समझ में आता है कि किस प्रकार कोई व्यक्ति ना चाहते हुए भी दुनिया की चमक धमक से समझौता करता है उसे पता होता है कि शासन तंत्र के बहुत सारे निर्णय गलत हैं वह बहुत कुछ लिखना भी चाहता है बोलना चाहता है लेकिन नहीं लिख पाता न ही बोलता पाता है,
आखिर वह किसी विचारधारा से जो जुड़ा है अगर वह व्यक्ति शासन तंत्र की कमियों को सबके साथ साझा करें तो जो लोग उसके साथ संगठनात्मक वैचारिक रूप से जुड़े हैं या सामाजिक लोग जो शासन तंत्र का पुरजोर समर्थन करते हैं वही सर्वप्रथम उसका विरोध करते हैं संबंध टूटसे जाते हैं और फिर शुरू होता है एक जागरूक और समाज के प्रति कर्तव्य निष्ठा व्यक्ति का भी परिस्थितियों से समझौता करने का दौर वो तिल तिल घुटता है सत्ता पक्ष की कमियों से जिससे सामान्य किसान मजदूरों को समस्या पैदा होती है उजागर करना तो चाहता है लेकिन संगठनात्मक वैचारिक दबाव उसे वह लिखने नहीं देता और एक उसका अपना आत्मबल निष्पक्षता कर्तव्य उससे झगड़ते हैं कि अगर तू नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा तू नहीं बोलेगा तो कौन बोलेगा।
कुछ लोग कोशिश भी करते हैं अपनी जिंदगी खफा देते हैं लेकिन परिणाम वही होता है जिन्हें समझकर बहुत पहले ही समझौता कर लेता है जो समझौता नहीं कर पाता वह समाज से अलग-थलग पड़ जाते हैं वही तिरस्कृत हो जाते हैं बहुतसो की हत्याएं हो जाती हैं और जब वह इस दुनिया से चले जाते हैं तो फिर लोग उनके पीछे उनके कार्यों के लिए सहारते हैं रोते हैं लेकिन कहावत है ना कि जब चिड़िया खेत चुग जाएं तो बाद में पछताने से कुछ नहीं होता। ठीक वैसे ही आज वही दौर चल रहा है शासक के कुशल नेतृत्व की पहचान संकट की घड़ियों में होती है और यह दौर वही है किसान को लेकर के भारतीय लोकतंत्र की पूरी राजनीति चलती है उसी किसान को हर सरकार दबाने पर तुली है उसे सहायता के नाम पर मजबूरी के टुकड़े डाले जाते हैं जिनसे ना तो वह पूरा संतुष्ट हो सके और ना मर सके बड़े-बड़े संगठन जो किसान के हितों की बात करते हैं सरकारी तंत्र के सामने दब कर रह जाते हैं समझौते करके रह जाते हैं और फिर वह भी सरकार का एजेंट बनकर किसानों को भ्रम में डालकर उन्हें चूसने का काम करते हैं। संकट के इस दौर में उस किसान के साथ कितना गंदा खेल खेला जा रहा है सहायता के नाम पर उसे ऋण उपलब्ध कराने की बातें कही जा रही हैं अरे उसे तो फिर भी उसे चुकता करना है और व्यापारियों को पैसा दिया जा रहा है उनका पैसा बट्टा खाते में डाला जा रहा है लेकिन किसान को अगर सहायता भी दी जाती है तो उसे बेईमान कह करके डिफॉल्टर कह करके।
यह उस देश का हाल है जहां किसान को देश की रीड माना जाता है और प्रत्येक राजनीतिक मंच से उसकी ही बात होती है चुनाव उसी के इर्द-गिर्द होते हैं आज जब देश में कोई सैनिक मारा जाता है पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता है हमने सुना है ना जय जवान जय किसान यह नारा हमारे देश के जवानों और किसानों को दोनों को प्रजेंट करता है लेकिन जब सहायता की बात आती है तो किसान की हैसियत एक जवान के बराबर भी नहीं रहती यह वह देश है जहां प्रतिवर्ष लगभग 36000 किसान आत्महत्या करते हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं ऐसे न जाने कितने किसान हैं जो सरकार की गलत नीतियों और गरीबी से बेहाल होकर आत्महत्या कर लेते हैं और उनका किसी को खबर तक नहीं होता लेकिन सरकार चलती जाती हैं वादे होते रहते हैं किसान को लूटा जाता है एक से दूसरी पीढ़ी आ जाती है पीढ़ी दर पीढ़ी समय आगे बढ़ता है आवाजें उठती है दफन होती हैं लेकिन सरकारी तंत्र का किसानों को लूटना नहीं रुकता यही सच्चाई है हमारे देश की हमारे देश के इतिहास में कहा गया है कि हमारे देश का किसान बहुत समृद्ध था आज के सरकारी तंत्र को देखकर कतई विश्वास नहीं होता।
इससे भी ज्यादा कुशल नेतृत्व और हम कब देखेंगे लेकिन परिणाम वही कि किसान पहले भी छला जाता रहा है और आज ही छला जा रहा है।
क्या करें लिख भी तो नहीं पाते खुलकर एक ओर वो लोग जो हमारे इर्द-गिर्द हैं वैचारिक रूप से, हम एक हैं सच लिखे तो वो रुष्ट होते हैं सच ना लिखें तो अंतरात्मा रुष्ट हो जाती है इस द्वंद में न जाने कितने थे और कितने होंगे और कितने हैं आखिरकार जीत किसकी होगी सच्चाई की कलम की या फिर सच जानते हुए भी अंतरात्मा और समाज के प्रति कर्तव्य से विमुख होकर राजनीतिक दबाव में आकर किए गए समझौतों की।
राजेश कुमार अमरोहा