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कुबेर - 26

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

26

बेहद निराशा हुई। समझ गया वह। एक के बाद एक मालिक बदल गए थे। सालों का अंतराल था, चीज़ें तो बदलनी ही थीं। लेकिन करता क्या, मन तो नहीं बदला था न वह तो वही देखना चाहता था जो सालों पहले छोड़ कर गया था। वे चले गए हैं, अब कहाँ रहते हैं किसी को मालूम नहीं था। वहाँ अब कोई ऐसा नहीं था जो उसे जानता हो। उनका परिवार कहाँ है, किसी को कुछ पता नहीं था। लगता है उन्हें यहाँ से गए काफी समय हो गया है। न छोटू-बीरू थे, न महाराज जी। पन्द्रह साल में इतना बदलाव। माँ-बाबू से मिलने गया था तो वे भी नहीं मिले थे। सेठ गुप्ता जी से मिलने आया तो वे भी जा चुके थे। जिन्हें यहाँ छोड़ कर वह अपने नए रास्ते तलाशने गया था, नए रास्ते, नई मंजिलें तो मिल गईं पर जो छूट गये, वे नहीं मिले। वह तो उन सबसे अपनी सफलताएँ साझा करने की ललक से आया था, उन सबसे जुड़े रिश्तों की डोर को मजबूत करने आया था।

उसका अपना बनाया हुआ संसार सिर्फ़ उसकी सोच में ही शेष था अब, हक़ीकत में सब कुछ बदल चुका था। यह वह सच था जिसे वह जितनी जल्दी स्वीकार कर ले उतना ही अच्छा होगा उसके अपने मन के लिए, उसके अपने मनोबल के लिए। बदलाव को प्रकृति की तरह ठीक वैसे ही स्वीकार कर लेना चाहिए जैसे पतझड़ के बाद भी नये पत्तों के आने का इंतज़ार प्रकृति करती है।

अधिक न सोचते हुए, अब यहाँ से सीधे जीवन-ज्योत जाना था। मैरी, बच्चे, जोसेफ सब वहीं प्रतीक्षा कर रहे थे। बहुत आत्मीयता से स्वागत हुआ उसका। सबसे अच्छी बात यह थी कि यहाँ कई लोग वे ही थे जिनके साथ वह रहा था। कुछ नये लोग भी थे और कई नये बच्चे भी थे, आवास घरों की संख्या बढ़ गई थी। डॉक्टर चाचा की रुचि के कारण परिसर में अस्पताल काफी बड़ा और सुविधा सम्पन्न हो गया था। जीवन-ज्योत में कामकाज वैसा ही सलीके से चल रहा था जैसा वह छोड़ कर गया था। डीपी और उन लोगों की टीम जो दान राशि यहाँ भेजती थी, उसका सदुपयोग देख कर उसे बहुत ख़ुशी हुई।

सुखमनी ताई, बुधिया चाची ने ख़ूब आशीर्वाद दिए। सबको उसने अपनी तरफ़ से भेंट के रूप में नगद पैसे देने चाहे तो ना-नुकूर के बाद उन्होंने रख लिए। उनकी आवश्यकताएँ जीवन-ज्योत पूरी कर देता था। उनकी दुनिया बस जीवन-ज्योत जितनी बड़ी थी, वहीं से शुरू होती थी और वहीं ख़त्म हो जाती थी। अपने वरिष्ठ साथियों का यह संतोष और सेवाभाव, उनके लिए और बेहतर करने की प्रेरणा दे गया उसे। उनकी आँखों में अपने लिए गहरा प्यार और सम्मान देखा तो उसकी आँखें भी भर आयीं। सबने मिलकर दादा के कमरे में जाकर दादा को प्रणाम किया। वहाँ उनकी बड़ी फोटो लगी थी जिसमें वे इस तरह मुस्कुरा रहे थे जैसे अभी निकल कर आएँगे और अपने डीपी को गले लगा लेंगे।

आज सुखमनी ताई ने उसे अपने पास बैठा कर खाना खिलाया तो लगा कितना शुद्ध और सच्चा प्यार है यह, कितना अपनापन है। अपने न्यूयॉर्क में रहने के निर्णय पर खेद हो उसके पहले ताई ने काफी कुछ बताया – “पता है बबुआ, तुम्हारे वहाँ रह जाने के बाद यहाँ इतना काम हुआ, इतनी सुविधाएँ बढ़ीं तो हमें पता था कि यह सब तुम ही कर रहे हो। डॉक्टर चाचा बहुत अच्छे हैं। वे दादा के बनाए सारे नियमों का पालन कर रहे हैं। सब कुछ और अच्छा ही बनाने की कोशिश कर रहे हैं जैसा दादा के समय से होता आ रहा है, धीरे-धीरे पर लगातार और बेहतर।”

“अच्छा” डीपी का चेहरा चमकने लगा था।

“हाँ, उन्होंने ही दादा की इतनी बड़ी तस्वीर लगायी है। कहते हैं कि जो कुछ उन्होंने जीवन-ज्योत को दिया और जैसा बनाया वह सदैव याद रखा जाएगा। डोनेशन का अभी भी वही नियम है, गुप्त दान। लेकिन फिर भी किसी को कहने की या जानने की ज़रूरत नहीं थी कि यह सब कौन करवा रहा है। जितनी तेज़ी से यह सब होने लगा, हम सबको पता था कि यह डीपी बबुआ ही है जो विदेश से इतना पैसा भेज रहा है।”

“क्या करता ताई, दादा को विदा करके मेरी हालत बहुत ख़राब हो गई थी। भाईजी जॉन का कहना था कि दादा को भुलाने में यह नया काम मेरी मदद करेगा इसीलिए मैं वहीं रुक गया पर आप सभी लोगों की बहुत याद आती थी। जीवन-ज्योत वापस न आकर ख़ुद को अपराधी महसूस करता था मैं।”

“बिल्कुल नहीं, ऐसा बिल्कुल मत सोचना। देखो कितने नये बच्चे आए हैं जीवन-ज्योत में। सब पढ़-लिख रहे हैं और उनकी दुआएँ तुम तक पहुँच रही हैं। हर कोई तो इतना होशियार नहीं होता न कि वहाँ इतने कम समय में इतना बड़ा काम जमा ले।”

“हाँ मैंने देखा है ताई कई बच्चे नये आए हैं, जीवन-ज्योत के सदस्यों की संख्या काफी बढ़ी है।”

“हाँ बबुआ, कई और बच्चों को सहारा मिला है। वे सभी अच्छी तरह पढ़ रहे हैं। अभी पिछले सप्ताह ही दो बच्चों को बंगलौर में अच्छी नौकरी मिल गयी है और एक लड़की का मेडिकल में एडमिशन हो गया है।”

“अरे वाह, पाँच साल में डॉक्टर बन जाएगी!”

“और क्या, बहुत होशियार है वह। बबुआ अब तुम भी अपना घर बसा लो, तुम्हारा भी अपना घर हो, अपने बच्चे हों....।” सुखमनी ताई का उसको घर बसाने के बारे में सलाह देना एक अधिकार की तरह था।

उसी अधिकार का सम्मान करते हुए डीपी ने कहा – “मैं अधिक से अधिक बच्चों की देखभाल कर सकूँ और अधिक से अधिक लोगों की सेवा कर सकूँ इसलिए अपने इसी घर को अच्छी तरह चलाने और बसाने के लिए काम करना चाहता हूँ ताई। शायद विधाता की इच्छा ही यही रही हो तभी तो उन्होंने नैन को मुझसे दूर करके अपने पास बुला लिया। वह यहीं होती तो यह सब कुछ होता, घर भी होता और बच्चे भी होते। अब वह चली ही गयी है तो जीवन-ज्योत ही मेरा घर है और यहाँ के सारे बच्चे मेरे अपने बच्चे हैं।”

“जीते रहो बबुआ, तुम्हारी इस नेकदिली को ऊपरवाला देख रहा है। बिल्कुल दादा की तरह सोचने लगे हो। एक और दादा मुझे दिखाई देते हैं तुममें।”

बहुत ही स्नेह से डीपी के सिर पर हाथ फेरा उन्होंने और डीपी ने भी इस आशीर्वाद के साथ उनके पैर छुए। ताई के इस स्नेहिल अपनेपन में काफी सुकून मिला उसे कि माँ-बाबू के जिस प्यार से वह वंचित हुआ था वह कई अलग-अलग रूपों में मिल रहा है। कई हाथ उसके सिर पर होते हैं उसे आशीर्वाद देते हुए और कई बच्चे उसके आशीर्वाद के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं।

यहाँ आने के बाद भाईजी की कही हुई उस बात का वजन काफी बढ़ गया कि शायद यहाँ रहकर वह तन-मन से तो सेवा करता पर वहाँ से जो धन से सेवा कर रहा है उसका भी कम महत्त्व नहीं है। पहली बार अपनी धन सेवा की तृप्ति के साथ जीवन-ज्योत से दूर रहने के उस अपराध बोध को जड़मूल से ख़त्म किया। यह एक ऐसी ताज़गी वाली अनुभूति थी जो और अधिक काम करने के लिए प्रोत्साहित करती थी और अधिक मेहनत के लिए नयी ऊर्जा देती थी।

इन ख़ुशी के लम्हों को साझा करने के लिए उसके साथ उसकी बहन मैरी थी, बच्चे थे, जोसेफ भी था, जीवन-ज्योत का पूरा परिवार था। भारत आकर ऐसा लग रहा था जैसे सारी ख़ुशियों की सौगातें उसके लिए प्रतीक्षारत थीं। इस भारत यात्रा ने उसके मन को जो संतृप्ति दी, वह आगे की मेहनत के लिए नए रास्ते खोल रही थी।

मैरी और बच्चों के साथ इस बार उसे अपने गाँव भी जाना था। मैरी को दिखाना चाहता था अपने गाँव की एक झलक जहाँ उसने जन्म लिया था। इस बहाने मैरी और बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय भी बिता सकता था। जोसेफ से भी आने के लिए कहा तो तुरंत राजी हो गया वह – “बिल्कुल मैं तो आपके साथ रहने के लिए कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था। जब तक आप यहाँ हैं भाई, हम सभी साथ रहेंगे।”

“अरे वाह, चलो तो फिर गाड़ी की व्यवस्था कर लेते हैं हम।”

किराए से ली हुई कार से जब वे सभी गाँव पहुँचे तो सब कुछ बदला-बदला-सा था। जहाँ उनका घर था वहीं गाड़ी रुकवायी। जगह तो वही थी पर जहाँ वे रहते थे वहाँ अब खुला मैदान था। माँ-बाबू के लगाए छप्पर का कहीं ओर-छोर भी नज़र नहीं आ रहा था। घर नहीं था पर हवाओं में अभी भी माँ के आँचल की ख़ुशबू थी जिसे सिर्फ़ उनका धन्नू ही महसूस कर सकता था।

सरकार ने उस ज़मीन के आसपास काँटे वाले तार लगवा दिए थे। दूर के रिश्तेदारों में से कोई न कोई मिलता रहा और सारे हालचाल सुनाता रहा। गाड़ी और उसके साथ चल रही बच्चों की भीड़ पहले ही सबको संदेश दे रही थी कि कोई ‘अपना’ आया है। गाँव के रिश्ते के चाचा, मामा, ताया के लड़के, दूर से दूर के रिश्तेदारों को अपना बनाने की कोशिश करके हर एक को काम दिलाने के लिए कुछ ज़मीनें ख़रीदने की योजनाएँ बनाने का ख़्याल मन में था। जोसेफ के साथ होने से इस योजना के लिए एक ज़िम्मेदार व्यक्ति का सहारा मिल सकता था। इसका ज़िम्मा डीपी जोसेफ को देना चाहता था।

जोसेफ अपने अनुभव से ऐसी कुछ ज़मीनें ख़रीद कर उन पर सब्जियों, फूलों और उच्च माँग वाली फसलों को उगवाना शुरू करे। इन सब गाँव के लोगों को काम दे और उनकी पेशेवर मार्गदर्शन में देखभाल करे तथा मासिक वेतन पाए। सारे ख़ुश थे कि उन्हें काम करना है, बारिश के भरोसे बैठ कर सिर्फ़ वक़्त नहीं बिताना है। वे सब कुछ करने को तैयार थे, जहाँ उन्हें उनके काम का मोल मिल रहा था। भाई की तरक्की से जो भी फ़ायदा वे उठा सकते थे वह उनका काम देखकर ही संभव था।

मैरी ने भी इस प्रोजेक्ट में अपनी पूरी सहमति जतायी। भाई की यह योजना सभी के लिए लाभकारी होगी। इससे जोसेफ का काम भी बढ़ेगा, गाँव वालों को काम मिलेगा और डीपी का निवेश होगा। एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास था यह भाई का। ख़ास तौर से जब भाई ने कहा कि – “लाभ हुआ तो सबका लाभ होगा, काम करने के बाद भी नुकसान हुआ तो इसका ज़िम्मा मैं लूँगा, मैं ही उस नुकसान को वहन करूँगा।”

यह सब करके एक बार फिर मैरी और बच्चों को छोड़ने उसके घर पहुँचा। गाँव के रोज़गार प्रबंधन की नई ज़िम्मेदारी पाकर जोसेफ ख़ुश था। उसने अपने अन्य कामों के बारे में डीपी को बताया। कोई हाथ थामने का विश्वास दिलाए तो दिल उसकी ओर खींचा चला जाता है। इस यात्रा में डीपी के साथ रह कर जोसेफ उसके क़रीब आ गया था। जोसेफ की तरक्की देखकर डीपी को भी बेहद ख़ुशी हुई। मैरी ठीक ही कहती थी कि जोसेफ का काम अच्छा चल रहा है इसलिए उसे कहीं और जाने की ज़रूरत ही नहीं थी।

आज रात जब जीवन-ज्योत में आकर सोने की तैयारी की तो मन बेहद संतुष्ट था। अपनी योजनाओं से अपनों के लिए जितना किया जा सकता था वह अगली यात्रा तक के लिए पर्याप्त था। सुबह उसे निकलना था, न्यूयॉर्क के लिए प्रस्थान करना था। अब एक नया जोश है, नयी उमंग है। वहाँ जाकर और अधिक लगन से काम कर पाएगा। इस यात्रा में इतना सब करके एक सुखद अनुभूति का अहसास था। अपनी अपराधी भावना को इतने दिनों तक ढोता रहा था अब उससे भी मुक्ति मिल गयी थी। उसे अपने लिए कम, अपनों के लिए ज़्यादा कमाना था अब।

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