निर्मम अंधेरे
‘‘ हे....दीदी, तू हिजड़ी है का ?‘‘
-छुटके ने तपाक से बोला तो डेहरी पर से लहसुन का झाबा उतारती नैय्या भीतर तक सुलग गई। छुटके को घूर कर निहारा। वह जैसे उसकी निंगाहों के ताप से सिहर सा गया और उछल का भाग खड़ा हुआ। 16 साल की नैय्या ने डेहरी पर से लहसुन का झाबा उतारा और रसोई की ओर चली गई। एक विचित्र सी वितृष्णा उसके भीतर घुल गई। अम्मा पर क्षोभ सा हुआ।
‘‘ ई अम्मा तो जिनगी नर्क बनाय दिहिस है। जाने कऊन सा मंत्र पढ़ाय दिहिस हम्मैं कि जीना दूभर होई गया।‘‘
ये बात नय्या लगभग डेढ़ साल से सुनती आ रही थी। अब तो उसके कान भी पक गए थे। कई बार इस बात को ले कर उसका सखियों में और दूसरी लड़कियों से झगड़ा भी हो चुका था। बाहर जाती तो सखियाँ उसके मजे लेतीं-
‘‘ हे..... नय्या, तैने तो मजे हैं। हर महीने की झंझा से फुर्सत।‘‘ तो दूसरी बोलती-
‘‘ पर तेरे सीने तो ई बात नाहीं कहते कि तू....‘‘ -फिर सारी सखियाँ खिलखिला के हँस पड़तीं। नैय्या पे घड़ों पानी पड़ जाता। खीझ उठती।
-नय्या को मन ही मन झुंझलाहट होती।
‘‘ ई कउन से जंजाल में फंसाए दिहा भगवान। कऊन अईसे कांटें निकल आए हैं हमरेम कि सभै हिजड़ी-हिजड़ी कहि के जीना दूभर किहे हैं‘‘
उसे याद है जबसे अम्मा ने उसे ‘‘वो‘‘ बात समझाई थी, और बड़की भाभी से उसने अम्मा की कही बात दोहराई थी, तभी से ये उसे ऐसे उलाहने मिलने लगे थे। पर लोगों को उससे कौन सी दुश्मनी है वह कभी समझ ना पाई। गांव की लड़कियों के इस बर्ताव से वह इतनी आहत हुई कि उसने घर से निकलना ही बंद कर दिया। पाठशाला भी छोड़ दी। माँ बड़बड़ाती रहती कि -‘‘ जाने का रख्खा है ई घरेम कि बाहेर निकलतय नाहीं...चार अच्छर पढ़ जाती ता कमसकम एक ढंग का घर तो मिल जात। आज कल तो अपढ़ लड़कियन का वरय नाहीं नसीब होत हंय मगर ई महारानी की समझ मां आवै तब ना ‘‘ कई बार उससे पूछा भी-‘‘ तू स्कूल जईय्हौ कि नाहीं...ई घरेम घुसी-घुसी का उखारा करती हौ ?‘‘
‘‘ घरेम पढ़ि लईब ‘‘- वह खामोशी से उत्तर देती।
‘‘ हुं....ह जनै कऊन घर-घुसनू परेत सवार होई गवा है।‘‘
-कहती हुई अम्मा इधर उधर टहल जातीं। वह पढाई के नाम पर खाली समय में किताब में देख-देख नकल उतारती रहती। हालांकि स्कूल की वह मेधावी छात्रा थी पर जबसे उक्त अफवाह फैली मन स्कूल से भी भागने लगा। कक्षा में कुण्ठित और क्षुब्ध सी बैठी रहती। उस दिन स्कूल में बड़े मनोयोग से बैठी अपना प्रिय विषय गणित पढ़ रही थी। एक के बाद एक सारे सवाल हल करती जा रही थी मगन सी, कि कक्षा अध्यापक नीरज मास्साब ने गुहारा-
‘‘ नय्या, काम ?‘‘
वह मगन। कोई जवाब नहीं। पुनः गुहारा- ‘‘ नय्या, कुछ कह रहा हूँ‘‘ वह फिर भी हिसाब में गुम। तभी एक अन्य सहपाठिनी ने चुटकी ली-
‘‘ मास्टर जी, हिजड़ी कहा जाये तब सुनी।‘‘ तत्क्षण पूरी कक्षा कहकहों से घुमड़ पड़ी। मास्टर जी भी पहले तो मुस्काए फिर सहसा कुछ सोच कर उस लड़की को घुड़का-
‘‘ चुप रहो नालायक कहीं की। ‘‘ लेकिन कहकहों ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। अपने पर कसी गई इस कुत्सित फब्ती पर वह रूआंसी हो गई। लड़के भी उसे देख धीमे-धीमें मुस्कुरा रहे थे। नय्या के अंदर जैसे शूल उतर गया। चेहरे पर पसीने की बूंदे चमकने लगीं। लगा कई पहाड़ों का बोझ उसके कंधों पर आ के टिक गया हो जैसे। उसने झुंझला कर पुस्तक नोटबुक और कलम दवात समेट कर बस्ते में खोंस लिया और मन ही मन मास्टर जी को गरियाया-
‘‘ या मास्टरौ बड़ा हरामी हय‘‘
-खैर ऐसे ही माहौल से उक्ता कर वह धीरे-धीरे स्कूल से कटने लगी। फिर जाना ही बंद कर दिया। अम्मा अधिक तंग करती पढ़ने के लिए तो झल्ला कर बस्ता उठा लेती और कहीं दूर खलिहान के किसी कोने में या फिर किसी अमराई की तरफ निकल जाती और कभी कुछ पढ़ती लिखती या फिर मन नहीं चाहता तो किसी घने बिरूए पर चढ़ी बैठी रहती। कभी केाई उसे वहाँ देख लेता तो गुहारता-
‘‘ हे...हे... हिजड़िया हिंयां का करत हीं..?
-उसके भीतर सहसा कुछ टूट जाता। कहीं व्याह-बारात में जाती तो भी ऐसी निरर्थक फुसफुसाहटें उसका पीछा करती रहतीं। कभी बात सामने आ भी जाती तो अम्मा जरूर सबके लत्ते ले लेती। ललकारती-
‘‘ खबरदार जो हमरी बिटियप उंगली उठाईस कऊनौ...राखी लगाएक जुबान अईंच लईब...‘‘
-अम्मा खैर दबंग महिला थी ही। उसके हनक के सामने सबकी बोलती बंद। पर कभी-कभी झड़प भी हो जाती, जब कोई बराबर की मिल जाती। हाँ, समस्या तब होती थी जब वह अकेली निकलती थी। लेकिन फिर भी एक जो कुटिल आभाष था वो सातों पहर उसका पीछा करता रहता। पल-पल उसके भीतर कुछ शीशे की तरह चटखता रहता। तीखे नैन नक्श और मादक कद काठी के बावजूद उसके भीतर एक ग्लानि पैठ गई थी। पीरू, उसके बचपन का मित्र, जो उस पर जां निसार करता था वह भी सहसा उससे कतराने लगा था। एक दिन उसने ही उसके घर जा कर गिला उठाया था-
‘‘ हे पीरू, दोस्ती पियार सब छोड़ दई का तूने ना मिलत हय, ना कऊनो बात चीत। कत्ते दिनन से हम एक साथे टहरे नाई हन ?‘‘
-वह खामोश रहा। हालांकि उसका किशोर मन नय्या को देख एकबारगी लहका जरूर था मगर अगले क्षण कुसुम की बात याद आ गई-
‘‘ हे पिरूआ, तोरी हिजड़ी कहाँ हय, दिखती नाहीं आज कल।‘‘
-वह अक्रामक हो उठा।
‘‘ अत्ते थप्पड़ मारिब ना कि बहिरी होई जईहव।‘‘
‘‘ अरे जाव-जाव ...सारा गंव्वा कहत हय। केका-केका थप्पड़ मरिहव जब बिहव्वा करि लेहो उससे तब पता लागी‘‘
-वह सन्नाटे में आ गया। अकेले में दादी के पास गया और पूछा-‘‘ दादी रे, ई हिजड़ी का होत?‘‘
‘‘ हे दइया, तूहौ बे पर की हांकै लागत हौ।‘‘ फिर उसे दुलारती हुई बोली थी- ‘‘ईकै मतलब ना स्त्री ना पुरूष। अईसै स्त्री-पुरूष बिहाव के लाईक नाहीं रहत हंय उनसे दूर रहेक चाही। जईसे कि अपन नय्या...अत्ती सुंदर सुशील छोरीस जनै भगवान कऊन जनम का बदला लई लिहिन‘‘ और उसी दिन वह नय्या से दूर हो गया। नय्या जब लगातार उसे फटकारती रही तो वह झुंझला पड़ा और एक ही वाक्य में सब खत्म कर दिया-
‘‘ अब चिल्लाती का हव, तू तो हिजड़ी हव ना...तो तुसे मतलब का दोस्ती यारी का?‘‘
नय्या को काटो तो खून नहीं। लगा उसे सहसा किसी ने दहकते ज्वालामुखी के सम्मुख ला कर खड़ा कर दिया हो।
वह अटकते हुए टूटते शब्दों में इतना ही बोल पाई-
‘‘ पीरू...तूहव अईसा बोलब...सोंचे नाई रहन....‘‘
आगे कुछ नहीं कह सकी। जब पीडाएं अपनी पराकाष्ठा पार कर जाती हैं तो वहां शब्दों की मर्यादाए टूट जाती हैं। वह अवाक् खड़ी रही। पीरू झल्ल से मुड़ा और वापस घर में घुस गया। वह एक लुट जाने वाली स्थिति लिए खड़ी रह गई। आँखें में दुनिया भर का अंधेरा भर गया। फिर खामोशी से वापस लौट आई। उस दिन के बाद से उसने घर से निकलना भी बंद कर दिया। गहरी कुंठाओं ने उसे घेर सा लिया। इसी मनोदश में लगभग साल भर बीत गया। अम्मा भी अब कहते कहते थक गई थीं। सो उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया। हाँ अब उसके विवाह की चिंता की जाने लगी थी। कुछ दिनों की तलाश के बाद आखिर नजदीक के गांव में एक लड़का मिल ही गया। लड़का शहर में कमाता था। पिता बड़े कास्तकार थे। नय्या के माता पिता फूले नहीं समा रहे थे सोंच के कि ‘‘बिटिया राज करी‘‘। विवाह से पूर्व की औपचारिकताएं पूरी कर ली गई थीं। क्वांर के महीने का मुहूरत निकला था। नय्या के पिता ने अपने 20 बीघे के खेत में से एक पट्टी बेंच दी थी और ब्याह के खातिर अखराजात जुटाने लगे थे। अभी तीन महीने का समय था। नय्या अपने ढंग से अपने ब्याह की खुशी मनाने लगी थीं। सबसे बड़ी बात अब उसे ‘‘हिज्ड़ी‘‘ शब्द से मुक्ति मिलने वाली थी। अम्मा ने उसे बेसन का उबटन बना के दे दियां-‘‘ ईका रोज मलौ सरीरेप। तनि इंसान बनौ। ब्याहेम कछु अलग तव लागौ।‘‘ और वह दिन में कई दफा उबटन मलने लगी। और हर बार उबटन मलने और धोने के बाद आईना निहारना नही भूलती। यहाँ तक कि एक दिन फुफ्फू ने टोक भी दिया-
‘‘हाय दईया, या तव दिनम दस बार दर्पनै निहारा करती है। कस बेसरम, बेहया हुई जाती हय‘‘ वह फुफ्फू की बात टाल जाती और मन ही मन बड़बड़ाती-
‘‘या बुढ़ियक जनै कऊन जलन लागी रहत हय। अपन तव ससुराल छोड़ि भगियाई। अब हिंया हुकुम चलावत ही।‘‘
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ब्याह की तारीख करीब आ गई थी। नय्या के पिता ने सारी तैयारी कर ली थी। बड़े मनोयोग से सब कुछ जुटाने में लगे थे। अम्मा तो बात करना ही भूल गई थीं। सपने भी उन्हें नय्या के ब्याह के ही आते। कव्वाती रहतीं-
‘‘ के नय्या के बापू, अभै त परात खरीदेक बाकी है। पैजनिया गढ़वावैक हय.........कपड़वा सी गवा होई.....‘‘
एक दिन की बात, सुबह सवेरे लड़के के पिता व माता अचानक फट पड़े। नय्या की अम्मा का माथा ठनका। ‘‘ मनै....सकारे सकारे....कहीं कऊनव गड़बड. तव नाहीं....कऊनव मांगे मंगनी तव नाहीं.‘‘ फिर नय्या के बापू की तरफ घूमके धीमें से फुसफुसाई-
‘‘ सुनत हव... जो साईकिलिया मांगीन तव साफ कहेव कि हमसे न होई। कहूं कम मां आवत हय साकिल...‘‘
‘‘ अच्छा, तनि जावै त देव हुंवा तक। बिटेवाक हाथे नास्ता चाय भेजवाए दिहेव..‘‘
-कहते हुए वह बाहरी दालान की ओर चले गए। नय्या को कुछ निर्देश दे कर अम्मा भी पीछे से दालान की तरफ हो लीं।
दोनों पक्ष से कुशल-क्षेम की ओपचारिकताएं निभाई गईं उसके बाद एक नीम खामोशी छा गई। जैसे हर कोई कहीं खोया हुआ कोई सिरा ढ़ुंढ रहा हो और वो मिल नहीं रहा हो। आाखिर नय्या की अम्मा एक सिरा टटोलते हुए बोलीं-
‘‘ का समधिन अत्ती भेारहय मां...मनै, कऊनव खास बात ?‘‘
‘‘ हाँ....खासै,....मुला तुमसे तनि अकेरेम बतियावैक हय।‘‘ नय्या के माता पिता का चेहरा उतर गया। पिता समधी के साथ ओसारे में ही बैठे रहे। समधिन को नय्या की अम्मा कोठरे में ले कर चली गईं। पलंग खींच कर बैठ गईं। फिर सहमती सी बोलीं-
‘‘ हाँ अब बताव ‘‘
‘‘ बहिन जी , तू हमरी बातियक बुरा ना मानेव। मनै हर बाप महातारी अपने बेटा-बेटिन का भलय चाहत हंय। उमस हमहूं हन तुमहूं हव।‘‘
‘‘ देखौ समधिन सब सफा सफा बताव...माजरा का हय?‘‘
‘‘ मुला, हम कुछ सुना हय तोरी बिटियक बारेम कि तोर नैवा ब्याह कै जोगै नाहीं हय फिर काहे करत हौ उकै बयाहव...अईसै परी रहय देव कौनय कोना अंतड़िम ‘‘
‘‘ तु कस बात करत हव समधिन...अस कुछौ नाहीं...हमरी बिटिया पूर हय। बाकी ई बतिया कऊन कहिस हय तनि बताय देव उकै नाव, राखी लगायक उकै जुबान अईंच लईब...ई सब बहुत रहत हंय दुई पांच मां‘‘
‘‘ अब ई सब छोड़ौ...ई बताव ई बतिया सही हय कि नाहीं?‘‘
‘‘ नाहीं सोलहौंव आना गलत‘‘
‘‘ हम मानी कईसे?‘‘ नय्या की अम्मा सोंच में पड़ गईं तो लड़के की माँ ने खुद सुझाव दिया-
‘‘ सुनव...अभै ई महीनेम लड़की का महीना होई गवा कि नाहीं।‘‘
‘‘ पूछेक पड़ी‘‘ कहते हुए नय्या की अम्मा बाहर की तरफ गईं और नय्या से पूछ कर कुछ कुछ ही क्षण में वापस आ गईं ओर बोलीं‘
‘‘ नाहीं, अभै टैम हय‘‘
‘‘ तो ठीक हय, जब ऊ महीनस होय त हमका खबर करि दिहेव। हम आई के चेक करिब। बेटक मामला है। ढिराहीस काम नाहीं लेबै।‘‘
‘‘ ई कऊन बात करत हव... तू खामखा बेइज्जत करत हव हमार छोरियक। हमरी बातप विसवास नाहीं हय तुका?‘‘
‘‘ देखौ समधिन...अकीन की बात छोड़ौ...बेटी-बेटक मामलेम आँख मूंद कै समझौता नाहीं करैक चाही...मानौ कलिहा बात ना बनै त हमार लड़कवा हमरै मुँहेप तमाचा मरिहय कि हिजड़िक संग फेराय दिहेव...‘‘
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नय्या की अम्मा खूब सनाका खाईं। छोटी बहन यमुना ने आकर नय्या को सारा किस्सा बता दिया। नय्या सुध-बुध खोए सब सुनती रही। सोंचती रही ‘‘ ई सब भवा कईसै?‘‘
अतिथि जा चुके थे। नय्या की अम्मा के सीने में बेइज्जती की जो आग लगी थी वो बेतहासा धधक रही थी। ‘‘ अईसा अपमान...अईसी बेइज्जती...‘‘
-जब कुछ ना सूझा तो जा के ढोढ़ें की पत्नी से भिड़ गईं।
‘‘ काहे हो ढोढ़ाईन, ई का प्रचार कई के बईठी हव हमार छोकरियाक लगे...पहिले त याक दुई मर्तबा तुरी सिकायित त करिस ऊ, हम जावै दिहा कि चलौ हंसी मजाकेम होई गवा कभौ-कभौ मगर हिंया त पानी सिर के उप्पर सनी गुजरि गवा...‘‘
‘‘...का मतलब...हम समझिन नाहीं...‘‘
‘‘..हमका बहुत पहिलय पता चलि गवा रहाय कि तू पूरे गंव्वाम हमार बिटेवक ‘‘ना-अउरत‘‘ घोषित कई दिहे हव खुबै प्रचार किहे हव‘‘
‘‘द्याखैा नय्या क अम्मा, जुबान सम्भार कय निकारेव हमका का गरज परी हय कि वा का हिजड़ी घोषित करत चली। वा अपनी गोंईय्यन, सखियन, औ भौजईय्यन से खुदै बताईस कि ऊ अबही तक महीनेस नाय होत हय, हमार सुग्गी त 13वैं साल महीनेस होय लागै रही, हमहूं लोन अईसन....बड़कई तो बरहवैं पकड़त पकड़त तैयार होई गई रहा औ कहाँ नैवा हय तोहार...16वां लागै लागै का है औ अबहिन तकै....वईसेन सूख-साखा। जाकै का मतलब....जब्बै उससे पूछौ कहत है ‘‘ नाहीं‘‘ ।‘‘
‘‘...कऊनै सुवर कहत हय उकै महीना नाय होत। तू लोन देखत हव का?‘‘
‘‘..तोहार बिटिया बोलिस जाईकै उससे पूछौ...‘‘
-नय्या की अम्मा मुँह की खा के चली आईं। नय्या कोठरे में बिखरी पड़ी सुबक रही थी कि अम्मा का स्वर सुनाई दिया-
‘‘....ओरे नैवा..., कहाँ मरि गई...रे...‘‘-वह चुप चाप बेसुध सी पड़ी रही। दूसरी बार अम्मा हांक लगाती उसी के कोठरे में पहुँच गई-
‘‘..का रे सुनाई नाय देत कानम कोढ़ चुई गवा हय का ?‘‘
-वह उठ कर बैठ गई। अम्मा ने समीप बेठते हुए पूछा- ‘‘ का रे... अपन गोंईयन से का कहि के आई हय...कि तू हिजड़ी निकरि गई। तोके महीना नाय होत हय..तै ‘ना-अऊरत‘.होई गई हय..?‘‘
-तब नय्या सुबकियों के बीच बड़ी कठिनाई से बोली थी-
‘‘...तूहै त कहे रहा अम्मा कि केकौ ना बतायव इकै बारेम। औ जब बड़की भैजाई पूछिस रहा तब्बौ त तू कहै रहा कि अभी नाहीं...उमिर का हय अबहिन...हमहूं वहाय बोला जऊन तू कहेव..‘‘
‘‘...हे दय्या वहय बात का बतंगड़ बनावा गवा...मुला अत्ती बात बढ़ि गए...अच्छा ई बता कऊन तरीखेक आवत हय..? औ हाँ जईसन आई हमका खबर कई दिहेव...‘‘ उसने सिर हिला दिया। वह बगैर तारीख जाने ही बाहर निकल गई। मगर नय्या के भीतर जैसे जाने कितने अवसाद के काले बादल भर गए। उसकी किशोर वय ही एक कलुषित अवधारण से लोहित होने लगी। ब्याह की जो खुशी कल तक चेहरे पर दमक रही थी वो सयास कहीं लुप्त हो गई थी। वह खामोश बैठी यहां वहां कुछ मन ही मन गढ़ती रही। ऐसे ही 20 22 दिन बीत गए। नय्या ‘उन दिनों‘ से भी गुजरी। मगर अम्मा को भनक तक ना लगने दी। समधियाने में इस खबर की प्रतीक्षा की जाती रही। नय्या की अम्मा भी चिंतित। नय्या ने पूरे चार-पांच दिन बड़ी खमोशी से गुजार दिए। आखिर अम्मा ने एक दिन फिर टटोला-
‘‘..का रे नैवा...मुला महीना त पूरा निकरि गवा...कभै होईहय...तरिखिया ठीक सनी याद हय कि नाही। कउनै तरिखियाक होत हय‘‘ वह खामोश रही तो अम्मा फिर चिल्लाई
‘‘..कछु बतईहय...बकोसिहय...माजरा का हय...?‘‘
-नय्या ने जमीन की मिट्टी को पांव के नाखून से खुरचते हुए नीचे ही देखते हुए कहा-
‘‘...आवा त रहा अम्मा...हम बतावा नाहीं। मोका लाज आवत रहा...‘‘
‘‘..हाय भगवान...गजबै भवा...मुला ऊ सबै प्रतीक्षम बईठ हंय...औ हिंया ई महारानी सब पिए बईठ हंय...आंय रे...काहे करे धेाका...,काहे परीसान कय रही हम सबका...‘‘
और वहीं पड़े एक डण्डे से जो नय्या की पिटाई शुरू की तो फिर तब तक नहीं रूकी जब तक थक नहीं गई। नय्या पिट-पिटा के कोठरे घुस के पड़ रही। छोटी बहन ने शाम को तेल गरमा कर उसकी चोटों पर लगाया। वह तेल मलती रही नय्या उसी से अपनी व्यथा कहती रही-
‘‘.के यमुनवा...इमा हमार का गलती। अपनय मनादी करिस कि काहुस ना बतायव कि तू होय लागी हव। इससे लोन उमरि का हनाजा लगावय लागत हंय। त हम सबसे यहय बोल दिहा। कहाँ अब ऊई लोन अईहंय हमका चेक करै...ई कऊन बात भई...लाजौ सरम कउनव चीज होत हय।...सबै खिलवाड़ बनाय लिहिन हंय हमका। तू कहूंस एक पुड़िया संख्या लाय देव हमका। दुनियैस चले जाई। ई बेइज्जती नाहीं बर्दास होत हय...‘‘
‘‘..ना दिदिया मरै तोर दुसमन। गलती हमार महतारी के आए। भुगतैक परा हम सबकां। मगर ई भरम से निकारै खत्ती ई जरूरी हय। मरि कै त तू ऊ सबकी बतियन का सच्चा साबित कई देहौ। लोन ई बात का सही मान लिहैं। ई लांछन का हटावै खत्ती जऊनै होत हय होय देव। याक दिन खुदै ऊ सबके मुँहेप तमाचा पड़ि जईहय...‘‘
इस बात की चर्चा पूरे गांव में फैल गई। महिलाओं को तो समय गुजारने का खूबसूरत शगल मिल गया था। दिन भर यहाँ वहांँ खिचड़ी पकती रहती। नय्या ने बाहर निकलना ही छोड़ दिया था। बस कोठरे में ही पड़ी रहती। साहस ही दम तोड़ गया था। खानापीना छूटा सो अलग। छोटी बहन यमुना कहीं विनती चिरौरी करके थेड़ा बहुत खिला पिला देती। बाकी वह यही सोंच-सोंच कर कुढ़ती रहती कि कैसे करेगी सामना उन लोगों का जब वे उसकी जांच पड़ताल करने आएंगे। मन ही मन झुंझलाती, ‘‘ ई अम्मा कईसी मुसीबत मां डारि दिहिस हय। सगरा गंवम हंसाई करवाय दिहिस। सखियां, गोईयां सभै कस मजा लेत होईहंय।‘‘
उसे पहले के सारे मंजर स्मरण हो आते। किस तरह उससे सखियंा और गोईयां बातों बातों में पूछ लिया करती थीं-
‘‘ ...का रे नैवा, अबही तक तोरे महीना नाय आव...?‘‘
‘‘..ऊ का होत हय..‘‘वह अनजान बन जाती तो सखियां बड़े मजे लेतीं और क्या क्या ना इशारे करतीं। ऐसे संशयपूर्ण सवालात उससे प्रायः युवा महिलाएं और किशोरियां कर बैठतीं और उसका जवाब सुन कर तरह-तरह के अंदेशों से घिर जातीं। इन्हीं अंदेशों ने उनके मन में एक धारणा बना दी और उसे ‘‘हिजड़ी‘‘ का तमगा मिल गया। शुरू में वह बहुत आहत हुई । कई दफा अम्मा से भी शिकायत की। अम्मा ने उन सबको गरिया-गरिया के बात खत्म कर दी। किन्तु उसका मनोबल टूटने लगा। और वह धीरे-धीरे लोगों से कटती गई। स्कूल से भागने लगी। मन में कुण्ठित धाराएं रेंगने लगीं। करारा झटका तब लगा जब पीरू ने भी हाथ जोड़ लिए। कई दिनों तक वह यही सोंच सोंच कर विचलित होती रही-
‘‘ मनै कस निकरा...समाज के संग वहव मिल गवा। कहाँ कि जलम-मरन की सौगंध लिहिस रहा कहाँ कि बिच्चम छोड़ि गवा...तनुक गईरत नाय आई तनुक नाय सोंचिस...जमानक बतियम आय गवा‘‘
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अम्मा ओसारे में बैठी गेहूं पछोड़ रही थीं कि नय्या उसी के समीप आ के बैठ गई अैर गेहूं बिचारने लगी। अम्मा ने एक उड़ती सी निंगाह डाली उस पर और फिर अपने काम में लग गईं। वह कुछ देर खामोश रह फिर झिझकती सी बोली‘-
‘‘.....अम्मा ...मनै...ऊ आए गवा...‘‘
‘‘..को..‘‘
‘‘...ऊहै जाके खातिर हमका पिछला महीना पीटे रहा‘‘
‘‘...हो...मोरी बिटिया...‘‘ कहते हुए अम्मा ने उसे चिपटा लिया फिर सूप वहीं फेंक कर आंगन की ओर भागीं-
‘‘...अरे हो ...नय्याक बापू....तनि सुनत हव...भोरहे जाईकै समधिन का लिवाय लाव...‘‘
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दूसरे दिन नैय्या के बापू मुँह-अंधेरे ही निकल गए। दोपहर तक वह समधिन ओर उनकी बेटी को लिवा कर आ गए। नय्या की अम्मा ने बड़ी तैयारी की थी उनके सत्कर की मगर उन्होंने आते ही कहा-
‘‘नाही बहिन जी...कुछ नाहीं...बस हमका लड़िकियाक दिखाय देव...‘‘
नय्या की अम्मा ने पुकारा-
‘‘...नय्या...ओ नय्या....‘‘
-नय्या सकुचाती सी उनके पास आ कर खड़ी हो गई। इस समय वह बड़ी निखरी सी फिरोजी परी सी दिख रही थी। सास मुग्ध सी देखती रह गईं। फिर संभलती सी बोलीं-
‘‘चलौ बेटा कोठरियम चलौ तनि...‘‘ वह थकी सी उठी और कोठरे की तरफ हो ली। पीछे पीछे दोनों महिलाएं माँ-बेटी। फिर कोठरे में तीन ही प्राणी रह गए। कोठरा भीतर से बंद कर लिया गया।
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तीन चार मिंनट बाद कोठरा खुला। दोनों महिलाएं बाहर निकलीं। उनके चेहरे से अश्वस्तता का भाव टपक रहा था। आ कर ओसारे में बैठ गईं। नय्या कोठरे से बाहर ही नहीं निकली। कुछ देर बाद यमुना कोठरे के भीतर गई तो देखा वह पलंग पे पड़ी सिंसक रही थी। उसने पुकारा-
‘‘जिजिया...का भवा तू त परीछा मां पास होई गईव जिजिया...‘‘
‘‘..हूं...मगर ई पास होय का दुःख फैल होय के दुःख से कहूं जादा हय..यमुना‘‘ वह सिंसकती सी बोली। यमुना उसका मुंह चुपचाप तकती रही । वह आगे बोली-
‘‘...ई परीछा हम पीरू के लगे नाही ंदई पाईन। ई परीछा त सीता माता की अग्नि परीछा से भी जादा दुष्कर रही यमुनवा...‘‘ और फूट-फूट कर रोने लगी।
कुछ देर बाद लड़के की मां व बहन चली गईं। तब अम्मा ने आ के उसका माथा चूम लिया -
और बोलीं-
‘‘ बहुत बड़ा बोझा उतरि गवा आज...‘‘ -और विवाह की तारीख की घोषणा कर दी। नय्या निर्विकार भाव से बस्स बैठी रहीं।
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