Afsos sadd afsos ki tum bewafa hue books and stories free download online pdf in Hindi

अफ़सोस! सद् अफसोस...कि तुम बेवफा हुए

अफ़सोस! सद् अफसोस...कि तुम बेवफा हुए

मेरी आंतरिक बाहों में आज भी तुम भरे पड़े हो। बिल्कुल अमौन-शहनाईयों की तरह। बिल्कुल विझंकृत-रूबाईयों की तरह। मगर ये विछोह-नुमा क्षण भी एक विमोहक-स्पर्श दे जाते हैं। जैसे अभी-अभी कुछेक देर में तुम वापस आ जाओगे। नेपथ्य में जाती हूँ तो पाती हूँ एक भरा-पूरा आकाश।...स्वप्निल-आंकाक्षाओं की हरित-कोपलों से आच्छादित बेला,गुलाब,मालती की नैसर्गिक सुगन्ध। मैं गुलदाउदी के फुलों से लदी टहनी मात्र, जिसे समय की गर्म हवाओं ने अलबत्ता छू-छू कर झुलसा डाला है कलान्तर में।

तुमने कहा था, चौथी रात को आओगे। और ये कि चौथा युग हो गया।...किन्तु हाँ....न मैं बुझी, न दिया बुझा...न मेरी प्रतीक्षा।-तो अब कैसा विलम्ब...कैसी विमुखता...कैसा संलाप...? और तो और तुम कोई अपनी पहचान भी नहीं दे गए...कि कह पाती-‘बिल्कुल बाप पर गया है‘। जिसकी आँखों में तुम्हारा अक़्स तलाश पाती।

जिस दिन तुमने अन्तिम विदा ली, अन्तस में पतझड़ों की तेज हवा चली थी। जैसे जीवन का प्रथम पतझड़ हो या पहली क्रूरतम आपदा। कुफ्र...कुफ्र...बस कुफ्र...। मैं तुम्हारा धीमे.... धीमे.... धीमे..... धीमे... जाना देखती रही। जैसे तुम प्रतिदिन धीमे....धीमे चलते हुए चले जाते बाहर और भारी स्वर में पुकार कर कहते जाते-

‘‘...दरवाजा खुला रखना....बस आ रहा हूँ..‘‘

-और देखो कि युगों से दरवाजा खोले ही बैठी हूँ। किन्तु मैं भी कैसी बावली हूँ। मुझे कौन समझाए कि ये दरवाजे तुम्हारे आने के लिए नहीं.....मेरे जाने के लिए खुले हैं।

तुम्हारे चले जाने ने मेरे सारे सिंगार बिगाड़ डाले। बिंदी, चूड़ी, आलता, सिंदूर......सब रखे रह गए। अब दुनिया सजने ही नहीं देती। उसे क्या पता, मेरे सिंगार पे तुम कितना मुग्ध रहते थे......चारों पहर।

जब तेरहवीं हुई। तुम्हारे नाम पर माल-पुआ उड़ाया गया। पण्डित हवन में मंत्र झोंक-झोंक के तुम्हारी आत्मा के आने के सारे प्रवेश-द्वार बंद करता रहा। और मैं रीतती रही काश! ये पण्डित ऐसा न करता! स-शरीर न सही आत्मा के रुप में ही तुम आते...आ ही जाते। आते तो सही। मैं तो तड़ से तूम्हारी विमोहक सुगन्ध पहचान जाती, और तुम्हें उंगली में लपेट के आंचल के खूंट में बांध लेती। कैसी विडम्बना है। जीते जी सब तुम्हें गले से लगाते रहे। अब नहीं हो तो सब तुम्हारी रूह के दुश्मन बने हुए हैं। ....वाह री संगदिल दुनिया...।

तुमने कर्ज़ ले ले के जितने ऐश मुझे करवाए अब उनका भुगतान मैं कर रही हूँ। सब अदा कर दिया लगभग।...कुछ बाकी है।-घर के आंगन के पौधे अभी भी तुम्हें याद करते हैं। लोटा, बाल्टी, प्लेट भी। तुम हो कि सुनते ही नहीं। तुम क्यूँ परवाह करोगे? वहाँ तो तुम देवताओं के संग मस्ती कर रहे होंगे। कितनी सारी अप्सराएं तो पाल रखी हैं देवताओं ने। अब तुम जैसे रोमान्टिक जनों की तो बल्ले बल्ले। ओह नो...ग़लत कह गई-तुम्हारी नहीं उन अप्सराओं की बल्ले बल्ले। जो तुम जैसे कामी पुरूष को पा कर धन्य हो गई होंगी।....क्यूँ..?.....चलो हटो मजाक कर रही थी। आज कल श्वेत पैरहन में मैं बेवा, किसी रूहानी-अप्सरा से कम नहीं लगती। देखते तो मुग्ध हो जाते। वैसे इस श्वेतांगी-स्वरूप में मैं तुम्हारे और समीप हो जाती हूँ।

जिस जगह से उठ कर चले गए हो तुम, उस जगह को टटोलने पर तुम ही महसूस होते हो। उन ब्लैंक्स पर नज़र पड़ती है तो तुम ही नज़र आते हो। चाहे तुम्हारा बिस्तर हो, तुम्हारा कमरा हो, तुम्हारी कुर्सी हो, या हमारे दरवाजे के सामने से बहती हुई सरयू का तुम्हारा वाला ‘तट‘। रूहानी खुशी से तर जाती हूँ...कि तुम हो तो सही।

एै...ल्..ले....सबसे महत्वपूर्ण बात तो बताना भूल ही गई। तुम्हारे जाने के कुछ महीनों बाद विचित्र घटना घटी। एक रोज बैठे-बैठे सोंचती रही, फिर तुम्हारी स्मृतियाँ बुहार लाने की गरज से तुम्हारा वह पुराना मूर्चा लगा हुआ संदूक खोलने बैठ गई। जिस तक तुम्हारे जीते-जी कभी न पहुँच सकी थी। इसकी एक वजह ये भी है कि तुम्हारे बाद घर में कोइ बचा ही नहीं। मेहमान आए, तुम्हे विदा करके चले गए।...मेरे लिए कौन रूकेगा, जब तुम ही न रूके...।

क्या करूं रूलाई आ ही जाती है। चलो पोंछ लेती हूँ आँसू। क्या करूं, तन्हा घर में किस-किस से टकराऊँ ? किससे दर्द कहूँ ? दीवारों से, दरवाजों से, या चम्मच कटोरियों से ? हाँ याद आया-तुम्हे वे चम्मच-कटोरी भी बहुत मिस करते हैं जिनका उपयोग तुम साबूदाना की खीर खाने में करते थे। मैने उन्हें सम्भाल कर रख दिया है। क्या पता किसी दिन चमत्कार हो जाए। किसी कोने-पर-कोने से तुम उग ही आओ धीरे से और अपनी चम्मच-कटोरी फिर से सभाल लो। कहने को तो लोग कहते हैं-जाने वाले लौट कर नहीं आते। सितारे बन जाते हैं। मगर ये निश्चित है सितारों में सबसे मोहक सितारा तुम होगे।...वो नीला...असमानी...फिरोजी...।

हाँ तो भूल गई, बात तुम्हारे सन्दूक की हो रही थी। उसे झाड़ा-पोंछा बड़े नेह से। जैसे तुम्हारे नहाने के बाद तौलिए से तुम्हें पोंछती-पांछती थी धीरे-धीरे। और तुम कहे जाते-‘‘...हर बार...हर बार...एक मौलिक स्पर्श।....क्या करती हो। जैसे तौलिए में पानी नहीं, मुझे ही समोह रही हो।‘‘ और मैं मध्यम-मध्यम....मुस्काती जाती....।

तो सन्दूक की बात फिर रह गई। तो उसको खोला। ईश्वर-ईश्वर...कैसी नैसर्गिक-सुगन्ध से अटा पड़ा था। तुम्हारा कश्मीरी मफलर। अपनी कृतियों पर प्राप्त किए गए बड़े-बड़े सम्मान। सोंच में पड़ गई।....सच है, विशिष्ठ लोग अन्ततः तन्हा ही रह जाते हैं अपने सम्मानों के साथ....उन्हें कोई नहीं पूछता। कोई नहीं पूजता। खैर और वस्तुएं निकलीं। नीली आँखों वाली गुड़िया। जिसे तुम तब ले कर आए थे जब हम शिमले गए थे। तुमने कहा था-

‘‘...हमारी बेटी होगी....उसके लिए..‘‘.किन्तु.......

तुमने इसे भी इस सन्दूक में दफ़न कर रखा है।....और जो पहली दफा मैने तुम्हें रूमाल दिया था...वह भी। बस्स... ये समझ लो जो-जो चीजें तुम्हें नितांत प्रिय थीं उनको इसमे सहेज कर सीने से लगा के रखा है तुमने। किन्तु सयास एक मारक स्पर्श दंश कर गया है। गुलाबी, फ़ोम का चौड़ा सा लिफाफा। हाथ छू कर ही भांप जाते हैं कि कुछ अलौकिक अवश्य है। ये चीज तो तुम्हारे जीते जी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी।...जाने कितनी बाँहो से अडण्कवार में भर लेती हूँ तुम्हें...माई...माई....माई....।

इस 62 साल की उम्र में भी यौवन-अह्लाद से भर जाती हूँ। माईनस 42 में चली जाती हूँ। मात्र 20 वर्षीय अल्हड़, उमगती यौवना की तरह। मानो, तुम्हारी बेवा नहीं, तुम्हारी सावनी-विरहड़ी हूँ और सावन के झूले पे बैठ तुम्हारी प्रतीक्षा किए जा रही हूँ..किए जा रही हूँ...। खैर खोलती हूँ लिफाफा और सातवें आसमान से गिरती हूँ।-एक सुनहरी सी सुन्दर मुलायम दो चोटियाँ बांधे भोली सी युवती।...देखती रह जाती हूँ। फिर कई और तरह की उसकी प्यारी तस्वीरें। उन्हें देखते-देखते खुद तस्वीर हो जाती हूँ।...फिर और पलटती हूँ।...और पलटती हूँ.। उसके ढेर सारे पलाशी शब्दों में भोले-भाले अनछुए प्रेमपत्र। पढ़ती-परखती हूँ और अन्ततः इस निर्णय पर पहुँचती हूँ कि ये उसके जीवन का कदाचित प्रथम प्रेम था। और तुम्हारे जीवन का अन्तिम। उसके पत्रों ने पढ़ा दिया है मुझे कि तुम उसे क्या-क्या मानते थे। अपनी आन्तरिक-शक्ति या उर्जा से ले कर एक अलौकिक देवी तक। तभी मैं सोंचा करती थी अपने उतार के दिनों में अचानक तुममें इतनी उर्जा कहाँ से पैदा होने लगी। तुम कहते थे-‘‘...तुम्हारी अथक सेवाओं का प्रभाव या परिणाम है‘‘ -और मैं गदगद हो जाती।....कितनी सफाई से निकल लेते थे तुम। मैं उससे आगे जा ही नहीं पाई कभी।

निःसन्देह, अदृश्य आभाषों में कितनी ही बार जिया होगा तुमने इस मृगनयनी को।..और वह भी कितने सात्विक भाव से तुम्हें आत्मसात किए हुए है। तुम्हारे पत्रों के जवाब कितनी उदारता और शालीनता से दिए हैं उसने। खैर.....

दया आती है तुम्हारी पथिकता पर। सुदूर वर्षों तक तुम इसी काव्यात्मक और एकनिष्ठ प्रेम के लिए भटकते रहे।...और मिला तब जब तुम्हारे हाथ खुद इसे सम्भालने की स्थिति में न थे। सीधे कहूँ तो तुम्हारे अवसान के दिन थे। इसके पारदर्शी स्पर्शों और हैमन्तिक प्रेम के सम्मुख तुम कितने कमजो़र महसूस होते रहे। तुम उसी की प्यास में जीवित रहे। तड़पते रहे...कलपते रहे और मुझे सहते रहे।....कैसी पीड़ादायक स्थिति रही होगी वह तुम्हारे लिए। सोंचते-सोंचते एक विचित्र तृप्ति से तर गयी हूँ। अजब राहत से भर गई हूँ। इस विचार से कि तुम्हारे न होने का दंश अकेली मैं नहीं, मेरे समेत कोई और भी सह रहा है।..बेसाख्ता..मेरी निंगाहें क्षितिज तक तलाश आई उसे।...कहाँ होगी वह स्वर्णिम-स्वर्गिक नव-यौवना...कि उसे सीने से लगा के धन्यवाद कहूँ कि वह भी मेरे तम-क्षणों की भागीदार है। और अचरज इस बात का कि एक दिन वह स्वयं मेरे सम्मुख आ खड़ी हुई। उसके साहस को सलाम। तुम होते तो मैं कया-क्या न उठा-पठक करती। कितना चिल्लाती...किन्तु समय परिस्थितियों का चेहरा बदल देता हैं। मैं उसके लिए प्यार से भर गई।

एक दिन भोर का समय था। मैं पूजा कर रही थी कि किसी ने बाहर दस्तक दी। कृष्ण भगवान को प्रणाम करके बाहर निकल आई और बाहरी गेट खोला। सम्मुख वही तस्वीर जीवंत हो कर खड़ी थी। विश्वास नहीं हुआ।...बिल्कुल नहीं। उसने हाथ जोड़ कर नमन किया शायद। मुझे सुध नहीं। हठात् मैं उसके सीने से जा लगी और फूट-फूट कर रोने लगी। ठीक वैसे ही जैसे कभी दंशित क्षणों में तुम्हारे सीने से लग कर रो पड़ती थी। वह मेरी पीठ पर हाथ फेरती रही। बताने की जरूरत नहीं कि उसमें तुम्हारा स्पर्श महसूस होता रहा। लगा, मैं सलमा से नहीं, तुमसे लिपट कर रो रही हूँ और तुम मुझे हौले-हौले सहला रहे हो। एक दफा तुमने कहा था-

‘‘बरसों से एक कन्धा ढूंढ़ रहा हूँ जी भर कर रोने के लिए...जाने कब मिलेगा.‘‘

मेरा मन टूक-टूक कर रह गया। एक प्रकार से यह तुम्हारी एक अप्रत्यक्ष नकार थी मेरे लिए। लगा मैं टहनियों रहित एक ठूंठ मात्र हूँ जिस पर ऋतुओं का आना-जाना कब का बंद हो चुका है। फिर इधर कुछ वर्षों से तूमने ये शिकायत बंद कर दी। मैं जान न सकी...क्यूँ..? पर शयद इसीलिए कि तुम्हें वह कान्धा मिल चुका था। विडम्बना देखो, आज उसी कांधे पर सिर रख के मैं कितनी अभिभूत हुई हूँ। कितनी राहत महसूस कर रही हूँ। सच में तुमने जो कांधा ढूंढ़ा था वह अतुल्य है। जिसने मुझे इतनी नैसर्गिक शान्ति दी, उसने तुम्हें कितना सम्भाला होगा। सहेजा होगा। धन्य हैं वे कांधे। वे बाहें। वे आलिंगन। मैं भी धन्य हो गई हूँ। सलमा के कान्धों ने मुझे सम्भाला। पानी का गिलास दिया। फिर बोली-

‘‘..मुझ पर उनके बहुत सारे कर्ज़ हैं, उन्हें चुकाने आई हूँ..‘‘ -और भी जाने क्या-क्या कहती रही। .....जाना कि तुम तो बहुत पहले ही मेरे जीवन से जा चुके थे। सलमा के आंचल में सांसें लेने के लिए। मैं तो मात्र आलम्ब थी तुम्हारे अस्तित्व का। तुम्हारी आत्मा तो कब की पलायन कर चुकी थी मेरे आलिंगन से। नाहक ही मैं तुम्हें समोहने का भ्रम पाले बैठी थी। मगर छोड़ो।

यह सलमा बड़ी प्यारी है। बड़े धैर्य से मेरी पीड़ाओं को आँखों में आंज लेती है। फिर मुस्कुरा देती है। ऐसा नहीं कि तुम्हारी अनुपस्थिति उसे विचलित नहीं करती। करती है। किन्तु वह नर्म धारा उसकी उंगलियों से होती र्हुइ कहीं अंतरिक्ष में विलय हो जाती है। कैसी आडम्बरहीन यह मुहब्बत है। किसी अनाम संवेदना ने हमें जोड़ रखा है। हम दोनों के बीच का सेतु तुम हो।....वह मुझमे तुम्हें देख कर जी को ढांढ़स देती है। और मैं सलमा में तुम्हें देख कर। मुझे विश्वास है, तुम्हारे अन्तिम समय में तुमहारी सांसारिक-तंद्रा के झुटपुटों में सिर्फ सलमा ही टिमटिमा रही होगी। मैं नहीं। तुम संकोच में रह गए। एक बार कह तो देते, अपनी अन्तिम इच्छा। मैं सलमा को ला कर तुम्हारे सम्मुख खड़ा कर देती। तुमसे निश्चिन्त हो कर जाया तो जाता। जब सलमा सांझ को सिरहाने बैठती है, तो तुम्हारी ही कहानी सुनाती है। मैं सुनते-सुनते सो जाती हूँ। जैसे कभी हमारी दादी माँ किसी राजकुमार की स्वप्निल कथाएं सुनाती थीं। सलमा भी सुनाती है। पर संशय होने लगता है-

‘‘सलमा अपने राजकुमार की कहानी सुना रही है या मेरे.....‘‘

किन्तु इतना निष्कर्ष अवश्य निकाल पाई हूँ कि तुम्हारे तमाम विक्षिप्त दर्द जिन्हें मैं छू तक न सकी कभी, सलमा ने उन्हें खूब जिया है। उन पर मरहम भी रखा है। प्रश्न कचोटता है, ‘‘मैं यह करने से क्यूँ रह गई? क्यूँ नहीं आत्मसात कर पाई तुम्हारी बाहों को। तुम्हारे हिय को। तुम्हारे भीतर उठते हुए तूफानों को। तुम्हारे जीवन में अटे पड़े चक्रवातों को? मैं तो अपने दर्शन लिए बस तुमसे ही भिड़ती रही।....भिड़ती ही रही। दर्शन बघारती रही। मात्र दर्शन। या तर्क-वितर्क के द्वारा तुम्हें मात देने का प्रयास ही करती रही। तुम परास्त हाथों से मेरी विजय-पताका लहराते रहे और मैं आत्म-मुग्धा की सी देखती रही। हत् बुद्वि मैं, कभी ये भी न सोंच पाई कि तुम ही जान-बूझ कर परास्त होते रहे।

बाकी, चक्रवातों, तूफानों, आपदाओं को एक समन्दर ही अपने भीतर विलय कर लेता है। वही शान्त, विशालकाय समन्दर ये सलमा है। तुम्हारे विशालकाय वजूद और तुम्हारी अथाह प्यास को उसने कैसे अपने आप में चुपचाप जी लिया। तुम्हें जिला लिया। महसूस करती हूँ-इस समन्दर में भी लहरें उठती हैं...हौले..हौले.....हौले....हौले....। ये लहरें कभी इधर कभी उधर कोने में बैठी सलमा की आँखों से आँसू बन कर चेहरे पर फैल जाती हैं। मैंने प्रायः चुपके से देखा है।

मैं कट कर रह जाती हूँ। चकित हूँ, कैसे जिया होगा तुम दोनों ने अपने-अपने हिस्से का बसंत। सलमा का चैबीसवां बसंत, तुम्हारा 64वां बसंत।...दोनों एक-मेक हो कर कैसे मनोहारी तारतम्य बना पाए होंगे। किन्तु जानती हूँ ये एक-मेक होना नितांत जीवंत, उन्मुक्त, उन्मुक्त और उत्फुल्ल रहा होगा। इसका मुझे विश्वास है।

सलमा वंदनीय है। उसने तुम्हें बचाए रखा। सहेजे रखा। तुममें जीवन-रस भरती रही। फिर भी इन सबके बावजूद एक कांटा भीतर चुभ रहा है...धीमें...धीमें...धीमे...धीमे जिसकी टीस बराबर बनी हुई है कि-तुम बेवफ़ा हुए....अफ़सोस...सद अफ़सोस.....।

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