नीचे कर दिया।

"ओह्ह, सॉरी अभी चलो वापस"

"नही होटल नही! वो सामने घुमटियो से मैंने वड़ा पाव लिए है। मेरी फेवरेट डिश है। मुम्बई जब भी आती हु रोज यही खाती हु। दिल्ली में तो मिलता ही नही। क्यो न फाउंटेन होटल के पास बने एक छोटे से क्यारी के बेंच पर इस पूर्णिमा की चाँद के नीचे इसे खाया जाए।"

मैंने भी नही सोचा था कि ये लड़की इतनी सिंपल होगी। हमने बेंच पर बैठकर कई लम्हो तक बाते की। एक दूसरे को पूरी तरह से जाना। कितनी मासूम और भोली है वो! मुझे लगने लगा कि मेरे लिए भी उसके दिल में कुछ चल रहा है। कुछ अच्छा चल रहा है। ऐसा लगा, मानो न उसे कही जाने में देरी हो रही है और न मुझे। उसने अपने हाथ अब मेरे हाथ पर रख दिया। मेरा दिल मानो अब बाहर ही आ जायेगा। जिंदगी की आप धापी बचपन से ही सीख ली थी। कठिन जीवन की वजह से कभी गर्लफ्रेंड जैसी चीजों के लिए टाइम ही नही मिला। अब कुछ सेट हुआ हूं तो ढंग की लड़की ही नही मिली। पर सनाया बिल्कुल अलग और सुंदर लड़की है। हर कोई उसे चाहेगा। मन मे विचार ऐसे आये ही थे कि उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया। एक पल ऐसा आया कि हम दोनों उस पूनम की चाँद में बिल्कुल ही करीब आ गए। इत्ते करीब के अब एक दूसरे की साँसे महसूस करने लगे। नही पता कैसे और कब, पर मेरे होठ उसके होठ से मिल गए। वो सकुचाई उसने और अपने होठ छुड़ाने लगी। पर मैं तो जैसे रसपान करने वाला भौरा बन गया। कुछ ही पलों में वो भी मेरे साथ बह चली। उस समय ऐसा लग रहा था जैसे में लहरों को छू कर उनसे अठखेलिया कर रहा था। उसकी जुल्फे उसके मुँह पर अठखेलिया कर रही थी। मैं उसके जुल्फे हटा ही रहा था कि उसने मेरा हाथ थाम लिया। उसने पहले तो रोक लिया मुझे पर उसके हाथ मेरे गठीले बदन पर पड़ते ही मानो उसमे एक बिजली कौंध गयी। हम चांदनी में एक दूजे को निहारने में लगभग खो ही गए थे। अप्रतिम सौंदर्य था उसका। अब भी याद करने पर रोंगटे खड़े कर देता है। तभी एक जोर का झटका मेरे सिर पर लगा और मैं बेशुद्ध हो गया। आंखे बंद होने से पहले लग रहा था कि जैसे किसी ने पीछे से किसी औजार से सर पर दे मारा। आवाजे धीरे धीरे मद्धम होती जा रही थी।

"कुछ ज्यादा ही रोमांटिक हो गयी थी उसके साथ, हा वेश्या कही की। जैसी माँ वैसी बेटी। काम भूल गयी थी अपना क्या? जाओ अब देखो कोई आ न रहा हो इस तरफ"

"पर ये तो पुलिसवाला है!!" सनाया ने कहा

"कोई पुलिस वाला नही है। ये देख इसकी पॉकेट। ये एक कम्पनी में बड़ी पोस्ट पर है। चल अब काम करने दे। जहा बोला वही रुकना। पीछा करते करते हम आगे निकल गए। पता नही कहा कहा नही ढूंढा तेरी गाड़ी को।"

"मुझे लगा पुलिस वाला है इसलिए अबकी बार कुछ नही करेंगे।"

"अरे पुलिस वाला होता तो क्या तेरा शौहर है? जो कुछ नही करेंगे। और तू तो बहुत कुछ कर रही थी इसके साथ। चल अब हाथ दे।"

इतना सुना ही था कि मेरी आँखें बंद हो गयी। फिर कुछ ऐसा हुआ होगा कि उन्होंने मुझे कार की पीछे वाली सीट पर रखा होगा और कॉटन ग्रीन पर फेंक कर चले गए होंगे। वडा पाव में भी मिलावट थी, जिसकी वजह से मैं इतनी देर बेहोश रहा। मुझमे गुस्सा बहुत था। जी कर रहा था के सनाया मिल जाये और मैं उसका खून पी जाऊ। मेरे साथ खिलवाड़ हुई। मैं भी पता नही क्यो बह गया था उसे देखकर। उसकी चिकनी चुपड़ी बातो में आ गया। उसकी मासूमियत में फंस गया। उसके सौंदर्य के सामने अपना विवेक खो दिया। खून खौल रहा था मेरा।

मैं दहिसर अपने घर पहुच गया था। माता पिता तो है नही और ना हि कोई और है जो मेरा इंतज़ार करता घर मे। घर की चाभी तो गाड़ी में ही रह गयी थी। डुप्लीकेट चाभी पड़ोस से लेकर मैंने अपना घर खोला।

घर खोलते ही सामने सनाया को पाया। मेरे होश फाख्ता रह गए।

"सनाया!! तुम!! यु बीच!!"

इतना कहकर मैं आगे ही बढा था उसपर हाथ उठाने, सनाया रो पड़ी।

"आई एम सॉरी! विवेक!"

मेरे हाथ रुक गए। औरतो का एक ही हथियार है, रोना -धोना। इसके आगे सभी बेबस हो जाते है। मैं कुछ और कहता ही था के वो शुरू हो गयी। मैं चुप चाप सब ही देख रहा था।

"मेरी माँ कोठेवाली थी। पैसो की तंगी बनी रहती पर उसने मुझे खूब पढ़ाया लिखाया और हमेशा मुझे इन सब चीजों से दूर रखा। मुझे होस्टल और होस्टल के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर भेज दिया था। पिछले साल माँ की तबियत बिगड़ी, मैं दिल्ली से आई तो पता चला उसे आँत में केंसर हुआ है.. लास्ट स्टेज। मैंने भरसक प्रयास किया उसे बचाने के लिए पर न तो मेरे पास पैसे थे और न ही साधन। कल जिसने तुम्हे सिर पर दे मारा उसका नाम रफीक है। वो मेरी माँ का दलाल है। उसीसे कुछ रुपये लिए थे माँ की इलाज के लिए। माँ तो नही रही पर कर्ज का बोझ जरूर रह गया। रुपये चुकाने के लिए मजबूरन मुझे ऐसे काम करने पड़े। मैं अपना जिस्म तो नही बेचना चाहती थी इसलिए सड़को पर राहगीरों को लूटने के काम करने लगी।"

"तो अब लूट लिया मुझे। कुछ बाकी बचा है जो घर भी लूटने आ गयी।" मैंने क्रोध स्वरूप देखा उसे।

"प्लीज विवेक! ऐसा न कहो। कल जबसे तुमसे मिली हु एक पल भी चैन से न बैठी हु। तुममे मुझे मेरा रब दिखा। मैंने कल तुममे उस इंसान को देखा है जिसकी चाह मैं न जाने कब से कर रही थी। माँ यही कहती थी कि एक दिन राजकुमार आएगा। और वो राजकुमार कल मुझे मिल गया.... विवेक।"

"ये चिकनी चुपडी बातो में अब न आऊंगा।"
मैं मेरे कबर्ड की तरफ बढ़ा और उसमें से नोटो की गड्डियां निकाली और सनाया की तरफ दे मारी।

"लो, और चाहिए तो मिल जायेंगे। जाओ अपना झूठा कर्ज उतार लो। मुझे तुमसे कोई हमदर्दी नही है। तुमने मेरी भावनाओ से खेला है। मैंने आज तक किसी लड़की को छुआ भी नही था। पता नही क्यो तुम्हे देखकर मैं मदहोश हो गया? मुझे मेरी गलती की सजा मिल गयी। अब जाओ यहां से वरना मैं पुलिस को बुलाऊंगा।"

सनाया समझ गयी थी कि अब वो कितना भी समझा ले मुझे पर मैं अब समझने वाला नही। पर एक बात वो समझ गयी थी के मेरे दिल मे उसके लिए अब भी सॉफ्ट कार्नर है। वरना वो पैसे निकाल कर उसकी ओर फेकना और पुलिस को अब तक खबर नही करना, यही इंगित करता है कि लौ अब तक बुझी नही थी।

"विवेक, मैं अब तुम्हे कैसे विश्वास दिलाऊ! मुझे माफ़ कर दो विवेक। मेरा अब इस जीवन मे और कोई नही है। मुझे अगर अब तुमने नही थामा तो मैं खो जाऊंगी इस देह व्यापार में विवेक। बचा लो मुझे"

"क्यो? है न रफीक! जाओ उसके पास जाओ" मैं झल्लाकर बोला।

"क्या तुम्हें याद नही कल क्या हुआ था?"

"क्या हुआ था?" मैं अचरज भरी निगाहों से उसे देखा।

"रफीक लूट पाट करने के बाद उस व्यक्ति को ही मार देता है।"

मैं सकपकाकर रह गया। "ये क्या कह रही हो तुम?" मैं चिल्लाया

"हा विवेक! पहले तो मुझे लगता था कि बस लूटपाट ही हो रही है। मैं लिफ्ट लेती और और वो दूर से मुझ पर नज़र रख कर गाड़ी का पीछा करता। गाड़ी रुकते ही वो आ धमकता और सिर पर रॉड से वार करता। फिर उसे उठा कर कभी वाशी के ब्रिज के पास जान से मार देता था। वहां कुछ मछुआरे उसके दोस्त है जो उस लाश को बीच समुंदर में फेंक आते। या कॉटन ग्रीन की फैक्ट्री में कोयले में डाल देता। जिससे उसका नामोनिशान ही नही रहता। जहा की सवारी वही नजदीक उसी को टिका देता। उसके गाड़ी के अस्थि पंजर कलीना स्तिथ गाड़ियों के पुराने मार्किट में तीतर बितर कर बेच देता जिससे पता ही नही चलता कि ऐसा इंसान या ऐसी गाड़ी भी कोई थी।"

"फिर मैं कैसे बच निकला?"

"मेरी वजह से। जैसे ही उसने तुम्हे गाड़ी की बैक सीट पर सुलाया। वो आगे आकर बैठ गया। मैंने कहा मुझे आज घर तक छोड़ देना। मेरी तबियत ठीक नही है। पहले तो नही माना। पर जैसे ही मैंने अपना हाथ उसके हाथ पर रखा वो मान गया। मैंने उससे ये भी कहा के बेहोशी का डोज ज्यादा है उठेगा नही। और मैं आज गर्म हो गयी हु। वो झट से मान गया।

उसने हल्की सांस ली और कहना जारी रखा,

"मैंने तुम्हारे वालेट में तुम्हारा आधारकार्ड देख लिया। गाड़ी में चाभी के गुच्छे भी थे। मैं समझ गयी थी के तुम कहा रहते है और हो न हो ये तुम्हारे घर की चाभी ही होगी। उसने दो फोन लगाए रास्ते मे। लोगो को आने के लिए बोल दिया अपने घर के पास। पूरे रास्ते मेरी झांगो पर हाथ फेरता रहा। पर मैंने सिर्फ तुम्हारे लिए उसे सहा। कॉटन ग्रीन फैक्ट्री के पास एक सुनसान गली में उसका घर है। कोयले का बड़ा बखारा है उसका। उसने गाड़ी से तुम्हे निकाला। वहां मौजूद दो लोगो मे एक को गाड़ी की चाभी दी। उस व्यक्ति ने रफीक को पैसे की एक थैली दी। वो मुझे घूरता हुआ गाड़ी में बैठा और वहां से चला गया। तुम वहां जमीन पर पड़े हुए थे गटर के पास। वो एक छोटीगाडी लेकर आया और तुम्हारे पास खड़ी कर दी। छोटी गाड़ी ऐसी थी के जैसे कचरा उठाने वाली होती है। पीछे उसका मुह खुला हुआ जिसमें जो चाहो डाल दो। तुम्हे लेने वो झुका ही था कि मैंने पास में पड़ी रॉड से उसका सर फोड़ दिया। वो वही अल्लाह कहकर बेहोश हो गया। दूसरा व्यक्ति वही पास खड़ा हुआ था। वो झटके से मेरी तरफ बढा। उसने मेरे हाथ से रॉड छीननी चाही पर मैंने उसके गुप्तांग पर किक मार दी। जैसे ही वो झुका उसके सर पर भी दे मारा। धड़ाम, से वो नीचे गिर गया। मैंने फिर वापस दोनों के सर पर कई बार रॉड से वार किया। जिससे वो फिर न उठे। उन दोनों को उस हाथ गाड़ी पर बड़ी मुश्किल से लिटाया। दोनों के ऊपर कोयले ही कोयले रख दिये। तुम्हे वही छोड़कर उनको लेकर उस छोटी गाड़ी से मैं वाशी के ब्रिज के पास आ गयी। वहां मछुआरों को मैंने गाड़ी सपुर्द कर दी। वे मुझे जानते थे। मैं रफीक के साथ कई बार उनसे मिली थी। उनको पैसे की वही थैली दे दी जो रफीक को उस व्यक्ति ने दी थी। रफीक और उस आदमी के चेहरे मैंने रॉड से बुरी तरह बिगाड़ दिए थे। मछुआरों ने मुझे रफीक के बारे में पूछा। मैंने बताया के अब मैं सम्भाल सकती हूं काम उसका। वो एक और को ठिकाने लगाने कॉटन ग्रीन में है। इस गाड़ी में दो है। इनको गाड़ी के साथ ठिकाने लगा दो। मैं इतनी कॉन्फिडेंस में थी के बात तो मान गए पर मुझे रात में देखकर उनके मन मे मेरे शरीर के प्रति लालच उठा। मैंने उन्हें जैसे तैसे सांत्वना दी कि अगली बार खुश कर दूंगी और वे मान गए।"

मैं तो जैसे बदहवास में चला गया। "तुम.. तुम... खूनी हो। तुम मेरे लायक नही। तुमने भले मेरी जान बचाई हो पर तुम नही बचोगी। वो गाड़ीवाले, वो मछुआरे, तुमको कोई नही छोड़ेगा। तुम अगर बाकियो से बच भी जाओ तब भी तुम्हारी अंतरात्मा। उससे कैसे बचोगी? यु आर अ कोल्ड ब्लडी मर्डरर...!!"

"हा, खून किये मैंने, पर किसके लिए किए मैंने। ऐसी जिंदगी नही जी सकती थी। पानी अब सर से ऊंचा हो गया था। कब तक आबरू बचाती अपनी। बिक गयी थी उनके हाथ। कठपुतली बन गयी थी। तुम मिले और मिलते ही लगा जैसे मेरी दुनिया खत्म नही हुई है। एक आशा दिखी थी मुझमे। अगर तुम नही चाहते की मैं तुम्हारे जिंदगी में आऊ। मैं जा रही हु। गुड़ बाय विवेक दुबारा नही आउंगी। आज मेरे जीवन का भी आखिरी दिन होगा। थैंक्स की तुम्हारे वजह से मैंने भी उनसे पीछा छुड़ा लिया।"

सनाया पीछे मुड़ी और अपने पर्स को लेकर दरवाजे की तरफ बढ़ चली। मुझे समझ नही आ रहा था कि क्या करूँ?? अंतर्द्वंद चल रहा था मेरे मन मे। रोकू या न रोकू। क्या सच कह रही है ये? क्या वाकई कल की रात मेरी आखिरी रात थी? क्या इस लड़की को जाने दु जिसने अपनी जान पर खेलकर मुझे बचाया? कुछ समझ नही आ रहा था। इतने में अंदर से आवाज आई। रोक ले विवेक इसे। जाने मत दे विवेक। ये लड़की सच बोल रही है। ये प्यार करती है तुझसे। सच्चा प्यार। जो आजकल मिलना मुश्किल ही नही बल्कि नामुमकिन है।

"रुक.. रुको..सनाया।"

सनाया के पैर रुक गए। पर वो मूडी नही। मैं उसके पास पहुंचा। "तुमने जो किया वो बहुत ही गलत किया है। पर मेरी जान बचाने का शुक्रिया। मैं भी तुमसे बेहद प्यार करने लगा था पर अविश्वास को चोट इतनी गहरी लगी के अब आसानी से विश्वास न हो रहा।"

मैंने उसके कंधो पर हाँथ रखकर उसे मेरी तरफ घुमाया। सनाया के आंखों से आंसू टपक पड़े। पर कुछ नही बोली।

"लुक सनाया। आई लव यू। बट आई हेट यू टू!!"

सनाया ने मेरी तरफ नही देखा और सामने दिवारपर घोड़े की पेंटिंग को देखती रही और मोती जैसे आंसू उसे गालो से टपकते रहे।

"मैं कैसे विश्वास दिलाऊ के मैं तुमसे प्यार करने लगी हु। एक बार अपना कर देख लो फिर कभी शिकायत का मौका नही दूंगी!"

इतना कहते ही वो वही बैठ गयी। अब मेरा गला भी रुंध हो गया था। मैंने उसे अपने दोनों हाथों से उसके कंधो को पकड़कर उठाया। उसकी आँखों मे सच्चाई देखी, और मेरा क्रोध पिघल गया। मैने उसे गले लगाया। उसने भी मुझे कसकर झकड लिया। हम एक दुसरे को लगातार चुंबन दिए जा रहे थे। होठो पर माथे पर, गालो पर, आंखों पर, गले पर...। वह भी मेरा बराबर साथ दे रही थी। उसका हाथ मेरे सर पर चोट की निशान पर पड़ गया और अनायास ही आह निकल गयी मेरे मुह से।

"ओह्ह,, सॉरी.. सॉरी... प्लीज मुझे माफ़ कर दो। आओ मैं पट्टी कर देती हूं तुम्हारी।"

"फर्स्ट एड बॉक्स बेडरूम के कबबर्ड में है। पर पहले मैं फ्रेश हो जाता हूं तुम भी दूसरे बेडरूम के बाथरूम में फ्रेश हो जाओ।"
"ओके"

थोड़ी देर बाद, मैं बाथरूम से बाहर आया। उसे मैंने सोफे पर मेरे टीशर्ट और केपरी में देखा। ढीले ढाले कपड़ो में वो अफलातून लग रही थी। मेरे मुह से आवाज निकली,"ओह्ह,, सनाया,, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो"

उसने कहा,"सनाया नही, मेरा नाम आफरीन है। वो तो मैं राहगीरों को युही बताती हु अपना नाम।"

फिर से मेरा माथा ठनका, और मैं जोर जोर से हंसने लगा। वो भी मेरे साथ हो ली। हंसते हंसते कब मैं उसके करीब पहुच गया। पता ही नही चला। सोफे पर हम आलिंगनबद्ध होगये थे। हमने एक दूजे के साथ कई क्रीड़ाएं की। एक दूजे को सर से पावतक चुम लिया। चर्मोत्कर्ष की हद पार होने पर भी फिर से दुबारा डूब गए एक दूजे के आघोष में। कब आंख लग गयी मेरी पता ही नही चला। जब मेरी आँख खुली तब सिरहाने एक पेपर रखा हुआ था

"मैं जा रही हु, हमेशा ..हमेशा ..के लिए। मुझे मत ढूंढना।
आफरीन उर्फ सनाया"

मैं तपाक से बिस्तर से उठ गया। अब ये क्या माजरा है। बाहर आया तो कबबर्ड खाली हो चुका था। घर का पूरा समान गायब था। टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, पॉकेट, पैसे, गोल्ड, कपड़े, सब कुछ गायब था। मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। वही सुभान का फोन आया,

"मेरी गाड़ी कहा है?"

मैं हडबडाया,, "मेरे.. मेरे... पास... क्या हुआ?

"अरे! क्यो झूठ बोल रहा है। मेरी गाड़ी का तो एक्सीडेंट हुआ है और वो अब चौकि में पड़ी है"

तब मैने सुभान को सारी आपबीती सुनाई। सुभान को मेरी बेवकूफी पर गुस्सा तो आ ही रहा था। पर धीर धर के उसने मुझे पोलिस स्टेशन बुलाया और रपट लिखवाने को कह दिया।

न जाने क्यों पर मन नही माना, और बिना FIR के ही वापस आ गया। एक्सीडेंट वाली गाड़ी में कोई न था। गाड़ी कॉटन ग्रीन से चेम्बूर के रास्ते पर पड़ी मिली थी। गाड़ी का आटोमेटिक इंजिन लोक हो गया था। गाड़ी बीचो बीच रास्ते मे खड़ी थी किसी और कि गाड़ी पीछे से रपट लगा गयी थी। स्टेशन थी।

मेरी किस्मत ही ऐसी है। न जाने कब सांसारिक सुख की प्राप्ति होगी। दिन हप्ते में बदल गए और महीने साल में। पर सनाया उर्फ आफरीन का पता नही चला। कभी कभी गुमनाम ग्रीटिंग कार्ड आ जाते थे। कुछ बिल्कुल खाली होते तो कुछ में दर्द ए दिल की दास्तां रहती। लगता मानो आफरीन ही भेजती होगी। पर अगले ही पल दिमाग उसकी चोरी की हरकतों को पर्दे पर ला देता। उसकी एक ही बात गूंजती मेरे मस्तिष्क में

'एक बार अपना के तो देखो शिकायत का मौका नही दूंगी'

शिकायत तुझसे नही है झालीम। बस मन मे सवाल है जो रह रह कर चुभता है। अगर उसे घर लूटना ही था तो ऐसे ही लुट लेती। उसने मुझे क्यो छुआ। क्यो मैं उसके साथ हो गया! उसने मुझे यूज किया और डस्ट बिन में फेंक दिया। मैं कही भी जाता ऐसा लगता मानो कोई आंखे देख रही हो मुझे। ऑफिस के बाहर, माल में, घर के बाहर। पर ये मेरा वहम ही होता। मन से उसे निकाल ही नही पाया था अब तक। फिर एक दिन वो हुआ जिसका अंदाज़ा तो न था पर दिल को विश्वास था। आफरीन दिखी मुझे।

पड़ोसी की किसी बीमारी की वजह से मैं डॉक्टर से मिलने बॉम्बे हॉस्पिटल गया हुआ था। डॉक्टर की ओपीडी के बाहर मैं और मेरा पड़ोसी वर्मा बैठे थे। पड़ोस में वर्मा और उनकी मिसेज रहती है। दोनों तकरीबन साठ के करीब थे पर उन्हें कोई बच्चा नही था। मुझ पर उनकी काफी इनायत रहती और मुझे वे अपना ही समझते। ऐसे में मेरा उनके बीमारी में साथ न देना ठीक नही। ओपीडी में बिल्कुल मेरे पीछे एक लेडी बुरखे में बैठी हुई थी। ओपीडी की लाइन बिल्कुल ही स्नेल स्पीड से चल रही थी। बोर होकर मैं यहां वहां देखने लगा। वही पीछे की लाइन में बुरखे में एक महिला बैठी हुई थी। उसकी आंखें जानी पहचानी सी लग रही थी। न जाने क्यों मैंने अपनी नज़र इसको ओर फिर दौड़ाई। वो मुझे ही एकटक देख रही थी। गहराई थी उसकी आँखों मे जैसे कोई चुभन लिए घूम रही हो। मुझे रह रह कर वो आंखे कुछ कहना चाह रही थी। पर मैं ही बार बार इग्नोर कर रहा था। जब आंखे उस पर न होती तब मन मे वही आंखे होती जो मुझसे कुछ कहना चाह रही थी। कुछ ही देर में वो बुरखे वाली उठ खड़ी हुई। मानो उसकी आंखें थक गई थी मुझसे जवाब मांगते मांगते!

वो लॉबी की ओर बढ़ने लगी। मुझे उसके जाते हुए न जाने ऐसा क्यों लगा के उन आंखो को मैं जानता हूं। मुझे यकायक आफरीन का ख्याल आया। मैं भी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उसके पीछे चल पड़ा। वो दूसरी मंजिल पर बनी ICU के वार्ड की तरफ बढ़ रही थी। उसने देख लिया के मैं उस पर नज़र रखे हुए था और उसके साथ कदम ताल कर रहा था। तेजी से वो मुड़ी और वार्ड के बगल के लिफ्ट में चली गयी। मैं भी तेजी से उस लिफ्ट की तरफ लपका। पर उसके लिफ्ट का दरवाजा मेरे पहुचने के पहले ही बंद हो गया था। लिफ्ट अब बेसमेंट में जा चुकी थी। मैं भी तेजी से सीढिया उतरते हुए फुर्ती से बेसमेंट तक पहुच गया। न जाने क्यों पर उसकी आंखें देखकर मेरे दिमाग ने यह तय कर लिया था के ये आफरीन ही थी। आज उसे न जाने दूंगा।

बेसमेंट पर पहुचने के बाद वहां खड़ी गाड़ियों के अलावा और कुछ दिख नही रहा था। कुछ गाड़ियों की लाइट चमक रही थी। कुछ अंदर आ रही थी तो कुछ बाहर जा रही थी। तभी स्कूटी के स्टार्ट होने की आवाज आई और पूरे रेस कर सरपट दौड़ती हुई दिखाई दी। ये वही थी बुरखे वाली। बेसमेंट के बाहर जाने का रास्ता घुमावदार था। वो लगभग एक घुमाव को पार कर चुकी थी। मैं लपक कर घुमावदार गली समान रस्ते पर आ गया। सामने से बिल्कुल तेजी से गाड़ी आ रही थी उससे बचने के लिए दूसरी गली में कूद गया और सीधे उस स्कूटी से टकरा गया।

बुरखा हट चुका था। सामने आफरीन ही थी। पर.. उसके बाल नही थे। बिल्कुल ही गंजी थी। कमजोर लग रही थी। शरीर सुख गया था। होठ सूखे पत्तियों के समान लग रहे थे। त्वचा पतझड़ के समान रूखी रूखी सी लग रही थी।

"आफरीन... तुम?? आफरीन ही हो न तुम..? क्या हो गया तुम्हे?"

उसने कुछ नही कहा। बस हल्की सी मुस्कान उसके रूखे होठो पर फड़फड़ाई और वो खड़ी हो गयी।

पीछे से गाड़ी ने जोर से हॉर्न दे मारा। मेरी बदहवासी को जैसे किसी ने झकझोर दिया। मैं भी उठा और स्कूटी को एक तरफ की।

"आफरीन कैसी हो? और क्या हो गया तुम्हे?"
"मैं ठीक हु जान। तू बता कैसा है? इतने ग्रीटिंग कार्ड भेजे तूने कोई जवाब नही दिया। मैं तो हर दिन तेरे पास से गुजरती थी। पर तूने ध्यान ही नही दिया।"

अब बात क्लियर हो रही थी। कैसे मुझे ये एहसास होता कि ये कोई आंखे मुझे देख रही थी। ऑफिस के बाहर, माल में ,घर के बाहर। और जब मैं गौर से देखता तब तक ये आंखे गायब हो जाती। किसी और की आंखे ही पाता। मैं इसे अपना वहम मानता और इग्नोर कर देता।

"जान! मुझे जान मत कहो। तुम्हारी जान तो पैसा है। जो तूने खूब कमाया। मुझ जैसे पता नही कितनो को लूटा तुमने। हर पल हर दिन यही सोचता के तुम कितनी नीचे गिर गई हो। दिल मे जहर भर दिया है तूने। क्रोध आता है अपने आप पर और तुझ पर। तिल तिल मरता हु रोज। धोखा दिया तुमने मुझे।"

आफरीन सुन रही थी। मानो वो तैयार थी इसके लिए। पर कुछ नही बोल रही थी। मेरे गुस्से का ज्वालामुखी शांत हुआ। हम दोनों ही थे बेसमेंट पर। अचानक जैसे सारी गाडियो का शोर खत्म हो गया एक पल के लिए। वो मुझे देख रही थी और मैं उसे। कुछ लम्हो बाद वो जोर जोर से हंसी।

"तुम हँस क्यो रहे हो? मुझे बहुत तड़पाया है तुमने"

"ये तड़प भी क्या चीज होती है। खुद तड़पे तो अग्नि की तरह धधकते हो और कोई तड़पे तो सहानुभूति भी कम ही दिखती है। तुम तो तिल तिल जल रहे थे, मैं तो मर रही हु!"

"हा तेरी सहानुभति नही चाहिए। क्यो मुझे यूज करके तूने फेक दिया। और क्या हो गया तुझे। कब मर रही है तू?"

"तुझे छोड़ती नही तो क्या करती। माँ तो पहले ही कैंसर से मर चुकी थी। मैं नही चाहती थी कि मेरे केंसर की वजह से तू भी घुट घुट कर मरे।"

मेरे तो जैसे पैरो तले जमीन ही खिसक गई।

"केंसर!!... किसे तुम्हे?? अब कौन सी नई कहानी बना रही हो। अब मैं तेरी कहानी में न आनेवाला"

हालांकि उसकी हालत बदतर लग रही थी। पर दिल नही मानना चाहता था कि आफरीन को कैंसर है।

"मुझे केंसर था। पर मुझे तेरा प्यार भी मिला। जीवन में कोई कसक बाकी नही रही। नही चाहती थी के तेरी जिंदगी नरक बनाऊ। पैसे तो थे नही। और न ही वैसा काम फिर करना चाहती थी। लूट तो मैं गयी ही थी तेरे प्यार में। सोचा तुमको पूरा लूटकर मेरी बची खुची जिंदगी के पल के लिए दवा दारू की व्यवस्था हो जाये। इतनी नफरत कर ले तू मुझसे की मेरी शक्ल ही न देखना चाहे। पर तु फिर भी न बदला। तेरी आंखे मुझे ही ढूंढ रही थी। कल ही डॉक्टर ने कहा के मेरे पास ज्यादा से ज्यादा 3 से 4 हप्तों का समय है। सोचा आज जी भर के देख लू तुझे। इसलिए पास आ गयी थी तेरे। पर तूने आखिर पकड़ ही लिया अपनी चोर को। मुझे माफ़ करना... विवेक!"

मैं सुनकर अवाक रह गया। मेरी आंखों से आंसू की बूंद बनकर गालो पर आ टिकी। सारी तकरार, उलझन, परेशानी,, सब छू सी हो गयी। मैंने उसका हाथ थाम लिया।

"एक बार मुझ पर भरोसा तो करती। सारी कायनात से लड़ लेता तेरे लिए। हर मुमकिन इलाज करता।" पर उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया।

"ये मुमकिन नही है।"

मैंने फिर कभी उसका हाथ न छोड़ा। उसकी देख रेख में ही सारा समय बीतने लगा। दिन के 20 घण्टे में उसके साथ रहता। उससे बाते करता। उसे संवारता। उसका पूरा ध्यान रखता। दिन रात एक कर दिए थे। उसे सारी खुशियां देने की भरसक प्रयास किया। उसके दर्द को कम करना चाहा। कुछ ही दिनों में हमने एक दूजे को रिंग पहनाई। उस दिन उसे पूरे मुम्बई की हेलीकॉप्टर की राइड करवाई। बहुत खुश हुई थी उस दिन। बच्चो जैसी खिलखिला रही थी वो।

ठीक तीन दिन बाद वो मुझे छोड़, इस दुनिया को छोड़ चली गयी। मैं फिर अकेला रह गया। जीवन में उस लिफ्ट की घटना को भुला नही पाया हूं। यू लगता है कि वो लड़की हर पल हर वक़्त मेरे साथ ही है। पर न उसे छू सकता, न देख सकता। बस आभाश से लगता है कि वो मुझे ही देख रही है।

***********समाप्त*************


- भरत ठाकुर

© All rights reserved