प्रकृति मैम - छू सको तो छू लो Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • उजाले की ओर –संस्मरण

    मनुष्य का स्वभाव है कि वह सोचता बहुत है। सोचना गलत नहीं है ल...

  • You Are My Choice - 40

    आकाश श्रेया के बेड के पास एक डेस्क पे बैठा। "यू शुड रेस्ट। ह...

  • True Love

    Hello everyone this is a short story so, please give me rati...

  • मुक्त - भाग 3

    --------मुक्त -----(3)        खुशक हवा का चलना शुरू था... आज...

  • Krick और Nakchadi - 1

    ये एक ऐसी प्रेम कहानी है जो साथ, समर्पण और त्याग की मसाल काय...

श्रेणी
शेयर करे

प्रकृति मैम - छू सको तो छू लो

छू सको तो छू लो
जिस लड़के को मैं स्टेशन से ले आया था उसे कुछ समय बाद उसके चाचा का पत्र आ जाने पर मैंने कुछ पैसे देकर, बिहार का टिकिट दिलवा कर वापस उसके गांव भेज दिया। जाते समय उसने पांव छूकर मुझसे कहा कि वो कभी घर वापसी की उम्मीद छोड़ ही चुका था। उसने घर के कामकाज के साथ मेरी बहुत सेवा भी की।
इसी बीच बैंक में बड़े पैमाने पर तबादले हुए और मेरा ट्रांसफ़र भी हमारे मुंबई महानगर अंचल कार्यालय में हो गया जो फोर्ट में शेयर बाज़ार के ठीक सामने था। मैं फ़िर मुंबई के बीचों बीच आ गया।
इन तबादलों के कई अर्थ लगाए गए और हमें अधिकारियों से उनकी मानसिकता के अनुसार ट्रांसफर्स के अलग- अलग कारण सुनने को मिले।
कुछ लोग कहते थे कि अब बैंक में पदोन्नति परीक्षा होने वाली है इसलिए ज़्यादातर अफसरों ने छोटी जगह रह कर तैयारी करने के लिए आसपास की शाखाओं में तबादले मांग लिए हैं, और इसलिए उनकी जगह भरने को हम लोगों को यहां लाया गया है।
मुझे बताया गया कि मुंबई नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सचिव का पद देने के लिए मुझे यहां लाया गया है, क्योंकि ये पद यहीं पदस्थ अधिकारी को दिया जाता है। कहा गया कि लेखन और पत्रकारिता से शहर के हिंदी जगत में जो जगह मैंने बनाली है उसका लाभ बैंक को भी मिले, यही सोच कर मुझे यहां लाया गया है।
बैंक के उच्च अधिकारियों के साथ निजी संबंध रखने वाले कुछ प्रभावशाली अफसरों ने मुझे ये भी कहा कि कोल्हापुर और ठाणे में रहते हुए मैंने फ़िल्म जगत में संपर्क बनाने की जो कोशिश की, उसे और हवा देकर कामयाब बनाने की सहूलियत देने के लिए मुझे यहां लाया गया है।
मैं भीतर से और उत्साह से भर गया। सचमुच हमारी बहुत सी शाखाओं में यहां कई फिल्मकारों के खाते भी थे और कई फ़िल्म हस्तियों को बैंक ने फाइनेंस भी किया था।
इतना ही नहीं, हमारे स्पोर्ट्स क्लब के कुछ नाट्य कर्मियों को फ़िल्मों में छोटी - मोटी भूमिकाएं भी मिल चुकी थीं।
यहां उन दिनों हमारी नब्बे से ज़्यादा शाखाएं थीं जिनमें मेरा जाना भी होता रहता था। बैंक ने लोकल ट्रेन का प्रथम श्रेणी का आल रूट पास भी हमें दे रखा था।
मैं श्रीरंग सोसायटी से बोरिवली की आई सी कॉलोनी में रहने आ गया।
ठाणे के मेरे कई युवा दोस्त मुझे छोड़ने और नए घर में मुझे व्यवस्थित करवाने के लिए मेरे साथ आए थे। रात को वो तीनों मेरे पास ही रुके।अगले दिन रविवार था। उन्हें वापस ठाणे जाना था, पर उन्होंने प्रस्ताव रखा कि वो पहली बार इस तरफ अाए हैं, इसलिए जुहू बीच देख कर जाना चाहते हैं। वो मेरे घर से नज़दीक ही था। हम चारों सुबह - सुबह जाकर बीच पर नहाए। फ़िर खाना खाकर मैं घर लौट आया और वो वापस चले गए।
बोरिवली में मैं जिस बिल्डिंग में रहता था उसका नाम "पेपिलॉन" था। इसमें तल मंजिल पर ही मेरे पड़ोस में एक गुजराती परिवार रहता था, उसमें केवल एक मां और बेटा थे। बेटा कॉलेज में फर्स्ट ईयर का छात्र था।
वो मां और बेटा जैसे बहुत दिन से बंद पड़े पड़ोस के घर में किसी के आने का इंतजार ही कर रहे थे। मुझे देखते ही बेटा परिचय के लिए चला आया।
उसे ये देखकर बहुत अच्छा लगा कि मैं अकेला ही हूं। पहली रात को उसने मेरे फ्लैट में तीन किशोर वय के लड़कों की आवाज़ सुनी थी तो शायद वो अंदाज़ नहीं लगा पाया कि पड़ोस में आने वाले कौन लोग हैं। अब जब उसने मुझे अकेला देखा तो बहुत ही खुश होता हुआ चला आया।
मैं उससे उम्र में काफी बड़ा था पर उसने पिछली रात को मुझे उन लड़कों के साथ घुल- मिल कर बातें करते हुए देखा था तो उसका संकोच भी जाता रहा और वो पहले दिन से मुझसे इस तरह घुल- मिल गया जैसे जाने कब से मुझे जानता हो।
असल में उसकी भी एक कहानी थी जो उसने पहले ही दिन मुझसे बांट ली।
उसकी मां गुजराती फ़िल्मों और नाटकों की एक मशहूर अभिनेत्री थीं। उनका लड़के के पिता के साथ पहले मनमुटाव और फ़िर अलगाव हो गया था और वो दूसरी शादी करके कहीं चले गए थे। वो तब बहुत छोटा था। अचानक बचपन छिन जाने और अकेला हो जाने से वो अपने में ही गुमसुम होकर रह गया था। उसकी मां बहुत व्यस्त रहती थीं और देर रात ही घर आती थीं। वो अब अधिकतर मेरे साथ ही रहने लगा।
नए ऑफिस में आते ही मेरी व्यस्तता कुछ और बढ़ गई। शहर में साल भर हिंदी के कुछ कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे जिनके आयोजन के लिए कई बैंकों के प्रतिनिधियों की एक समिति होती थी। इसके संयोजन का काम मेरे पास आ गया।
कभी - कभी एक कहावत सुनने में आती थी कि जो चार काम कर रहा हो वो पांचवां भी आसानी से कर लेता है। इस कहावत का अर्थ अब कुछ - कुछ मेरी समझ में भी आना शुरू हुआ।
इन्हीं दिनों मेरा एक उपन्यास जनसत्ता सबरंग में धारावाहिक छपने लगा- "वंश"! हर रविवार को आता था।
लगभग इन्हीं दिनों मुंबई के जीवन प्रभात प्रकाशन ने मेरी व्यंग्य कविता की पुस्तक "रक्कासा सी नाचे दिल्ली" छापी।
इन्हीं दिनों मेरा नया उपन्यास "रेत होते रिश्ते" लिखा जाना शुरू हो गया।
इन्हीं दिनों मैं एस पी बी टी, कई बैंकों के बैंकिंग प्रशिक्षण के केंद्र में भी कभी - कभी व्याख्यान के लिए जाने लगा।
जीवन प्रभात प्रकाशन के मालिक कभी नवनीत पत्रिका के संपादक रहे सत्यनारायण मिश्र थे, जो मुझे, धीरेन्द्रअस्थाना और देवमणि पाण्डेय को एक साथ देख कर कहते थे कि उन्हें हमें देख कर कृष्ण चन्दर, के ए अब्बास और शैलेन्द्र याद अा जाते हैं।
उनके ऐसा कहने के बाद ही मैंने अब्बास का उपन्यास "बंबई रात की बाहों में" पढ़ा।
पर इसे चाहे कोई गुण कहे या अवगुण, मैं किसी एक विचारधारा से कभी नहीं बंधा। मुंबई में एक रविवार ऐसा भी आया था जब जनसत्ता, हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स, तीनों में एक साथ मेरा लंबा आलेख एक ही दिन छपा।
मैं, जो पसंद हो, उसे पसंद करने, और जो नापसंद हो उसे नापसंद करने का कायल था। जबकि मैं अपने कुछ ऐसे मित्रों को भी जानता था जो किसी रचना को दो कौड़ी की कह कर भी सार्वजनिक तौर पर उसे सराहते थे, क्योंकि लेखक उनके गुट का होता। इसके उलट वे कई रचनाकारों को उनकी रचना पर खुद फोन करके पसंदगी जाहिर करके भी सबके सामने सराहने से बचते थे। क्योंकि रचनाकार की छाती पर उनका मनपसंद बिल्ला नहीं चस्पां होता था।
मुझे ऐसे लोग विराट कद के होने पर भी बौने नज़र आते थे।
मेरे उपन्यास "रेत होते रिश्ते" को इंडिया टुडे जैसी पत्रिका ने भी जब उत्तेजक बताया तो मुझे अपने पिछले उपन्यास देहाश्रम का मनजोगी का ख्याल आया जिसमें एक छात्र से कंडोम का ज़िक्र सुनने के आधार पर उस समय सारिका जैसी पत्रिका ने भी इसकी आलोचना की। किन्तु बाद में वो समय भी आया कि खुद सरकार को ही कंडोम मुफ्त बंटवा कर उसके प्रचारपट लगाने पड़े। इतना ही नहीं, छात्रों के हॉस्टलों में कंडोम की वेंडिंग मशीनें लगानी पड़ी, जिनमें इधर सिक्के डालो, उधर कंडोम आपके हाथ में।
उन दिनों फिल्मकार किसी एक कहानीकार से अपनी कहानी नहीं लिखवा कर अपना निजी स्टोरी डिपार्टमेंट रखा करते थे। जिसमें कई अलग अलग आयु के कहानीकार आपस में चर्चा विमर्श करके किसी स्टोरी आइडिया को डेवलप किया करते थे।
हरमेश मल्होत्रा जैसे फिल्मकार ने मुझसे कहा कि कहानीकार को आज शूटिंग के दौरान साथ में रहना जरूरी हो गया है क्योंकि शूटिंग स्थल, कलाकारों की उपस्थिति आदि को लेकर आज इतनी अनिश्चितता बढ़ गई है कि कहानी, संवाद और पटकथा आदि में अंतिम समय तक फेरबदल की संभावना रहती है।
उनका कहना था कि बड़े नामी साहित्यकार अपने लिखे हुए को लेकर इतने फ़िक्स्ड रहते हैं कि उनके साथ समायोजन मुश्किल हो जाता है।
मुझे याद आया कि शायद नीरज,शहरयार आदि इसीलिए फ़िल्म जगत छोड़ कर चले गए। पर दूसरी तरफ यहां कमलेश्वर, राही मासूम रज़ा साहब खूब जमे।
बैंकों के एक भव्य समारोह में हमने उस समय की सुपर स्टार "ड्रीम गर्ल" कही जाने वाली हेमा मालिनी को आमंत्रित करने की कोशिश की। एस एन डी टी यूनिवर्सिटी के सभागार में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम की सभी तैयारियां भी कर ली गईं। शहर भर के हिंदी से जुड़े बैंकर्स हेमा जी के हाथों पुरस्कार पाने के नाम पर खासे उत्साहित थे, किन्तु न टाले जा सकने वाले कारणों के चलते ये संभव नहीं हो पाया। एक बार स्थगित करने के बाद ये समारोह अभिनेत्री कीर्ति सिंह के साथ संपन्न हुआ।
वो दिन कभी नहीं भूला जा सकता। दोपहर को मैं अपने दो मित्रों के साथ शेयर बाजार की इमारत में एक कैंटीन में बैठा खाना खा रहा था। तभी एक गगन बेधी धमाका हुआ। हड़बड़ा कर हम लोग नीचे सड़क की ओर देखने लगे। मेरे मित्र ने कहा लोग इधर उधर भाग रहे हैं, कुछ लोग लाल कपड़ों में भी दिख रहे हैं। सहज हास्य में मैंने कहा- होली की तैयारी शुरू हो गई क्या!
किन्तु देखते ही देखते चारों ओर हाहाकार मच गया। हड़बड़ा कर हम भी नीचे उतर आए। इस तरह दिल दहला देने वाले मुंबई धमाकों का चश्मदीद गवाह मैं भी बना।
बैंक में लौटते ही ये खबर विस्तार से मिली कि शहर में कई स्थानों पर ये बम धमाके हुए। हमारी कुछ शाखाएं क्षतिग्रस्त भी हुईं। प्रभादेवी में शीशे फूटे।
खाना खाने के बाद हम शेयर बाजार के सामने फुटपाथ पर बैठने वाले एक दही और छाछ बेचने वाले के पास अक्सर छाछ पीने जाया करते थे। वो उस रोज़ अपने बर्तन के साथ किसी खिलौने की तरह धमाके से उड़ गया। जीवन का ऐसा अंत कोई भी सोचकर घर से नहीं निकलता।
केवल एक शय है जो इन बातों को पहले से जानती है। चर्च,मंदिर,गुरुद्वारे या मस्ज़िद में हम उसी को पूजते हैं!
एक दिन धीरेन्द्रअस्थाना और मैं फ़िल्म सिटी में घूम रहे थे कि सामने सड़क के किनारे जयाप्रदा एक शूटिंग करती दिखाई दीं। दृश्य था कि सड़क पर बस खराब हुई है और अपना भारी सूटकेस लेकर जयाप्रदा उतरी हैं। वो सामने जंगल के बीच दिखते गांव में किसी सराय - धर्मशाला की खोज में जा रही हैं।
जयाप्रदा जब सूटकेस लेकर बस से निकलीं तो उनके चेहरे पर सूटकेस के बहुत भारी होने के कारण पसीना छलक आया।
बाद में जब वो दृश्य करके बैठ गईं तो सूटकेस हमने उठा कर देखा, ख़ाली था।
ये है एक्टिंग! धीरेन्द्र ने कहा।
धीरेन्द्र ने कहा यदि आसानी से हो जाए तो इनसे एक छोटा इंटरव्यू करलें। पर उस समय हमारे पास अपनी पहचान उन्हें बताने के लिए कुछ न था।
संयोग से पत्रिका का एक पुराना अंक हमारे पास था, जिसमें जयाप्रदा पर एक लेख भी था। सोचा, वही अंक उन्हें भेंट कर दें।जल्दी से उसे खोल कर देखा तो उसमें जयाप्रदा का एक बड़ा सा फोटो था, और शीर्षक लिखा था- "इनके करम कौन से छिपे हैं!"
हम चुप लगा गए, और खिसक लिए।
उन दिनों आकाश राज नाम का एक हीरो कुछ फ़िल्मों के लिए अनुबंधित हुआ था। मुझे अगले अंक के लिए उसका इंटरव्यू लेना था। वह मुंबई में अपने दोस्तों के साथ अकेला ही रहता था। जब हम "कहां मिलें" पर चर्चा कर रहे थे तो मैंने उसे अपने घर ही आमंत्रित कर लिया।
उन दिनों मेरा परिवार भी आया हुआ था। मेरी पत्नी ने खाने की अच्छी तैयारी की और मैंने इंटरव्यू भी कर लिया।
रात को खाने के बाद मैं उसे छोड़ने बाहर टैक्सी स्टैंड तक आया। मेरी बेटी भी मेरी गोद में थी।
आकाश को बांद्रा जाना था। सामने से बांद्रा के लिए सीधी बस भी जाती थी। हम बस स्टैंड पर खड़े हो गए। काफ़ी देर तक कोई बस नहीं आई। हम तो बातें करते रहे पर बिटिया शायद बोर हो गई।
एकदम से बोली- बस नहीं आ रही तो अंकल ऑटो रिक्शा से क्यों नहीं चले जाते?
आकाश ने बिटिया का गाल थपथपाया और सामने से आ रहे एक ऑटो रिक्शा को रोक लिया !
घर आकर हम बेटी की हाज़िर जवाबी पर खूब हंसे।
इन्हीं दिनों मैंने दो कहानियों को लेकर रेहाना सुल्तान और स्मिता पाटिल को पत्र लिखे। स्मिता जी का उत्तर आया कि कहानी उनके एक प्रोड्यूसर को दिखा दें।
हमने नगर राजभाषा समिति की ओर से एक पत्रिका भी निकाली जिसमें दूसरे बैंकों के मेरे अन्य मित्रों ने बहुत मेहनत करके सहयोग दिया।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अध्यक्ष एम एन गोईपोरिया के नेतृत्व में एक समिति में काम करने का अवसर भी मिला।
बैंकों और सरकारी दफ्तरों में हिंदी का कामकाज देखने आई संसदीय समिति के दौरों में उनके साथ रहने का अवसर भी मिला।
एक बार हम लोगों के बीच ये चर्चा हुई कि निरीक्षण के लिए आने वाले सांसदों को उपहार के रूप में क्या दिया जाए।
उन दिनों उन्हें फ्रिज, टी वी या ऐसे ही अन्य कीमती उपहार देने की होड़ सी सरकारी बैंकों में रहती थी।
सचिव के रूप में निर्णय करते हुए हमने उन्हें एक बार साहित्य अकादमी से पुरस्कृत किताबों का मंहगा सेट तोहफ़े के रूप में दिया।
दल के अध्यक्ष सांसद ने अपने भाषण में कहा कि हमें देशभर में घूमने के बाद पहली बार एक ऐसा उपहार मिला है, जिसका उल्लेख हम गर्व से मंच से सार्वजनिक तौर पर कर सकते हैं, अन्यथा ज़्यादातर तोहफ़े तो चुपचाप हमारी कारों की डिक्की में रखवाए जाते हैं।
हमारे उच्च अधिकारियों को हमारे निर्णय पर पहले ये भय था कि ऐसे तोहफ़े से कहीं सांसद नाराज़ न हो जाएं, पर बाद में उन्होंने अध्यक्ष की टिप्पणी सुन कर राहत की सांस ली।
मुझे लगा कि हम नेताओं की आलोचना करते समय ये भूल जाते हैं कि वे जैसे हैं, उन्हें वैसा हमने ही बनाया है।
मेरी रुचि बैंक की पदोन्नति परीक्षा में बिल्कुल नहीं थी, क्योंकि मैं जानता था कि पदोन्नत होने पर एक बार फ़िर शहर बदल जाएगा। मैं इस शहर में दूसरी बार आया था और अभी यहां रहना चाहता था।
पर परीक्षा में मैं पास हो गया।
मेरे मित्र लोग कहते थे कि मुझे पदोन्नति की ओर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि मेरा रास्ता अलग है,सपने अलग हैं, पर बैंक के साथी लोग ये कहते थे कि "प्रमोशन न लेने" को लोग "प्रमोशन न मिलना"मानते हैं और इसका व्यक्तित्व पर नकारात्मक असर पड़ता है।
ऐसी कश्मकश व उदासीनता से मैंने प्रमोशन इंटरव्यू दिया और मुझे पदोन्नति नहीं मिली।
हर बार की तरह वही हुआ कि मैं थोड़ी देर के लिए निराश हुआ। मेरे कई उच्च अधिकारियों ने मुझे स्पष्ट बताया कि मैंने खुद ये अहसास उन्हें दिलाया है कि मेरी दिलचस्पी बैंक के काम में नहीं है।
ये लहर भी कमल के पत्ते पर से ढलक के फिसली पानी की बूंद की तरह मुझ पर से गुज़र गई।
बैंकों में समारोह बदस्तूर होते रहे। मैं आयोजनों से उसी उत्साह से जुड़ा रहा।
डॉ धर्मवीर भारती को जब एक बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला और वो रुग्णता के चलते उसे लेने न जा सके तो उनके घर पर ही आयोजित किए गए एक भव्य कार्यक्रम में शिरकत करने के साथ ही मैंने एक प्रतिष्ठित अख़बार के लिए भी उनका साक्षात्कार लिया।
एकबार मैं शेयर बाजार की बिल्डिंग में बैंक ऑफ बड़ौदा के एक महा प्रबंधक से मिलने उनके कार्यालय गया तो मैंने उनके प्रतीक्षा कक्ष में अकेले बैठे अभिनेता आदित्य पंचोली को देखा। मैं आदित्य जी से बात करने लगा। मैंने उन्हें बताया कि आपकी फ़िल्म "साथी" को टी वी पर देखते हुए मेरे बेटे ने आपकी फाइट को खूब एंजॉय किया। आदित्य ने सामने मेज़ से एक काग़ज़ उठा कर अपना पैन खोलते हुए मुझसे पूछा- आपके बेटे का नाम क्या है?
मैंने कहा- वैभव है,जयपुर में रहता है।
उन्होंने "टू वैभव, विथ लव..." लिखकर साइन किए और मुझे दे दिया। जेब में पैन रखते हुए सामने काउंटर पर बैठी रिसेप्शनिस्ट को देखते हुए बोले- देखो, मेरे फैंस इतनी दूर- दूर हैं,और ये लोग मुझे यहां बैठा कर वेट करा रहे हैं!
असल में आदित्य पंचोली अपनी किसी फ़िल्म के बैंक फाइनेंस के सिलसिले में वहां आया था।
एक बार महाराष्ट्र के तत्कालीन वित्त मंत्री को उनके घर से समारोह में अपने साथ लाया। राज्यपाल महोदय के आवास पर उप मुख्यमंत्री के साथ अकेले एक मेज़ पर खाना खाया। राज्य की एक तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष को एक समारोह में आमंत्रित कर उस समारोह का संचालन किया। कालांतर में वो पार्टी अध्यक्ष देश की राष्ट्रपति भी बनीं।
इन्हीं दिनों मुंबई के एक बड़े संस्थान के प्रमुख से जुड़ा। उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया और चर्चा में कहा कि वो मुंबई शहर से साहित्य और फ़िल्म के एक बड़े पुरस्कार की शुरुआत करना चाहते हैं।
उनका कहना था कि यदि मैं इस काम को अपने हाथ में लेकर उन्हें सहयोग करूं तो वो मुंबई में एक बड़ा फ्लैट भी रहने के लिए मुझे दे देंगे।
उनका ये भी कहना था कि ये पुरस्कार शहर के सबसे बड़े पुरस्कार होंगे और मैं इनके लिए संविधान व नियमावली तैयार करूं तथा इनका अखिल भारतीय स्तर पर संचालन करूं।
उन्होंने कहा कि मैं उनकी कार तथा ड्राइवर का उपयोग करूं और मैं चाहूं तो मेरे वेतन के साथ- साथ वो मुझे अपने एक - दो सहायक नियुक्त करने की अनुमति भी देंगे।
मुझे अपने बड़े भैया की याद आई जो मुझे हमेशा कहते रहते थे कि तुम मुंबई - दिल्ली में जो चाहो, वो करते रहो, पर ये ध्यान रखना कि यदि कोई हमसे पूछे कि आपका भाई क्या करता है तो हम एक लफ्ज़ में जवाब दे सकें।
उन्होंने मुझे ऐसे कई अवसरों पर बैंक छोड़ने से रोका था जब लिखित परीक्षा व इंटरव्यू के बाद मेरा विधिवत चयन धर्मयुग, माधुरी में उप संपादक, जयपुर में लोक जुंबिश के निदेशक तथा चार्टेड अकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट में अधिकारी के रूप में हुआ। उन्होंने जयपुर में नवभारत टाइम्स निकलने पर मुझे उसमें आवेदन करने से भी रोका, जो सचमुच बाद में बंद ही हो गया था।
यदि मुझे साफ़ कहने के लिए क्षमा किया जाय तो मैं कहूंगा कि उत्तरी भारत में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार दक्षिण की तुलना में कुछ ज़्यादा पनप चुका था। और शायद इसीलिए ये समझा जाता था कि मुंबई अपने काम से काम रखने वालों के लिए अपेक्षा कृत ज़्यादा निरापद है। मुझे इसीलिए यहां रहना भाता था।
मैंने पुरस्कार योजना के इस प्रस्ताव की अनदेखी भी कर दी। मैंने मुंबई की एक बहुत बड़ी मिल के उपाध्यक्ष का साक्षात्कार भी लिया जो अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित थी।
संयोग से वे भी जयपुर के थे और चाहते थे कि वहां कोई बड़ी परियोजना का शुभारंभ करें। उन्होंने भी मुझे खुला प्रस्ताव दिया कि उनके साथ काम करूं।
मुझे कभी कभी - ऐसा भी लगा कि जो पंछी ऊंचे सपनों के सहारे अपने घर - द्वार से सुदूर ऊंची उड़ान भर गए वो भी सफ़लता के शिखर चूमने के बाद अपनी तलहटी की ठंडी छांव में कुछ पल के लिए आकर बैठना तो चाहते ही हैं!