बजरंगी भाईजान Arjit Mishra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बजरंगी भाईजान

उन दिनों हमारी पोस्टिंग मेरठ में थी| सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था सो अपनी धर्मपत्नी के साथ वहीँ रहते थे| यूँ तो जब से हमने घर से बाहर रहना शुरू किया था, यानि की स्नातक की पढाई करने के लिए अपने घर से लखनऊ पहुचे थे, तब से हमें ये कतई पसंद नही था की कोई हमारे घर से वहां आये| हम तो हर हफ्ते घर चले ही जाते थे सो कभी ऐसी कोई जरुरत भी नही पड़ती थी| चलो तब तो पढाई कर रहे थे, छात्र जीवन कैसे जिया जाता है सब जानते है, अब ऐसे में घर वालों का आना ठीक भी नही था| लेकिन अब तो शादी हो चुकी थी और हम एक गृहस्थ का जीवन जीने लगे थे सो घर से लोग आयेंगे ही|

तो हुआ कुछ ऐसा की एक बार हमारे मम्मी-पापा छोटे भाई सहित मेरठ हमारे पास आये| अब चूँकि हमारे घर से कोई पहली बार हमारे यहाँ आ रहा था तो हम और हमारी पत्नी भी अतिउत्साह में थे| खैर शाम को सब लोग पहुंचे, उसके बाद से जो खाने-पीने और बातों का सिलसिला चला वो सुबह ब्रह्मुहुरत तक चलता रहा| यकीन मानिये कम जगह में पलंग हटा के जमीन में गद्दे बिछा कर सब परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर रात भर बतियाने का अपना मजा है|

अगले दो दिनों तक हम लोगों का मेरठ के ऐतिहासिक और पौराणिक स्थल घूमने का प्रोग्राम था| उसी क्रम में एक दिन हम लोग शाम को मेरठ के प्रसिद्ध बाबा औगढ़नाथ मंदिर दर्शन करने गए, वहां से लौटते समय यूँ ही मन किया की चलो थोड़ी देर गाँधी बाग में टहलते हैं|

फिर क्या था हम सारे गांधी बाग़ में दाखिल हो गए| उस बाग़ की यूँ तो कोई खासियत नही जानते हैं हम, जैसे सारे पार्क होते हैं, वैसा ही था| झूले, क्यारियां, बैठने के लिए जगह-जगह बेंच और गोल शेड यही सब था| हम तो वैसे भी बड़े बोरिंग आदमी हैं तो हमें कुछ खास अच्छा नही लग रहा था वहां पर| एक तो गर्मी भी बहुत लग रही थी| अच्छा हमारे भाई को फोटोग्राफी का बड़ा शौक है सो वो अपने शौक को पूरा करने में लग गया| हमसे भी जब कोई कहता था की इधर देखो तो हम भी कैमरे की तरफ अनमने से मुंह घुमा देते थे|

इसी सब के बीच मम्मी-पापा को एक गुलाब की क्यारी के पास बैठाकर भाई फोटो ले रहा था, तभी मोबाइल कैमरे के फ्रेम में उसे एक रोती हुई बच्ची दिखाई दी| कुछ पांच साल की उम्र होगी, गुलाबी रंग का फ्रॉक पहने कुछ ही फासले पर बैठी थी| फोटो खींचना छोड़कर भाई उस बच्ची की तरफ बढ़ा| भाई को देखकर किसी समस्या की आशंका से हम सभी उस बच्ची के पास पहुंचे| सबसे पहले मम्मी ने उससे पूछा-“क्यूँ रो रहे हो बेटा,क्या हो गया?”उस बच्ची ने रोते-रोते मम्मी की ओर देखा और बोली-“मम्मी” और फिर रोने लगी| मम्मी ने पास बैठकर पूछा “बेटा, कहा हैं तुम्हारी मम्मी?” बच्ची ने रोते हुए जवाब दिया-“मम्मी......यही थीं....”अब ये समझने के लिए किसी खास ज्ञान की आवश्यकता तो थी नही की बच्ची ज़रूर अपने परिवार से बिछड़ गयी है| इससे पहले की कोई कुछ करता भाई ने बच्ची का हाथ पकड़कर उसे उठाया और चल पड़ा उसके परिवार को ढूँढने| मम्मी रोकते हुए बोलीं-“इसको लेकर इधर उधर मत जाओ, हो सकता है इसके परिवार वाले इसे ढूँढ़ते हुए यही आ जाये”| ये सही भी था लेकिन कब तक इंतजार किया जा सकता था| शाम ढल रही थी, अन्धेरा होने को था| ये खतरा भी था की अँधेरा हो जाने पर शायद बच्ची अपने परिवार वालों को पहचान ना पाये क्योंकि पार्क में बहुत ज्यादा रोशनी की व्यवस्था नही थी| चलते-चलते हमने बच्ची से पूछा-“बेटा,क्या नाम है आपका? उसने जवाब दिया “..........” बच्चे का सही नाम बताना ठीक नही है, काल्पनिक नाम शाहिदा रख लेते हैं| फिर हमने शाहिदा से उसके माता-पिता के बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास किया| अपनी उम्र के मुताबिक वो ज्यादा कुछ बता नही पा रही थी, जिससे उसके घर वालो को ढूँढा जा सकता| भाई तो पता नही कौन सी दैवीय शक्ति से चल रहा था जैसे उसने ठान लिया हो की अँधेरा होने से पहले पार्क में मौजूद एक-एक व्यक्ति की पहचान बच्ची से करा देगा|

पर हमारे दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था| करते भी क्या उन्ही दिनों “बजरंगी भाईजान” रिलीज़ हुई थी और उसकी काल्पनिक कहानी हमारी जिन्दगी की सच्चाई बनती जा रही थी| हमने सिलसिलेवार तरीके से सोंचना शुरू किया की अगर शाहिदा के परिवार वाले मिल गए तो ठीक अगर नहीं तो पार्क प्रशासन तो पल्ला झाड लेगा, हम भी शाहिदा को यहाँ छोड़ कर तो जायेंगे नही, पुलिस ज्यादा-ज्यादा मामला दर्ज कर लेगी पर शाहिदा को तो संभालेगी नही| यही कहेंगे की बच्ची के परिवार वालों का कुछ पता चलता है तो बताते हैं तब तक अपने पास रखिये| चलो अपने पास हमने रख भी लिया तो आस-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार क्या कहेंगे और किसको-किसको हम ये पूरी कहानी सुनायेंगे| चलो ये भी ठीक है लेकिन अगर बच्ची के परिवार वाले मिले ही ना या फिर उन्होंने जानबूझकर शाहिदा को पार्क में छोड़ दिया होगा तब हम क्या करेंगे|

उस समय तक हम पार्क के तीन-चौथाई हिस्से को पार कर चुके थे, हर एक आदमी की शक्ल शाहिदा को दिखा चुके थे, हर बार ऐसा लगता की शायद यही उसके परिवार वाले हों पर हर बार निराशा ही हाथ लगती, अब केवल मुख्य द्वार और उसके आस-पास का हिस्सा ही बचा था| साथ ही साथ हमारा मन भी एक निर्णय कर रहा था की अगर शाहिदा के घर वाले नही मिले तो हम कोई सलमान खान की तरह ढूँढने तो निकल नही सकते, हाँ हम शाहिदा को अपनी बच्ची की तरह पाल सकते हैं, उसे क़ानूनी रूप से गोद ले लेंगे, उसे अच्छी तालीम देंगे, और उसका निकाह करवाकर अपनी पूरी जिम्मेदारी निभायेंगे| ये निर्णय लेते ही हमारे अन्दर एक आत्मविश्वास आ गया| कुछ पल पहले तक जो चिंता थी की शाहिदा के घरवाले मिलेंगे या नही, अब ऐसा लग रहा था की जैसे कोई फर्क नही पड़ेगा|

तभी मुख्य द्वार के पास ही बने एक गोल शेड के पास हम लोग पहुंचे जहाँ कुछ 15-20 लोगों का समूह बैठा था जिनमे कुछ मर्द, कुछ औरतें और कुछ बच्चे भी थे| पास पहुँचते ही शाहिदा ने उन्हें पहचान लिया और दौड़ कर बीच में जाकर बैठ गयी| हम दोनों भाई अभी उस शेड से कुछ दुरी पर थे| पास पहुंचकर हमने उन्हें बताया की उनकी बच्ची खो गई थी हम लोग बड़ी मुश्किल से उन लोगों को खोज पाये हैं| उनके बीच से उठकर एक आदमी हमारे पास आया और हम लोगों को धन्यवाद दिया| लेकिन उसकी बातों से साफ़ जाहिर था की उन्हें पता ही नही था की उनकी बच्ची खो गयी थी| खैर हमारे लिए ये सब महत्वपूर्ण भी नही था, हमने एक नज़र अपने भाई-बहनों के साथ ख़ुशी से खेलती मासूम शाहिदा पर डाली जिसे पता भी नही था की वो कितने बड़े खतरे से बच कर आई है, और हम वापस चल दिए| कुछ ही दूरी पर हमारे बाकी के घरवाले भी मिल गए, पास पहुँचते ही मम्मी को बताया की शाहिदा अपने घरवालों के साथ है| मम्मी ने भी चैन की सांस ली और बोलीं- इतनी देर में हमने पूरी “बजरंगी भाईजान “सोंच डाली| हमने पलटकर हँसते हुए कहा “अच्छा आपने भी, हमने भी” और हम सभी जोर से हंस पड़े|