जो घर फूंके अपना - 29 - तू तू मैं मैं Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 29 - तू तू मैं मैं

जो घर फूंके अपना

29

तू तू मैं मैं

मुखर्जी का टीवी चकनाचूर होकर कितने टुकड़ों में बिखरा इसकी चिंता करना अब बेकार था. इतना साफ़ होते ही हम बाकी के तीन साथियों ने अपने अपने किरदार संभाले और वही करना शुरू कर दिया जो सारे अच्छे दोस्त और निकट संबंधी ऐसे दुखद अवसरों पर करना अपना कर्तव्य समझते हैं. अर्थात जोर जोर से मुखर्जी को बताना शुरू किया कि वह कितना बेवकूफ है.

‘हमने तो पहले ही कहा था’ की टेक पर बोले हुए अगले कई वाक्य ऐसे थे:- ‘लौटते समय खरीदना था, पता नहीं अभी लेने की ऐसी भी क्या जल्दी थी. ” “लोग देख कर क्यूँ नहीं चलते,खैरियत है कि गेट का शीशा नहीं टूटा’ ‘टूटता कैसे, जापानी ग्लास का होता है, मेड इन इण्डिया थोड़ी था. ’ ’तू हमेशा इण्डिया की बुराई क्यूँ करता है?’ ‘मैं कब करता हूँ, तू ही रोता रहता है” ‘मैं क्यूँ रोऊँ, रोयें तेरे घरवाले’

अंतिम दोनों वाक्य बोलने वाले, गुप्ता और कपूर आपस में इतनी जोर से लड़ पड़े कि मैं उन दोनों को समझाने बुझाने में लग गया. बेचारा मुकर्जी चुपचाप चकनाचूर टीवी के छोटे छोटे टुकड़ों को चुनकर वहाँ से हटाने में लगा रहा. गुप्ता और कपूर की लड़ाई तो जल्दी ही शांत हो गयी पर कपूर जो स्वभाव से अन्धविश्वासी था बड़ी देर तक दुहराता रहा “यार शीशे का टूटना बड़ी बद्शगुनी होती है. मेरे भाई साहेब की शादी में उनको शरबत पिलाते हुए उनकी साली के हाथ से छूटकर शीशे का गिलास टूट गया था. बाद में पता चला कि दहेज़ में मिले सारे गहने नकली थे. ’’

मुकर्जी भिन्ना कर बोला “अब तेरी शादी होगी तो कहीं तेरी बीबी नकली लडकी न निकल आये. और इस बार तो बहुत महँगा शीशा टूटा है बदशगुनी भी बड़ी ही होगी. ” देर हो रही थी अतः बात बढ़ने नहीं पायी. हम वापस विमान पर आये और यात्रा के अगले चरण की उड़ान भरने में व्यस्त हो गए.

इसके बाद सौभाग्य से और कोई गड़बड़ी नहीं हुई. हमारा विमान सकुशल मास्को के हवाई अड्डे पर उतरा. भारतीय दूतावास से हमारी अगवानी के लिए आया अधिकारी हमें कस्टम से शीघ्र निकलवाकर बाहर खडी रूस में निर्मित बड़ी सी काली ‘जील’ मोटरकार जो शकल सूरत में हमारी एम्बेसडर कार की अम्मा और भैंस की बहन लगती थी, तक ले आया. बाहर आते ही हमें जीवन में पहली बार बस से लेकर क्रेन तक चलाने वाली अच्छी खासी तंदुरुस्त महिलायें मुस्तैदी के साथ अपनी ड्यूटी बजाते दिखीं. उन्हें देखकर गुप्ता कुछ परेशान सा होकर बोला “यार,मेरी मंगेतर ने एक बढ़िया लोंजरी ( lingerie)की फरमाइश की थी,लगता नहीं उसकी साइज़ की यहाँ मिल पायेगी. ”

कपूर बोला “बच्चों के कपड़ों की दूकान में पूछना शायद मिल जाए. ”

मुकर्जी बोला “तुम शाळा पंजाबी लोग खाली ऐसा ही माफिक चीप बातें कोरेगा. लोंजरी, नाइटी की शोपिंग ही कोरता रहेगा. अरे रूस आया है तो एकठो स्वान लेक बैले देखो ना भाई, तारपोरे मास्को का फेमस आर्ट गैलेरी चोलो”

शर्म के मारे हम सबने सह्मति में अपने सर हिलाए. कपूर मेरे कान में धीरे से फुफुसाया “इस बेवकूफ ‘कल्चर वल्चर’ के साथ हम अपनी शामे नहीं बर्बाद करेंगे’’

फिर हम चुपचाप एयरपोर्ट से मास्को शहर ले जाने वाले चौड़े राजमार्ग के दोनों ओर बर्फ से ढंके ऊंचे ऊंचे बिना पत्तियों के सरो के पेड़ों की उदास ख़ूबसूरती में खो गए जो अँधेरे में आते जाते वाहनों की रोशनी में रह रह कर चमक जाते थे. शाम के सात ही बजे थे पर मेघाच्छादित आकाश के अमावस्या जैसे अँधेरे की पृष्ठभूमि में दूर जगमगाता हुआ मास्को एक ऐसे रहस्य जैसा लग रहा था जिसका तिलस्म अब हमारे लिए टूटने ही वाला था. कुछ देर में हम शहर के अंदर दाखिल हुए और हमारी कार जब दिल्ली के राजपथ जैसी एक शानदार सड़क पर आई तो दूर क्रेमलिन के प्याज के आकार के रंग बिरंगे गुम्बद दिखाई पड़ने लगे. जल्दी ही हमारी कार दुनिया के तत्कालीन सबसे बड़े ‘होटल रोस्सिया’ के पोर्टिको में जाकर रुक गयी.

मास्को में हम तीन दिन रुके. क्रेमलिन. लेनिन की समाधि, आर्ट गैलेरी, टीवी टावर के रिवोल्विंग रेस्टारेंट से लेकर मशहूर रूसी सर्कस और लाजवाब स्वानलेक बैले तक सब कुछ देख डाला. शौपिंग के ऊपर कोई समय नहीं खर्च किया. मिन्स्क में उसके लिए पर्याप्त समय मिलेगा. अंत में मास्को से केवल दो घंटों की छोटी सी उड़ान भरकर हम मिन्स्क के उस खूबसूरत शहर में पहुँच गए जिसका वर्णन हमारे सीनियर्स इन्द्रसभा के वर्णन के अंदाज़ में करते थे.

रूस आकर पिछले चार दिनों में मैंने अपने रूसी भाषा ज्ञान को रगड़ रगड़ कर चमकाया था. मेरे टूटे फूटे वाक्यों में धीरे धीरे रवानगी आ रही थी. बीच बीच में गलत शब्द बोलकर उनकी जगह सुझाए हुए नए शब्दों को ‘तोचना तोचना’ कहते हुए सीख लेने में मैं पारंगत हो गया था. कपूर ने मुझे अक्सर इस शब्द का प्रयोग करते हुए सुना तो बहुत मासूमियत से पूछा “रूसी भाषा में क्या ‘भैन्चो’ को ‘तोचना’ बोलते हैं? उत्तर में मैं बस मुस्करा दिया. एक तो वाकई में साधारण बातचीत में इस का तकियाकलाम के तौर पर मैं इस्तेमाल नहीं करता था. फिर मुझे एक दोस्त ने कभी समझाया था कि लड़कियों को पटाने के लिए आदमी को दूसरों से थोडा हटकर अपनी छवि बनानी चाहिए. पर लडकियां, जैसा कि मैं अभी तक लगातार बताता आया हूँ, मेरी ज़िंदगी में जियादा आयी ही नहीं थीं. रूस आकर, विशेषकर मिन्स्क पहुंचकर,पहली बार मुझे लगा था कि जब इतनी सुन्दर सुन्दर तन्वंगी, सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली लडकियां चारों तरफ प्रकृति की देन की तरह बिखरी हुई हैं मुझे कम से कम एक बार किसी लडकी से दोस्ती करने का गंभीर प्रयत्न करना चाहिए. मेरे साथी लोग कुछ ज्यादा आक्रामक ढंग से रोमांटिक होने के प्रयत्न कर रहे थे. मुझे थोडी शालीन भाषा और सौम्य मुद्रा बनाए रखनी चाहिए ताकि “थोड़ी हटके” वाली छवि बन सके. यूँ भी कपूर के प्रिय शब्द ‘बैंचो‘ के समानार्थी किसी रूसी शब्द से मैं परिचित नहीं था. अगर होता भी तो प्रयोग नहीं करता

रूसी भाषा बोल सकने की क्षमता में जब सौम्य मुद्रा और शालीन लहजे का पुट डाला गया तो उसका तुरंत फायदा हुआ. हमें रूसी हवाई जहाज़ कारखाने की तरफ से एक महिला दुभाषिया मिली हुई थी. नाम था लीना जो मिन्स्क के पास की एक नदी का नाम भी था. अपने नाम को सार्थक करती हुई लम्बी,छरहरी,तन्वंगी,शर्मीली लीना में वो सब था जिसके रूस में देखने की थोड़ी सी भी आशा हम मास्को में क्रेंन और बस चलाने वाली तंदुरुस्त महिलाओं को देखकर त्याग चुके थे. लीना हमारे होटल में सुबह नौ बजे आ जाती थी. हम साथ नाश्ता करने का आग्रह करते तो अधिक से अधिक एक कप कॉफ़ी हमारे साथ ले लेती थी. हमारे साथ ही विमान कारखाने जाती थी मिनीबस में बैठकर सारा दिन हमारे साथ बिताने के लिए. हमे जहाज़ को सौंप देने के बाद पहला एयर टेस्ट आठ दस दिन बाद करना था अतः हम खानापूरी करके वहाँ से घंटे दो घंटे में भाग निकलते थे. लीना सारा दिन हमारे साथ मिन्स्क शहर और आस पास की दर्शनीय जगहों को घुमाते हुए टूरिस्ट गाइड और दुभाषिये दोनों का काम करती थी. दिन में हम खाना खाते तो हमारे साथ एकाध सैंडविच ले लेती थी पर शाम होते ही हमें होटल वापस पहुंचाकर छः बजे तक वापस चली जाती थी. डिनर साथ लेने के हमारे हर निमंत्रण को वो बेहद प्यारी मुस्कराहट के साथ ठुकरा देती थी. इतनी मीठास के साथ कि हमें ज़रा भी बुरा न लगे. दो तीन दिनों के बाद जब बेतकल्लुफी थोड़ी और बढी तो उसने हमारे बार बार इसरार करने पर बताया कि जहाज़ फैक्टरी (वहाँ के सन्दर्भ में सरकार समझ लीजिये) के निर्देशानुसार वह हमारे साथ शाम को फैक्टरी के काम के घंटों के बाद समय नहीं बिता सकती थी. हमने बात मान ली और फिर आग्रह करना छोड़ दिया. लीना पूरी कोशिश करती थी कि हम पाँचों पर बराबर ध्यान दे और किसी एक में अधिक दिलचस्पी न ले. पर मेरे रूसी भाषा बोलने के प्रयत्न से वह बहुत खुश होती थी और बराबर मुझे प्रोत्साहन देती थी कि मैं उससे रूसी भाषा में ही बात करूँ. ग़लत बोलता था तो सुधार देती थी और मैं अपनी ग़लती छुपाने के लिए “तोचना तोचना “ करता रहता था. भाषा नजदीकियां लाती है और लाई. मैं आयु में अपने पाँचों साथियों में सबसे छोटा था –लीना से थोडा ही बड़ा. उनमे से मैं,गुप्ता और कपूर कुंवारे थे पर गुप्ता की मंगेतर थी. बचा कपूर,तो रूसी भाषा के घोड़े पर सवार होकर रेस में मैं उससे काफी आगे निकल रहा था. बाद में तो स्थिति ये हो गयी कि मुझे और लीना को रूसी में गुटरगूं करते देखकर वो मुझे अपना “बैंचो” राग सुनाने लग जाता था-निश्चिन्त होकर कि लीना समझेगी नहीं. पर लीना भाषाविद थी. एक दिन मुझसे बोली “ ये फ्लाईट लेफ्टिनेंट कपूर क्या बैंजो बजाने के बहुत शौक़ीन हैं बात बात पर उसका ज़िक्र करते हैं ?” पर मैं बात को टाल गया. कहा “ नहीं,नहीं ! पंजाब के हैं. उन्हें घर की याद बहुत आती है तो ऐसे ही बताते हैं अपनी भाषा में. ”

क्रमशः ------------