प्रकृति मैम- बढ़ रही थी उम्र Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम- बढ़ रही थी उम्र


7. बढ़ रही थी उम्र, छोटा हो रहा था मैंैैंैंैै
मैं मुंबई आ गया।
पहले भी आता रहा था, मगर अब इस तरह आया कि मुंबई को अपना शहर कह सकूं।
मेरा ऑफिस कालबादेवी इलाक़े के पास भीड़भरे प्रिंसेस स्ट्रीट पर था। वी टी स्टेशन पर उतर कर टाइम्स ऑफ इंडिया और जे जे इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स के सामने से डी एन रोड पर होते हुए जाना होता था।
हमने रहने के लिए किराए का घर नई बंबई के वाशी इलाक़े में लिया, क्योंकि मेरी पत्नी का ऑफिस यहां से काफ़ी नज़दीक होता था।
घर से निकल कर भीड़ भरे मछली बाज़ार के बीच से गुज़र कर बस लेना, फ़िर वहां से मानखुर्द स्टेशन से लोकल ट्रेन की हार्बर लाइन से विक्टोरिया टर्मिनस पर आना और उतर कर अपने ऑफिस पहुंचने में लगभग पौने दो घंटे का समय लगता था। वाशी में बस से लंबे पुल से समुद्र को देखते हुए गुजरना आखों को बेहद ताज़गी देता था।
किसी एक्सरसाइज़ की ज़रूरत नहीं, शरीर को फिट और छरहरा रखने के लिए परफैक्ट रूटीन।
नया घर, हर महीने कुछ न कुछ नया खरीदते हुए हम उसे रहने लायक़ बनाते जा रहे थे।
जहां अपनी पिछली शाखा में हम तीन लोग थे, यहां ढाई- तीन सौ लोग थे, दो शिफ्ट में,और एक मुख्य प्रबंधक के साथ चार शाखा प्रबंधक। भारत के लगभग हर कोने से कोई न कोई स्टाफ सदस्य।
जितनी भीड़ हमारी, उससे दस गुणा ग्राहकों की।
हर सप्ताह पत्नी को दो दिन की छुट्टी मिलती और मुझे डेढ़ दिन की।
समय पंख लगाकर भागने लगा।
अब आपको कुछ निजी गोपनीय बातें भी बताना ज़रूरी है।
हमने शादी पर तय किया था कि हम दो साल का ब्रह्मचर्य अपनाएंगे।
किन्तु अपने ट्रांसफर की कोशिश में जब हमें ये जानकारी मिली कि पत्नी का गर्भवती होना पति के उसके पास ट्रांसफर होने का एक महत्वपूर्ण और प्राथमिक कारण माना जाता है जिस पर यथा संभव सकारात्मक विचार किया ही जाता है, तो हमने हिम्मत हार दी...आपकी मर्ज़ी, कुछ भी कह लीजिए। कह लीजिए कि हम ने हिम्मत कर ली।
और उसी का परिणाम ये था कि अब हम एक साथ थे।
अब सवाल ये था कि घर में पत्नी के पास देखभाल के लिए किसी का रहना बहुत आवश्यक था और बाद में उसके ड्यूटी पर जाने के बाद भी ये समस्या बदस्तूर बनी ही रहने वाली थी।
ये शहर हमारे लिए नया था और पहचान या रिश्तेदारी में दूर- दूर तक ऐसा कोई नहीं था जिससे हम इस संदर्भ में किसी मदद की उम्मीद रख सकें।
कुछ दिन बाद हम छुट्टी लेकर जब अपने घर गए तो इस बात की चर्चा वहां भी हुई।
वहां कुछ उदासी और उपेक्षा का माहौल था।
इसका एक कारण तो ये था कि सब लोग अब ये सोचने लगे थे कि अपनी- अपनी क्लास के सबसे मेधावी और तेज़ माने जाने वाले हम लोग अब और किसी की मदद या सहयोग करने के काबिल नहीं रहे, बल्कि अपनी ही समस्याओं में उलझ कर रह गए हैं।
दूसरे,घर के बुजुर्गों को लगता था कि हम बाहर से जितने समझदार लगते हैं उतने हैं नहीं, क्योंकि हम अपने कैरियर की बात सोचते- सोचते इतनी जल्दी मां- बाप बनने के चक्कर में पड़े ही क्यों?
अब अपनी नासमझी में छिपी हुई समझदारी हम किस- किस को बताते?
हम दोनों के माता- पिता कार्यरत होने के कारण हमें केवल एक विकल्प दिखाई दिया कि हम मुंबई में अपने घर पर रहने के लिए मेरी पत्नी की दादी को साथ में ले चलें।
मेरी पत्नी ने दबी ज़बान से ये प्रस्ताव सबकी उपस्थिति में उनके सामने रखा,और बुलंद आवाज़ में तत्काल उनसे ये जवाब भी पाया- "ना बेटी, मैं तो तुम्हारे साथ बिल्कुल नहीं चलूंगी। तुम दोनों नौकरी करते हो, वहां अकेले घर में मैं मर गई तो बंबई जैसे शहर में मेरी मिट्टी का क्या होगा, कोई गंगा जी तक लाने वाला भी नहीं मिलेगा।"
हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।
ऐसा नहीं था कि घर के सब लोग हमारे मुंबई चले जाने से खिन्न और निराश ही हों।
घर के बड़े जहां हमारे कष्ट में चिंतित- हताश दिख रहे थे, वहीं हमारे छोटे भाई- बहन मुंबई को लेकर खासे उत्साहित और जिज्ञासु भी थे और अब हमारे वहां व्यवस्थित हो जाने के बाद घूमने- फिरने के लिए वहां आने को लालायित थे।
वे वहां के जनजीवन के बारे में हमसे खूब जानकारी करते और एक विराट महानगर की अपनी सुनी - सुनाई गौरवगाथा को प्रत्यक्ष देख पाने के मंसूबे बांधते।
मेरे कुछ मित्रों को मेरी इस छलांग से ईर्ष्या मिश्रित रश्क भी होता कि मैं एक छोटे से गांव की गलियों से निकल कर मुंबई के सबसे व्यस्त इलाक़े में कैसे जा पहुंचा!
मित्र और निकट परिजन मुंबई के बारे में सबसे ज़्यादा सवाल फ़िल्म कलाकारों को लेकर करते। किसे देखा, क्या कभी शूटिंग देखी,कोई स्टूडियो देखा,क्या सितारे भी उन्हीं सड़कों से गुजरते हैं? आदि सवाल होते।
लेकिन फ़िलहाल हम तो अभी अपने ठिकाने को ही रहने लायक बनाने में लगे थे।
हमने वर्षों से घरों में काम कर रही बाइयों, कामगारों और चौकीदारों तक से पूछ कर देखा कि क्या कोई बच्चा, लड़का या बूढ़ी औरत हमारे साथ घर में रह कर घरेलू कामकाज के लिए मुंबई चलने को तैयार है?
हर किसी का एक ही जवाब - " अरे बारे, बंबई में कैयां रैवेला ?"(हे मां, बंबई में कैसे रहेंगे?)
अपनी समस्या को भाग्य के भरोसे छोड़ कर हम दोनों वापस लौट आए।
अब प्रसव के दिन नज़दीक आ रहे थे। सरकारी नियमों के तहत प्रसूति अवकाश जितना भी मिले, हमारी कोशिश ये ही थी कि यदि कोई विशेष परेशानी न हो तो ज़्यादा से ज़्यादा दिनों तक पत्नी ऑफिस जाती रहे, ताकि प्रसव के बाद आराम के लिए पर्याप्त समय मिल सके।
नई बंबई में हम जहां रहते थे, पड़ोस में एक परिवार रहता था जिसमें मां और उनकी तीन बेटियां थीं। सभी नौकरी कर रहे थे। सबसे बड़ी बेटी मेरी पत्नी के ऑफिस में ही थी,और वो दोनों साथ - साथ ही ऑफिस जाती थीं।
उनसे हम लोगों का काफ़ी करीब का संबंध बन गया था।
उनकी मम्मी ने कहा- तुम लोग बिल्कुल चिंता मत करो, हम लोग हैं न, मिलकर सब संभाल लेंगे, यदि ज़रूरत पड़ी तो मैं अपने ऑफिस से कुछ दिन छुट्टी भी ले लूंगी।
हम उनकी सदाशयता और अपनेपन से भीतर तक कृतज्ञ हो गए।
बाद में मुझे अपने ऑफिस के लोगों से पता चला कि बंबई में ये कहावत प्रसिद्ध है कि बंबई में पड़ोसी ही रिश्तेदार होते हैं।
सच में हम अपनी दुविधा भूल गए।
उन आंटी(मम्मी) को जब ये पता चला कि प्रसव के दिनों के लिए हमारे घरों से कोई नहीं आने वाला है तो उन्होंने मेरी पत्नी की देखभाल, खानपान और सुविधाओं का ठीक उसी तरह ध्यान रखना शुरू कर दिया मानो उनके अपने घर में कोई नया आगमन होने वाला है।
जिस हस्पताल में प्रसव होने वाला था, वो चेंबूर क्षेत्र में था। हम इस कोशिश में थे कि यदि हमें उसके नज़दीक कोई फ्लैट मिल जाए तो हम मकान बदल लें ताकि दूर से आने - जाने की दुविधा न रहे।
संयोग से हमें मेरी पत्नी के ऑफिस के पास एक बहुत सुविधाजनक मकान ऐसी जगह पर मिल गया जो उस हस्पताल से भी बिल्कुल नज़दीक ही थी।
उस फ्लैट के मालिक किसी बड़े सरकारी विभाग में उच्च अधिकारी थे और वो सपरिवार तीन वर्ष के लिए किसी डेपुटेशन नियुक्ति पर विदेश जा रहे थे। वे अपना मकान देखभाल के लिए किसी को सौंप कर जाना चाहते थे। जब उन्हें हम लोगों के बारे में पता चला तो वो हमें बहुत कम किराए पर अपना मकान दे जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
हमें एक बड़ा मकान घर के ज़रूरी समान सहित (फर्निश्ड) तुरंत मिल गया।
पड़ोसी परिवार की मदद से हमने जल्दी ही शिफ़्ट भी कर लिया।
अब वो समय पास आ रहा था जब कभी भी मेरी पत्नी को छुट्टी लेनी पड़ सकती थी। न्यू बॉम्बे के हमारे पड़ोस वाली आंटी या उनकी बेटी हर एक - दो दिन में यहां भी आने लगे थे।
मैं मुंबई की सड़कों की भीड़ देख कर हमेशा ये सोचा करता था कि अजनबी इंसानों का ये समंदर किसी भी आदमी को इस लायक कहां छोड़ता होगा कि वो यहां से हज़ार किलोमीटर दूर बैठे अपने परिवार के बारे में सोच भी सके, उनका हालचाल पूछना या उनके लिए कुछ कर पाना तो बहुत दूर की बात है।
मुझे कभी- कभी ऐसा लगता था कि क्या हम सचमुच अपने घर की जिम्मेदारियों से पलायन करके भाग अाए? क्या अब हम अपने परिवार की किसी भी तरह मदद कर पाएंगे?
लगातार ये सोच मुझे अपने सुखों और अपनी हिफाज़त से दूर ले जा रही थी। मैं कुछ- कुछ बेपरवाह सा होने लगा था।
उधर राजस्थान राज्य में अपनी वरिष्ठता सूची जो मुझे जल्दी ही नौकरी में पदोन्नति का आश्वासन देती थी,वो राज्य छोड़ कर यहां चले आने के बाद तिरोहित होकर ओझल ही हो गई थी और अब यहां वरिष्ठता में कहीं न होने के कारण अपने भविष्य की तरक्की के भी सभी अवसर गंवा चुका था।
पर ये समय का तकाज़ा था कि मैं फ़िलहाल इन सब बातों पर न सोच कर अपने निजी परिवार के बारे में सोचूं। अपनी पत्नी के स्वास्थ्य और प्रसव पीड़ा के बारे में सोचूं। उस संतति के बारे में सोचूं जिसे हम इस दुनियां में लाने जा रहे थे।
ऑफिस में भी अब हम कुछ मित्रों का एक छोटा सा गुट बन चुका था। हम सब एक साथ खाना खाते, थोड़ा सा भी खाली समय मिलते ही साथ में चाय पीते। जयंत,प्रशांत,नागेश,रमेश और मैं,एक ही विभाग में नहीं थे,अलग - अलग विभागों में थे पर न जाने कैसे हम सब एक दूसरे के निकट आ गए।
हम सब घर से खाना लाया करते थे, किन्तु अब पत्नी की अवस्था के चलते मेरा टिफिन कभी- कभी गोल होने लगा था,पर मित्र मंडली ने कभी ऐसा लगने नहीं दिया कि आज घर से रोटियां नहीं आई हैं। दिनभर के व्यस्त रूटीन के बीच समय का कोई छोटा सा टापू मिलता तो हम फ़िल्मों की बातें करते, मौसम की बातें करते,
शेयर बाजार की बातें करते।
एक मज़ेदार बात ये थी कि मुंबई में सब "मुंबईया हिंदी" बोलते थे, जिससे ये पता नहीं चल पाता था कि कौन महाराष्ट्र का है, कौन गोवा का, कौन गुजरात का,कौन कर्नाटक का।
ऐसे में जब मैं शुद्ध हिंदी बोलता तो वो सभी लोग बहुत सम्मान से सुनते, उनका ख्याल ये था कि मैं बिल्कुल वैसी हिंदी बोल रहा हूं जैसी फ़िल्मों में कलाकार बोलते हैं। हिंदी फ़िल्में सभी की प्रिय थीं।
घर पर पत्नी के ऑफिस के कुछ लोग, जो आसपास रहते थे, कभी- कभी मिजाज़ पुर्सी के लिए आया करते थे। मेरा ऑफिस क्योंकि बहुत दूर था, मेरे मित्र भी सब काफ़ी दूर- दूर ही रहते थे। वो मोबाइल या फोन की अच्छी कनेक्टिविटी के दिन नहीं थे।
एक दिन ऐसे ही हालचाल पूछने आई एक महिला ने मुझसे कहा- आप पत्नी की देखभाल के लिए अपनी मां को कुछ दिनों के लिए क्यों नहीं बुला लेते?
मैं रात को खाना खाकर सोने के लिए बिस्तर पर लेटा तो दोपहर में पूछा गया उस महिला का सवाल मेरे इर्द - गिर्द चक्कर काटने लगा। पत्नी सो चुकी थी।
मेरी मां एक बड़े और संपन्न परिवार से थीं। मेरी मां की पांच बहनें और एक भाई था। मेरे नाना पेशे से एक्सिक्यूटिव इंजिनियर तो थे ही, वे बेहद संपन्न घराने से ताल्लुक़ रखते थे। अंग्रेज़ों ने आज़ादी से पहले उन्हें रायबहादुर की पदवी दी थी, और तमाम लोग उन्हें राय साहब कहते थे।
लेकिन ये सब वैभव हमारा आंखों देखा नहीं, बल्कि कानों सुना ही था क्योंकि नानाजी की मृत्यु बहुत पहले, मेरी मां के विवाह से भी पहले हो गई थी।
मां से बड़ी तीन बहनों की शादियां वो अपने ज़माने में कर गए थे। मेरे एक मौसा आई ए एस और बाक़ी भी बड़े सरकारी अफ़सर थे।
मुझे इस विषय पर बात करने के लिए क्षमा करें, पर मेरी मां अपनी सभी बहनों में सबसे ज़्यादा सुन्दर और पढ़ी - लिखी थीं।
हमने सुना था कि नानाजी के ज़माने में एक बार मेरी मां के विवाह की बात फ़िल्म अभिनेता भारतभूषण से भी चली थी। पर किसी कारण बात परवान नहीं चढ़ पाई।
लेकिन नानाजी के न रहने के बाद सबके नसीब बदल गए।
मेरी मां के एक रिश्ते के भाई जज भी थे। जिन्होंने नानी की देखरेख में मेरे नाना के परिवार का ज़िम्मा उठाया।
किन्तु नानी भी ज़्यादा समय संसार में नहीं रहीं। अब दोनों बहनों और छोटे भाई का भविष्य संवारने का दायित्व सबकी अपनी समझ- बूझ और नक्षत्रों पर आ ठहरा।
मेरे पिता उन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत पास करने के बाद ठेकेदारी का काम कर रहे थे। उनका विवाह हो चुका था किन्तु उनकी धर्मपत्नी एक शिशु को जन्म देने के बाद छोटी सी उम्र में ही दिवंगत हो चुकी थीं। पिता इस दुख को भुलाने के लिए काम में डूबे हुए थे। बच्चा परिवार में पल रहा था।
एक दिन मेरे चाचा जिन्होंने अभी कॉलेज से इंजीनियरिंग पास की थी, और कहीं नौकरी के लिए एप्लाई कर रहे थे,अपने प्रमाणपत्रों को अटेस्ट करवाने के लिए मेरे पिता के पास आए। पिता उस समय घर पर पहने जाने वाले कपड़ों में ही थे, कि उनके दरवाज़े पर एक न्यायाधीश की गाड़ी आकर रुकी।
पिता और चाचा दोनों ही विस्मित हुए जब गाड़ी में बैठे व्यक्ति ने बेहद आदर के साथ पिता को साथ चलने के लिए निमंत्रित किया।
पिता जज साहब के आवास पर अतिथि भी बने,और जल्दी ही उनके बहनोई भी।
इस तरह मां हमारे घर- परिवार में आ गईं।
मां के आने के बाद पिता ने भी अंग्रेज़ी में एम ए किया और दोनों ही शिक्षा जगत की सेवा में आ गए।
मुझे मालूम था कि बड़े भाई के यहां संतान के जन्म के अवसर पर मां ने भाभी को किस तरह संभाला था और उनकी प्रसव पीड़ा को घर के हर्ष- उल्लास में बदला था, किन्तु अब परिस्थिति दूसरी थी।
एक तो हम लोग खुद छह भाई - बहन होने के कारण पूरी सेवा में मां को मिले प्रसूति अवकाश में अब कोई ज़्यादा गुंजाइश नहीं रही थी, दूसरे, पिता के न रहने के बाद छोटी अविवाहित बहन भी उनके साथ ही रह कर पढ़ रही थी। ऐसे में उनका लंबा अवकाश लेकर मुंबई आ पाना व्यावहारिक नहीं था। फ़िर उम्र के चलते उनका खुद का रिटायरमेंट भी अब बहुत दूर नहीं था। मैं नहीं चाहता था कि उनका संचित अवकाश इस मौक़े पर खर्च हो जाए।
यही सब सोचता मैं सो गया।
एक तरफ पत्नी की देखभाल के लिए कोई स्थाई व्यवस्था जुटाने के लिए विकल्पों की पड़ताल में दिन जा रहे थे, दूसरी तरफ पत्नी के होने वाले प्रसव के दिन समीप आ रहे थे।
एक दिन पता चला कि पत्नी के गर्भ में एक नहीं, बल्कि जुड़वां संतानें हैं। स्थिति कुछ और जटिल हो गई।
यद्यपि जिस हस्पताल में प्रसव होना था वो प्रतिष्ठित और अत्यंत सुविधा संपन्न हस्पताल था और कुशल डॉक्टरों का भी वहां जमावड़ा था, इसलिए तकनीकी रूप से कोई दुविधा नहीं थी।
मैं अपने ऑफिस से लौटते समय कभी - कभी इसी हस्पताल में जाने के लिए किसी काम से उतरता था, और वहां से पैदल ही अपने घर की ओर चला जाता था।
एक दिन अचानक मुझे मालूम पड़ा कि मैं बस से जिस स्टॉप पर उतरता हूं, वो कोई मामूली जगह नहीं, बल्कि आर के स्टूडियो का मुख्य गेट है। मैंने बस से उतरने के बाद कुछ देर ठहर कर वहां का नज़ारा देखा। दरवाज़े पर बनी उस कलाकृति को निहारा जिसे राजकपूर की कई फ़िल्मों के आरंभ में परदे पर देखा था।
उस समय तक सोनोग्राफी जैसी तकनीक के दुरुपयोग की खबरें सुर्खियों में आनी शुरू नहीं हुई थीं और न ही मैं ये जानता था कि लोग चोरी - छिपे होने वाले बच्चे का लिंग पता करने के लिए ऐसी जांच करवाते हैं और गर्भ में लड़की होने पर गर्भ समाप्ति जैसे पैशाचिक, अमानवीय और पाशविक निर्णय लेते हैं।
यद्यपि आज तक किसी पशु ने तो ऐसा निर्णय नहीं ही लिया होगा, तो इस कृत्य को पाशविक कहने का हक़ भी हमें कहां है!
तब तक सरकारी कार्यालयों में "पितृत्व अवकाश" जैसी कोई सुविधा या अवधारणा नहीं थी।
पुरुषों को इस संदर्भ में अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह अपने दैनिक कार्य - कलापों के साथ, अथवा अपनी संचित छुट्टियां लेकर ही पूरा करना होता था।
मुझे धीरे- धीरे कई बातें ऐसी पता चल रही थीं जो मेरे लिए बिल्कुल नई थीं। प्रसूति से संबंधित कुछ विशेष सामान खरीदने का अनुभव भी मुझे पहली बार ही हुआ।
मेरा ऑफिस शहर के सबसे व्यस्त और मुख्य माने जाने वाले इलाक़े में होने के कारण मुझे अपने ऑफिस के आसपास के बाज़ार की भी पर्याप्त जानकारी हो गई थी, और मेरे मित्रों से भी मुझे इस बारे में सहायता मिल जाती थी।
बीच - बीच में अपने घर से भी कभी फोन पर या फ़िर लंबे- लंबे पत्रों के माध्यम से ही संपर्क होता रहता था।
फ़ोन पहले से बुक करा कर करना होता था और इसमें समय भी पर्याप्त लगता था। मेरे मित्र कहते थे कि मैं फ़ोन पर कंफर्टेबल नहीं हूं, क्योंकि मैं फ़ोन पर बात करने में उत्तेजित हो जाता हूं।
मैं उन्हें समझाता कि मेरी टेंशन का कारण ये है कि यदि कभी कोई बात आधी कह कर फोन कट गया तो घर पर मेरी मां या बहन अकारण तनाव में आ जाएंगे। मैं छोटे- छोटे वाक्यों में पूरी बात एक साथ कह देने की कोशिश करता। बीच- बीच में पहले ही ये कहता रहता कि यहां सब ठीक है।
फ़िर एक दिन वो भी आया कि मेरी पत्नी को हस्पताल में भर्ती कर लिया गया। नई मुंबई में हमारे पड़ोस में रहने वाली चित्रा की मम्मी भी छुट्टी लेकर अा गईं। चित्रा भी साथ ही थी।
हस्पताल में नर्स ने एक फॉर्म मुझे दिया कि मैं इस पर हस्ताक्षर कर दूं।
मैंने सरसरी तौर पर उसे पढ़ा, और साइन करने के लिए पैन हाथ में लेकर खोला।
मुझे इस बात पर अपने दस्तख़त करके सनद देनी थी कि ईश्वर की बनाई दुनिया में, पत्नी के शरीर से नया जीवन बाहर निकालने में, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से लैस चिकित्सकों की मौजूदगी में...जो कुछ हुआ, उसकी पूरी ज़िम्मेदारी मेरी होगी!!!
- अरे???