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तालियाँ

तालियाँ

कवि कौशल प्रताप मंच पे धाक जमाए हुए थे। उनके एक-एक शब्द पर स्रोता झूम रहे थे। उल्लासित हो रहे थे। बेसाख्ता तालियाँ पीट रहे थे। कौशल प्रकाश के चेहरे पर अजब सी आभा थी। चेहरे पे गुलाबी मुस्कान फैली पड़ी थी। वह झुक-झुक कर स्रोताओं का अभिवादन करते। स्रोताओं के आगे नत-नत जाते। उन्हें स्मरण हो आया था अपने बचपन का वो दृश्य जब उनके कस्बे में एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था। पिता के साथ दस वर्षीय वह भी लग लिए थे। कवि सम्मेलन देर रात तक चला। स्रोता रात भर झूमते रहे। उठे ही नहीं। उनके पिता भी। वह भी मुग्ध से उन कवियों को देखते रहे। कहाँ के आसमान से उतर आए हैं ये सारे ।कितनी तालियाँ बटोर रहे हैं। उसके मन में एक अजीब सी ख्वाहिश जागी। ऐसा क्यूँ न हो कि कभी वह भी ऐसा ही कुछ कारनामा कर डालें कि उनकी सूरत देखते ही लोग तालियाँ बजा-बजा के निहाल हो जाएं। उन्होंने पिता के सामने एक दिन बात रखी-

‘‘पापा, क्या ऐसा हो सकता है कि हमारे लिए भी लोग ऐसे ही तालियाँ बजाएं।‘‘

‘‘हाँ...हाँ क्यूँ नहीं, कोई बड़ा काम करो जिससे लोग प्रभावित हों‘‘

हालांकि उनकी बचपन से एक साध थी कि वह अपनी अलग पहचान बनाएं। उनको इससे बेहतर कोई भी शगल नहीं लगा। चूंकि पिता कविताओं और गीतों गजलों के शौकीन थे सो उन्हें इस तरह की चीजों में बचपन से ही रूचि थी। ज्यों ज्यों उनकी उम्र बढ़ी, ये शौक भी परवान चढ़ता गया। शब्दों से छेड़-छाड शुरू हो गई। मौसम, फूलों, गेसू, ....नजाकतों की टोह लेने लगे। स्कूल में हल्की-फुल्की शायरी दोस्तों को सुनाते रहते और एक चलन्तू और घुमन्तु शायर की तरह मशहूर हो गए। फिर काॅलेज पहुँचते-पहुँचते और निखार आ गया शायरी में। वह सूरज चाँद छूने लगे। कुछेक आशिकी-वाशिकी के दौर भी चले जिनके बिना शायरी मुकम्मल नहीं होती। फिर आशिकी में धोखा। यानि एक शायर पूरी तरह मुकम्मल। और उन्होंने तखल्लुस चिपका लिया-‘‘घायल‘‘। उनकी शायरी में और निखार आया। और शबाब आया। जिस मंच पे चले जाते फजां में तारे बिखेर देते। तालियों पर ताली...ताली ही ताली।

हत्ता कि वह तालियो के अभ्यस्त हो गए। एक कलाकार को और क्या चाहिए? इससे बेहतर चीज उसके लिए हो भी क्या सकती है? सच कहें तो वही उसकी खुराक होती है। एक रात जब मुशायरे की चकाचैंध से सने हुए वह घर वापसी के लिए निकले तो किन्हीं दो हाथों ने उन्हें ठहरने का संकेत किया। वह ठिठके। और ठहर गए। फिर वो चूड़ियों से छनकते हाथ ताली बजाते हुए उनके नजदीक आए और थम गए-

‘‘...बेहद खूबसूरत घायल साहब। वाकई में घायल कर दिया।‘‘

‘‘नवाजिश, मेहरबानी... आपकी तारीफ?‘‘

‘‘तारीफ तो उस खुदा की जिसने मुझे बनाया।‘‘ और दोनों तरफ कहकहे तैर गए।

‘‘ घायल साहब, मुझे फिरोजा कहते हैं। आजमगढ़ से आई हूँ । एक एन.जी.ओ. चलाती हूँ। उसी सिलसिले में आई थी। घर में सिरफ एक छोटा शादीशुदा भाई है ।...बस्स...अगर आप अकेले हों तो ये हाथ थाम लीजिए, आपसे बेहतर हमसफर मेरे लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता।‘‘

‘‘ जी बेहतर..‘‘

वह हल्के से मुस्काए और धीरे से हाथ आगे बढ़ दिया।

‘‘ शुक्रिया मेहेरबां, तुम भी मुसाफिर हम भी मुसाफिर साथ चलें तो अच्छा है।‘‘

फिर एक जोरदार कहकहा। और फिर फिरोजा के हाथ को थाम आगे बढ़ते हुए बोले-

‘‘ मैं नहीं जानता था कि मेरा प्यार भी तालियाँ बजाता हुआ मेरी जिंदगी में दाखिल होगा।‘‘

पेशे से वह लेक्चरर हो गए। काॅलेज में भी अध्यापक और छात्र महफिल जमा लिया करते। उनके अशआर सिर चढ़ कर बोलते रहते। उनकी इस अतिरिक्त योग्यता ने उन्हें काॅलेज में एक अलग तरह का मान दिलाया। वह प्रायः घर में बैठ कर भी फिरोजा को अशआर सुनाया करते। खराम-खरामा दिन गुजरते गए महीनों और सालों का पता ही नहीं चला। इस दरम्यान दो बच्चे भी हो गए। फिर उनकी परवरिश का सिलसिला चल निकला। हालांकि उनसे उनका जुनून नहीं छिना। शेरो-शायरी के पीछे वह आज भी उतने ही जुनूनी, उतने ही पागल थे। दूर-दूर तक उनकी शायरी के जलवे थे। आए दिन घर पर भी कवियों और शायरों का जमावड़ा रहता। किसी दफा वह किसी मुशायरे में शिरकत करने गए और अपेक्षाकृत उनकी पेशकश पर तालियाँ न के बराबर मिलीं। लगा, किसी ने उनकी इज्जत उतार ली। हत्या कर दी गई उनकी। आँखों में गहरी खामोशी थी। निराशा और विचित्र सी छट-पट। घर आते-आते बुखार चढ़ गया। सिर दर्द से चटखने लगा। झुंझलाहट बेतरह। बार-बार वह इसका दोषी अपने परिवार को मान रहे थे।

‘‘....स्साला...कलाकार को तो शादी करनी ही नहीं चाहिए। सारा टैलेंट ध्वंस्त कर देती है ये। आटा-दाल के भाव के चक्कर में पता ही नहीं चला कब रदीफ-काफिए तिड़ी-बिड़ी हो गए। गजलें बे-बहर हो गईं। छंद-वंद सब बिखर गए। फिरोजा ने बोलकारा तो उलझ पडे-

‘‘..बात मत करो मुझसे। मैं कितना उरूज पर पहुँचने वाला था कि तुमने आकर सारे रास्ते ही बंद कर दिए। जहाँ एक पल को कोई शेर जेहन में आया कि तुम्हारे ये छछूंदर आकर सब गडमड कर देते हैं।‘‘

फिरोजा मुँह बनाती, बच्चों को हंकालती कमरे से बाहर निकाल लाती।

किसी इतवार को वह सुबह से बैठे अश्आर का जोड़ तोड़ कर रहे थे कि छोटा बच्चा दौड़ता हुआ आया-

‘‘ पापा मेरी मैथ्स हल कर दीजिए।‘‘

लगा, खूबसूरती लेती हुई कुछ लड़ियों को एक बंदर ने आ कर नोच-खसोट डाला है। वह चिंहुंक पड़े-

‘‘उफ्...आदम की औलाद, अभी ही तुझको आना था।‘‘ उनके जेहन में सारे जमे जमाए शेर रफूचक्कर हो गए और वह सन्न से बैठे रह गए। बड़े मायूस से हो गए वह ‘‘ यानि तय है तालियाँ अब कभी नसीब न होंगी अब मेरी तख्लीक को।‘‘ बड़बड़ाए। उन्होने बच्चे को दुरदुराया और चददर तान कर लेट रहे। फिरोजा ने दूर रहना ही मुनासिब समझाा।

खैर उनकी तखलीकों और परिवार के बीच रस्साकसी चलती रही। बड़ी मेहनत और मश्क्कत के बाद आखिर वह कई महीनों पर जब एक मुशायरे में शामिल हुए तो वाकई हरहरा के वापस हुए। तमाम दाद मिली उनके अशआर को । वह चिंहुंकते हुए घर में दाखिल हुए और दोनों बच्चों को गले लगा लिया। फिरोजा से लहकते हुए बोले-

‘‘ जानती हो ऐसी गजल दे मारी कि हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया। कमाल हो गया। एक कलाकार को और क्या चाहिए?‘‘ फिरोजा ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा-

‘‘ चलो तुम्हें तालियाँ मुबारक...‘‘

‘‘ बिल्कुल जानेमन, आखिर तुम्हें भी तो तालियाँ ही लेकर आई थीं मेरी जिंदगी में.‘

खरामा-खरामा घायल साहब सत्तर तक पहुँच गए। बच्चे पँख लगा कर उड़ गए। कोई लंदन तो कोई सिंगापूर। बचीं फिरोजा और वह। शेरो-सुखन में उनका रूतबा बरकरार था। तालियों की गडगड़ाहट भी वैसी ही बरकरार थी। प्रायः सपनों में भी उनको तालियों के ताल सुनाई पड़ते और वह मुस्कुरा देते। तब उनका चेहरा देखती फिरोजा बड़बड़ाती-

‘‘...जरूर हुजूर किसी मुशायरे में दस्तक दे रहे होंगे और तालियों से आसमान गूंज रहा होगा। ‘‘

यही सच भी होता। जब वह जागते तो बताते-

‘‘जानती हो, आज खाब में हैदराबाद पहुँच गया। मेरी गजलों ने वो समाँ बाँधा कि बस्स तालियों का पारावार ना रहा।‘‘ वह कहती-

‘‘जानती हूँ लिफाफा देख कर ही खत का मजमून जान लिया था। ‘‘

‘‘अच्छा, कैसे?‘‘

‘‘तुम सोते हुए मुस्कुरा रहे थे। जितनी मुहब्बत तुम्हे तालियों से है उतनी तो अपने बच्चों से भी नहीं।‘‘

‘‘ तुम नहीं समझोगी, इसे एक कलाकार ही समझ सकता है। ‘‘

किंतु, जिंदगी में काले अंधेरे भी कम नहीं होते। अचानक एक रोज उन्हें लकवा मार गया। महीनों बीमार पड़े रहे। बोल सकने में भी असमर्थ। अंदर अशआर के समंदर हिलोते मारते रहे पर न जुबां चलती न हाथ चलते। सयास आँखों से जल बहने लगता। कैसी मारक स्थिति। फिरोजा कितना कहती थी कि जो जेहन में आए लिख लिया करो। मगर उनके अतिरिक्त आत्मविश्वास ने उन्हें ग्रस लिया। वह बोलते-

‘‘ नहीं यार, सब जेहन में नोट है जस का तस। कभी भी सुना सकता हूँ‘‘ मगर नहीं अब उनके साथ ही उनके सारे कलाम चले जाएंगे। उनके नाम का कुछ भी शेष नहीं रहेगा जमीन पर। साल भर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े और लागर हो गए। आगे तबियत कुछ ज्यादह बिगड़ गई। बच्चे बुला लिए गए। सब छुट्टी ले कर आए थे। दोनों बेटे अजब पशोपेश में रहते। पापा जी का कुछ पता नहीं कब तक संास लेते रहेंगे। कुछ हो-हुवा जाता तो हम भी मुक्त होते। छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं। बार-बार कौन आएगा? फिरोजा दोनों की मनःस्थिति समझ रही थी। मन ही मन उन्हें गरियाती-

‘‘नासपीटे...हैं सब, बाप से बढ़ कर नौकरी है। आज के बच्चों में जज्बात तो रह ही नहीं गए हैं।‘‘ छोटा बेटा कह ही जाता-‘‘ भगवान इन्हें उठा ले, इनकी तकलीफ देखी नहीं जाती।‘‘ फिरोजा कट कर रह जातीं। उन्हें पता है बेटा उनकी तकलीफ से परेशान है या अपनी तकलीफ से। हालांकि घायल साहब की बस सांसें ही चल रही थीं। बाकी कुछ नहीं था। सारा जिस्म ठण्डा गया था। पूरा जिस्म मृतप्रायः।

उस दिन डॉक्टर. आया तो नब्ज देखते हुए बोला-

‘‘इनमें है कुछ नहीं। समझो खत्म हो चुके हैं बस सांसें जाने कहाँ अटकी पड़ी हैं। इन्हें तो अब तक खत्म हो जाना चाहिए था। फिरोजा ने गहरी सांस खींची। आँखों से एक कतरा बह निकला। धीमें से बोलीं-

‘‘मुझे पता है इनकी साँसें कहाँ रूकी पड़ी हैं।‘‘ और उनकी पलंग के समीप सरक आईं। आस पास जो बैठे थे उनको भी इशारे से समीप बुला लिया। फिर धीरे धीरे ताली बजानी शुरू की। उनके हाथों में पड़ी काँच की चूड़ियों और तालियों की सुर ताल अचानक बहुत मोहक लगने लगी थी। आस पास के लोग उन्हें हैरत से देखने लगे थे। बच्चों को लगा ये माँ को क्या हो गया कि फिरोजा ने उन सबकी ओर भी इशारा किया तालियाँ बजाने के लिए। और फिर डॉक्टर समेत सभी तालियाँ बजाने लगे। तालियों की आवाज धीरे-धीरे तेज होती गई। डॉक्टर लगातार कौशल प्रकाश के चेहरे पर नजर रखे था। सयास तभी कौशल प्रकाश घायल के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैर गई और अगले ही क्षण प्राण पंछी कहीं दूर खलअ में उड़ गया। डाॅ. ने सहसा उनके चेहरे का रंग बदलते देखा तो उनकी नब्ज टटोलने लगा और फिर फिरोजा के हाथों को पकड़ कर रोकते हुए बोला-

‘‘ स्टॉप...स्टॉप...ही इज नो मोर...‘‘

और फिर फिरोजा फूट-फूट कर रो पड़ी।

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