बचपन से ही थोडा चंचल प्रवृत्ति का होने के कारण किसी एक जगह या एक काम में ज्यादा देर मन नहीं लगता था| यहाँ तक की स्कूल में लगातार क्लास में बैठना बहुत बोर करता था| इस कारण अक्सर दो पीरियड के बीच में एक टीचर के जाने के बाद और दूसरे के आने के पहले मौका मिलते ही हम दोस्तों के साथ बाहर ग्राउंड में भाग जाया करते थे| ग्राउंड बड़ा होने के कारण अक्सर पकड़ में नही आते और जब पकडे जाते तो फिर सजा भी मिलती थी|पर कभी सज़ा मिलने का कोई अफ़सोस नहीं होता था क्योंकि जो करते थे अपने मन से करते थे| इसी प्रकार नौकरी में आ जाने के बाद शायद ही कभी किसी ने हमें हमारी सीट पर बैठकर लगातार आधे घंटे से ज्यादा काम करते हुए देखा होगा| बीच बीच में इधर उधर घूमना या साथियों से बतियाना हमारी ऑफिस की दिनचर्या का हिस्सा रहा है| इन सबके अतिरिक्त करीब बीस-पच्चीस सालों से वॉक करना शौक भी रहा है और आदत भी| और इधर कुछ दो साल से 15000 स्टेप्स चलने का रुटीन बना रखा है|
अब हुआ ये कि, उपरोक्त प्रष्ठभूमि में, आदतानुसार एक दोपहर लंच करके ऑफिस से बाहर निकले वॉक करने के लिए| अच्छा जब से अभिषेक बच्चन ने आईडिया के एक विज्ञापन में “व्हाट एन आईडिया सरजी” शीर्षक के तहत “वॉक व्हेन यू टॉक” का स्लोगन दिया हम भी वॉक करने के दौरान किसी न किसी से मोबाइल पर बतियाने की आदत डाल लिए| उस दोपहर भी एक मित्र से मोबाइल पर बतियाते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे, इस बात से बेख़बर, कि हादसे की शक्ल में जिंदगी का एक नायाब तजुर्बा हमारा इन्तजार कर रहा है| कुछ पतझड़ जैसा मौसम था,पीपल की कुछ सूखी हुई पत्तियों का ढेर सड़क पर था| हम तो बेपरवाह थे, बतियाने में मशगूल, पत्तियों के ढेर के नीचे छुपी हुई टूटी सी सड़क हमें दिखाई ही नहीं दी| पैर जैसे ही पत्तियों के ढेर पर पड़ा, टूटी सड़क की वजह से कुछ अन्दर घुसकर टखने से मुड़ गया, बैलेंस बिगड़ने से हम भी सड़क पर गिरे, किन्तु तुरंत उठकर खड़े हो गए| हमारे आस पास चलते हुए लोगों को मौका ही नहीं मिला हमें उठाने का| चोट तो लगी ही थी लेकिन हम उस समय शुक्रगुजार थे परमेश्वर के क्यूंकि हम गिर गए पर मोबाइल हाथ से न छूटा| कहीं मोबाइल सड़क पर गिर जाता तो जान ही निकल जाती| मोबाइल की| हमारी नहीं|
खैर ऐसे पैर मुड़ने को या गिरने को सीरियसली कौन लेता है सो हमने भी न लिया| दर्द के बावजूद हमने अपना बतियाने का और वॉक करने का क्रम जारी रखा| ऑफिस से वापस आने के बाद जब जूता उतारा तो क्या देखते हैं कि हमारा पाँव तो सूजन से हाथीपांव बन चुका था| घरवालों के लाख समझाने के बावजूद हमने अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नही किया| डाक्टर को भी नही दिखाया और ऑफिस और वॉक के लिए भी जाते रहे| हाँ बस सिकाई और वोलिनी स्प्रे करते रहे| इसी बीच होली पर घर गए, दस दिन बीत गए थे और दर्द कम न हुआ था, तो अपने एक परिचित डाक्टर को दिखाए, एक्सरे में कुछ निकला नही, पर डाक्टर ने कहा कि शायद लिगामेंट में चोट होगी प्लास्टर चढ़ा देते हैं| प्लास्टर का नाम सुनते ही हमें प्लास्टर बांधे बिस्तर पर पड़े हम और लंगडाकर चलते हुए हम दिखाई देने लगे| कुछ ही पलों में हमने आने वाले दो तीन हफ्ते देख लिए थे, ड्राइव करना बंद, घूमना फिरना बंद, दोस्तों के साथ पार्टी बंद, कुल मिलकर जिन्दगी का सारा रोमांच ख़त्म| रूह काँप गयी ये सब सोंचकर ही, तुरन्त डाक्टर से कहा कि अभी प्लास्टर चढ़वाने से होली ख़राब हो जायेगी, दो दिन बाद चढवा लेंगे| डाक्टर ने दवा दे दी और तब तक गर्म पट्टी बाँधने को कहा| दवा लेकर भाग लिए हम हॉस्पिटल से|
दर्द होता रहा पर हमने भी ये सोंच कर खुद को समझा रखा था कि फ्रैक्चर तो निकला नही बाकी जो भी होगा ठीक हो जाएगा धीरे धीरे, तब तक दर्द बर्दाश्त कर लेंगे पर अपनी दिनचर्या पर अपने मन पर बंदिशें नही लगने देंगे|
एक महीना बीत गया, दर्द कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा था, और सूजन भी फिर से बढ़ गयी| मरता क्या न करता, फिर से डाक्टर को दिखाने पहुँच गए| जैसा कि अनुमान था, इस डाक्टर ने भी वही बात कही| इस बार होली तो बीत चुकी थी| और कोई बहाना समझ न आया तो डाक्टर से कहा कि एम् आर आई करा लेते हैं, अगर उसमे कोई प्रॉब्लम निकली तो प्लास्टर चढवा लेंगे| डाक्टर ने हँसते हुए कहा कि प्लास्टर चढ़वाने में दिक्कत सबको होती है पर ऐसा भी कोई नही करता है| एम् आर आई की रिपोर्ट देखते ही हम समझ गए थे कि प्लास्टर तो चढ़ना ही चढ़ना है, फिर भी एक उम्मीद के तहत सोंचा की डाक्टर से बात करेंगे किसी और विकल्प की|
डाक्टर से मिलते ही रही सही उम्मीद भी जाती रही| रिपोर्ट और फिल्म को अच्छे से देखने के बाद उन्होंने कहा कि लिगामेंट पूरी तरह से डैमेज हो गया है, सर्जरी करनी पड़ेगी, लेकिन फिलहाल तीन हफ्ते के लिए प्लास्टर चढ़ा कर देखते हैं, अगर कुछ ठीक हुआ तो शायद सर्जरी न करनी पड़े| हम समझ गए, डाक्टर खेल खेल दिए मेरे साथ, हमको प्लास्टर से दिक्कत थी, उन्होंने सर्जरी की कहानी सुनाकर हमको प्लास्टर के विकल्प की बात करने लायक ही नही छोड़ा| करीब डेढ़ महीने के संघर्ष के बाद हम लडाई हार चुके थे, दर्द बर्दाश्त करना घरवालो की न मानना सब निष्फल हो गया था| एक हारे हुए सिपाही की तरह चुपचाप प्लास्टर चढ़वाने पहुँच गए| मूड तो ख़राब था ही शायद कुछ अंदाजा प्लास्टर चढाने वाले को भी हो गया| उसने पूछा कि पहली बार चढ़ रहा है| हमने भी तपाक से जवाब दिया कि कोई ऐसी शानदार चीज़ भी नही है कि सबकी जिंदगी में एक बार होनी ही चाहिए| उसके बाद वो कुछ नही बोला और हम प्लास्टर चढवा कर वापस घर आ गए|
असली युद्ध तो अब शुरू हुआ था, एक हमारा घरवालो से और दूसरा हमारा खुद हमसे| घर में सब चाहते कि हम अधिकांशतः एक जगह बैठे रहें और जरूरत की हर चीज़ हमें हाथ में ही दे दी जाए, हम ऑफिस न जाएँ और जितना बहुत जरुरी हो उतना ही चलें| लेकिन हम तो ठहरे हम, हमें जहाँ से याद है अपनी जिंदगी अपने तरीके से अपनी शर्तों पर जी है| कभी किसी पर निर्भरता महसूस ही नही की| कभी भी किसी का भी हमारी सेवा करना हमें अच्छा ही नही लगा| इसलिए ऐसे समय में जब हमारे पैर में प्लास्टर बंधा हो किसी का हमारा ख्याल रखना हमें कमज़ोर महसूस कराने लगा, जिस कमजोरी को छुपाने के लिए हम सब पर गुस्सा करते रहते| सारे शौक सारी आदतें जैसे एकदम से ख़त्म हो गयी| जिंदगी में कोई रोमांच बचा ही नहीं|
कुछ दोस्त कहे कि बहुत पाप किये होगे उसी की सजा मिली| और कुछ कहे कि जो भी हो इसी बहाने तुम एक जगह ज्यादा देर तक बैठना तो सीख जाओगे| अभी हमारे पास सबका ज्ञान सुनने के अलावा कोई विकल्प तो था नही नही, सो सुनते रहे| इस इन्तेजार में कि जल्दी प्लास्टर हटे और हम अपनी सामान्य जिंदगी में वापस जाएँ|
अपनी जिंदगी में पहली बार ऐसा तजुर्बा हुआ कि हम पर बंदिशें हैं हम वो सब नही कर सकते जो करना चाहते हैं| हालांकि इससे ये सीख भी मिली कि अपनी किसी आदत का इतना ग़ुलाम होना भी ठीक नही है| साथ ही हम ये उम्मीद भी रखे रहे कि ये तीन हफ्ते हमें अन्दर से और अधिक मज़बूत करके जायेंगे|
खैर, परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, इंसान उनके साथ सामंजस्य बैठाकर जीना सीख ही लेता है| शुरू में थोडा अजीब लगा लेकिन फिर हमने सोसाइटी में थोडा बहुत बाहर निकलना और कैब से ऑफिस जाना शुरू कर दिया| पहले ही दिन ऑफिस के बाहर कैब का इंतजार कर रहे थे| कैब ड्राईवर का कॉल आया कि वो लोकेशन पर पहुँच गया है| मैंने बोला कि मैं भी वहीँ पर हूँ गेट के पास| कन्फर्म करने के लिए ड्राईवर ने उधर से बोला “अच्छा! प्लास्टर वाले भैया”| कुछ पल तो समझ न आया कि क्या प्रतिक्रिया दें| बस मुस्कुराते हुए कैब में बैठ गए| मेरी नयी पहचान जो बन गयी थी- प्लास्टर वाले भैया||
क्रमशः