बिखरते सपने
उपन्यास के बारे में
बिखरते सपने, एक ऐसी लड़की स्नेहा की कहानी है, जिसके पापा आधुनिक युग में भी निहायत ही रूढंीवादी और संकुचित विचारों के थे। वह स्नेहा को सिर्फ एक लड़की ही मानते थे। वह यह विश्वास नहीं करते थे कि एक लड़की भी लड़कों की बराबरी कर सकती है। उन्होंने स्नेहा को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह कोई भी ऐसा काम न करे, जो लड़के करते हैं, विशेषकर उन्हें लड़कियों के खेलने-कूदने से बेहद चिढ़ थी। वह नहीं चाहते थे कि उनकी स्नेहा कोई खेल, खेले, जबकि स्नेहा को बचपन से ही बैडमिन्टन खेलने का बेहद शौक था। पर अपने पापा के डर से उसका यह शौक उसके मन में ही दम तोड़ रहा था।
लेकिन किसी ने कहा है कि नदी को बहना होता है, तो वह अपना रास्ता स्वयं तलाश लेती है। ऐसा ही स्नेहा के साथ भी हुआ। मुन्ना को बैडमिन्टन खेलते देख, उसके अन्दर का खिलाड़ी भी जाग गया। खेल के प्रति उसकी ललक और प्रतिभा को उसके छोटे भाई मुन्ना के बैडमिन्टन प्रशिक्षक रोहन ने पहचान लिया और यह जानते हुए भी कि स्नेहा के पापा को उसका खेलना-कूदना बिल्कुल पसंद नहीं है, फिर भी उन्होंने स्नेहा को खेलने के लिए उकसाया और मुन्ना के साथ उसे भी बैडमिन्टन खेलने का प्रशिक्षण देने लगे।
समय ने करबट बदली। बैडमिन्टन के जिस टूर्नामेंट में मुन्ना को खेलना था, अचानक उसकी जगह स्नेहा को खेलना पड़ा।
स्नेहा ने न सिर्फ जूनियर बैडमिन्टन टूर्नामेंट में हिस्सा लिया, बल्कि वह उस प्रतियोगिता की चैम्पियन भी बनी। जिससे उसके पापा का भ्रम तो टूट ही गया, साथ ही उनके बिखरते सपने भी पूरे हो गये। कैसे...?’’ पढ़िए इस उपन्यास में।
गुडविन मसीह
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बिखरते सपने
(1)
स्नेहा पढ़ने-लिखने में जितनी होशियार और कुशाग्रबुद्धि थी, उतना ही उसे खेलने का भी शौक था। खेलने का शौक तो उसके छोटे भाई मुन्ना को भी था, लेकिन स्नेहा की तरह नहीं। स्नेहा तो रात-दिन एक ही सपना देखती थी, कि वह दुनिया की जानी-मानी खिलाड़ी बने।
वैसे तो उसे सभी भारतीय खेल और खिलाड़ी पसंद थे, पर बैडमिन्टन उसका सर्वप्रिय खेल था और साइना नेहवाल उसकी प्रेरणा स्रोत व आदर्श थी।
साइना जब भी भारत के लिए जहां भी बैडमिन्टन खेलती, तो स्नेहा उसे खेलते हुए जरूर देखती थी। जब तक साइना खेलती, तब तक वह टीवी के सामने से नहीं हटती थी।
अक्सर ऐसा होता कि जब भी स्नेहा साइना नेहवाल को बैडमिन्टन कोर्ट पर खेलते हुए देखती, तो वह उसके सपनों में खो जाती और ऐसा महसूस करती, जैसे साइना नहीं वह स्वयं उस कोर्ट पर खेल रही हो।
एक दिन तो स्नेहा के साथ बड़ी ही विचित्र घटना घट गयी। उस दिन दोपहर एक बजे से साइना नेहवाल का मैच होना था। सुबह से ही स्नेहा की बेचैनी बढ़ी हुई थी। उसका मन नहीं था कि वह उस दिन स्कूल जाये, क्योंकि जिस समय उसके स्कूल की छुट्टी होनी थी, उसी समय मैच श्ुरू होने वाला था। और स्नेहा के लिए खेल का सबसे ज्यादा इनट्रस्टिग और इनज्वाफुल हिस्सा खेल की ओपनिंग होती थी।
उस दिन स्नेहा अपने मम्मी-पापा के डर से स्कूल चली तो गयी, लेकिन स्कूल में उसका मन एक पल के लिए भी नहीं लग रहा था। जैसे-जैसे साइना के खेल का समय नजदीक आ रहा था, वैसे-वैसे स्नेहा के दिल की धड़कनें भी तेज होती जा रही थीं।
उसका मन कर रहा था कि वह आधा स्कूल छोड़कर अपने घर भाग जाये और जल्दी से टीवी खोलकर बैठ जाये, लेकिन वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकी।
स्नेहा के स्कूल का सारा समय इसी उधेड़-बुन में गुजर गया, कि साइना के खेल की ओपनिंग नहीं देख पायेगी। इन्हीं सोच-विचार और आशा-निराशा के बीच हिचकोले खाते हुए स्कूल की छुट्टी की घण्टी बज गयी। स्नेहा को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो, क्योंकि उसे तो इसी का इंतजार था, कि कब स्कूल की छुट्टी हो, और वह कब अपने घर जाये।
छुट्टी की घण्टी बजते ही स्नेहा ने अपना बस्ता उठाया और क्लास रूम से ऐसे निकल कर भागी, जैसे किसी ने पिंजरे मे बंद पक्षी को खोल दिया, और वह आकाश में उड़ गया हो।
स्नेहा अपने छोटे भाई मुन्ना के साथ स्कूल बस में भी बैठ गयी, लेकिन वह मन-ही-मन खीज रही थी, क्योंकि स्कूल बस को तभी चलना था, जब उसमे जाने वाले सारे बच्चे आकर बैठ जाते। खैर! जैसे-तैसे बस वहां से चली तो स्नेहा की जान-में-जान आयी।
स्नेहा की बस अपने गन्तव्य की ओर निर्बाध गति से दौड़ रही थी। लेकिन स्नेहा को ऐसा लग रहा था, जैसे बस चींटी की तरह रेंग रही हो। वह बार-बार झल्ला रही थी और अपनी कलाई पर
बंधी घड़ी को देख रही थी। जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे स्नेहा की झल्लाहट भी बढ़ती जा रही थी, क्योंकि और दिनों की अपेक्षा उसे उस दिन बस की स्पीड बहुत धीमी नजर आ रही थी, साथ ही उस दिन उसे अपने घर का रास्ता भी रबर की तरह लम्बा खिंचता हुआ नजर आ रहा था।
एक-एक करके बस में बैठे सभी बच्चे अपने-अपने स्टाॅप पर उतर गये। आखिर में जब स्नेहा का घर आया तो उस समय साइना का खेल शुरू हुए पूरा आधा घण्टा हो चुका था।
स्नेहा ने जल्दी से अपने छोटे भाई मुन्ना को बस से उतारा और लगभग भागती हुई अपने घर में घुस गयी। ड्राइंगरूम में पहुंचते ही स्नेहा ने अपना बस्ता एक तरफ फेंका और टी.वी. रिमोट उठाकर जल्दी से स्पोर्ट चैनल खोलकर सोफे पर बैठ गयी।
मुन्ना सीधा अपनी मम्मी के पास चला गया। उस दिन स्नेहा के पापा के आॅफिस की छुट्टी थी, इसलिए वह भी घर पर ही थे। मुन्ना को देखकर उसके पापा खुशी से उछल पड़े और बोले, ‘‘अरे मेरा राजा बेटा स्कूल से आ गया। बेटा, दीदी भी आ गयी न, कहां है वह?’’
‘‘दीदी अपने कमरे में है।’’ मुन्ना ने कहा।
‘‘वह अपनी ड्रेस चेंज कर रही होगी। मुन्ना तुम भी अपनी ड्रेस चेंज कर लो।’’
सपना ने कहा, तो मुन्ना बोला, ‘‘मम्मी, पहले मुझे खाना दे दो, बहुत जोर की भूख लगी है।’’
‘‘नहीं बेटा, ऐसा तो गन्दे बच्चे करते हैं, जो बिना ड्रेस चेंज किये और बिना हाथ-मुंह धोए खाना खाते हैं, अच्छे बच्चे तो स्कूल से आकर पहले अपनी ड्रेस चेंज करते हैं फिर हाथ-मुंह धोकर आराम से खाना खाते हैं।’’
‘‘मुन्ना बेटा, तुम्हारी मम्मी बिल्कुल सही कह रही हैं। ...जाओ, जाकर जल्दी से ड्रेस चेंज करके हाथ-मुंह धो लो, तब तक तुम्हारी मम्मी, तुम्हारे लिये खाना परोसती हैं।...जाओ, जल्दी।’’
क्रमशः .......
बाल उपन्यास : गुडविन मसीह
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