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कृष्णा - भाग-१

"अरे बहू रोटी ना बनी के अभी तक! अंधेरा घिरने को आया! तुझे पता है ना! मुझे सूरज छिपते ही खाने की आदत है!"

"अम्मा वो उपले गीले थे ना इसलिए आंच जल ही ना रही थी। मैं तो इतनी देर से लगी हूं चूल्हा जलाने में!"

"रहने दे, ज्यादा बात मत बना! देख रही हूं जब से पेट पड़ा है, ज्यादा ही हाथ पैर ढीले हो गए हैं तेरे। अरे हमने भी तो छे छे बच्चे जने हैं। हमने तो कभी यों हाथ पैर ना छोड़ें और तेरा ये आलस देखकर तो लगता है कि इस बार भी छोरी ही जन्मेगी तू!"
"यह कहां की बात कहां लेकर आ गई आप! इसमें छोरा छोरी की कौन सी बात आ गई। हर काम तो टैम से करके दे रही हूं। फिर भी आपको आदत है सुनाने की। मशीन तो हूं ना मैं!"

"बस जुबान कित्ती भी चलवा लो तुझसे। अब जल्दी से रोटी भी बना दे या भूखो मारने की कसम खा रखी है!"

"देख तो रही हो। आप भी कितनी देर से कोशिश कर रही हूं। पर उपले जलने का नाम ना ले रहे। दुर्गा के पिताजी भी आते ही होंगे।"

'अरे कल से ही बादल हो रहे थे तो क्यों ना ईंधन पहले ही अंदर रख लिया। यही तो तेरी लापरवाही है। जल्दी कर रमेश भी आता ही होगा।"
कह कमलेश की सास बड़बड़ाती हुई बाहर निकल गई।

"इतनी बातें सुना गई । इतना नहीं हुआ कि तबीयत खराब है तो थोड़ा बहुत ही हाथ बंटवा‌ दूं। बस अपने काम का गुणगान करती रहेगी। जैसे हम देखने आए थे। कितना काम करती थी उस समय। अब तो 1 तिनका भी इधर से उधर उठाकर नहीं रखती और पहली रोटी बनते ही सबसे पहले थाली लेकर आ जाएगी।" और वही हुआ जैसे ही कमलेश ने एक रोटी बनाकर रखी। तभी उसकी सास अंदर आते हुए बोली
"आवाज तो लगा देती रोटी बन गई। डाल कर देना तो दूर की बात है।"
कह उन्होंने जैसे ही रोटी उठाई "अरे यह रोटी बना रही है या पत्थर! पता है ना इतनी कड़ी रोटी मुझसे ना खाई जाती ।"

"कैसी बात कर रही हो अम्मा! देख रही हो ना आग कैसे मर मर कर जल रही है। तवा अच्छे से गर्म होता ही नहीं इसलिए ही तो कडी रोटी सिक रही है और क्या मुझे आप से दुश्मनी है। दुर्गा को भी अंदर भेज दो। वह तो कभी खुद आएगी नहीं। रोटी खा लेगी नहीं तो फिर अपने पापा के साथ खाने लगेगी तो ना उनको खाने देगी ना खुद खाएगी।"
"तूने ही सिर चढा रखा है। छोरियों को कौन इत्ता प्यार करे है।। दूसरे घर जाएगी तो नाम ही रखवाएगी।"
"आज ही जा रही है क्या वह दूसरे घर। 3 साल की तो हुई है अभी।"
तभी कमलेश के पति भी है आ गया। उनको आते हैं दुर्गा उनसे चिपटते हुए बोली । "पापा क्या लाए मेरे लिए बताओ पहले?"
"अरे पहले हाथ मुंह तो धो लेने दे। फिर बताता हूं ।"
"नहीं पहले दो मुझे!" उसकी जिद देख रमेश ने जेब से एक टोफी निकाल उसे दे दी ।
खुश होते हुए दुर्गा रसोई में कमलेश के पास आई और बोली "मां देखो, पापा मेरे लिए टॉफी लाए हैं।"
"अच्छा टॉफी बाद में खा लेना, पहले रोटी खा ले।"

"मैं तो पापा के साथ ही खाऊंगी।"
" अरे‌ रहने दे छोरी! तू मेरे साथ खा ले । मैं खिलाती हूं तुझे।"

"ना दादी मैं तो अपने पापा के साथ ही खाऊंगी। आपके साथ नहीं। आप गंदे हो। मुझे घुमाने क्यों नहीं ले गए खेत में!"

"बारिश होने वाली थी ना! कैसे लेकर जाती बता! बहुत जिद्दी हो गई है तू! कमलेश ज्यादा लाड मत लडाया कर। हमारी सास तो कहती थी जितना छोरियों से लाड करोगे उतनी ही भगवान छोरियां देगा।"
"अम्मा जी आपकी बातें समझ से परे है! कभी तो आप खुद ही दुर्गा को इतना प्यार करो, कभी इतना ‌बुरा भला कहो।"

"अरे मुझे के पोती अच्छी ना लगै और ये तो है भी बिल्कुल अपनी बुआ जैसी सुथरी सी। इसकी तरफ से तो मुझे चिंता ना है। कोई भी देखते ही पसंद कर लेगा। पर इसका मतलब यह ना है कि तू दूसरी भी छोरी ही पैदा करें। छोरी तो एक ही बहुत तीज त्यौहारों के लिए। फिर एक इसकी बुआ है ही। इस बार तो मैं पोते का ही वह देखना चाहूं। देख तेरी दोनों जेठानियों के दो दो लड़के हैं। मैं चाहूं कि इस बार मेरे रमेश के यहां कुलदीपक ही पैदा हो।"
"अम्मा आप फिर वही बात लेकर बैठी गई। यह सब क्या मेरे हाथ में है और जैसे मै ना चाहूं कि मेरे लड़का हो।" मुंह बनाते हुए कमलेश बोली।
"आज फिर किस बात पर तुम दोनों सास बहू की बहस हो रही है। रमेश अंदर आते हुई बोला और भाग्यवान तुमने क्यों मुंह सूजा रखा है! क्या हुआ मां!"
" तू ही पूछ ले इससे। भले की कहो तो भी सास बुरी ही रहेगी!" कह कमलेश की सास बडबडाती हुई बाहर चली गई।
सरोज ✍️
क्रमशः.....


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