कुबेर - 29 Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुबेर - 29

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

29

अपने अलावा और लोगों पर नज़र जाती तो कुछ चिन्ताएँ कम होतीं। वह अकेला नहीं है जो यह सब सहन कर रहा है, इस भावना से हिम्मत बनी रहती। कई ऐसे परिवार थे जिन्होंने अपने ख़ुद के एक घर के सपने को पूरा करने में अपने जीवन की सारी जमा पूँजी लगा दी थी और यह फ्लैट खरीदा था। कई परिवार ऐसे थे जिनके पास कुछ बचा ही नहीं था। एक ऐसा अन्याय हुआ था उनके साथ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वे अपने बाल-बच्चों के साथ सड़क पर आ गए थे। सबसे ज़्यादा गुस्सा इसी बात पर था डीपी को। ख़ुद भी तबाह हो गया था वरना ऐसे में उन लोगों की मदद ज़रूर करता। भाईजी जॉन को भी इस बात का रत्ती भर भी अहसास नहीं था कि न्यूयॉर्क में किसी इमारत के बन जाने के बाद, मालिकों को सुपुर्दगी के बाद ऐसा भी कुछ हो सकता है।

इस इमारत में जितने लोगों का नुकसान हुआ था उनकी सबकी मीटिंग समय-समय पर हुआ करती थी, अपनी व्यथा-कथा कहने के लिए। हालांकि उससे किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला था और ना ही उनका नुकसान कम होने वाला था। हाँ, एक नैतिक सहारा ज़रूर मिलता था कि सिर्फ़ एक ही नहीं बल्कि कई लोग बरबाद हुए हैं। बस एक ही मंशा थी कि एक दूसरे से अपनी बात को कहकर अपना दर्द कुछ कम कर लिया जाए। सरकार कुछ नहीं कर सकती थी सिवाय इसके कि कोर्ट के निर्णय का इंतज़ार करे।

आज भी एक मीटिंग थी जिसमें कई निवेशक थे, कई परिवार भी थे जो अपने बच्चों के लिए एकत्र किए गए सारे पैसों को गँवा चुके थे। उन्होंने अपने ऑफिस से लोन लिया था, बैंक से लिया था। अब उनके पास न रहने की जगह थी, न पैसा था जिससे बड़ा अमाउंट भरा जा सके। बात करते हुए उनके आँसू भी बहने लगते। पैसों के नुकसान का दर्द आदमी को भीतर से तोड़कर मानसिक रूप से शक्तिविहीन बना देने की ताक़त रखता है। यही हालत थी उन लोगों की, वे टूट चुके थे। सपनों के धराशायी होने का तो दु:ख था ही पर कभी सपने न देखने का भी इशारा था। कुल मिलाकर ज़्यादातर लोग शून्य से भी नीचे थे।

नुकसान होने पर शून्य तक तो गिना भी जा सकता है उसके नीचे तो गिनती भी थक जाती है। ख़ुद गिनती को भी पता नहीं चलता कि वह कहाँ जा रही है। शून्य के घेरे में चक्कर लगा-लगा कर रसातल में जाते हुए डूबना तो तय ही होता है।

नंबरों की भूल-भुलैया में खोए वे सारे लोग इतने असहाय थे कि कहीं से भी, कोई भी आशा की किरण ढूँढने की कोशिश कर रहे थे। डूबते को तिनके का सहारा भी मिल जाए तो बहुत है मगर सहारा मिलता भी तो कहाँ से। जवाब देने वाला कोई नहीं था वहाँ। सारे लोग जो थे वे थे जवाब माँगने वाले, अपनी विवशताओं का बयान करने वाले, मजबूरियों से घिरने वाले, किसी समाधान से बहुत दूर होकर समाधान ढूँढने वाले। कोई नहीं था जो सहानुभूति दिखाने के अलावा कोई ठोस मदद का वादा करता, कोई नहीं था जो उनकी किसी भी प्रकार से कोई मदद करता। जो थे वे अपने क़र्ज़े की उगाही के लिए मुँह फाड़े खड़े थे जिनमें बैंक, निजी ऋणदाता और क्रेडिट कार्ड से ली गई लाइन ऑफ क्रेडिट के रिमाइंडर थे।

इस महानगर में आगे बढ़ने का पहला क़दम यह था कि इतना किराया भरने के बजाय थोड़ी बचत करो, डाउन पेमेंट यानि मार्जिन मनी की रकम इकट्ठा करो और अपना घर ख़रीद लो। जितना किराया दोगे उतने में बैंक से लिए गए लोन की किश्त भरो अपने मकान के लिए। सीधा-सा गणित था जो सभी की समझ में आता था। गणित जब सीधा और सरल हो जाता है तो कोई अगर-मगर नहीं होता। नंबरों की सीधी चाल सीधे दिमाग़ को कुबूल होती। तब सिर्फ़ आगे बढ़ने की ख़्वाहिश होती है, वही रास्ता अपनाते सभी।

जो अपार्टमेंट में रहते वे कांडो फ्लैट में जाते, कांडो वाले छोटे घरों में जाते, और छोटे घरों वाले बड़े घरों में जाते। रिटायर होने के बाद उल्टी प्रक्रिया शुरू होती। बच्चे अपनी नयी ज़िंदगी शुरू करते और माता-पिता डाउन साइज़ होने के लिए फिर से कांडों में आ जाते। जहाँ न घास काटने का झंझट होता न ही बर्फ़ हटाने का। बढ़ती उम्र के साथ ज़िम्मेदारियाँ कम करके फिर से छोटे मकान में आना एक तरह से सुकून और शांति से ढलती उम्र को स्वीकारने का अहसास होता।

मकानों को बदलने की इस निरंतर प्रक्रिया में सबसे अधिक मुनाफ़ा होता रियल इस्टेट एजेंट को। मकानों को दिखाने के लिए, सौदा करने के लिए, मकानों की बढ़-चढ़ कर प्रशंसा करने के लिए ये लोग हफ़्ते के सातों दिन, चौबीसों घंटे काम करने से भी नहीं घबराते। किसी भी समय, किसी भी दिन काम के लिए इनकी मौजूदगी इस गति को और भी अधिक तीव्र कर देती। त्वरित संपर्क, त्वरित कार्यवाही और त्वरित सौदेबाजी की कला से इनके व्यवसाय में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होती। कई बार ऐसा भी होता कि कई मकान नहीं बिकते पर अच्छी प्रॉपर्टी के दूरगामी फ़ायदे नज़र आते तो ख़ुद एजेंट ही उस प्रॉपर्टी को ख़रीद लेते। कभी अपने परिवार वालों के नाम पर तो कभी अपने ही नाम पर। जॉन की अधिकतर प्रॉपर्टी ऐसी ही थी। जब भी मौका दिखता, बाज़ार का रुझान दिखता और पच्चीस से तीस प्रतिशत के मुनाफ़े पर बेच दिया जाता। रुझान की जितनी अच्छी समझ विकसित हो, उतना ही ख़तरा उठाने में सावधानी बरतने की कला विकसित हो जाती है।

पैसे से पैसे बढ़ते हैं लेकिन अभी पैसे ही नहीं थे। इस समय डीपी जिस मुश्किल में था वैसी स्थितियाँ आम नहीं थीं। शहर के इतिहास में केवल एक बार ऐसा हुआ था। वह भी लगभग पचास सालों पहले ऐसा हुआ था जब किसी इमारत के ढह जाने से जन-धन का बेहद नुकसान हुआ था। ये निर्माण से संबंधित मानवीय त्रुटियाँ थीं जो कहीं न कहीं, किसी न किसी की लापरवाही से एक हादसे के रूप में बदलने से पहले ही पकड़ में आ गयी थीं।

इस गुस्से से निपटने के लिए डीपी भाईजी जॉन के घर दो दिन रुका। इस सदमे से उबरने के लिए ऐसा कुछ करना था कि जिससे थोड़ी शांति मिले। यही एक ऐसा निवेश था जिसमें उसका अपना पैसा अधिक लगा था और लोन कम था। अपना मेहनत से कमाया हुआ पैसा इस तरह चला जाएगा, अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा था। डीपी के दिमाग़ में घूम-फिर कर एक ही बात आ रही थी कि शीघ्र ही अपनी साख फिर से जमानी होगी। आगे के क़दम बढ़ाने के लिए कौन-कौन-सी रुकावटें आ सकती हैं, कौन-कौन-सी ख़र्चों की रकम कम की जा सकती है और कहाँ-कहाँ ऐसी छोटी-छोटी राशि की बचत की जा सकती है, उन सबके लिए पहले ही तैयार रहना है।

जॉन का नुकसान डीपी के मुकाबले बहुत कम था। जॉन सालों से यहाँ था, उसकी जमा पूँजी डीपी से कई गुना अधिक थी इसलिए जॉन के लिए यह नुकसान समंदर से बूँद के ख़त्म होने जैसा था। डीपी के लिए जॉन को भी बहुत चिन्ता थी। जानता था कि वह खुद्दार है। अपनी परेशानियों से ख़ुद ही लड़ेगा और यह अच्छी बात भी है। बच्चा जब चलना सीखता है तो कई बार गिरता है, उठता है और फिर गिर कर खड़ा हो जाता है। आख़िर कब तक कोई उसे पकड़ कर खड़ा कर सकता है। अंतत: तो उसे ही ख़ुद वापस खड़े होने के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं।

डीपी भी सीख लेगा। अपने आप खड़ा होगा और अपने रास्ते ढूँढ लेगा। दोनों ने मिलकर कई संभावनाओं को खोजा। अलग-अलग निदान ढूँढने में अपनी बुद्धि को दौड़ाया। एक कुएँ से पानी पीना संभव नहीं था, दूसरे कुएँ खोदने थे। दूसरे रास्तों की तलाश करनी थी। अपनी प्यास बुझाने के लिए सबसे पहले ज़रूरी था कि अपनी टीम में दूसरे लोगों को लाया जाए। मुनाफ़े के प्रतिशत के आधार पर। “तुम कमाओ, हम कमाएँ” की धारणा होगी तो सबको एक साथ प्रगति के अवसर मिलेंगे। “तुम काम करो, हम काम करें” के साथ कोई निठल्ला बैठकर समय बरबाद नहीं करेगा। “तुम्हारे विचार हमारे विचार से मिलें” और विचारों की आँधी को जन्म दें तब उस वैचारिक क्रांति के तले सब “मिलकर प्रगति करें”।

शब्दों के मायाजाल से परे देखा तो लगा कि इतना भी आसान नहीं था टीम भावना को पैदा करना कि बस टीम बनायी और काम हो गया। विश्वास, भरोसा और योग्यता इन सबके लिए अगर किसी चीज़ की ज़रूरत थी तो वह था समय। समय को अपने बस में करना था, पकड़ कर रखना था। समय का हर पल, हर दिन कुछ नया सिखा रहा था। भाईजी जॉन ने उसका पूरा साथ दिया यथासमय बैंकों के पैसे लौटाने में। जब तक मासिक किश्तें चुकता न हों, आगे कुछ नहीं कर सकता था डीपी।

वहाँ पैसे कैसे भेजे, कोई हल ही नहीं मिल रहा था। अपनी गुत्थमगुत्था सोच को एक सिरे से ले जाकर दूसरे तक पहुँचने में और कई गांठें पड़ रही थीं। हज़ारों अगर-मगर के चलते कोई सिरा मिलने के पहले ही बुरी तरह से उलझ जाता था।

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