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अखिलेश्वर बाबू

वह सुनसान और उजड़ा हुआ सा इलाका था। करीब से करीब का गांव भी वहां से तीन चार किलोमीटर दूर था। रास्ता,सड़क कहीं कुछ नहीं, झाड़ झंकाड़, धूल धक्कड़, तीखी और तल्ख़ धूप, सीधे सूरज की। छांव के लिए कुछ नहीं। रेतीला मैदान, कहीं कहीं टीले टापरे ।
रेगिस्तान में भूले बिसरे दिख जाने वाले कंटीले झाड़ नुमा एकाध पेड़ और छितरी हुई ऐसी ही झाड़ियां,वो भी कहीं कहीं।
पानी का दूर दूर तक नामो निशान नहीं।एक ओर किनारे पर पहाड़ी सा दिखने वाला भाग,और करीब ही पथरीली जमीन का टुकड़ा। आसपास किसी कच्ची बस्ती के भी दर्शन दुर्लभ।
हवा चलने पर धूल के बगूले से उठते, भंवर नुमा घेरे बनाते, फ़िर इधर उधर होकर न जाने कहां विलीन हो जाते। लू के थपेड़े से लगते।मगर इस गर्म हवा के चलने से देह पर पसीना नहीं चिपचिपाता था।
इस आदम विहीन वीराने ने शायद बरसों बाद आबादी देखी थी। लगता था जैसे वह नीरवता पहली बार मानस गंध महसूस रही हो।
पांच सात छोटे मोटे पेड़ों का एक झुरमुट सा देख कर वहीं पड़ाव डाला गया था। पास ही पास दो तीन टेंट लगाए गए थे।नजदीक ही थोड़ी थोड़ी दूर पर नाममात्र की छाया तलाश कर दोनों गाडियां और ट्रक खड़े किए गए थे।
ऊबड़ खाबड़ कच्चे रास्ते को पार करके यहां तक आने में गाड़ियों का रंग भी धूल से मटियाला सा हो गया था। उन पर अंगुलियों के निशान से कुछ भी लिखा जा सकता था। ट्रक अभी तक लदा खड़ा था। उसका सामान उतारा नहीं गया था। जीप की ट्रॉली जो टेंट आदि सामान लाद कर लाई गई थी, भीषण गर्मी में भट्टी सी तप रही थी।
नजदीकी गांव में भी ज़्यादा सुविधाएं मुहैया नहीं थीं,फ़िर भी वहां आबादी थी। टूटी फूटी सड़कें भी थीं जो चालीस पचास किलोमीटर और आगे जाकर गांव को एक कस्बानुमा शहर से जोड़ती थीं। गांव की आबादी दो तीन हज़ार लोगों की थी।जरूरत भर का सामान गांव में ही मिल जाता था। फ़िर ज़रूरतें होती भी कितनी हैं ऐसे इलाकों में रहने वालों की?
वे लोग दो तीन दिन रहने के इरादे से आए थे,और उतने समय के लिए ज़रूरत भर का बंदोबस्त करके भी लाए थे।
इस जगह को अखिलेश्वर बाबू ने अपनी फ़िल्म के कुछ दृश्यों को फिल्माने के लिए चुना था। इस फ़िल्म की बेहद दिलचस्प और मार्मिक कहानी अखिलेश्वर बाबू ने खुद लिखी थी।
कुछ महीने पहले भी एक दो दिन के लिए वह इस गांव में आकर भी गए थे। तब इसकी एक वज़ह थी।
एकाएक वह गांव अखबारों की सुर्खियों में कुछ इस तरह उछल गया था कि देश के अलावा पूरी दुनिया के लोग भी यहां की खबरों को चाव से पढ़ने लगे थे।
हादसा ही कुछ ऐसा था।सर्वथा गुमनाम सा रहने वाला ये गांव रंगीन तस्वीरों के साथ प्रसिद्ध अखबारों में दिखाई देने लगा, टी वी चैनल पर दिखने लगा।
लाखों लोगों ने यहां का दिल दहला देने वाला वृतांत दिल थाम कर पढ़ा। सभी जगह व्यापक प्रतिक्रिया हुई।
संसद तक में नाम उछला। सत्ताधारियों से इस्तीफ़े मांगे गए। इंसानियत का वास्ता दिया गया। युग की दुहाई दी गई।
दरअसल बात ये थी कि उस गांव की एक महिला ने अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता पर बैठकर अपनी जान दे दी थी।सती हो गई थी वह।
सारा घर,समाज और गांव तमाशा देखता रह गया। पुलिस भी तब पहुंची जब राख से अंगारे निकलने बंद हो गए। हां,तपन बाक़ी थी।
बाद में पुलिस आत्म हत्या का केस दर्ज करके मौक़े पर मौके बेमौके आनी शुरू हो गई।
पर लोगों के लिए वो स्थान जैसे कोई तीर्थ बन गया।दूर दराज के हज़ारों लोग उस पवित्र स्थान के दर्शनों को आने लगे।सती के नाम पर वहां एक मंदिर बनाने की घोषणा भी हुई,और लोग बढ़ चढ़ कर उसके लिए सहायता भी देने लगे।
अखिलेश्वर बाबू भी गए थे उस गांव में। उनके वहां जाने का एक खास मक़सद था।
वह बरसों से अपने जेहन में फ़िल्म बनाने के लिए एक ऐसी कहानी की स्क्रिप्ट लिए बैठे थे, जिसकी नायिका अपने पति के दिवंगत हो जाने पर उसके साथ जीते जी सती हो जाती है।
आख़िर कैसी प्रेरणा होती है ये,जो दो जिस्मों को इस तरह एकाकार कर देती है कि एक के जीवित न रहने पर दूसरे को भी अपना अस्तित्व नज़र नहीं आता। कौन सा दर्शन है इसके पीछे?
कोई दैवी शक्ति या फ़िर रिवाजों की बेड़ियां और परंपराएं अथवा समाज का दबाव!
माहौल का अध्ययन करने की ललक के साथ साथ कोई भावनात्मक शक्ति भी थी जो शायद अखिलेश्वर बाबू को उस गांव में खींच ले गई।
उन्होंने करीब से देखा उस ठंडी चिता को,जिसकी राख़ शोलों से कहीं अधिक भड़कता हुआ अतीत लेकर सामने बिखरी थी।
उस दिन के बाद से उनके जेहन में बसी वह कहानी कुछ और मुखर हो गई। वे अब अपनी कोशिश को कामयाबी का जामा पहनाने के लिए बेताब से रहने लगे।
समय ने उनके लिए साधन जुटाए,सब बंदोबस्त हुए, और अखिलेश्वर बाबू ने अपनी फ़िल्म आधी से अधिक बना डाली थी।उन्होंने कहीं कोई कोर कसर नहीं छोड़ी,एक एक दृश्य पर मेहनत की ।
फ़िल्म का कुछ भाग उन्होंने उस गांव में ही फिल्माया था,और अब कुछ नाज़ुक और अहम दृश्यों के फिल्मांकन के लिए वह इस नितांत वीरान निर्जन में चले आए थे।
ये अखिलेश्वर बाबू जैसे गंभीर और कलानिष्ठ प्रोड्यूसर का ही बूता था कि फ़िल्म की सारी यूनिट उनके साथ बिना किसी हीलो हुज्जत के इस बियाबान में चली आई और ' संतोषप्रद' काम के लिए भटकती फ़िर रही थी।
छोटे से टेंट में भीतर बिछी दरी पर बैठे अखिलेश्वर बाबू अपना चश्मा हाथ में लिए कुछ सोच रहे थे।कमर को सहारा देने के लिए उन्होंने किनारे पर गढ़ा हुआ लकड़ी का एक खूंटा चुना था जो बाहर की तरफ़ से टेंट को सहारा दे रहा था और अब भीतर से उनकी थकी हुई देह को थाम रहा था।
उनकी तंद्रा तब टूटी,जब अल्बर्ट पानी का गिलास लेकर सामने अा खड़ा हुआ। उस इलाक़े में पानी की बड़ी किल्लत थी। वहां रहने वालों को पीने का पानी बड़ी दूर से भर कर लाना पड़ता था। पानी के लिए दो तीन किलोमीटर रोज़ आने जाने वाली जीवट वाली औरतें वहां देखी थीं अल्बर्ट ने।
अखिलेश्वर बाबू ने चलते वक़्त तीन चार बड़े घड़े भी पानी से भरवा कर ट्रक में रखवा लिए थे।
उन्होंने पानी आधा ही पिया और गिलास अल्बर्ट को थमाने लगे।तभी कुछ सोचकर उन्होंने गिलास फ़िर होठों से लगा लिया।अल्बर्ट ने अपना आगे बढ़ा हाथ पुनः पीछे खींच लिया।पानी पूरा पीकर उन्होंने गिलास पास ही रख दिया। अल्बर्ट ने झुककर गिलास उठाया और बाहर चला गया।
अब तक वे अपना ब्रीफकेस खोल चुके थे।एक फाइल निकाल कर सामने रखी ही थी कि बाहर से हवा का एक बगूला सा उठा,और धूल गोल घूमती हुई भीतर चली आई। फ़ाइल से कुछ काग़ज़ फड़फड़ा कर इधर उधर हो गए। वे किसी को आवाज़ दे पाते,इससे पहले ही एक काग़ज़ उड़ता हुआ बाहर चला गया।
लेकिन तभी उसे झपट कर हाथ में पकड़े हुए शिशिर ने प्रवेश किया।उनकी फ़िल्म का नायक शिशिर शायद बगल वाले टेंट से हाथ मुंह धोकर उनके पास ही अा रहा था।चेहरे से ताज़गी टपक रही थी।
उन्होंने काग़ज़ शिशिर के हाथ से लेकर फ़ाइल पर रखा और उसे एक छोटे पत्थर से दबा दिया। फिर शिशिर से मुखातिब हुए -
- कैसी लगी ये जगह ?
- जवाब नहीं आपका भी,लेकिन ऐसी जगह के लिए यहां तक चले आने की क्या सूझी आपको? ऐसी जगह तो वहां आसपास भी मिल जाती।शिशिर ने कहा।
- हां,मिल सकती थी मगर ...कह कर रुक गए वे।उनका चेहरा बता रहा था कि जैसे उनके भीतर कोई शब्द नहीं,बल्कि कोई सैलाब उमड़ रहा है शब्दों का,जो बाहर आने के लिए ठेलम पेल कर रहा हो,इसी उथल पुथल ने उन्हें कुछ बोलने नहीं दिया।वे खामोश रह गए।
शिशिर अब तक टांगें पसार कर बैठ चुका था,और उसने वे काग़ज़ अपने सामने कर लिए थे जो उन्होंने ब्रीफकेस से निकाल कर रखे थे।
अखिलेश्वर बाबू एकाएक बोल पड़े।जैसे कहीं दूर से बोल रहे हों - मुझे लगता है कि पत्थर टीले घास फूस और ऐसी मिट्टी तो हमें कहीं भी मिल सकती थी,मगर इस जगह में इन सब के अलावा भी कुछ ऐसा है जो मुझे यहां तक खींच लाया है। मुझे महसूस होता है कि यहां की हवा में एक ऐसी गंध बसी है कि...
- मगर उस गंध या हवा को आप कैमरे में क़ैद कर पाएंगे ? देखने वालों को महसूस होगी वो! शिशिर ने किंचित मुस्कराते हुए कहा। शिशिर बाईस साल की कच्ची उम्र का युवा लड़का था,और अखिलेश्वर बाबू बुज़ुर्ग,पर वह उनकी फ़िल्म का नायक होने के कारण उनसे काफ़ी खुला हुआ था। वह उनकी बेवजह भावुक हो जाने की आदत को भी जानता था। गाहे बहाने उनके फलसफे से दो चार भी हो चुका था।
- मैंने कहा था न, मैं देखने वालों के लिए नहीं बना रहा ये फ़िल्म...फ़िर जैसे अखिलेश्वर बाबू को अपनी ही बात के अटपटे पन का अहसास हो गया और वे अचकचा कर चुप हो गए।
शिशिर कुछ कहता इसके पहले ही अल्बर्ट ट्रे लेकर अा गया और दरी पर पुराना अखबार बिछाकर खाने की प्लेट रखने लगा।
फ़िल्म की नायिका झरना भी अा गई। भूख भी लग आई थी सबको।टेंट के भीतर तीनों को खाना देकर बाहर इकट्ठे हुए लोगों के बीच भी खाना बांटने लगा अल्बर्ट।
खाने से निपट कर जल्दी ही सेट लगा और शूटिंग शुरू हो गई। रात ग्यारह बजे तक काम चला ।
अखिलेश्वर बाबू काफ़ी संतुष्ट दिखे काम से।सोच रहे थे कि इसी तरह पूरा कर सके तो तीन दिन में यहां से लौट सकेंगे।
एक जीप रात को ही शिशिर कुमार और झरना सारंग को लेकर चली गई।अखिलेश्वर बाबू ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी। ऐसी जगह पर रात को झरना को रुकना पसंद भी नहीं था,और ये महफूज़ भी नहीं था। कस्बे के एक गेस्ट हाउस में शिशिर और झरना के लिए ठहरने का प्रबंध कर दिया गया था,जो दूर ज़रूर था पर साफ सुथरा और सुविधाजनक था।
रात को जब ताम झाम ठिकाने करके यूनिट के बाक़ी लोग टेंटों में लौटे तो थक कर चूर हो चुके थे।
जो जिस हाल में था,झटपट सोने के लिए अा गया। गर्मी की रात का एक बजे का समय।
केवल अखिलेश्वर बाबू ही भीतर टेंट में थे, बाक़ी सब बाहर।
अल्बर्ट को तो सोते सोते सब काम समेटने में डेढ़ बज गया ।
लेटते ही आगोश में ले लेने को नींद जैसे छिपी ही बैठी थी। थोड़ी ही देरमें चारों ओर सन्नाटा हो गया।
रेतीला इलाका होने से चारों ओर बालू ही था। बालू जिस तरह धूप में जल्दी गरम होकर जल्दी तपने लगती है,उसी तरह शाम के बाद ठंडी भी जल्दी हो जाती है। यही कारण था कि उस शीतल चांदनी रात को देखकर ये गुमान भी नहीं होता था कि ये तपते हुए झुलसा देने वाले दिन की ही रात है। पेड़ों पर पक्षियों के फड़फड़ाने का स्वर कभी कभी सुनाई दे जाता था। रुई के सफ़ेद टुकड़ों से बादल साफ़ आकाश में कहीं कहीं पैबंद सा लगा रहे थे। चांद जब ऐसे किसी टुकड़े को छू देता तो जैसे गुस्ताख होकर और भी जल्दी जल्दी चल पड़ता।
अल्बर्ट अपनी दरी पर गहरी नींद में डूबा हुआ था कि एकाएक खटके से उसकी आंख खुली। चौंक कर उसने मुंह उठा कर इधर उधर देखा। कहीं कुछ न था।वह निश्चिंत होकर फ़िर सो गया।
लेकिन एक बार नींद उचट जाने से उसे थोड़ी बेचैनी सी हुई।उसने करवट बदल कर आंखें बंद कर लीं।
तभी उसे महसूस हुआ जैसे कहीं आसपास से किसी के चलने की आहट अा रही है।वह चौंका।
एक कंधे से उसने ज़मीन पर ज़रा ज़ोर डाल कर गर्दन को घुमाया। पास के पेड़ से तभी दो तीन चिड़ियों के फड़फड़ा कर उड़ने की आवाज़ आई।
अल्बर्ट का ध्यान उधर हो गया। निस्तब्धता भी उसे कुछ संदिग्ध सी लगी। वह एकाएक उठ बैठा और मटके के पास आकर पानी पीने लगा।
गिलास फ़िर से रख कर वह सोने के लिए पलटा ही था कि एकाएक बुरी तरह चौंक गया।
सामने सौ गज की दूरी पर उसने देखा कि एक मानव आकृति धीरे धीरे चलती हुई झाड़ियों और सूखे पेड़ों की ओर आगे बढ़ रही है।
सिर से पांव तक एक सिहरन से कांप गया अल्बर्ट।
सिर से पांव तक एक सिहरन से कांप गया अल्बर्ट !
एकाएक उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे।बुरी तरह डर भी गया था वह। चिल्लाने की हिम्मत नहीं हुई।उसे अपना अब खड़ा रहना भी सुरक्षित नहीं लगा।वह जल्दी से लेट गया और शरीर को चादर से ढक लिया।फ़िर औंधा होकर उस आकृति की दिशा में टुकुर टुकुर देखने लगा।आकृति दूर होती जा रही थी।
अल्बर्ट को फ़िर नींद न आई।उसने कई बार सोचा कि भीतर जाकर अखिलेश्वर बाबू को, या फ़िर पास में सोए हुए कुछ लड़कों को ही जगा ले।मगर आकृति अब आंखों से ओझल हो चुकी थी।
अल्बर्ट की वह रात करवटें बदलते ही बीतने लगी।
लगभग चार बजे होंगे जब उनींदे से अल्बर्ट को फ़िर एक गहरा आघात लगा।
उसने देखा सफ़ेद दुशाला कंधे पर डाले मंथर गति से लौटते वे अखिलेश्वर बाबू ही थे।ऐसा लगता था मानो सुबह की सैर करके लौटे हों।
अल्बर्ट सोता रहा,उसने जाहिर नहीं होने दिया कि उसने अखिलेश्वर बाबू को जाते और आते हुए देख लिया है।
रात बारह बजे हार थक कर सोए अखिलेश्वर बाबू रात को दो बजे उठ कर कहां चले गए,इस मथते हुए सोच को परे धकेल कर अब अल्बर्ट निश्चिंत होकर सो पाया।
सुबह जब उसकी आंख खुली तो अखिलेश्वर बाबू थोड़ी दूर पर खड़े हुए थे।उनके एक हाथ में टूथ ब्रश था,शायद दांत साफ़ कर चुके थे।बाक़ी लोग पानी की बोतलें लेकर इधर उधर निवृत्त होने अा जा रहे थे। उसे अचंभा हुआ कि वह इतनी देर सोता रहा और किसी ने उसे जगाया नहीं।वह झटके से उठ बैठा।
अल्बर्ट जब चाय का प्याला लेकर अखिलेश्वर बाबू के टेंट में गया तो उसे रात वाली घटना का स्मरण हुआ। पर उनसे कुछ पूछने का साहस वह नहीं जुटा पाया। वे स्वभाव से ही इतने गंभीर थे कि उनके सामने बड़े बड़े लोग भी आसानी से बोलने की हिम्मत नहीं करते थे।परिहास के क्षणों में भी एक मर्यादा से आगे बढ़ने की छूट वे किसी को नहीं देते थे।अल्बर्ट ने कई नामी गिरामी लोगों को भी अखिलेश्वर बाबू की डांट चुपचाप खाते सुना था। बार बार कोशिश करके भी वह कुछ नहीं पूछ सका।
दोपहर ग्यारह बजे के करीब धूल उड़ाती हुई जीप आ पहुंची। स्टेयरिंग पर खुद शिशिर ही बैठा था। झरना भी नहा धोकर तैयार हो आई थी।अल्बर्ट ने झटपट पानी के मटके और दूसरा सामान पीछे से उतार कर रखा।
आज दिनभर काम के बीच अल्बर्ट मौका तलाशता रहा कि किसी तरह रात की बात अकेले में शिशिर को बताए।आखिर मौक़ा भी उसे मिल गया।
पड़ाव से दो किलोमीटर की दूरी पर शूटिंग चल रही थी।शिशिर को हल्का सा सिर दर्द महसूस हो रहा था। उसने ड्राइवर से कहा कि उसे टेंट तक छोड़ आए,वो थोड़ी देर आराम करना चाहता है। वहां अभी उसका कुछ काम भी नहीं था, झरना और सहेलियों पर कोई दृश्य फिल्माया जा रहा था।
वह गाड़ी में बैठा ही था कि अखिलेश्वर बाबू अल्बर्ट से बोले- तुम भी साथ में चले जाओ, चाय के साथ टेबलेट दे देना।
अल्बर्ट तो जाने कब से ऐसे अवसर की ताक में ही था,लपक कर जीप में बैठ गया।
अल्बर्ट से सारी बात सुनकर शिशिर चौंका नहीं,बल्कि कुछ गंभीर हो गया।
अल्बर्ट चाय बनाने चल दिया।
शिशिर ने टाई की नॉट ढीली की और तकिए को बांहों में भर कर अधलेटा सा हो गया। ख़ुद उसे भी महसूस हो रहा था कि कोई न कोई बात ज़रूर इस जगह से अखिलेश्वर बाबू को जोड़े हुए है।उसे उनकी बात याद आई- ये मिट्टी ये मैदान तो कहीं भी मिल जाएंगे,पर इस जगह बहने वाली हवा में कुछ ऐसी गंध है जो...।
कुछ देर सो लेने के बाद शिशिर अब हल्का महसूस कर रहा था।बाक़ी लोग अभी लौटे नहीं थे।
अल्बर्ट की बात सुनने के बाद शिशिर ने आज रात यहीं ठहरने का फ़ैसला किया था।
वह अखिलेश्वर बाबू से कुछ पूछना नहीं, बल्कि सच्चाई का खुद पता लगाना चाहता था।वो जानता था कि पूछने पर तो अखिलेश्वर बाबू भावुक होकर बहकी बहकी बातों में ही सब टाल जाएंगे।
झरना जब शिशिर को बुलाने आई तो शिशिर वहां नहीं था, आसपास कहीं घूमने निकल गया था।
अल्बर्ट ने झरना को बताया कि शिशिर सर आज रात को यहीं रहेंगे तो झरना ने एक बार भी इसका कारण नहीं पूछा, बल्कि वह ड्राईवर से तुरंत बोली- चलो, और गाड़ी ऊंचे नीचे रास्तों पर हिचकोले खाती हुई आखों से ओझल हो गई।
शाम को झरना के चले जाने के बाद भी जब अखिलेश्वर बाबू ने शिशिर को वहीं देखा तो पहले तो ज़रा चौंके,पर तुरंत ही उनका चेहरा खिल गया।
खाना खाकर टेंट में लेटने के बाद दोनों में कुछ देर बातें होती रहीं।अखिलेश्वर बाबू दिन भर के थके हुए थे,मगर शिशिर दोपहर में आराम कर चुका था,फ़िर भी उसने ऐसा जताया कि उसे नींद अा रही है और जल्दी ही सो गया।
बाक़ी सब लोग भी टेंटों के बाहर सो चुके थे।अल्बर्ट भी लेट गया था।
शिशिर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि दिनभर की मेहनत मशक्कत के बाद थक कर सोए अखिलेश्वर बाबू रात को करीब दो बजे उठकर कंधे पर अपना दुशाला डाल कर बाहर चल दिए। शिशिर उस समय तो गहरी नींद में होने का आभास देता रहा,पर उनके कुछ दूर जाते ही दबे पांव उठकर बाहर आ गया।
उसने धीरे से थप थपाकर अल्बर्ट को जगाया। अल्बर्ट तुरंत उठ बैठा,शिशिर ने इशारे से उसे कुछ देर रुकने के लिए कहा।
सभी गहरी नींद में थे।शिशिर और अल्बर्ट ने काफ़ी दूरी बना कर अखिलेश्वर बाबू का पीछा किया।वह ऐसा मैदानी क्षेत्र था कि काफ़ी दूर से भी चलता हुआ इंसान साफ़ नज़र आता था।
झाड़ियों से बचते,अपने को छिपाते उन दोनों ने देखा कि अखिलेश्वर बाबू क़रीब डेढ़ किलो मीटर दूर एक ऐसी जगह जा पहुंचे जहां थोड़ी ही दूर पर एकाध झोपड़ियां दिखाई दे रही थीं। पास ही पथरीली सी ज़मीन पर पास पास चूने और पत्थर के पुराने कब्र नुमा चबूतरे पर सिंदूर लगे पत्थरों को आडा तिरछा जमाकर देवताओं का सा आकार दिया गया था।
संभवतः गांव के लोग लोकदेवताओं के इस स्थान पर श्रद्धा से माथा टेकते रहे होंगे।
अखिलेश्वर बाबू उसी चबूतरे की सीढ़ियों पर जा बैठे थे। उन्होंने अपना हाथ माथे पर इस तरह रखा हुआ था जैसे कुछ सोच रहे हों।
उन्हें काफ़ी देर इस तरह बैठे देख शिशिर ने एक बार तो उनके पास चले जाने का मानस बनाया,मगर अल्बर्ट ने इशारे से उसे रोक दिया।
अल्बर्ट को याद था कि एक बार मुंबई में इसी तरह उनकी तंद्रा भंग करके फिल्मस्टार संजीव कुमार को किस बुरी तरह उनसे डांट खानी पड़ी थी।
होश खो बैठते थे ऐसे में अखिलेश्वर बाबू।
कुछ सोचकर शिशिर वापस मुड़ा और दोनों तेज़ क़दमों से चलते हुए वापस अपने पड़ाव में चले आए।
अल्बर्ट तो यहां आते ही सो गया पर शिशिर को रात गए तक नींद न आयी।
सुबह के हल्के धुंधलके में लौटकर जब अखिलेश्वर बाबू वापस अपने बिस्तर पर आए,शिशिर गहरी नींद में सो रहा था।
बाक़ी लोग भी बेखबर सो रहे थे। चारों ओर नीरवता व्याप्त थी।परिंदे भी शायद अभी तक भोर की अगवानी करने जागे नहीं थे।
अखिलेश्वर बाबू ने यहां तीन ही दिन का कार्यक्रम बनाया था,और आज आख़िरी दिन था।
वे आज यहां का काम शाम तक पूरा कर लेना चाहते थे ताकि अगली सुबह ही डेरे तम्बू उखाड़ कर वापस लौट सकें।
आज उन्हें फ़िल्म का एक अहम दृश्य फिल्माना था। मूल रूप से ये फ़िल्म का केन्द्रीय दृश्य ही था।
उस कस्बे में,जहां होटल में अभिनेता शिशिर कुमार और एक्ट्रेस झरना सारंग ठहरे हुए थे, काफ़ी लोगों को ये खबर लग चुकी थी कि पास के एक गांव में फ़िल्म की शूटिंग हो रही है। आसपास के गांवों में भी खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल चुकी थी।
लोगों का हुजूम वहां जुड़ना शुरू हो गया था।
लोग बैल गाड़ियों पर, सायकिलों पर, स्कूटरों पर या पैदल चल कर शूटिंग देखने आने लगे थे।
वैसे भी आज के दृश्य के लिए लोगों की बड़ी भीड़ की ज़रूरत पड़ने वाली थी, इसलिए अखिलेश्वर बाबू का निर्देश था कि ज़्यादा से ज़्यादा आदमियों औरतों का बंदोबस्त किया जाए।
यूनिट के ट्रक में भर भर कर भी लोगों को लाया जा रहा था।
बूढ़े, युवा, बच्चे, औरतें सब। अब तो नौबत ये अा गई थी कि भीड़ को काबू कैसे किया जाए!
मेला सा जुड़ गया था वहां।एक विशाल घेरा बना कर लोग खड़े थे,और आते जा रहे थे, शरीक होते जा रहे थे।
यह अखिलेश्वर बाबू का रोबीला व्यक्तित्व ही था, जो लोगों को सख्त आदेशात्मक स्वर में निर्देश देता हुआ वहां पुलिस की कमी को पूरा कर रहा था।
एक बड़ा सा चबूतरा बना कर चिता का दृश्य सजाया गया था।लगता था जैसे सच में किसी के महा प्रयाण की तैयारी है।
शोर शराबे के बावजूद वहां शमशान का सा एक सन्नाटा स्वतः निर्मित हो गया था।
ऐसा मार्मिक दृश्य देख कर भीड़ स्तब्ध थी और एकटक होकर देख रहे थे लोग।
कुछ औरतों को तो अभी से आंखें पौंछते देखा जा रहा था।
कुछ लड़के और युवक बार बार घेरा तोड़ कर उस ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे थे जहां एक कुर्सी पर नववधू का सा श्रृंगारिक मेक अप करके फ़िल्म तारिका झरना सारंग बैठी हुई थी।
सहसा विश्वास नहीं होता था लोगों को।झरना पूरी तरह गांव की बालाओं की तरह ही लग रही थी।
कैमरे फिट किए जा चुके थे, लाइट की व्यवस्था घूम घूम कर खुद अखिलेश्वर बाबू देख चुके थे।
एक छोटा सा दल झुंड बना कर एक ओर खड़ा था। इनमें कुछ लोगों के हाथों में खड़ताल, मंजीरे, ढोलक आदि थी, मानो कोई नृत्य संगीत मंडली हो।
अंधेरा होने में कुछ देर थी।चारों ओर विचित्र उत्साह सा होते हुए भी एक अनदेखी निसब्धता वातावरण में घुली हुई थी।
शायद उस दृश्य ने लोगों की भावनाओं को छू लिया था।
अखिलेश्वर बाबू एक एक कलाकार को, एक एक व्यवस्था को बार बार करीब से परख तौल कर देख रहे थे।
सामने खड़ी टोली के एक एक सदस्य को अलग अलग समझा कर निर्देश दिए थे उन्होंने।
कुछ देर झरना के पास भी खड़े रह कर उसे भी समझाया था उन्होंने।
शिशिर खामोशी से एक चौकोर पत्थर पर बैठा सारा नज़ारा देख रहा था। उसके पीछे खड़े लोगों की भीड़ में से कुछ चेहरे बार बार उचक उचक कर उसे देखने की कोशिश कर रहे थे।
लोग भी खुसर फुसर कर रहे थे।
कभी कोई झरना की ओर अंगुली उठा कर किसी के कान में कुछ कहता,तो कभी लोग चिता को देखने लग जाते।
महिलाओं में झरना को लेकर काफ़ी उत्साह था।
छोटे बच्चों का कौतूहल इस बात को लेकर था कि अभी यहां आग लगेगी।
जब ऊंचे स्वर में अखिलेश्वर बाबू ने कैमरा मैन को आवाज़ दी तो सबका ध्यान उधर चला गया।
कुछ बच्चे इस इंतजार में थे कि आग जलेगी और ये दुल्हन की तरह सजी धजी लड़की उसमें बैठ कर जल जाएगी।
तभी झरना उठी।अखिलेश्वर बाबू एक ओर हट गए।
कैमरे के फ़ोकस गतिशील हो गए। लाइटों के अतिरिक्त चमक डालने के लिए बड़े शीशे इधर उधर रखे गए थे।
झरना के चेहरे पर गहरा मेक अप था।
दो तीन बार में दृश्य लिए गए। ढोल मंजीरे वाला दल अपना काम किए जा रहा था। उनका ध्यान अपने सुरों पर नहीं बल्कि अपने हाव भाव और चेहरों की जीवंतता पर था। कैमरा घूम कर अनपर भी जा रहा था।
तभी शिशिर ने गौर किया कि एक बहुत बूढ़ा सा आदमी बिल्कुल उसके करीब बैठा कुछ बुदबुदा रहा है।बरबस शिशिर का ध्यान उस पर चला गया।वह गौर से बूढ़े को देखने लगा,जो खुद एकटक अखिलेश्वर बाबू को देखे जा रहा था।उसका ध्यान उनके अलावा और कहीं नहीं था।
पांच छः औरतों का एक दल हाथों में थालियां उठाए झरना की ओर बढ़ा। उनमें से कुछ औरतें बिसूरते हुए आंखें पौंछ रही थीं। झरना उनकी ओर खामोशी से सूनी आखों से देख रही थी।
सिद्धहस्त अभिनेत्री झरना ने अपने हावभाव से देखने वालों की नज़रों में नमी ला दी थी।
अखिलेश्वर बाबू आगे बढ़े- नहीं ! नहीं , रोना नहीं !
वह बूढ़ा अब भी गौर से उन्हीं को देखे जा रहा था।
झरना ने कुछ संवाद बुदबुदाकर एक महिला के हाथ से नारियल लेकर अपनी गोद में रख लिया।
एक तरफ़ से थोड़ी सी आग भी लगा दी गई।जिस पर लपटें बढ़ाने वाली सामग्री डाल डाल कर दृश्य लिए जा रहे थे।
मृत पति के रूप में एक पगड़ी आंचल से ढकी हुई झरना की गोद में रखी थी।
लोगों ने देखा,अब अखिलेश्वर बाबू एक पांच छह साल के बच्चे को कुछ समझा रहे हैं। लड़का ध्यान से उनकी बात सुन रहा है।
बूढ़ा आदमी अब भीड़ के घेरे में ही सरकता सरकता अखिलेश्वर बाबू के बिल्कुल पास आ गया था।
अखिलेश्वर बाबू ने लड़के को समझाया कि उसे किस तरह बोलते हुए इस दिशा में दौड़ना है।
फ़िर पराधीन, परवश से अखिलेश्वर बाबू एकाएक संवाद बोलकर ,अभिनय करके खुद उसे दिखाने लगे- मां नहीं... मां नहीं.. नहीं... माई री,तू कठे चाली..??..?. माई री.. मां... बापू री सोच है तने... म्हारी नई.. मां, मां मने भी सागै ले र चाल... नहीं मां !
और लोगों ने देखा कि बोलते बोलते अखिलेश्वर बाबू का गला भर्राकर रूंध गया। वह ज़ोर से रोने लगे। लड़का हतप्रभ रह गया। उसे दृश्य समझाने वाले इतने बड़े बुजुर्ग रो पड़े।
शोर सा मच गया।
लोगों ने दिल थाम कर देखा वह दृश्य,जिसे अखिलेश्वर बाबू ने अभिनीत करके दिखाया,और जिसे करते करते वे स्वयं बिलख बिलख कर रो पड़े।
शिशिर व दो तीन अन्य लोगों ने दौड़ कर उन्हें थामा, सहारा दिया।सभी हतप्रभ थे।
तभी वह बूढ़ा झटके से उठकर सबको परे धकेलता हुआ आया और अखिलेश्वर बाबू को बुरी तरह झिंझोड़ कर,बदहवास सा चिल्लाने लगा- तू कुण है रे ? तू अखिल्या है के ?? बोल..बोल तो सरी, कौन है तू... जुवाब दे म्हारी बात रो बेटा... रो मत..
वह बूढ़ा बुरी तरह अखिलेश्वर बाबू से लिपट गया और दोनों फूट फूट कर रोने लगे।लोग हैरान थे।किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।वे दोनों इस तरह की हृदय विदारक चीखों के साथ रोए कि भीड़ की कई औरतों व बच्चों की आखें भी भीग गई।
शूटिंग पैकअप हो गई। सारा सामान झटपट समेटकर ट्रकों में डाला जाने लगा। हैरान परेशान लोग इधर उधर लौटने लगे।
शिशिर ने फुर्ती से सबको वहां से हटा दिया और अखिलेश्वर बाबू को तत्काल जीप में बैठाया।
उसने बूढ़े को भी साथ में लिया और रवाना हो गया।
स्टेयरिंग पर बैठा शिशिर कनखियों से बार बार बगल में बैठे उस बूढ़े आदमी को देख रहा था जो अखिलेश्वर बाबू को किसी बच्चे की तरह थाम कर गाड़ी में चुपचाप बैठा था।
वह बूढ़ा दूर के रिश्ते में अखिलेश्वर बाबू का काका होता था,जिससे ये मार्मिक दास्तान शिशिर को सुनने को मिली।
बरसों पहले इसी गांव में जब किसी बीमारी के बाद अखिल के बापू की देह मिट्टी हो गई तो उसके साथ ही अखिल की मां भी चिता पर चढ़ गई। मां को सबके देखते देखते आग की लपटें लील गईं और अखिल्या चीखता चिल्लाता रह गया।
उसी रात घर छोड़ कर भाग गया अख़िल्या !
बरसों उसकी कोई खोज खबर नहीं मिली।
उड़ती फिरती अफवाहें कभी कभी गांव में आती रहीं, कोई कहता, वो बंबई भाग गया...कोई कहता बड़ा आदमी बन गया। कोई कहता सड़कों पर पला, कोई कहता...।
और आज छियासठ साल बाद गांव को फ़िर मिला अखिल !
अपने बचपन को एक बार फिर जीता हुआ, अपने दर्द को अपना सपना बनाकर ज़माने भर को दिखाता हुआ अखिल... नामी गिरामी फिल्मकार अखिलेश्वर बाबू !

प्रबोध कुमार गोविल
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