तन्हाईयाँ
जैसे ही उन्होंने व्हिस्की के पैग को हलक़ में उंडेला, व्हिस्की खिलखिला उठी-
‘‘पी डालूंगी ढक्कन को! जनबूझ के हमसे पंगा ले रहा है। खंजड़ न कर दूं तब कहना....पी...डालूंगी‘‘
पैग खाली हो गया। वह सूनी पथराई दृष्टि से कैफे के बाकी कोनों को घूरते रहे फिर सिगरेट सुलगाई, सिगरेट तमतमाई, फिर मुस्कुराई-
‘‘जला के राख कर दूंगी, फिर मत कहना हाँ‘‘
किंतु कौन किसकी सुनता है? बड़े बाबू या मोहन बाबू धुंए के धक्कड़ फेंकने लगे। कभी मुँह से कभी नाक से और आंखों में मिर्च की तुर्शी घुलती रहीं। सयास, सामने एक विस्मृत विगत पछाड़ खाने लगा है।
एक कमरा, एक बरांडा और छोटे से आंगने वाला घर। चौकोर चौपट कच्चे आंगन में हर के हर मौसम का खुला मजा। चाहे भादों हों चाहे ग्रीष्म चाहे शरद्। सावन-भादों की बारिश में चैकोर आंगन में बच्चों का उछल-उछल कर मस्ती करना। फिर बच्चों के साथ उनका भी बच्चे हो रहना। ठंडक में उसी आंगन में इकट्ठे ही बैठ कर आग तापना। गर्मी में खुले आंगन में ही चांदनी रात में बच्चों की जमात के साथ-साथ सोना। सब साथ-साथ। हालांकि पत्नी के घर वाले सदैव जमे रहते थे किंतु वो भी साथ-साथ। मगर जबसे घर बदला, दुनिया ही बदल गई। जिंदगी ही बदल गई। घने-घने कमरों वाला घर। जितने घर के सदस्य उससे अधिक कमरे। सबने अपने-अपने कमरे बांट लिए और बिखर गए पूरे घर में। उन्होंने भी एक कमरा छांट लिया। परन्तु पत्नी ने पूजाघर में ही अपना अड्डा जमाया। वहीं पूजा अर्चना में लिप्त रहतीं। उससे फुर्सत मिलती तो अपनी माँ को लेके बैठ जातीं। यानि माँ के कमरे में। जब तक वह ऑफिस में होते तब तक वह रसोईघर आबाद करतीं। दोपहर टी.वी. शोज ‘घर-घर की कहानी‘ ‘स्त्री तेरी यही कहानी‘ यानि चालू सीरियल्स के हवाले कर देतीं। गरज ये कि घर वालों के दरम्यान दुआ-सलाम भर का ही रिश्ता रह गया था। अपने-अपने कमरों में सब खो गए। सबके पास अपने-अपने ढंग की प्राईवेसी है। अर्से से ऋतु से मुलाकात नहीं हुई। मुँह अंधेरे ही वह फुंग शू की शरण में चली जाती है कराटे सीखने ओर उनके ऑफिस से लौटने के पहले ही अपने कमरे में बंद हो जाती है। रोहित के प्रोजेक्ट का क्या हुआ होगा? और शिखा? कोई कुछ बताए तब न। अजब हैं ये प्राईवेसियां।
सिगरेट ने ‘आह उह..‘ करके दम तोड़ दिया और एश ट्रे के सुपुर्द कर दी गई। सामने मेज पर रखी रिपोर्ट उन्होंने उठाई। कैफे की उदास, नम रोशनी में उसे बिलावजह उलटते पलटते रहे फिर रोल कर लिया और उठ गए। घर पहुँचे तो रात के बारह बज चुके थे। छतें, दीवारें पीली कसैली रोशनी में डबडबाई पड़ी थीं। दरवाजा उढ़का हुआ था। वह दरवाजा ठेल कर भीतर आए कि ईंट-ईंट गुरर्राई-
‘‘ खामो...श‘!‘
अजब सा भय लगा उन्हें। अपने ही घर में इतनी निस्सारता? इत्ती विपन्नता? कि मोबाईल बज उठा। टटोलते हुए निकाला और रिसीव किया-
‘‘ हाँ जी, मोहन बाबू बोल रहा हूं। ‘‘
‘‘अंकल, मैं रिया, ऋतु को थोड़ा संभालिएगा। काफी टेंशनाईज है।‘‘
‘‘क्यूं?‘‘
‘‘आपको नहीं पता, इंजीनियरिंग में उसका सेलेक्शन नहीं हो सका‘‘
‘‘कब आया नतीजा?‘‘
‘‘चार दिन पहले‘‘
‘‘...ओह...कोई बताए तब न...‘‘ वह सोंचकर रह गए। वो भी क्या दिन थे कि ऑफिस से आते ही बच्चे हाथ-पाँव में लिपट जाते थे। कोई कोमिक्स मांगता, कोई चौकलेट। अब तो कोई कमरों से झांकना भी गवारा नहीं करता। क्या कहा जाए।
थके कदमों से आगे बढ़े और सहसा ऋतु के कमरे के सामने ठिठक गए। कमरे की सारी खिड़कियां भटो भट खुली हैं और ऋतु कैनवास पर झुकी है। पीठ खिड़कियों की तरफ है और कैनवास पर एक उदास लैंड स्कैप चमक रहा है। भीतर एक विचित्र भयावह बेचैनी चुभ गई। वह तेजी से पीछे हट गए। कहीं ऋतु देख न ले। कहीं पकड़े न जाएं उसकी निजता का अतिक्रमण करते हुए। ये कौन से अदृश्य हाथ हैं जो उन्हें एक दूसरे की तरफ से खींच लेते हैं। कैसे हैं ये जहरीले फासले। प्रहार करती हुई विगलित तन्हाईयां?
पीछे घूमे। रोहित का बेडरूम। न चाहते हुए भी रोहित के बेडरूम से सट कर खड़े हो गए हैं। अजीब विस्मयकारी विमोहक अनुगूंज...
‘‘...तेरे हाथ में...मेरा हाथ हो...‘‘
बेचैन हो उठे। कभी-कभी आत्मीयों की उदासीनता भी प्रताड़ित करती है। कोई किसी को शेयर करने के लिए तत्पर नहीं हैं। कोई किसी को हाथ देने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। कैसे फिसलन भरे रिश्ते हैं और कैसी निर्मम निजताएं। निजताएं और तन्हाईयां? किसी पागल पुरवाई की तरह इन निजताओं ने सारे अकेले-दुकेले किरदार अवशोषित कर लिए हैं। जी में घुल रहे हैं नश्तर।
रोहित के रूम से लगे हुए शिखा के रूम की ओर खिसक गए। की-होल से झांका किंतु अगले ही पल अकबका गए। छीः छीः गई रात को बेटी के बेडरूम में झांकना। क्या है ये सब? अपने ही घर में कैसी चोरों के जैसी ताक झांक। कहाँ गया वो बेसाख्तापन? हठात् गले से लग जाना। अभी दो साल पहले की ही तो बातें हैं। पछुवा पुरवईया सब एक मेक हुआ करते थे। और एक ये दिन हैं कि -
शिखा के सामने लैपटॉप खुला हुआ पड़ा था। चैटिंग चालू थी। बेशक! इसे बताया जा सकता है, यह सुन सकती है हाल-ए-दिल। इससे कहना चाहिए। किंतु अनायास किसी ने होंठों पर हथेली रख दी। ‘‘ नहीं...नहीं, कितनी रिलैक्स लग रही है। क्यूँ किसी का सुख ‘‘हरा‘‘ जाए। बच्चों को सुख दिया जाता है। दुःख थोड़े हीं।
तेज क़दमों से अपने कमरे की तरफ बढ़े। किंतु उससे पहले सासू मां का कमरा पड़ गया। पत्नी की धीमी हँसी सुन ठिठक गए-
‘‘चलो मांजी, आपको अमरनाथ की यात्रा करवा लाउं। घर में रहते-रहते जी ऊब गया है। कुछ आऊटिंग हो जाए।‘‘
जी में हूक सी उठी।
‘‘न तू जमीं के लिए है, न आसमां के लिए..‘‘
लगभग दौड़ते हुए अपने कमरे तक गए और गिरते हुए सोफे पर बैठे और जोर-जोर हांफने लगे। पिंडलियां दर्द से चटखने लगीं। सिर फटा जा रहा था। बेड से लगी हुई मेज पर ठंडा पाला खाना कवर से ढका हुआ रखा था। देर से घर आने पर उन्हें हमेशा ऐसा ही पनिश्मेंट मिलता है। एक मरी निंगाह से उन्होंने मेज की तरफ देखा। जी में कसैलापन घुल गया। कितना समय हो गया ये जहर खाते-खाते। ऑफिस में ओवर टाईम करने का परिणाम। उनके आते ही उनकी प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाए बैठा टोमी उछल कर गोद में लपक आया और बड़े नेह से उनका चेहरा तकने लगा। वह उसकी पीठ सहलाने लगे। टोमी दुलारने लगा और उनके हाथ से फाईल खींचने लगा तो उन्होंने स्वतः ही फाईल खोल के उसके सामने फैला दी-
‘‘टोमी, जानता है इसमें क्या लिखा है? इसमें लिखा है कि अब हमारा साथ कुछ ही दिनों का है। मुझे कैंसर है जो अंतिम अवस्था में है। जो पीड़ा सालों से सहता रहा उससे मुक्ति मिलने वाली है। मन की पीड़ा से भी और तन की पीड़ा से भी। दुःख केवल इस बात का है कि तू छूट जाएगा। मेरे बाद किसकी प्रतीक्षा करेगा तू? मेरी तरह तू भी तन्हा रह जाएगा।‘‘
कहते हुए उन्होंने टोमी को बांहों में भींच लिया और सुबकने लगे। टोमी उनकी गोद में सिर डाल के लेटा रहा और कूं...कूं...की घ्वनि से उन्हें ढ़ांढस देता रहा और काफी देर तक दोनों एक दूसरे को बांहों में भरे बैठे रहे।
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