कर्म पथ पर
Chapter 21
रंजन और जय मेवाराम आढ़तिये की दुकान के बाहर खड़े थे। एक आदमी को दुकान से निकलते देख कर जय ने आगे बढ़ कर कहा,
"नमस्ते भाई साहब। इस दुकान में श्री शिव प्रसाद सिंह हिसाब किताब देखने का काम करते हैं।"
"हाँ कहिए क्या काम है आपको ?"
"जी उनसे मिलना था।"
"किस सिलसिले में ?"
रंजन ने कहा,
"जी वो हमारे मामा हैं।"
"अच्छा कौन सी बहन के बेटे हो ?"
रंजन ने बिगड़ते हुए कहा,
"आप उनसे मिलवा दीजिए। हम बात कर लेंगे।"
"भांजे जी मैं ही हूँ आपका मामा जिसकी कोई बहन नहीं है।"
शिव प्रसाद अपनी बात कह कर आगे बढ़ गए। जय ने आगे बढ़ कर बात संभालने की कोशिश की।
"ज़रा ठहरिए। मैं माफी चाहता हूँ। आपको सही बात बताता हूँ।"
शिव प्रसाद रुक कर खड़े हो गए। जय ने कहा,
"हम लखनऊ से निकलने वाले एक दैनिक से आए हैं।'
अखबार की बात सुनते ही शिव प्रसाद ने कहा,
"मुझे किसी से कोई बात नहीं करनी है।"
वह फिर आगे बढ़ने लगे। जय ने कहा,
"इंसाफ के लिए लड़ना पड़ता है। आपके हार मान लेने का नतीजा ये हुआ कि उस हैमिल्टन के हौसले बुलंद हो गए हैं। वह दूसरी लड़कियों के साथ भी वही कर रहा है।"
"जनाब आप जो भी हैं चुपचाप चले जाइए। मैं नहीं चाहता कि मेरी दोनों छोटी बेटियों को भी वही सहना पड़े।"
"जयदेव टंडन नाम है मेरा सिंह साहब। आपके भागने से भी यह तय नहीं हो जाएगा कि आपकी बाकी दोनों बेटियां सुरक्षित रहेंगी।"
जय को एहसास हुआ शिव प्रसाद को उसकी ये बात अच्छी नहीं लगी। उसने सफाई दी।
"देखिए आपकी बेटियां मेरी बहनों की तरह हैं। ईश्वर ना करे कि उन पर कभी कोई आंच आए। पर हैमिल्टन जैसे लोग तभी सुधरेंगे जब उन्हें सज़ा मिले।"
"हैमिल्टन जैसे ताकतवर लोगों से लड़ना पहाड़ से टकराने के बराबर है। टकराने वाला चूर चूर होता है, पहाड़ नहीं।"
"जब तक हवा धीरे धीरे चलती है तो सहलाती है। पर जब बवंडर बन जाती है तो पहाड़ों को भी हिला देती है।"
"मुझमें वो बवंडर बनने की शक्ति नहीं है। अभी मुझे अपनी दोनों छोटी बेटियों के लिए वो छत बनना है जिसके नीचे वो सुरक्षित रहें।"
शिव प्रसाद आगे बढ़ते हुए बोले,
"मैं दुकान के काम से कहीं जा रहा था। समय नहीं है मेरे पास।"
जय ने पीछे से आवाज़ लगाई।
"सिंह साहब हमारा आपसे बात करना ज़रूरी है। हम दुकान के बाहर इंतज़ार करेंगे। पर बात किए बिना नहीं जाएंगे।"
शिव प्रसाद जय की दृढ़ता देख कर प्रभावित हुए।
"किस अखबार से हैं आप ?"
"हिंद प्रभात से हैं। हमारे अखबार की उप संपादिका वृंदा ने उस हैमिल्टन के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है। अगर आप मदद करेंगे तो हम उस हैमिल्टन के चेहरे पर से नकाब हटा सकते हैं।"
हिंद प्रभात और वृंदा के नाम ने असर किया। शिव प्रसाद बोले,
"लखनऊ में रहने के दौरान मैं हिंद प्रभात का मुरीद था। उससे भी अधिक वृंदा के ओजपूर्ण लेख। वृंदा ने हैमिल्टन द्वारा विभाग में की गई गड़बड़ियों के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा था।"
शिव प्रसाद ने कहा,
"पर मुझे तो लौटने में शाम हो जाएगी। तब तक आप बाहर कहाँ खड़े रहेंगे।"
"हमें बात करनी है तो ये तपस्या तो करनी ही पड़ेगी।"
"यहाँ कोई ठिकाना है आपका ?"
"नहीं मैं और मेरा साथी रंजन लखनऊ से सीधे आ रहे हैं।"
शिव प्रसाद कुछ देर सोंचते रहे। फिर बोले,
"आइए मेरे साथ।"
जय और रंजन शिव प्रसाद के पीछे पीछे चल दिए। रंजन इतनी देर से चुपचाप जय को देख रहा था। किस तरह उसने अपनी बातों से शिव प्रसाद को मना लिया। वरना उसके झूठ नॅ तो सब बिगाड़ दिया था। वहाँ बहुत अधिक गर्मी थी। जय के माथे से पसीने की धारा बह रही थी। पर वह इस सबसे बेखबर था। रंजन को यकीन हो गया था कि यह वह रईसजादा जयदेव टंडन नहीं है। यह जय सचमुच बदल गया है।
दो गलियां पार करने के बाद वो लोग एक मकान के सामने आकर रुके। शिव प्रसाद ने दरवाज़ा खटखटाया। एक दस बारह साल की बच्ची ने दरवाज़ा खोला।
"बाबूजी आप जल्दी आ गए।"
बच्ची को अंदर भेज कर शिव प्रसाद बोले,
"ये मेरा घर है। आप लोग यहाँ मेरी राह देखिएगा।"
वह उन लोगों को आंगन में पड़ी चारपाई पर बैठा कर भीतर चले गए। उन्होंने अपनी पत्नी संतोषी से कहा कि दोनों मेहमान हैं। उनसे मिलने आए हैं। वह शाम को लौटकर मिलेंगे। तब तक मैं उन्हें ऊपर के कमरे में ठहरा रहा हूँ। उनके खाने का प्रबंध कर देना।
शिव प्रसाद जय और रंजन को मकान के ऊपरी हिस्से में बने कमरे में ले गए।
"तब तक आप लोग यहाँ आराम करें। आपके खाने पीने की व्यवस्था हो जाएगी।"
शिव प्रसाद अपने काम के लिए चले गए। कुछ देर बाद वही बच्ची जिसने दरवाज़ा खोला था ऊपर आई। उसके हाथ में शरबत के दो गिलास थे। गिलास उन दोनों को पकड़ाते हुए वह बोली,
"अम्मा ने कहा है कि खाना बनने पर वह खबर भिजवाएंगी। आप लोग नीचे आंगन में आ जाइएगा।"
वह बच्ची जाने लगी तो जय ने पूँछा,
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
वह रुकी और संकोच के साथ बोली,
"मालती..…"
"पढ़ती हो ?"
"पहले जब लखनऊ में थे तो पढ़ते थे।"
"किस कक्षा में ?"
"माँ शारदा स्कूल में पाँचवीं कक्षा में।"
"तुमसे छोटी भी एक बहन है।"
"हाँ मेघना नाम है उसका। वह भी उसी स्कूल में तीसरी कक्षा में थी।"
"और तुम्हारी बड़ी दीदी।"
अपनी बड़ी बहन का ज़िक्र सुनते ही मालती असहज हो गई। नीचे जाते हुए बोली,
"जब हम बुलाने आएं तो नीचे आ जाइएगा।"
मालती के चेहरे पर उभरा दर्द जय के दिल में उतर गया। उसने शरबत पीते हुए रंजन से कहा,
"मालती जिस तरह अपनी बड़ी बहन का ज़िक्र सुनकर परेशान हो गई, उससे स्पष्ट है कि उस दरिंदे हैमिल्टन ने बहुत डराया है। फिर भी सिंह साहब हमारी मदद को तैयार हैं। हमें अपने घर ले आए।"
रंजन ने जवाब दिया,
"जय भाई, हिंद प्रभात और वृंदा दीदी का नाम सुनकर शायद उन्हें कुछ उम्मीद जागी हो।"
रंजन ने उसे जय भाई कह कर संबोधित किया था। यह बात स्पष्ट कर रही थी कि वह भी मदन की तरह उस पर भरोसा कर रहा है। जय को इस बात से बल मिला। उसने रंजन से कहा,
"अब हमारी ज़िम्मेदारी होगी कि हम उनकी उम्मीद पर खरे उतरें।"
जय और रंजन हैमिल्टन के बारे में बात करने लगे। रंजन ने अब तक हैमिल्टन के बारे में जो कुछ पता किया था सब बता दिया।
हैमिल्टन की कारगुजारियां सुनकर जय ने तय कर लिया कि चाहें जो हो वह उसे उसके किए की सज़ा ज़रूर दिलाएगा।
करीब डेढ़ घंटे के बाद मालती ऊपर आई। शरबत के गिलास उठा कर बोली,
"अम्मा खाने के लिए बुला रही हैं।"
जय और रंजन नीचे पहुँचे तो आंगन में दो चौकियां रखी थीं। दोनों के सामने फर्श पर आसनी बिछी थी। मालती ने आंगन के एक कोने में इशारा कर कहा,
"वहाँ पानी है। हाथ पैर धो लीजिए।"
उन दोनों ने हाथ पैर धोए और आकर आसनी पर बैठ गए। जय के लिए इस तरह फर्श पर बैठ कर खाना नया अनुभव था। उसने तो होश संभालते ही अंग्रेज़ी तरीके से मेज़ कुर्सी पर बैठ कर खाना शुरू कर दिया था।
मालती ने भोजन की दो थालियां उनके सामने लाकर रख दीं।
"कुछ चाहिए हो तो हम यहीं हैं, कह दीजिएगा।"
जय और रंजन चुपचाप खाने लगे। जय की नज़र भीतर से झांकती मेघना पर पड़ी। साथ ही उसके पास खड़ी उसकी माँ का उदास चेहरा दिखाई दिया।