आज की पीढ़ी के बच्चों के पास करियर के अनेक आयाम भी हैं और उनमें करियर के प्रति स्पष्टता भी है| किन्तु हमारे ज़माने में तो अधिकाँश बच्चे सिर्फ इसलिए पढ़ते थे, क्यूंकि पढ़ना है| बारहवीं तक तो सोंचते भी नहीं थे की आगे चल कर जीवन में कुछ करना भी होगा| और बारहवीं के बाद भी या तो इंजीनियर बनना है या डॉक्टर|
फिर हमारा तो पढ़ाई लिखाई में कभी मन लगा ही नहीं, तो हमने क्या ही करियर का सोंचा होगा| जैसे तैसे बारहवीं तो पास कर ली| पर समाज, रिश्तेदार और शिक्षकों के दबाव को दरकिनार करते हुए हमने इंजीनियर या डॉक्टर बनने से इंकार कर दिया| अब छोटे शहर वालों को ज्यादा कुछ अवसरों के बारे में पता तो होता नहीं था, सो हमने बड़े शहरों की तरफ रूख किया| पहले लखनऊ और फिर दिल्ली| बड़ा शहर, ज्यादा अवसर, बड़ी बड़ी बातें| अगले कुछ वर्ष तो बस यही सोंचते हुए गुज़र गए कि इन तमाम अवसरों में से हमारे लिए कौन सा उपयुक्त करियर है|
जिस पेशे या व्यवसाय के बारे में सोंचो या पता लगे या किसी से चर्चा करो, वही अच्छा लगने लगता था| अंतिम विकल्प के तौर पर ये था किसी नामी गिरामी मैनेजमेंट कॉलेज से भारी भरकम डोनेशन देकर एम्.बी.ए. कर लेंगे और किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मोटे पैकेज वाली नौकरी| घर से पैसे आ ही रहे थे तो करियर बनाने की कोई जल्दी भी नहीं थी| और ज्यादा पैसे की जरुरत पड़ी तो किसी अंतर्राष्ट्रीयकॉल सेंटर में एक दो महीने नौकरी कर ली| कुल मिलाकर ऐश हो रही थी और आगे की जिंदगी में भी बस ऐश करने का ही प्लान था|
पर जिंदगी करवट लेने को तैयार बैठी थी, जिसका हमें अंदाज़ा भी नहीं था| उन दिनों दिल्ली में भाई हमारे साथ रहता था| वो चूँकि पढ़ाई में अच्छा था सो सिविल सर्विसेज इत्यादि की तैयारी कर रहा था| उसी समय सी.जी.एल. का फॉर्म निकला, भाई फॉर्म भर रहा था, उसके आग्रह करने पर हमने भी भर दिया| हालांकि सरकारी नौकरी का हमारा कोई विचार नहीं था, हमने भाई को बोला भी कि हमारी कोई तैयारी तो है नहीं, न ही हम कर पायेंगे| फिर भी सोंचा कि फॉर्म भरने में क्या दिक्कत है, हुआ तो हुआ नहीं हुआ तो कोई बात नहीं|
क़िस्मत से प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा में पास भी हो गए| अब आयी इंटरव्यू की बारी, पढ़ाई लिखाई और तैयारी तो कभी की ही नहीं थी, कुछ दिनों में क्या कर लेते सो बस ऐसे ही चले गए इंटरव्यू देने| क़िस्मत एक बार फिर से मेहरबान हुई, हमको बचपन से इतिहास में बहुत रूचि थी, हालाँकि दसवीं के बाद इतिहास एक विषय के रूप में हमारे पास कभी नहीं रहा, संयोगवश इंटरव्यू बोर्ड के चेयरमैन को भी समान रूचि थी| बस फिर क्या था, अगले पैंतालीस मिनट हम इतिहास को जी रहे थे|
जिस दिन परीक्षा का रिजल्ट आया, हम कुछ दोस्तों के साथ Delhi में "Delhi-6 " देख रहे थे| भाई का फ़ोन आया, उसने बताया कि सिलेक्शन हो गया है और सेंट्रल एक्साइज मिला है| इस विभाग के बारे में कुछ पता तो था नहीं, हमने भी सोंचा हुआ होगा कहीं, फिर अपनी फिल्म देखने लगे| कुछ दिन के बाद भाई के साथ अपने शहर स्थित विभागीय कार्यालय गए, वहां जाकर पता चला कि ये तो कोई यूनिफार्म वाली नौकरी है| सच बताएं, बहुत ख़ुशी हुई| पहली बार लगा कि कोई बहुत अच्छी पोजीशन पर सिलेक्शन हुआ है| अब यूनिफार्म कोई खरीद कर तो पहनी नहीं जा सकती, यूनिफार्म पहनने का तो अधिकार होता है, और वो अधिकार हमने अर्जित कर लिया था|
पहली पोस्टिंग पोरबंदर कस्टम्स में मिली| अब पोरबंदर को सिर्फ गांधीजी के जनस्थान के तौर पर जानते थे, वहां कोई पोर्ट भी है, ये वहां जाकर पता चला| शुरू में तो लगा कि कहाँ आ गए हैं, कहाँ तो सोच रहे थे किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करेंगे, लाखों/करोड़ों का पैकेज होगा, हाई क्लास ज़िन्दगी होगी, देश-विदेश घूमेंगे और कहाँ पोरबंदर जैसे एक छोटे से शहर में फंस गए|
फिर ट्रेनिंग के दौरान जिन पहले शब्दों ने जोश भरा वो थे कि हम अपने देश की आर्थिक सीमाओं के रक्षक हैं| एहसास हुआ कि हमारी नौकरी सिर्फ नौकरी नहीं, देश सेवा है|
पहली बार समंदर में पेट्रोलिंग करने के लिए कस्टम्स की बोट पर जब सवार हुए तो उसके शिखर पर लहराते हुए तिरंगे को अनायास ही सैल्यूट किया, वो भाव कहाँ से आया, पता नहीं| पेट्रोलिंग के दौरान जब ये देखा कि हम भारतीय नौसेना एवं तटीय रक्षक बल के साथ अपने देश की सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं, सरकारी नौकरी और प्राइवेट नौकरी का फ़र्क़ साफ़ हो गया|
सरकारी नौकरी और खासकर यूनिफार्म वाली, परिवार की जीविका चलाने के लिए की गयी नौकरी नहीं, अपितु एक वचन है जो हमने हमारे देश, हमारे समाज को दिया है, एक विश्वास है जो समाज और सरकार ने हम पर किया है, एक सपना है जो लाखों युवाओं के मन में हमने पैदा किया है|
जय हिन्द ||