बिखरते सपने - 8 Goodwin Masih द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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बिखरते सपने - 8

बिखरते सपने

(8)

‘‘हाँ ये तो है। पर तुम चिन्ता मत करो। स्नेहा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’

‘‘एक बात है अंकल, जब स्नेहा दीदी को यह खबर मिलेगी, कि पापा ने उसे पिकनिक पर जाने के लिए हाँ कर दी है, तो खुशी से वह पागल हो जायेगी।’’ मुन्ना ने बीच में बोलते हुए कहा।

‘‘हाँ, यह तो है। अच्छा मिस्टर गुप्ता अब मैं चलता हूं। आप अपने घर फोन करके कह देना कि स्नेहा अपनी जाने की तैयारी कर ले।’’

‘‘ठीक है, मैं उसे फोन कर दूंगा।’’

दोपहर का समय था। स्नेहा अपने कमरें में अकेली बैठी अपने पापा के बारे में सोच रही थी कि आखिर उसके पापा उसके साथ सौतेला व्यवहार क्यों करते हैं ? अगर मैं लड़की हूं तो इसमें मेरा क्या दोष है ?‘‘ लड़की हूं तो क्या मैं कहीं अकेले आ-जा नहीं सकती। मैं अगर पापा से कभी पैसे मांगती हूं तो भी वह मुझसे ढेरों सवाल पूछने लगते हैं, कि क्या करना है पैसों का, क्या लाना है पैसों का, सब कुछ तो हम लाकर देते हैं फिर तुम्हें पैसे क्यों चाहिए। बात-बात पर डांटते हैं, और हिदायत देते हैं कि मैं लड़की हूं। लड़कियों को यह नहीं करना चाहिए, लड़कियों को वो नहीं करना चाहिए। लड़कियों को ये नहीं पहनना चाहिए, लड़कियों को वो नहीं पहनना चाहिए। लड़कियों को ज्यादा उछल-कूद नहीं करना चाहिए। कुछ तो लड़कियों को करना नहीं चाहिए...तो फिर लड़कियों को क्या करना चाहिए ?

अगर लड़कियों का काम घर में मम्मी के साथ किचिन में काम करवाना होता है, तो फिर लोग अपनी लड़कियों को पढ़ने के लिए स्कूल क्यों भेजते हैं? आखिर लड़कियों की भी कुछ इच्छाएं और आकांक्षाएं होती हैं। उनका भी मन करता है कि वह भी पार्क में जाएं, खेलें-कूदें। देश में उनका नाम हो। मेरी तो यही इच्छा होती है कि मैं आजाद पंछी की तरह खुले आसमान में उड़ूं, खेलूं, कूदूं, नाचूं, गांऊं...लेकिन पापा के दकियानूसी विचार मुझे कुछ भी मेरे मन का नहीं करने देते।’’

सुबह का समय। मुन्ना हॉस्पिटल से आकर अपने घर में बिस्तर पर लेटा हुआ काॅमिक्स पढ़ रहा है। स्नेहा अपने स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही है। सपना किचिन में उन सब के लिए नाश्ता तैयार कर रही है। मिस्टर गुप्ता अपने आॅफिस जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। उसी समय डोर बेल बजती है।

ट्रिन.....ट्रिन....ट्रिन....

डोर बेल की आवाज सुनकर मिस्टर गुप्ता सपना को आवाज लगाकर कहते हैं, ‘‘सपना....देखना तो दरवाजे पर कौन है...?’’

डोर बेल पुनः बजती है, तो सपना कहती है, ‘‘पता नहीं कौन है, एक तो सुबह-सुबह वैसे ही फुर्सत नहीं होती है, ऊपर से कोई भी परेशान करने चला आता है।’’ कहती हुई जाती है और जाकर दरवाजा खोलती है।

दरवाजा खुलते ही रोहन कहता है, ‘‘नमस्ते भाभी जी।’’

‘‘नमस्ते! रोहन भाई साहब आप हैं....मैं तो समझी थी कि पता नहीं सुबह-सुबह, कौन आ गया।‘‘

‘‘कौन है सपना...?’’ मिस्टर गुप्ता सपना को आवाज लगाकर पूछते हैं, तो सपना कहती है, ‘‘कोई नहीं, रोहन भाई साहब हैं।’’

‘‘रोहन...? अच्छा-अच्छा आओ रोहन। सपना को आवाज लगाकर कहते है। ‘‘सपना.... दो कप चाय ले आना....।’’

‘‘मिस्टर गुप्ता, आज सिर्फ चाय से ही काम नहीं चलेगा...आज तो मैं पूरी पार्टी करने आया हूं, वो भी किसी अच्छे होटल में।’’ रोहन ने मजाक करते हुए कहा।

‘‘पार्टी, किस खुशी में...?’’

‘‘वो मैं बाद में बताऊंगा, पहले आप वायदा करो कि आप मुझे पार्टी दोगे।’’

सपना अन्दर चाय लेकर आती है और मिस्टर गुप्ता से कहती है, ‘‘तुम भी बहुत बड़े वाले कंजूस हो, अरे कह दो न कि पार्टी दे देंगे।’’

‘‘मिस्टर गुप्ता अब तो पार्टी के लिए हाँ कर दो, अब तो भाभी का वोट भी मुझे मिल गया।’’

‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, ये तो कहेगी ही, क्योंकि तुम्हारे साथ इन्हें भी मुफ्त में खाने को मिल जायेगा। प्राॅबलम तो मुझे होगी, क्योंकि जेब तो मेरी कटनी है।’’

‘‘मिस्टर गुप्ता, कंजूसी की भी हद होती है। अच्छा, आप हाँ कर दो, पार्टी का पैसा मैं खर्च कर दूंगा।’’

‘‘ठीक है, जब तुम नहीं मानते हो तो जाओ हो जायेगी तुम्हारी पार्टी।...अब तो बता दे कि बात क्या है?’’

मिस्टर गुप्ता के कहते ही रोहन ने हाथ में पकड़े अखबार को खोलकर मेज पर रख दिया और बोला, ‘‘लो देखो, स्नेहा स्कूल के पिकनिक टुअर पर गयी थी, तो उसके बारे में क्या छपा है।’’

रोहन के कहते ही मिस्टर गुप्ता ध्यान से अखबार में छपी खबर पढ़ते हैं, ‘‘शहर के सेंट जोसफ स्कूल की स्नेहा गुप्ता ने महिला जूनियर बैडमिन्टन टूर्नामेंट जीत कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। इस जीत ने न सिर्फ स्नेहा का मनोबल बढ़ाया है बल्कि स्नेहा ने यह साबित कर दिखाया कि लड़कियां भी लड़कों से किसी बात में कम नहीं होती हैं।’’

खबर पढ़कर मिस्टर गुप्ता आश्चर्य चकित होकर कहते हैं, ‘‘इसका मतलब स्नेहा स्कूल के पिकनिक टुअर पर नहीं बल्कि बैडमिन्टन टूर्नामेंट में खेलने गयी थी। लेकिन यह सब करने के लिए तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला...?’’

‘‘मिस्टर गुप्ता? अगर मैं झूठ नहीं बोलता, तो शायद आप स्नेहा को खेलने की अनुमति कभी नहीं देते। इसीलिए मैंने और मुन्ना ने मिलकर यह योजना बनायी थी।’’

‘‘ओह, तो इस खेल में मुन्ना भी शामिल था।’’

‘‘जी पापा, ....पापा, जब डॉक्टर चड्डा ने आपसे कहा था कि मैं अब बैडमिन्टन कभी नहीं खेल पाऊंगा, तो मैंने उस समय आपकी शक्ल पर छायी निराशा को पढ़ लिया था। आप मन-ही-मन में टूट रहे थे। आपके सारे सपने, सारे अरमान मिट्टी में मिलने लगे थे। मुझसे आपकी हालत देखी नहीं जा रही थी। मैं आपको यूँ टूटते नहीं देख सकता था। मैं आपकी स्थिति को अच्छी तरह महसूस कर रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं...? आपकी निराशा को आशा में कैसे बदलू....? उसी समय रोहन अंकल मेरे पास मुझसे मिलने आये थे। उन्हें देखकर मेरे मन में आइडिया आया कि क्यों न रोहन अंकल से कहकर, स्नेहा दीदी का नाम बैडमिन्टन टूर्नामेंट में अपनी जगह शामिल करवा दिया ताकि आप आपके बिखरते सपने फिर से पूरे हो जायें।

कहते-कहते मुन्ना उन दिनों के बारे में सोचने लगता है, जिन दिनों उसने और रोहन ने मिलकर स्नेहा को जूनियर बैडमिन्टन टूर्नामेंट में खेलने के लिए योजना बनायी थी।

दोपहर का समय। मुन्ना हॉस्पिटल के बेड पर अकेला बैठा है। उसके चेहरे पर बिखरी उदासी बता रही थी कि वह बहुत परेशान और टूटा हुआ है। वह गहरी सोच में डूबा हुआ था। उसकी सोच में उसके पापा थे।

जब से उसके पापा से डॉक्टर चड्डा ने कहा था कि मुन्ना अब कभी बैडमिन्टन नहीं खेल पायेगा, तब से उसके पापा एकदम खामोश और उदास हो गये थे। न किसी से बोलना न किसी हंसना।

सोचते-सोचते एकदम उसका मन भर आया। और भगवान् से कहने लगा, भगवान्! तुम तो अन्तर्यामी हो, सबके मन की बात जानते हो। तुम ये भी अच्छी तरह जानते थे कि पापा मुझे बहुत प्यार करते है। उनकी तमन्ना थी कि मैं बैडन्टिन का बड़ा खिलाड़ी बनू, लेकिन तुमने उनकी तमन्ना पूरी होने नहीं दी। क्यों...? ...क्यों तुमने मुझे ऐसी बीमारी दे दी, जिसकी वजह से मैं बैडमिन्टन नहीं खेल सकता। भगवान्! मैं जब भी अपने पापा का उतरा हुआ गम्भीर चेहरा देखता हूं तो मुझे उनपर बहुुत तरस आता है। कुछ भी करो भगवान्, पर मेरे पापा की हंसी-खुशी वापस ला दो।’’

‘‘क्या सोच रहे हो मुन्ना...?’’ रोहन की आवाज सुनकर मुन्ना की विचार शृंखला टूट जाती है। वह अपने चेहरे पर बनावटी हंसी बिखेरते हुए कहता है,‘‘नमस्ते अंकल।’’

‘‘नमस्ते, क्या बात है मुन्ना, तुम कुछ परेशान लग रहे हो...?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं हैं अंकल। दरअसल बहुत देर से खामोश बैठा था इसलिए चेहरा ऐसा लग रहा है।’’

‘‘तुम मुझे चलाने की कोशिश कर रहे हो मुन्ना, मुझे...अपने रोहन अंकल को, ...बेटा, मुझे चलाने की कोशिश मत करो, और साफ-साफ बताओ कि बात है,?’’

रोहन की बात पर मुन्ना और अधिक गंभीर हो गया और कहने लगा, ‘‘अंकल, आप तो जानते ही हैं कि पापा जूनियर बैडमिन्टन टूर्नामेंट को लेकर कितने उत्साहित थे। उन्हें इस बात से मतलब नहीं था कि इस टूर्नामेंट का चैम्पियन कौन बनेगा, उन्हें तो सिर्फ इस बात की खुशी थी कि इस टूर्नामेंट में मैं खेलूंगा। उन्होंने मुझे लेकर पता नहीं कितने ही सपने देख डाले थे, लेकिन उनके सारे सपने, सारे अरमान पूरे होने से पहले ही टूट कर बिखर गए। मैं जब भी पापा को निराश और उदास देखता मेरी आँखों में आँसू आ जाते। काश! मैं बीमार न हुआ होता और पापा का सपना पूरा कर पाता। कहाँ मैं उनकी आशा था, कहाँ अब निराशा का कारण हो गया हूँ।

‘‘ऐसा कहकर तुम अपना दिल छोटा मत करो मुन्ना। तुमने जानबूझ कर तो अपनी तबियत खराब नहीं की है। सुख-दुःख, परेशानी और खुशहाली तो भगवान् के हाथ में होती है। उसकी मर्जी क्या है यह कोई नहीं जानता। हो सकता है भगवान् की यह इच्छा हो कि तुम बैडमिन्टन टूर्नामेंट में न खेलो।’’ रोहन ने उसे समझाते हुए कहा।

‘‘हाँ, इस बात का दुःख तो मुझे भी है, पर हम लोग कर भी क्या सकते हैं?’’

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता अंकल कि मेरी जगह स्नेहा दीदी इस टूर्नामेंट में खेलें...? ...क्या मेरी जगह मेरी दीदी का नाम आ सकता है...?’’

‘‘स्नेहा का नाम...?’’

क्रमशः .......

बाल उपन्यास : गुडविन मसीह

E-mail : scriptwritergm8@gmail.com