प्रकृति मैम- उजड़ा घोंसला Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम- उजड़ा घोंसला

उजड़ा घोंसला
घर में किसी के बीमार होने की सूचना इतनी खतरनाक नहीं होती कि हौसला खो दिया जाए।
पर ये बात चिंताजनक थी कि उदयपुर से रोज़ सुबह बस में गांव आने वाले बैंक मैनेजर उस दिन मोटर साइकिल से आएं ताकि तुरंत मुझे अपने साथ बाइक पर बैठा कर वापस तत्काल उदयपुर रेलवे स्टेशन पर पहुंचा सकें। इतना ही नहीं, बल्कि आने से पहले ही अपने किसी साथी को स्टेशन भेज कर मेरे टिकिट की व्यवस्था भी करवाते हुए आएं।
मेरा माथा ठनका। मैंने सोचा, ज़रूर इनके पास पूरी सूचना है कि मेरे घर में क्या हुआ है और मुझे इस तरह हड़बड़ी में क्यों बुलाया गया है।
लेकिन मेरे पूछने पर वो यही कहते रहे कि घर में किसी की तबीयत ख़राब है और मुझे बुलाया है।
दुनिया में मेरे साथ जो भी बुरा से बुरा हो सकता हो, उसकी आशंका का अनुमान लगाता हुआ मैं ट्रेन में बैठा हुआ था,और ट्रेन चलने को ही थी, कि तभी मेरे पिता के संस्थान के एक प्रोफ़ेसर मुझे ट्रेन के डिब्बे में दिखाई दिए।
मैं लपक कर उनके पास आया ताकि उन्हें नमस्कार कहूं, कि तभी वो गाड़ी से उतर गए। शायद वो ट्रेन पर किसी को सी- ऑफ करने आए थे। पर उतरते- उतरते भी वो मुझे देखकर तपाक से बोले- अरे, तुम अभी तक यहीं हो?
मैं जैसे आसमान से गिरा। मैंने उनसे कुछ और पूछना चाहा कि ट्रेन चल पड़ी और वो दूर से मुझे देख कर हाथ हिलाते ही रह गए।
उनके चेहरे की करुणा और शोक बता रहे थे कि मैंने कुछ बड़ा खो दिया है।
मुझे "खो देने" का अभ्यास चाहे ज़िन्दगी ने कई बार करवाया हो,पर आख़िर था तो मैं उगती हुई उम्र का एक युवक ही। मैं अपने जीवन के बटुए को फ़िर टटोल कर देखने लगा, और अनचीन्हे मातम में खो गया।
सफ़र की एक पूरी काली रात मैंने अनभिज्ञता के अंधेरे और संदिग्ध शोक में काटी।
भिनसारे ही अपने घर से सात किलोमीटर दूर जब छोटे से रेलवे स्टेशन पर मैं उतरा तो सामने एक तांगा खड़ा मिला। मैं बिना कुछ बोले उसमें जा बैठा। तांगे में पीछे की सीट पर एक बूढ़ी औरत बैठी थी और तांगे वाला पास ही बैठा कुछ और सवारियों के इंतजार में बीड़ी पी रहा था।
मैंने लगभग भरे गले से उससे कहा- पूरे तांगे के पैसे मुझसे लेना, जल्दी चले चलो!
मेरे बोलते ही तांगे वाला झटपट चाबुक हाथ में लेकर तांगे की ओर लपका और बूढ़ी औरत भी मानो कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए पीछे मुड़ी।
एक दूसरे को देखते ही हम दोनों ही चौंके, क्योंकि वह बूढ़ी औरत और कोई नहीं, बल्कि वही सब्ज़ी वाली मालिन थी जो बरसों से हमारे घर सब्ज़ी बेचने आती रही थी। हम अपने बचपन में उसके टोकरे से गाजर और मटर चुरा - चुरा कर खाते रहे थे।
मुझे देखते ही उसने दोनों हाथ जोड़े,और आंखों को बंद करके जैसे ईश्वर को याद किया फिर बोली- हे राम... बाबूजी गिया!(बाबू जी गए)
मेरे चौंक कर फ़िर से पूछने पर बोली- बाप को सायो उठ ग्यो !(पिता का साया उठ गया)
मैं मन ही मन छटपटाया,पर हालत देखिए कि इस जवाब से भी जैसे मुझे कुछ राहत ही मिली...क्योंकि रात से अब तक कल्पना में न जाने किस- किस को मरते हुए देखता रहा था...अब जाकर पता लगा कि मेरे पिता नहीं रहे!
मेरे पिता का निधन हो चुका था और वो दो दिन पहले इस दुनिया में फ़िर कभी न लौटने के लिए आग को सौंप दिए गए थे।
क्या आपको ये भी बताऊं कि तांगे से उतर कर मैं उस घर के भीतर कैसे दाख़िल हुआ जिससे अभी कुछ दिन पहले मैं अपने विवाह के बाद ही जल्दी आने की बात कह कर रुखसत हुआ था।
मत पूछिए! मुझे फ़िर पाप लगेगा।
उस घड़ी मेरी हालत ऐसी थी मानो मैं जाने- अनजाने मिट्टी में जो बारूद गिरा गया था वो फट गया और मेरा जतन से बनाया गया रेत महल भुरभुरा कर हादसाकश हो गया।
मैंने एक ऐसी नाव में छेद कर लिया, जिसमें मेरे सारे भाई बहनों और मां का भी सामान रखा हुआ था। नाव डूब गई, टूटे हुए पल पानियों में बह गए। मैंने वो विराट छत्र तोड़ दिया जिसके साए में पूरा परिवार धूप और बारिश से बचता था।
वो पल, जिन्हें दुरुस्त करने का संकल्प लेकर मैं यहां से गया था, हमेशा के लिए गुम हो गए।
पिता रात को टहल कर आकर आराम से सोए थे,सुबह जल्दी ही उनके सीने में दर्द उठा और मेरा बड़ा भाई जब डॉक्टर को लेकर आया तो सबने उनसे ये ही सुना कि देर हो गई।
पिता ने इतनी जल्दी की... कि देर हो गई!
मुझे याद है कि एक बार छुट्टियों में मैं घर आया हुआ था, गर्मी के कारण मेरे पिता ने कहा कि आज कुछ उमस है, मेरा बिस्तर कमरे की जगह बाहर आंगन में लगा दो।
मैंने खाट पर से बिस्तर समेट कर उसे बाहर लाकर आंगन में बिछा दिया। मैं उस पर बिस्तर बिछा ही रहा था कि पिता ने आकर देखा, खाट कुछ टेढ़ी है।
वे मुझसे बोले- बेटा, मुझे टेढ़ी खाट पर नींद नहीं आती, और हम दोनों ने मिल कर खाट को सीधा कर दिया।
अब मैं सोचता था कि हम चार भाइयों में से तीन तो उनकी मृत्यु के बाद उन्हें शमशान ले जाते हुए उनके पास ही थे,बस मैं ही दूर एक गांव में होने से तीसरे दिन आ पाया। उनकी अंतिम यात्रा में मेरे न होने पर उनकी खाट एक ओर से टेढ़ी हो गई होगी और वे उसी पर हमेशा के लिए सो गए! इतनी गहरी नींद?
पिता की मृत्यु के बाद कुछ दिन में उनका डेथ सर्टिफिकेट लेकर बैंक की औपचारिकताएं पूरी की गईं। उनके पास जमा पैसा उनके बाद तीन हिस्सों में बांट कर फ़िर से जमा करवा दिया गया।
एक हिस्सा मेरी छोटी बहन के विवाह के लिए अलग से रखा गया और हम सबने यह तय किया कि इसे बहन की शादी के अलावा और किसी भी मद के लिए कभी नहीं निकालेंगे। एक हिस्सा राशि मां के नाम रही।
पिता को घर की ज़रूरत के ख्याल से कुछ न कुछ पैसे अपने पास गुप्त रूप से रखने का भी शौक़ था। शौक़ क्या,ये एक प्रकार से भविष्य की कठिनाईयों के लिए सतर्क रहना ही कहा जाएगा। पिता की मृत्यु के बाद एक दिन उनकी अलमारी में कोई किताब तलाश करते हुए उनकी एक डिक्शनरी में सौ रुपए का नोट रखा हुआ मिला था।
मैं विवाह के बाद घर से जाते समय अपने पिता से कह कर गया था कि अब मैं नियमित रूप से आपको कुछ पैसे भेजा करूंगा जो आपके बैंक खाते में हर माह के पहले सप्ताह में आ जाया करेंगे। मैंने शादी के बाद अपने बैंक पहुंचते ही पिता को पैसे भेज भी दिए थे। पिता का खाता यूको बैंक में था।
मैं जानता था कि जिंदगी भर नौकरी करने वाले एक संभ्रांत शिक्षित शख़्स की मनोदशा रिटायरमेंट के बाद क्या होती होगी,यदि उसे पेंशन भी न मिलने वाली हो।
भारतीय परिवारों में घर के सारे फ़ैसले भी उन्हीं हाथों में होते हैं जिन हाथों में घर का पर्स या बटुआ हो।
मेरी माता भी नौकरी में थीं, इसलिए उनकी ओर से मैं या अन्य भाई बहन निश्चिंत थे।
मैंने अगले दिन ही यूको बैंक जाकर पिता के खाते के बारे में पूछताछ की और जानना चाहा कि क्या पिताजी ने अपनी मृत्यु से पहले वो पैसे बैंक से निकाल लिए थे जो मैंने उदयपुर से भेजे थे?
यहां मुझे एक अत्यंत हृदय विदारक सूचना मिली जिसकी ख़लिश उम्र भर मेरे मानस से नहीं जाएगी।
पिता का खाता चैक करके प्रबंधक महोदय ने बताया कि वो अपने निधन से चार - पांच दिन पहले से लगभग रोज़ बैंक में पूछताछ कर रहे थे कि क्या उदयपुर से आपका भेजा पैसा उनके खाते में आया है?
और असलियत ये थी कि पैसा अब तक उनके खाते में जमा नहीं हुआ है, ऐसा उन्होंने मुझे बताया।
मुझ पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। मैंने प्रबंधक को बताया कि पैसा मैंने खुद भेजा है,आप चैक कीजिए कि गलती से किसी और ग़लत खाते में तो जमा नहीं हो गया?
प्रबंधक ने कहा- ये छोटी शाखा है, यहां आपके पिताजी को भी सभी जानते हैं और आपको भी, यदि कोई रकम आई होती तो निश्चित ही उनके खाते में जमा भी की जाती और हम खुद चला कर उन्हें फोन भी करते कि आपका पैसा अा गया है! हम खुद इस बात से परेशान थे कि वो बार - बार जिस राशि के लिए पूछ रहे हैं वो आ क्यों नहीं रही!
प्रबंधक महोदय ने मुझसे कहा- "आप उनकी अंत्येष्टि में नहीं थे, मगर मैं और मेरा स्टाफ अंतिम संस्कार में शामिल था..."
मैं निरुत्तर हो गया।
कुछ सप्ताह धुंध में लिपटे दुःख के साथ बीते।
परिवार जन उनकी तेरहवीं से पहले एक- एक करके आते जा रहे थे, वे भी, जो मेरी शादी में नहीं आए थे। मेरी पत्नी भी मुंबई से आ चुकी थी।
शाम को रोज़ घर में गीता पढ़ी जाती।
इमारतें गिरती हैं पर धरती को रहना होता है, एक - एक करके सब अपने - अपने काम धंधे पर लौटने लगे।
दुख तो सभी को था किन्तु मेरी सास मां को एक अतिरिक्त चिंता और थी। एक दिन शाम को बैठे - बैठे उन्होंने मुझसे कहा कि अब हमारी बेटी को तुम्हारे परिवार में सब अशुभ समझेंगे।
मैंने उनसे कहा- अच्छा ये बताइए कि आप को मेरी फ़िक्र है या "सब" की? मैं ऐसा नहीं समझता !
वो गहरी नज़र से मेरी ओर देखती रहीं।
सब चले गए।
मेरा डर और अकेलापन और भी दुरूह हो गया।
गांव में अपनी नौकरी पर पहुंच कर जब मैं बैंक में बैठा था,कुछ लोग मुझसे मिलने आए।
बैंक के अपने कामकाज के लिए तो सुबह से लोग आ- जा रहे ही थे, किन्तु ये लोग केवल मुझसे मिलने ही आए। ये गांव के व्यापारी वर्ग के कुछ लोग थे।
आते ही एक ने कहा- साहब, गांव में तो खबर फ़ैल गई थी कि आपके पिता जी गुज़र गए, भगवान का लाख- लाख शुक्र कि बच गए! अब तो सब ठीक है?
मैं हक्का - बक्का रह गया। मैंने कहा- कौन बोला कि बच गए, उनका अंतिम संस्कार और तेरहवीं करके तो मैं आ रहा हूं! मैंने बेचैनी से कहा।
वे सभी बौखलाए से लगे, उनमें से एक मुंह लटका कर बोले- अरे साहब,हम तो आपका शीश देख कर समझे कि पिताश्री बच गए। आपके बाल नहीं उतरे न !!!
- ओह, मैंने कहा। मैं बोला- सेठजी, यदि मेरे बाल उतरवाने से पिता जी वापस लौट सकते तो मैं बाल क्या, सिर भी कटा कर आ जाता!
वे निरुत्तर हो गए।
मैंने उन सभी को चाय पिलाई। वे बातें करते, सबके हालचाल पूछते हुए वापस लौट गए।
अपने काम से ज़रा फुरसत पाते ही मुझे उस पहेली को सुलझाना था कि आखिर अपने पिता को भेजे गए मेरे पैसे गए कहां!
विडम्बना देखिए, मैंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को उदयपुर में बैंक में भेजा कि वो मेरे पिता के खाते में एम टी (मेल ट्रांसफ़र) करवा कर आ जाए। उसने वहां जाकर गलती से डी डी (डिमांड ड्राफ्ट) का फॉर्म भर कर पैसे जमा करा दिए। अर्थात बैंक ने उस राशि का मांग ड्राफ्ट बना कर रख लिया कि हम उसे लेने आयेंगे। ड्राफ्ट अधिकारी की मेज़ की दराज़ में पड़ा रहा और उधर मेरे पिता इस राशि के उनके खाते में पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे।मैं निरुत्तर हो गया।
कुछ सप्ताह धुंध में लिपटे दुःख के साथ बीते।
परिवार जन उनकी तेरहवीं से पहले एक- एक करके आते जा रहे थे, वे भी, जो मेरी शादी में नहीं आए थे। मेरी पत्नी भी मुंबई से आ चुकी थी।
शाम को रोज़ घर में गीता पढ़ी जाती।
इमारतें गिरती हैं पर धरती को रहना होता है, एक - एक करके सब अपने - अपने काम धंधे पर लौटने लगे।
दुख तो सभी को था किन्तु मेरी सास मां को एक अतिरिक्त चिंता और थी। एक दिन शाम को बैठे - बैठे उन्होंने मुझसे कहा कि अब हमारी बेटी को तुम्हारे परिवार में सब अशुभ समझेंगे।
मैंने उनसे कहा- अच्छा ये बताइए कि आप को मेरी फ़िक्र है या "सब" की? मैं ऐसा नहीं समझता !
वो गहरी नज़र से मेरी ओर देखती रहीं।
सब चले गए।
मेरा डर और अकेलापन और भी दुरूह हो गया।
गांव में अपनी नौकरी पर पहुंच कर जब मैं बैंक में बैठा था,कुछ लोग मुझसे मिलने आए।
बैंक के अपने कामकाज के लिए तो सुबह से लोग आ- जा रहे ही थे, किन्तु ये लोग केवल मुझसे मिलने ही आए। ये गांव के व्यापारी वर्ग के कुछ लोग थे।
आते ही एक ने कहा- साहब, गांव में तो खबर फ़ैल गई थी कि आपके पिता जी गुज़र गए, भगवान का लाख- लाख शुक्र कि बच गए! अब तो सब ठीक है?
मैं हक्का - बक्का रह गया। मैंने कहा- कौन बोला कि बच गए, उनका अंतिम संस्कार और तेरहवीं करके तो मैं आ रहा हूं! मैंने बेचैनी से कहा।
वे सभी बौखलाए से लगे, उनमें से एक मुंह लटका कर बोले- अरे साहब,हम तो आपका शीश देख कर समझे कि पिताश्री बच गए। आपके बाल नहीं उतरे न !!!
- ओह, मैंने कहा। मैं बोला- सेठजी, यदि मेरे बाल उतरवाने से पिता जी वापस लौट सकते तो मैं बाल क्या, सिर भी कटा कर आ जाता!
वे निरुत्तर हो गए।
मैंने उन सभी को चाय पिलाई। वे बातें करते, सबके हालचाल पूछते हुए वापस लौट गए।
अपने काम से ज़रा फुरसत पाते ही मुझे उस पहेली को सुलझाना था कि आखिर अपने पिता को भेजे गए मेरे पैसे गए कहां!
विडम्बना देखिए, मैंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को उदयपुर में बैंक में भेजा कि वो मेरे पिता के खाते में एम टी (मेल ट्रांसफ़र) करवा कर आ जाए। उसने वहां जाकर गलती से डी डी (डिमांड ड्राफ्ट) का फॉर्म भर कर पैसे जमा करा दिए। अर्थात बैंक ने उस राशि का मांग ड्राफ्ट बना कर रख लिया कि हम उसे लेने आयेंगे। ड्राफ्ट अधिकारी की मेज़ की दराज़ में पड़ा रहा और उधर मेरे पिता इस राशि के उनके खाते में पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे।
हमारे धर्म - ग्रंथों में लिखा है कि मनुष्य का जन्म और मृत्यु विधाता के हाथ में है, मैं ये भी जानता था कि एक भरे- पूरे परिवार के मुखिया के लिए मेरी भेजी ये तुच्छ राशि जीवन - मरण का प्रश्न नहीं हो सकती, फ़िर भी मुझे रात को नींद में भी कभी- कभी ये बात याद आ जाती थी कि क्या मेरे पिता दुनिया से जाते समय मेरी विफलताओं की मायूसी के साथ - साथ ये धारणा भी ले गए कि मैंने उन्हें मिथ्या आश्वासन दे डाला???
घर से दूर अकेला रहता मैं रात में सोते समय भी ये सब सोच कर कभी - कभी विचलित हो जाता था।
यदि मेरे साथ मेरा कोई मित्र सोया हुआ होता तो मैं अपना भय उससे बांटने के लिए उससे लिपट जाता।
मित्र भी मेरा दुख समझ कर मुझे सांत्वना देते।
युवा मित्रों के बदन और सांत्वना के पुष्ट हाथ मेरे मन और शरीर से दुख हल्का कर, जैसे उसे फ़िर से पुष्ट कर देते और अगली सुबह सब सामान्य हो जाता।
अब लोग मुझसे मिलने पर ऐसे सवाल करते जिनका मेरे पास कोई जवाब नहीं होता।
मन भी जैसे दो हिस्सों में बंट गया था, एक हिस्से की तरंगें मुंबई से पत्नी की चिंता लहरों की तरह लाती रहतीं तो दूसरे हिस्से से मां, और उनकी उजड़ी दुनियां की डरावनी हवाएं आती थीं।
लोग पूछते,अब मैं क्या करूंगा। क्या मेरी पत्नी वहां अकेली नौकरी करती रहेगी? यदि मैं वहां चला जाऊं तो इससे मुझे क्या हानि या लाभ होगा, आदि आदि।
क्या बैंक में ट्रांसफर लेकर वहां जाना संभव है? कई लोग ये भी पूछते।
मुझे लगता था कि मुझे सबसे पहले ये तय करना होगा कि मैं क्या चाहता हूं। परिवार का साथ,पत्नी का साथ या फिर अपना कैरियर?
परिवार के नज़दीक जाने के लिए मैंने ऐसी परीक्षा दे रखी थी जिससे राजस्थान में नियुक्ति हो सके। दो ऐसी परीक्षाएं भी दे रखी थीं कि अखिल भारतीय स्तर पर कहीं भी नियुक्ति हो सकती थी।अपने ही बैंक में ट्रांसफर के लिए भी मैंने आवेदन दे दिया।यद्यपि ये इंटर ज़ोन ट्रांसफर होने के कारण बहुत मुश्किल था। ये तभी संभव था जब महाराष्ट्र से कोई राजस्थान में आने के लिए तैयार हो और वो भी ट्रांसफर का आवेदन दे।
अब किसी भी त्यौहार पर या कुछ छुट्टियां होने पर ये फैसला भी करना पड़ता था कि पत्नी यहां आए, मैं मुंबई जाऊं या फ़िर हम दोनों ही घर(राजस्थान) जाएं। राहत सिर्फ एक यही थी कि हम दोनों का घर एक ही जगह पर था।
त्यौहारों पर बस,रेल सभी जगह भीड़भाड़ होती और सीमित छुट्टी से आना -जाना एक मुसीबत ही बन कर रह जाता।
ज़िन्दगी खानाबदोशों जैसी बन कर रह गई।
दीवाली के दो दिन बाद जब सब परिजन और मित्रगण एक दूसरे के घरों में मिलने- मिलाने में व्यस्त होते,हम ट्रेन पकड़ने की उधेड़बुन में होते।
हमारे घर वाले भी महसूस करने लगे थे कि सचमुच शादी की जल्दी करने में हमारे साथ ये व्यवधान ही पैदा हो गया।
सब एक दूसरे के लिए अवांछित बोझ ही बन कर रह गए। मिलन सुख और रिश्तों की गर्मजोशी पीछे छूट गए।
पत्नी संस्थान के हॉस्टल में रहती थी।
मैं जब मुंबई जाता तो पत्नी के संस्थान में जाता, बड़े - बड़े अधिकारियों और वैज्ञानिकों के बीच खाना - पानी होता, हम संभ्रांत उच्च समाज में आमंत्रित होते,और संस्थान की आवासीय कॉलोनी में ढेरों लंच -डिनर होते।
जब पत्नी मेरे पास आती तो हम गांव में न रह कर कहीं घूमने फिरने चले जाते या उदयपुर में रहते,जहां हम दोनों के ही कुछ रिश्तेदार भी रहते थे।
पर जब मैं गांव लौट आता तो वही दिनचर्या शुरू हो जाती, जिसमें कुछ मित्र बस साथ होते।
मैं उस समय अपनी तुलना राम से करता जिनके लिए एक ओर अयोध्या के महल और चहल- पहल थी तो दूसरी ओर हनुमान, अंगद, सुग्रीव, केवट और शबरी का साथ और कंदमूल फल।
और इसी बीच मुझे दो खबरें एक साथ मिलीं।
मैं जो लिखित परीक्षा पास करने के बाद दिल्ली में इंटरव्यू देकर आया था उसमें अंतिम रूप से मेरा चयन हो गया था। मुझे राजस्थान के ही एक और नगर में तैनाती मिल गई थी। यद्यपि ये शहर जयपुर से कुछ दूरी पर था और यहां रह कर घर के पास आ जाने का अहसास कोई व्यावहारिक उपलब्धि नहीं थी।
परिणाम मिलते ही मुझे ध्यान आया कि मुझे एक बार दिल्ली जाने का अवसर मिले तो जिन अंकल के घर जनकपुरी में मैं इंटरव्यू देने के समय ठहरा था, उनकी बेटी को ये बता कर आऊं कि दिल्ली में मेरी कोई एप्रोच तो नहीं है पर ये नियुक्ति पत्र डाक से आ गया है।
दूसरी खबर मुझे, केवल मुझे, सिर्फ़ मुझे मेरी पत्नी के एक ख़त से मिली कि वो गर्भवती है।
मेरी स्थिति फ़िर नरसिंह भगवान जैसी हो गई... मुंह किसी का,बदन किसी का...
क्या किया जाए!
मैं अपनी नियुक्ति पर ज्वॉइनिंग के लिए दी गई अंतिम तिथि की अवहेलना करके पहले मुंबई गया।
हम दोनों ने इस बात पर विचार किया कि मुझे नई जगह ज्वॉइन करने का विचार तो पूरी तरह छोड़ ही देना चाहिए,और एक बार अपने मुंबई ट्रांसफर के आवेदन पर जल्दी विचार करने के लिए यहां स्थित हैड ऑफिस में मिलना चाहिए।
पहले से समय लेकर मैं एक उच्च अधिकारी से मिला। मैं और मेरी पत्नी हम दोनों ही गए थे।
उनसे काफ़ी देर बात हुई, उन्होंने चाय भी पिलाई। बाद में हमें उनकी इस सदाशयता का कारण भी पता चला।
उनके एक रिश्तेदार मेरी पत्नी के संस्थान में ही काम करते थे। जिनके माध्यम से उन्हें हमारे केस की पूरी जानकारी थी कि किस तरह मैंने राजस्थान से यहां ट्रांसफर कराने का आवेदन दिया है।
उनसे मिल कर मैं अगले दिन वापस अपने बैंक में आ गया।
अब मुझे पूरी उम्मीद हो गई थी कि मेरा स्थानांतरण मुंबई हो जाएगा।
जिन अधिकारी से मैं मिला था उनका कहना था कि पत्नी के गर्भवती होने के डाक्टरी प्रमाणपत्र के आधार पर मेरा मामला प्राथमिकता से लिया जाएगा,और जल्दी ही ऑर्डर्स निकल जाएंगे।
उन्होंने ये भी बताया कि दो महिलाओं के मुंबई से राजस्थान जाने के आवेदन भी बैंक के पास पेंडिंग हैं। अतः अब ट्रांसफर में कोई अड़चन नहीं थी।
जल्दी ही मैं अपने पसंदीदा गांव और आत्मीय दोस्तों को अलविदा कह कर मुंबई चला आया, जो तब बॉम्बे या बंबई था और किसी भी क्षेत्र में चमकने की आकांक्षा रखने वाले युवाओं की मायानगरी कहलाता था।
बंबई शहर की छवि का आलम ये था कि मेरे छोटे भाई ने,जब मैं पहली बार बंबई आकर घर गया था, तो मुझसे पूछा- क्या बंबई में भिखारी भी हैं?
- हां। मैंने कहा।
- तो वो भी बॉम्बे में हैं? उसने कोतूहल से पूछा।
अपना वहां संजोया छोटा- मोटा सामान मैं आते समय अपने उन्हीं छोटे - बड़े किशोर युवा मित्रों को दे आया जिनके साथ मेरी अंतरंग यादें जुड़ी थीं। जिनके साथ मैं घूमा था, खेला था, सोया था।साथ में खाना बनाया था, खाया था। फ़िल्में देखी थीं, पढ़ाई की थी। और ज़िन्दगी के कई छिपे - ढके रहस्य जाने थे।