प्रकृति मैम - मुकाम ढूंढें चलो चलें ( अंतिम भाग) Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम - मुकाम ढूंढें चलो चलें ( अंतिम भाग)

मुकाम ढूंढें चलो चलें
कफ परेड के पांच सितारा प्रेसिडेंट होटल में मैं बैठा था। वहां अगली सुबह जल्दी एक कार्यक्रम होना था। तैयारी के लिए रात को वहां रुकने के लिए ऊपरी मंज़िल पर हमने एक कमरा भी बुक करवा रखा था। चर्चगेट से आखिरी ट्रेन रात दो बजे जाती थी। स्टेज पर फूलों की सज्जा के बीच हमारे पोस्टर्स और बैनर्स सेट करने वाले दोनों लड़के अभी निकल कर गए थे।
मैं सोने के लिए कमरे में आ गया। अभी कपड़े उतार कर लेटा ही था कि कमरे की बैल बजी। सामने वही लड़का खड़ा था जो अभी नमस्ते कह कर गया था। आगे हार्बर लाइन से जाने वाले एक लड़के को तो लास्ट ट्रेन मिल गई थी, पर इसकी छूट गई।
रात को साथ में सोए तो थोड़ी देर बात भी हुई।
लड़का स्मार्ट था पर रोजगार से नहीं था, अगले दिन मीटिंग हो जाने के बाद मैं उसे अपने साथ घर ले गया।
असल में कुछ दिन पहले फ़िल्मस्टार राजेन्द्र कुमार ने मुझे अपने यहां बुलाया था, जो अब फ़िल्म निर्माता भी बन गए थे। बांद्रा में उनका ऑफिस उनके घर के बाहरी हिस्से में ही था। मैं उनके लिए अगली फ़िल्म "निस्बत" लिख रहा था।
मुझे आजकल एक सहायक की ज़रूरत होती थी,जो बाज़ार में टाइप, फोटोकॉपी आदि का काम देख ले, फ़िर मेरे साथ बांद्रा चले, उनके साथ होने वाली बैठकों में फोटो या और दूसरी मदद कर सके।
उन्होंने मुझे माधुरी में मेरी कहानी पढ़ने के बाद बुलाया था पर अब कहानी का शीर्षक और लगभग सारा ही प्लॉट कलाकारों के अनुसार बदल गया था। यह लगभग नई कहानी थी।
इसमें कुमार गौरव,माधुरी दीक्षित, राजेन्द्र कुमार और साधना के लिए मुख्य भूमिकायें थीं।
कहानी कुछ इस तरह थी - कुमार गौरव राजेन्द्र कुमार का कॉलेज में पढ़ने वाला बेटा है जिसकी प्रेमिका माधुरी दीक्षित है। साधना अकेली रहती है। पत्नी के दिवंगत हो जाने के बाद राजेन्द्र कुमार का, एक पार्क में जॉगिंग के दौरान देख कर साधना से प्रेम हो जाता है। कुमार गौरव का लगाव अपनी दिवंगत मां से होने के कारण वो नहीं चाहता कि उसके पिता किसी महिला से प्रेम संबंध रखें। वो और उसकी प्रेमिका एक प्लान बनाते हैं कि कुमार गौरव साधना से इस तरह प्रेम का नाटक करे कि उसे राजेन्द्र कुमार से मिलने का समय ही न मिल सके। अब साधना और गौरव हर समय साथ रह कर मिलते रहते हैं और उन्हें देख कर राजेन्द्र कुमार व माधुरी जलते रहते हैं। माधुरी एक डांस टीचर है तो वो अपनी जलन को अलग अलग लोगों के साथ डांस करके व्यक्त करती है।
हमारी पहली मीटिंग में मेरे साथ मेरा दोस्त इम्तियाज़ अहमद अंसारी रहा था। राजेन्द्र कुमार के ऑफिस में एक बेहद बूढ़े पारसी सज्जन भी होते थे जो लगभग हर मसले पर उनके सलाहकार होते थे।
राजेन्द्र कुमार की फ़िल्म "फूल" अभी चल रही थी जिसके बाद काम शुरू करने की योजना थी।
राजेन्द्र कुमार ने ये प्लॉट भी एक दिलचस्प तरीक़े से पसंद किया था। मैंने उनसे कहा था कि फिल्म का सेंट्रल आइडिया मैं आपको नब्बे सेकंड्स में सुना दूंगा। इसके बाद हम स्क्रिप्ट पर डिटेल बातचीत करेंगे।
मैं ये प्लॉट बोलता रहा और वो मुस्कराते हुए कलाई पर बंधी अपनी घड़ी देखते रहे।
हमारी बिल्डिंग में चौथी मंजिल पर एक लड़का रहता था जो अपने स्कूल के दिनों से ही बॉडी बिल्डर था। खास बात ये थी कि ये लड़का बदन से फौलादी होने के बावजूद चेहरे से बेहद मासूम, गोरा और सुंदर दिखाई देता था। वह मॉडलिंग के लिए भी क़िस्मत आजमा रहा था। उसे हिंदी ज़्यादा अच्छी नहीं आती थी।
एक दिन पता चला कि उसे आमिर खान की फ़िल्म "जो जीता वही सिकंदर" में आमिर के बड़े भाई की भूमिका के लिए स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया गया है। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ क्योंकि उसकी उम्र आमिर खान से बहुत कम थी और वो मालाड में एक कॉलेज का विद्यार्थी था।
वो कुछ एक्टिंग टिप्स लेने के लिए और हिंदी उच्चारण सुधारने के लिए रात को मेरे पास आने लगा। हम एक दो घंटे साथ में प्रैक्टिस करते। कभी कभी मेरे पास रात को सो भी जाता था।
कुछ ही दिनों में मैंने उसे उत्तर भारतीय लड़कों की तरह हिंदी बोलना सिखा दिया।
लेकिन वही हुआ, जो मैंने कहा था। उसे बहुत छोटा बता कर कुछ समय बाद आने के लिए कहा गया, और आमिर के भाई का रोल फ़िल्म में मामिक ने किया। फ़िल्म ज़बरदस्त कामयाब हुई।
लोग मुझसे कहते थे कि मैं इतनी व्यस्त दिनचर्या के बाद भी कैसे और कब लिख लेता हूं, जो मेरी किताबें लगातार आती रहती हैं।
मैं कहता था कि कैरियर के लिए भटकते ये युवा कोलंबस, ये किशोर और जवान लड़के लिखने के लिए मेरी प्रेरक शक्ति हैं। मैं इसीलिए लिख लेता हूं क्योंकि ये रात को देर - देर तक मेरे पास बैठ कर पढ़ते हैं, और मैं लिखता हूं।
जब मेरे पास मेरी उम्र के, मेरे प्रोफेशन के, मेरे बैंक के लोग आते हैं तो मैं उनसे बात करने में घायल हो जाता हूं, ये लोग मुझे आहत कर जाते हैं,मुझे बुरी तरह खर्च कर जाते हैं, क्योंकि ये पूछते हैं कि मेरी इनकम क्या है, मेरा फ्लैट कितने वर्ग फुट का है, इस एरिया में ज़मीन का रेट क्या है , मुझे वाहन भत्ते के रूप में कितने पैसे मिलते हैं, फ़िल्म के लिए मेरी कहानियां कितने में बिकती हैं, मेरी पत्नी का वेतन क्या है, मैं शेयर बाजार या म्यूचुअल फंड में कितना पैसा डालता हूं...!
जबकि मेरे पास आने वाले लड़के, ये युवा दोस्त मेरे काम में मेरा हाथ बंटाते, अपनी शंकाओं का समाधान करते, मुझसे अपनी पढ़ाई और कैरियर के लिए सलाह लेते और फिर आराम से सारी- सारी रात पढ़ लेते, मेरे लिए चाय- कॉफी बना लेते और मैं भी इनके साथ बैठा रात देर तक लिख लेता।
ये ज़िन्दगी का पेट भरने के लिए खुद को उगाने की कोशिश करते हुए बच्चे होते थे।
मुझे नहीं पता होता था कि इनकी जाति क्या है, इनका धर्म क्या है, इनके पास सामान के नाम पर न कोई बैग होता और न कोई सूटकेस। आते और बनियान - चड्डी पहन कर मेरे साथ रहते, इसी वेशभूषा में मैं इनके साथ रहता। फिर हम आराम से साथ में सोते।
मैं ये भी नहीं जानता था कि इनके माता- पिता किस स्तर के हैं।
जो मैं खाता, वो ये खाते, जो मैं पहनता, वो ये पहनते। इनके और मेरे बीच कोई दुराव या छिपाव नहीं रह जाता था।
पर कभी - कभी मुझे डर लगता था।
मैं सोचता कि मैं क्या कमा रहा हूं? अपनी ज़िंदगी खर्च करके जब मैं वापस अपने परिवार के पास पहुंचूंगा तो उन्हें मेरी झोली में क्या मिलेगा? एक चुकी- बूढ़ी काया और पोटली में बंधे दुनिया भर के अनुभव। बस!
मुझे भी यहां औरों की तरह किफायत से रह कर खूब पैसा बचाना चाहिए, ताकि मैं एक मोटी थैली अपनी संतान के लिए छोड़ कर मर सकूं।
लेकिन मुंबई का दस्तूर यही था। यहां लाखों ज़िंदगियां केवल रोटी खाकर पड़ी थीं ताकि उनके अपनों को वहां इज्जत की रोटी, कपड़ा और मकान मिल सके।
मुझे याद है कि मैंने जनसत्ता रविवार के लिए मुंबई के कुलियों पर एक कवर स्टोरी की थी,जिसके लिए मैं मुंबई के दर्जनों स्टेशनों पर कुलियों से बात करता और उनके फोटो लेता घूमा था। मुझे मुंबई सेंट्रल और दादर जैसे व्यस्त स्टेशनों पर कुछ ऐसे कुली भी मिले थे जिनकी रोजाना की कमाई हज़ारों में थी,और सुदूर उपनगरों में उनके बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे थे। कुछ कुलियों ने तो चेहरे पर उदासी लाते हुए ये भी बताया कि हमारे बच्चे ये नहीं जानते कि हम क्या काम करते हैं, हम भी उन्हें इसलिए कुछ नहीं बताते कि कहीं उनके मित्रों के बीच उनकी हेठी न हो!
अपने लेखन के चलते ही मैंने जिस्मफरोशी की दुनिया भी देखी थी। यहां तक कि हज़ारों लड़के और मर्द ऐसे भी होते थे, जिनके पास अपने शरीर में उठे जवानी के ताप को ठंडा करने के लिए बाज़ार में बैठी औरतों के पास जाकर सोने लायक पैसे भी नहीं होते थे।
कुछ संपन्न लोग बीमारियों के डर से, या बदनामी के खौफ से वैश्याओं के पास जाने में कतराते थे।
लड़कियों को बस एक लक्ष्मण रेखा पार करनी होती थी, उसके बाद जिंदगी के वारे- न्यारे हो जाते थे।
युवकों और अकेले मर्दों को अपने शरीर की लड़ाई खुद लड़नी पड़ती थी।
सार्वजनिक शौचालयों, पार्कों, अंधेरी सुनसान गलियों में ऐसे लोगों को हस्तमैथुन या गुदा मैथुन करते भी देखा जा सकता था। सबसे निरापद था मुंबई की लोकल ट्रेनों में अपने सब कष्टों की दवा ढूंढ़ लेना। यहां इनका शरीर नालियों में बहता था, और उधर गांव में इनकी जनानियों के माथे का सिंदूर सूखता रहता था।
अकेले रहने वाले संपन्न और समर्थ लोग घरों पर सेक्स वर्कर्स को बुला लेते थे,पर साधारण आदमी के पास तो खुले आसमान में कोई कोण ढूंढने का रास्ता ही था।
एक बार हमारी पत्रकारिता की क्लास में इस संदर्भ में व्यापक चर्चा हुई थी, हमें बताया गया था कि दुनिया का कोई भी काम तुम्हारे लिए अनजाना नहीं होना चाहिए।
प्रोफ़ेसर कामथ कहते थे कि अगर तुम फ़िल्म लिख रहे हो,और पुलिस से भागता हुए तुम्हारा हीरो किसी वैश्यालय या शराब घर में घुस गया तो तुम आगे की कहानी क्या किसी और से लिखवाओगे? इसलिए जाकर देखो तो सही कि भीतर क्या है!
यहां भी आए दिन तरह - तरह के किस्से पत्रकारिता के हल्कों में सुने जाते थे। सेक्स के नाम पर भी धोखाधड़ी, लूट, मारपीट हो जाती थी। यार्डों में ख़ाली पड़ी गाड़ियों में कोई लड़की आपको लुभा कर साथ में ले जाती। फिर जब आप निर्वस्त्र होकर एकांत में उसके साथ होते तो "दस रुपए देना" बोल कर आपको लाई उसी लड़की के चार यार अा जाते और आपसे घड़ी अंगूठी पर्स सब छीन लेते। या किसी और तरह आपको ब्लैक मेल किया जाता।
अख़बारों में छपने ऐसे किस्से रोज़ आते थे।
शराब, चरस,गांजा,अफीम, ब्राउन शुगर, हेरोइन सब उपलब्ध होता था, अगर आपके पास पैसे हों।
एक बार मैं अभिनेता सुरेन्द्र पॉल के घर जा रहा था,जो रामायण के बाद महाभारत में द्रोणाचार्य बने थे। मेरे टैक्सी ड्राइवर ने उन्हें घर के बरामदे में खड़ा देखा तो मुझसे पूछा - सर, इनके पांव छू लूं?
मैंने जब सुरेन्द्र जी को बताया कि ड्राइवर आपको द्रोणाचार्य समझ कर आपके चरण स्पर्श करना चाहता है, तो वो बोले- आप उसे बतादो कि अगली फ़िल्म में मैं राक्षस का रोल कर रहा हूं,आकर मारेगा तो नहीं मुझे?
बैंक की पदोन्नति परीक्षा के परिणाम आ जाने के बाद अब ऑफिस में भी रोज़ नए परिवर्तन हो रहे थे। कुछ लोग जाते तो कुछ नए आते।
मैं बैंक के जिस अधिकारी के मकान में रहता था वो मुंबई से बाहर रहने के कारण अपना मकान मुझे दे गए थे।
अब वो भी वापस मुंबई में आ गए।
मुझे बोरिवली के गोविंद नगर में दूसरा मकान मिल गया। ज़्यादातर मकान फरनिश्ड होने के कारण बड़ा सामान इधर- उधर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। ये बोरिवली स्टेशन से नज़दीक होने से ऑफिस से आने - जाने में समय भी कम लगता था।
यहां मेरे मकान मालिक पास में ही रहते थे। वो शास्त्रीय संगीत के बहुत शौकीन थे। एक बार जब मेरा परिवार यहां आया तो मेरे बेटे ने उनके संगीत में बहुत रुचि ली। वो नई पीढ़ी में संगीत के रुझान को लेकर बहुत प्रफुल्लित हुए।
छुट्टियों में परिवार के यहां आने पर हम दो मित्र लोग सपरिवार नाशिक,शिरडी, त्र्यंबकेश्वर आदि स्थलों पर घूमने भी गए। ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मेरे मित्र के परिवार के साथ मेरे परिवार ने भी यात्रा का बहुत आनंद लिया।
मेरे कुछ पत्रकार मित्रों के साथ सपरिवार मुंबई शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने का मौका भी मिला।
एक बार एक बैंक के स्वर्णजयंती समारोह में आयोजित करने के लिए पार्श्व गायिका आशा भोंसले से बातचीत करने का अवसर भी मिला। किन्तु आशा जी के कार्यक्रम के भारी भरकम ख़र्च से बचने के लिए बैंक ने फिर अनूप जलोटा को आमंत्रित किया।
एक बार मेरी मुलाक़ात फ़िल्म निर्देशक आर के नय्यर से भी हुई, जो अपने समय की टॉप एक्ट्रेस साधना के पति थे। साधना किसी बीमारी के चलते फिल्मों की सक्रियता से अलग हो चुकी थीं।
मैंने कभी बचपन में सुना था कि मेरे जन्म के समय मेरे माथे पर एक पीला सा तिलक दिखाई दिया था।
मेरी श्रद्धा ऐसी बातों में कभी नहीं रही थी पर फ़िर भी मुझे मन ही मन कभी - कभी ऐसा लगता था कि शायद मेरी पैदाइश किन्हीं ऐसे नक्षत्रों में हुई है जो मुझे जीवन भर रास्ते दिखाएंगे।
कभी- कभी मैं खुद अपने आप से ये सवाल किया करता था कि मैं क्या चाहता हूं?
कोई भी लक्ष्य या मंज़िल मुझे कभी ऐसी नहीं लगी कि जहां पहुंच कर मैं अपने आप को धन्य समझूं। मुझे उपलब्धियां हमेशा छोटी दिखाई देती थीं। मैं कामयाब लोगों को देख कर उनके प्रति एक अदृश्य सहानुभूति से भर जाता था कि यहां तक पहुंचने के लिए इन्होंने क्या कुछ नहीं सहा होगा?
मुझे तो बस ये सुकून देता था कि मेरा संतोष मेरे साथ बना रहे, मेरे दिमाग़ की सकारात्मकता मुझे कभी छोड़ कर न जाए।
जिस रात मैं अपने घर में अकेला होता था तब मैं ये सोचा करता था कि हमारा समाज आदम युग के उस दौर से भी सही सलामत निकल आया है जब हम आखेट के सहारे, पशुओं की भांति, एक दूसरे से सर्वथा अपरिचित होकर निपट नंगे रहते हुए जीव और वनस्पतियों पर पत्थर मार कर अपना भोजन ग्रहण करते थे।
सुबह उठने के बाद मुझे दुनिया की कोई भी चीज़, या कोई भी हासिल ऐसा नहीं दिखता था कि ये हो जाए तो मेरा जीवन सफ़ल हो जाए!
जब मैं घर जाता था तब कभी - कभी मुझे मेरा पुराना कलाकार मित्र पप्पू ऐसा कहता था कि मैं दुनियां घूमने के बाद एक दिन इस बात पर लौटूंगा कि हम ग्रामीण लोगों की बेहतरी के लिए गांव में ही रह कर कुछ काम करें।
लेकिन जब मैं वापस मुंबई पहुंच जाता तो महानगर की अपनी गतिविधियों में व्यस्त हो जाता।
इस बीच एक बात जरूर हुई कि मैंने अपने गांव के नजदीक कुछ ज़मीन खरीद ली और उस पर एक भवन का निर्माण करवा कर, उसके पते पर एक सहकारी सोसायटी पंजीकृत करवाने की पहल कर डाली।
मुझे कथाबिंब के संपादक अरविंद जी ने एक दिन फोन करके बताया कि उनके एक मित्र फिल्म बनाने जा रहे हैं,और वो चाहते हैं कि उनकी फ़िल्म मैं लिखूं। उन्होंने मुझे अपने घर पर ही रात के खाने पर निमंत्रित कर लिया।
उनके ये मित्र पहले भी एक फ़िल्म बना चुके थे, जो ज़्यादा कामयाब तो नहीं रही थी किन्तु उन्होंने तत्कालीन मिस इंडिया रही अभिनेत्री को उसमें ब्रेक दिया था।
चेंबूर गार्डन में रात को देर तक बैठ कर हमने कई विषयों और प्लॉट्स पर बात की। उन्होंने ये भी कहा कि वो मुझमें एक लेखक ही नहीं, बल्कि अभिनेता की संभावनाएं भी देखते हैं। मैंने उनकी बात को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया,पर उन्हें पसंद आने योग्य एक कहानी ज़रूर दी।
इन्हीं दिनों पुणे से मेरे एक उच्च अधिकारी मुंबई आए। एक शाम उन्होंने मेरे लिए निकाली। भीड़ भरे इलाक़े के एक शांत से होटल में रात का खाना हमने साथ खाया।
काफ़ी देर बात भी हुई। उनकी थोड़ी देर की आत्मीय बातचीत से ही मुझे ऐसा आभास होने लगा कि वो बैंक में मेरे पदोन्नत न होने को लेकर भीतर से काफ़ी व्यथित हैं। वो एक तरह से मुझे सांत्वना देने के लिए ही अपने साथ यहां लाए थे। उन्होंने मुझे बेहद गोपनीयता से बताया कि केवल मेरे बैंक ही नहीं, बल्कि अन्य बैंकों के उच्च अधिकारियों ने भी इस बारे में पूछताछ की है कि मुझे पदोन्नत क्यों नहीं किया गया?
मेरे लिए उनके द्वारा दी गई ये जानकारी सचमुच किसी भी पदोन्नति से बड़ी थी।
मेरे लिए चुप रहना ही अंतिम विकल्प था।
उन्होंने मुझसे ये भी जानना चाहा कि क्या मैं मुंबई में ही बने रहना चाहता हूं,या मैंने अपने मन में कुछ और सोच रखा है।
मैंने उन्हें उनके प्रश्न का क्या जवाब दिया, ये बताने से पहले मैं आपको एक बात और बताना चाहूंगा। हुआ ये, कि फ़िल्म निर्माता और कभी जुबली कुमार कहे जाने वाले राजेन्द्र कुमार जी का इन्हीं दिनों किसी जटिल रोग से सामना हो गया, और वे उसकी जांच और निदान हेतु अपने सभी प्रोजेक्ट्स बीच में ही अधूरे छोड़ कर विदेश चले गए। आशंका बताई गई कि उन्हें लंबा वक़्त लग सकता है।
अब मैं आपको बताता हूं कि मैंने मुंबई में रहने की अपनी इच्छा के बाबत अपने अधिकारी से क्या कहा। मैंने उनसे केवल इतना कहा कि सागर अपनी लहरों को बांध कर एक ही जगह ठहरा रहता है,अतः मुझे लगता है कि किसी नदी का बहता पानी कहीं ज़्यादा सुकून देता होगा!
उन्होंने अपने दीर्घ अनुभव से शायद मेरी बात का प्रशासनिक अनुवाद कर लिया और वे अगले दिन वापस पुणे लौट गए। मध्य प्रदेश में भोपाल, इंदौर और जबलपुर में मेरी नियुक्ति हो सकती थी।
राजस्थान में बैंक का कोई प्रशासनिक कार्यालय न होने के कारण वहां तो कोई पद ही नहीं था।
राजस्थान के निकट या तो दिल्ली था या फिर मध्यप्रदेश।
दिल्ली में मैं लंबे समय रह चुका था। फ़िर दिल्ली में एक बार अपने परिवार के साथ रह लेने के बाद अब अकेले वहां रहने की तो मेरी कतई इच्छा नहीं थी।
दिल्ली के अपने प्रवास के दौरान मैंने जाने- अनजाने दिल्ली के संबंध में अपनी प्रच्छन्न अभिरुचि अभिव्यक्ति शायद अपनी पिछली किताब "रक्कासा सी नाचे दिल्ली" में कर भी दी थी।
समय बीत रहा था। मेरी आयु भी अब लगभग चार दशक को पार कर चुकी थी। मैं घर की ऊष्मा से ज़्यादा सभागारों की रोशनी में तपा था, अब बदन पर इस ताप की झांइयां पड़ने लगी थीं।
समय को तो अपनी रफ़्तार से जाना ही था। हम जीने में देर कर दें तो ये दायित्व उसका थोड़े ही है।
पर मैं देर भी कहां कर रहा था? मुझे जाना कहां था?
सब कहते थे कि मुंबई ऐसा शहर है जहां एक बार आकर कोई जाता नहीं है पर मेरी नाव के मस्तूल दूसरी बार किनारा छोड़ने को फरफरा रहे थे।
सचमुच नर्बदा नदी का बहाव बहुत चपल चंचल और शीतल है, अबकी बार यही बुला रही थी मुझे। जल्दी ही मेरे तबादले के आदेश जबलपुर शहर के लिए आ गए।
घरवाले तो कहते थे कि एक बार फिर आसमान से गिर कर खजूर में अटकना ही मेरी नियति है।