Ek nikaah aisa bhi books and stories free download online pdf in Hindi

एक निकाह ऐसा भी

एक निकाह ऐसा भी

‘‘रूक जाईए...रूक जाईए.........एैसे नहीं होगा निकाह...‘‘

-अचानक पीछे से आती आवाज ने पण्डाल में बैठे सभी लोगों को चौंका दिया। खुद क़ाजी जी को भी। ये आवाज दुल्हन के पिता इक़राम की थी। सभी भौंचक से घूम कर उन्हें देखने लगे। इक़राम ने आगे बढ़ते हुए कहा-

‘‘हमारे पास अपना क़ाजी है, हम निकाह उससे पढ़वाएंगे‘‘

-अभी निकाह की रस्म शुरू होने ही जा रही थी। पण्डाल में दो तख्ते जोड़ कर एक स्टेजनुमा बनाया गया था जिस पर दूल्हा सहित कुछ खास बाराती बैठे थे। शेष सारे नीचे बिछी कालीन और यहाँ-वहाँ पड़ी कुर्सियों पर बैठे थे। कुछ टहल रहे थे। कुछ बैठे गप्पें मार रहे थे। अभी एक घण्टा कबल ही बारात आई थी। लड़की वालों की तरफ से बारातियों की अच्छी खातिर-तवाजो की गई थी। कोल्ड ड्रिक के साथ-साथ कई किस्म की मिठाईयाँ फल अण्डे इत्यादि न जाने क्या-क्या। महिलाएं खुश थीं-

‘‘चलो बिस्मिल्लाह तो अच्छी हुई।‘‘

-बच्चे यहाँ-वहाँ दौड़ लगा रहे थे। पूरी तरह खुशनुमा माहौल था। बारह-सढ़े बारह बजे निकाह की रस्म अदा होनी थी। दूल्हे के घर वाले निकाह की रस्म अदा करने की तैयारी ही कर रहे थे कि दुल्हन के पिता इकराम ने सबको चौंका दिया। वह आगे बढ़े और बोले-

‘‘ऐसे निकाह नहीं होगा हमने अपना क़ाजी बुलवाया है‘‘

‘‘लेकिन हम अपना क़ाजी साथ ले कर आए हैं‘‘ -दूल्हे के पिता बोले।

‘‘हम इसके लिए तैयार नहीं हैं। निकाह हमारे क़ाजी जी ही पढ़ाएंगे‘‘

-दुल्हन के पिता ने फिर ज़िद की तो दुल्हे के पिता भी अड़ गए-

‘‘नहीं भाई साहब, हम इसीलिए अपना क़ाजी साथ ले कर आए हैं कि निकाह हमारे क़ाजी साहब ही पढ़ाएंगे‘‘

‘‘देखिए साहब,आप हमारे मेहमान हैं इसलिए हम बात बढाना नहीं चाहते।.....मगर चूंकि शादी हमारे घर की है तो निकाह भी हमारे काजी साहब ही पढ़ाएंगे, लो वह आ भी गए....‘‘

-और बाजू में का़जी साहब आ कर खड़े हो गए। अब दोनों घर के का़जी आमने-सामने थे। दुल्हन के पिता आगे बढ़ कर बोले-

‘‘ये पढ़ाएंगे निकाह...., इनको निकाह का आलिफ-बे भी आता है...?‘‘

-इधर के का़जी जी को डंक सा लगा। उनकी भौंहें तन गईं-

‘‘जरा जबान सम्भालिए, मैं भी आपके क़ाजी को नंगा कर सकता हूँ...‘‘

-अब दुल्हन के तरफ के काजी साहब की बारी थी। वह भड़क गए-

‘‘जरा औकात मे रहो...मुझे क्या नंगा करोगे..हम शाही क़ाजी हैं तुम्हारी तरह यहाँ-वहाँ पत्ते चाटते नहीं घूमते हैं‘‘

-बस क्या था, क़ाजी-क़ाजी भिड़ गए। बाराती घराती अलग ही रह गए। इतनी गर्मा-गर्मी कि हाथा पाई की नौबत आ गई। गिरहबान पकड़े जाने लगे। वर-वधू के पिताओं मे गाली-गलौज शुरू हो गई। बराती घराती में अलग ठन गई। ऐसी जूतम-पैजनियाँ कि बस्स.....। बीच-बचाव करने वाले कम भिड़ने वाले अधिक । अचानक वर-पक्ष के क़ाजी ने वधू-पक्ष के काजी के चेहरे पर भरपूर थप्पड़ रसीद कर दिया। क्षण भर में उनका चेहरा फूल के कुप्पा हो गया। उनने आव देखा न ताव समीप पड़े अद्धे को उठा बलपूर्वक वर-पक्ष के क़ाजी पे उछाल दिया। निशना सटीक बैठा। वर-पक्षी क़ाजी जी का सिर फट गया। खून से नहा गए। मामला अब संगीन था। बीच-बचाव करने में दूल्हे की पगड़ी और सेहरा इधर-उधर हो गए। सेहरे के फूल लोगों के पैरों तले मल-दल गए। शक्कर-छुहारा पूरे पण्डाल में बिखर गया। बाहर की गर्मा-गर्मी का प्रभाव जनानखाने मे भी हुआ। दोनों तरफ की औरतें एक-दूसरे से भिड़ गईं। दुल्हन-दूल्हे के ऐब बढ़ चढ़ कर गिनाए जा रहे थे। दूल्हे की बहन ने दुल्हन की ओर संकेत करते हुए चेतावनी दी-

‘‘आने दो इस कुतिया को हमारे घर, ऐसा सबक़ सिखाऊंगी कि.....‘‘

-दुल्हन सुन कर जलबलाई तो बहुत मगर खून का घूंट पी कर रह गई। आखिर दुल्हन के लिबास में थी, लिबास का लिहाज़ कर गई। वर्ना जवाब क़रारा देती। दुल्हन की भाभी ने जवाब दे मारा-

‘‘ले जाओ उस नामर्द को...हमें नहीं ब्याहना अपनी बेटी नामर्दों के वहाँ।‘‘

-दूल्हे का चची ने हाथ नचाया-

‘‘उस नामर्द को छांटा तो तुम्हारी बेटी ने ही था। जहर खाने जा रही थी.....‘‘

-दुल्हन की खाला गुर्राईं-

‘‘एहसान मानों एहसान, हमारी लड़की ने तुम्हारे निठल्ले को पूछ लिया...‘‘

‘‘निठल्ला होगा तुम्हारा खनदान...तुम्हारी पुश्तें..‘‘ दुल्हे की बहन चिल्लाई तो दुल्हन की चच्ची चीखीं-

‘‘खबरदार जो खनदान को कहा। चाँद में दाग होगा, मगर हमारे खानदान में नहीं...तुम जैसों की तरह पैबन्द नहीं है हमारे खनदान में..‘‘

‘‘कौन सुअर की बच्ची कहती है पैबन्द-दार है हमारा खनदान‘‘

-कहते हुए दूल्हे की चची दुल्हन की खाला की तरफ झपटीं। खाला झटके से पीछे हटीं कि पाँव फिसला और जीने से सीढ़ी दर सीढ़ी बल खाती हुई आंगन में आ गिरीं। पूरे घर में हाय-तौबा मच गई आनन-फानन में बारातियों वाली गाड़ियों में से एक गाड़ी उन्हें ले कर हस्पताल के लिए रवाना हो गई। उधर पण्डाल में क़ाजी जी की मरहम-पट्टी मोहल्ले के ही एक झोला-छाप डाक्टर कर रहे थे। मुआमला बिगड़ चुका था। दूल्हे के स्टेज पर लहू-लुहान पड़े काजी जी लेटे-लेटे कराह रहे थे। दुल्हन-पक्ष के क़ाजी जी जाने कब पण्डाल छोड़ नौ दो ग्यारह हो चुके थे। कुछ मोतबर लोग आपसी बहस में उलझे थे-

‘‘आखिर मामला क्या है,..निकाह ही पढ़वाना है..कोई भी पढ़ा दे‘‘

-दूल्हे के चचा भड़के-

‘‘वाह....वा....खूब कहा। देवबन्दियों से हम निकाह पढ़वाएंगे?‘‘

‘‘तो आप लोग क्या हैं?‘‘

‘‘लो आपको यही नहीं पता, हम अहले हदीस हैं भई‘‘

-समझाने वाले लोग इस नफ्सियात और फिरका-परस्ती से कहीं उपर थे। उन्होंने समझाया-

‘‘भाईजान, हम सब हैं तो मुसलमान ही। क़लमा ये भी पढ़ाएंगे, कलमा वो भी पढ़वाएंगे। कुछ अलग थोड़े ही करना है।‘‘

‘‘हुॅ...ह..छोड़िए, जब आपको यही नहीं मालूम है तो बात ही खत्म है‘‘

‘‘भई, तब किस मुँह से कहते हो-‘अल्लाह एक है‘ जब इस मार्के की क़यामत करते हो अल्लाह रसूल के नाम पर‘‘

-दूल्हे के चचा बोले-

‘‘अब आपको यही नहीं पता। भई, इन्हें तो अल्लाह तक पहुँचने के लिए सिलसिले चाहिए। जहाँ देखो मजारों पर टहल रहे हैं। फातिहा पढ़ रहे है। चद्दर चढ़ा रहे हैं। ये सब काफिराना तरीके मुसलमान के हो सकते है? क्या रसूल ने ऐसा फरमाया था ?‘‘

-दूल्हे के पिता आगे बढ़ आए-

‘‘.....तो क्या सहाबा, वली सब झूठ थे?‘‘

-लोगों ने फिर बीच बचाव किया बहस बीच में ही रोक ली गई। एक सज्जन ने समझदारी से पूछा-

‘‘ये सब तो चलो समझ में आ रहा है, मगर ये समझ में नहीं आ रहा कि जब आप लोगों में इतनी ना-इत्तेफाकियाँ थीं तो ये शादी तय कैसे कर दी ? तब नहीं मालूम था ?‘‘

-इस सवाल पर दोनों पक्ष के लोग बगलें झांकने लगे। वर पक्ष से फिर किसी ने कुरेदा-

‘‘...क्यूँ जुबैर भाई?‘‘ -जुबेर, याने दूल्हे के पिता भड़क उठे-

‘‘मैं मरता क्या ना करता मरदूद की जिद थी शादी करेंगे तो इसी हूर से वर्ना ज़हर खा लेंगे।....क्या करता?

-फिर वह दूल्हे की तरफ मुड़े-

‘‘चलो बेटा, गाड़ी में बैठो। अब शादी नहीं होगी। ऐसी बेइज्जती हम नहीं सहेंगे। बारात वापस जाएगी।‘‘

‘‘बारात वापस ले जा कर देखो, दहेज-प्रथा का मुक़दमा ना कर दूँ तो कहना‘‘ दुल्हन के बाप गरजे।

‘‘हमको धमकाने की कोशिश कर रहे हो, अब तो बारात ज़रूर वापस जाएगी। बेटे, नौशे मियाँ चलो बैठो गाड़ी में‘‘

‘‘नहीं अब्बू हम वापस नहीं जाएंगे। जाएंगे तो निकाह करके ही जाएंगे..‘‘

-दूल्हे के पिता जुबेर सकपका गए। चेहरा तमतमा गया। बेटे की ऐसी जुर्रत। साथ आए बाराती फिर समझाने लगे। मगर वह अड़े रहे-

‘‘...हमारी बेइज्जती की। हमारे क़ाजी जी को लहू-लुहान किया। अब सवाल ही नहीं उठता। इसे करना है तो करे। मेरे वहाँ ले कर नहीं आएगा, और कहीं भी ले जाए।‘‘

‘‘मैं अपनी बेटी भेजूंगा ही नहीं। मेरी साली का पाँव टूट गया। इतनी जलालत। लगता है बाराती नहीं, गुंडे छूट कर आए हैं।‘‘

-दुल्हन से कहलाया गया, कपड़े बदल ले। निकाह नहीं होगा। इधर दूल्हे ने दुल्हन को फोन किया-

‘‘डरना मत, निकाह होगा, और तुम्हें ले कर जाएंगे‘‘

-महिलाओं ने दुल्हन से फटाफट चेंज करने को कहा-‘‘कपड़े बदल लो निकाह नहीं होगा लुच्चों के वहाँ से‘‘

-दुल्हन ने मना कर दिया- ‘‘मैं नहीं करूँगी चेंज। शादी होगी।‘‘- औरतों की कनपटियाँ लाल हो गईं-

‘‘या....ल्लाह...हिम्मत तो देखो। दीदे का पानी ही मर गया‘‘

-दूल्हे ने अपनी बात रखी-‘‘मैं किसी ऐसे आदमी से ेनिकाह पढ़ूंगा, जो सिर्फ मुसलमान हो। जो देवबंद, अहले हदीस या बरेलवी जैसे फिरकों से तअल्लुक ना रखता हो। ऐसी नफ़सानियत से दूर हो। अगर इस भीड़ में ऐसा कोई है तो......फारूख चचा आप पढ़ाईएगा निकाह.....?‘‘

‘‘हाँ.हाँ क्यूँ नहीं...‘‘

‘‘तो फिर आईए, देर मत करिए। बाकी जिसको जाना हो जाए, जिसे ठहरना हो ठहरे...‘‘

-दूल्हे के पिता ने बड़ी ठन-ठन दिखाई पर अपने दोस्त फारूख के कहने पर ठहर गए। जनान खाने में बाराती औरतें अपनी तरफ के मर्दों के फैसले का इन्तज़ार कर रही थीं। ठहरें या चलें। अंततः बाहर से संदेश आया कि विदाई करा के जाएंगे। क़ाजी जी की पलंग किनारे डाल दी गई। घायल अवस्था में वह पलंग पर पड़े कराह रहे थे। फारूख साहब ने इस्लामी तरीके से दुल्हा-दुल्हन को निकाह पढ़ा दिया। फिर वलीमा शुरू हुआ। बाराती औरतों ने वलीमे में कुछ ज्यादह ही नखरे किए। खाना बेमन से खाया गया। घरातियों नें खाना यूँ खिलाया मानो दुश्मनी निकाल रहे हों। घण्टा भर बाद दुल्हन की खाला को गाड़ी वापस ले आई। पाँव पर प्लास्तर चढ़ चुका था। उन्हें गोद में उठा कर घर के अन्दर लाना पड़ा। उन्हें देखते ही एक दफ़ा फिर सबके ज़ख्म हरे हो गए। मामला गर्माने लगा, मगर बुजुर्ग महिलाओं ने बड़े सलीके से सम्भाल लिया।

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