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कुबेर - 20

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

20

दादा के असामयिक निधन और उनकी अंतिम क्रिया यहीं होने की बातें उसके वीज़ा आवेदन में भावनात्मक पक्ष के रूप में जुड़ रही थीं। जॉन की कंपनी द्वारा दिया गया काम का प्रस्ताव कई सरकारी स्तरों पर परखा जाना था। डीपी को इन सबकी चिन्ता नहीं थी उसके लिए तो भाईजी थे ही। वह तो बस वकील साहब के अगले दनदनाते प्रश्न के आने का इंतज़ार कर रहा था।

पूरे इंटरव्यू में पहली बार स्मिथ मुस्कुराए और बोले - “थैंक्यू सो मच डीपी, वी आर डन टुडे।”

हाथ मिलाकर उस कक्ष से बाहर निकल कर लगा कि एकाएक हवा ताज़ी लग रही है, लंबी साँस लेने को दिल कर रहा है। दफ़्तर लौटते समय दोनों भाईजी और डीपी आपस में विस्तार से दोहरा रहे थे कि वकील साहब ने क्या-क्या पूछा था। कई बार तो उनके प्रश्नोत्तर के ढंग से डर गया था डीपी।

जॉन बताने लगा – “यहाँ सभी पेशेवर लोग प्रति घंटे के हिसाब से अपनी फीस लेते हैं। काम के दाम हैं। काम में मक्कारी नहीं है और कोई ‘छुपे हुए सौदे’ नहीं हैं। सब कुछ पारदर्शी है।”

“भाईजी सच बताऊँ, उस ऑफिस की हवा में ही नियम-क़ानून की धाराएँ घुली थीं, वहाँ का माहौल ही अलग था।”

“सच कहा तुमने डीपी, स्मिथ को अगर किसी केस में संतुष्टि नहीं होती है तो वह सीधे मना भी कर देता है।”

“अच्छा”

“उसका केस का इतिहास ऐसा है कि उसके इंटरव्यू में उत्तीर्ण यानि इमीग्रेशन ऑफिसर सहमत हो ही गया समझ लो। इतनी कर्मठता दिखाते हैं ये लोग। अपने काम के उस्ताद कहा जा सकता है इन्हें।”

“इसका मतलब है कि मेरे जवाबों से संतुष्टि हुई उन्हें?”

“हाँ बिल्कुल, तुम भी उनकी शैली में जवाब दे रहे थे डीपी।”

जब पूछा कि “फ्लशिंग क्यों चुना रहने के लिए” तो जवाब था – “सर, नया काम शुरू करने वाला मैनहटन में रहने की तो सोच नहीं सकता ना, रहना तो होगा फ्लशिंग में जहाँ मध्यमवर्गीय परिवारों की बहुलता है। हर चीज़ तुलनात्मक रूप में सस्ती और सुलभ उपलब्ध है वहाँ।”

“ओके”

“फ्लशिंग में रहने और गुज़ारा करने का औसत ख़र्च काफी कम हो जाता है सर। मेरे ख़्याल से न्यूयॉर्क में शुरुआती क़दम उठाने के लिए वही सही जगह है।”

जॉन, स्मिथ के स्वभाव के बारे में बताने लगा - “ये पेशेवर लोग हम भारतीयों के विचारों के उलट किसी के पद और वैभव से प्रभावित नहीं होते। वे सिर्फ अपना काम करते हैं। काम व योग्यता ही देखी जाती है, किसी प्रकार की चाटुकारिता नहीं है। बहुत सारी बातों के साथ यह ख़ास बात भी अमेरिका को अमेरिका बनाती है।”

“देखा मैंने भाईजी, बिल्कुल सही है यह बात। हमारे यहाँ तो माथा देखकर टीका लगाया जाता है।”

“स्मिथ के पास किसी व्यक्ति के विश्लेषण की गज़ब ख़ूबी है। तुम्हारे इस इंटरव्यू के आधार पर वे तुम्हारी उन सकारात्मक बातों को सामने लाएँगे जो तुम्हें अमेरिका में काम करने के योग्य साबित करेंगी, साथ ही तुम्हारी उन नकारात्मक चीज़ों के बारे में जानकारी नहीं देंगे जो तुम्हें कमज़ोर बना सकती हैं। इमीग्रेशन के मामले में इनके काम की बहुत इज्ज़त है। यहाँ से फाइल चली तो परिणाम की चिंता मिस्टर स्मिथ की है।”

“शुक्र है, मतलब हम संतोष की साँस लेकर अपने आगे के कार्यों की तैयारियाँ कर सकते हैं।”

“हाँ, इमीग्रेशन कागज़ातों की प्रक्रिया और इससे संबंधित अन्य खाना-पूर्ति से अधिक कठिन काम कोई नहीं होता है यहाँ। एक बार इससे पार हो जाओ तो अमेरिका के सिस्टम में प्रवेश हो ही जाता है।”

“बिल्कुल, आज का कठिन इंटरव्यू इसका प्रमाण था।”

डीपी का जीवन ऐसे कई मसीहाओं के प्रयास से चमकता जा रहा था। दादा नहीं थे पर भाईजी थे। एजेंट बनने की ख़्वाहिश को जॉन के मशविरे की ज़रूरत थी। ऑफिस लौट कर जब वह कार्मिक प्रमुख से रियल इस्टेट लायसेंस की प्रक्रिया और संबंधित परीक्षाओं की जानकारी पाने गया तो जॉन को भी लगा कि उसने दादा के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करने की कोशिश की है। एक राहत की साँस थी कि उसका मकसद पूरा हुआ। डीपी यहाँ के माहौल में ढलने लगा था।

अमेरिका में उनके पूर्व नियोजित कार्यक्रम बहुत अच्छी तरह जा रहे थे। दादा के आकस्मिक निधन से उपजी सहानुभूति की लहर के कारण दादा के सभी परिचित हर जगह उनसे बड़ी सदाशयता के साथ मिल रहे थे। जीवन-ज्योत की भावी परियोजनाओं के लिए उन्मुक्त मन से लोग दान दे रहे थे। निश्चित ही अभी तक जो कमिटमेंट दानदाताओं ने किए थे, वे उनके लक्ष्य से अधिक थे।

डीपी को अपने कागज़ात का इंतज़ार था अब। भाईजी से पूछा – “मान लीजिए अगर वर्क परमिट नहीं मिला तो मुझे भारत लौट जाना होगा?”

“बिल्कुल, तब कोई रोकना भी चाहे तो नहीं रोक पाएगा तुम्हें। भारत कभी भी जा सकते हो।” माहौल को हल्का करने के लिए वे परिहास भी करते।

“जी भाईजी, वैसे भी यह सब बहुत नया था मेरे लिए।”

“डीपी, चिंता मत करो। हमने कोशिश की है, अब परिणाम जो भी हो।”

“वैसे कब तक हमें पता लगेगा।”

“कम से कम एक महीना और अधिक से अधिक चार महीने भी लग सकते हैं, छ: महीने भी लग सकते हैं। तब तक तुम चाहो तो कार लायसेंस के लिए, रियल इस्टेट लायसेंस आदि के बारे में जानकारी ले सकते हो।”

“भाईजी, एक बात कहना चाहता हूँ। आपने मुझे इतना स्नेह और मार्गदर्शन दिया है कि मैं...” डीपी की आवाज़ शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कहना चाहती थी मगर भर्राए गले की दबती आवाज़ बगैर शब्दों के ही अपना संदेश दे गयी भाईजी को।

“अरे डीपी, तुम जैसे दादा के ख़ास रहे हो वैसे ही एक जमाने में मैं भी उनका ख़ास था। मैं तुम्हारे लिए दादा नहीं बन सकता लेकिन एक भाई तो बन ही सकता हूँ।” डीपी के कंधों को थपथपाते हुए जॉन ने अपनेपन के जो संकेत दिए थे तो डीपी को विश्वास का एक मजबूत सहारा महसूस हुआ था। उनके हाथों में हाथ देकर एक नये रिश्ते और नये सफ़र की ओर चल पड़ा डीपी।

भाईजी और डीपी के भाईचारे ने भाई की परिभाषा को भव्य रूप दे दिया था। दोनों की आपसी समझ को विकसित होने में ज़्यादा समय नहीं लगा था। धीरे-धीरे एक दूसरे के विचारों की समानता इस तरह जन्म लेती कि किसके दिमाग़ में क्या चल रहा है, वह समझना बहुत आसान था। डीपी का दिमाग़ और जॉन का दिमाग़ दो दूनी चार से दो दूनी चार सौ का नया पहाड़ा गढ़ने का हुनर रखते थे। गणना के इन पहाड़ों के पहाड़ के नीचे कई दिमाग़ों का भट्टा बैठ जाता है। जिसने यह कला सीख ली वह इसमें महारथ हासिल कर लेता।

समीकरण हल होने लगें तो गणित का पेचीदापन स्वत: कम हो जाता है। यही होता आया था भाईजी और डीपी की संख्याओं के मेल से। बहन के रूप में जब मैरी मिली थी तो रिश्ते की मिठास से दिल को बहुत ख़ुशी मिली थी। आज बड़ा भाई मिला है तो वह ख़ुशी दोगुनी हो गयी है। दादा के जाने के बाद का खालीपन एक हद तक तो कम होगा।

जॉन बेहद ख़ुश था सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसने एक विश्वसनीय मददगार पा लिया था बल्कि इसलिए कि दादा के एक ख़ास शिष्य की मदद करके वह जो कुछ करेगा तो उससे दादा की आत्मा को शांति मिलेगी। जिस डीपी पर दादा को इतना विश्वास था, उस पर विश्वास करके कभी भी, कोई भी ग़लती नहीं कर सकता।

चौबीसों घंटे जागता रहता था यह शहर। अब डीपी भी इस शहर की भागमभाग के साथ शामिल था। उसके लिए फ्लशिंग वाला घर तो सिर्फ़ सोने के लिए था, आराम करने भर के लिए। खाना-पीना सब ऑफिस में ही होता उसका। शहर को समझना था, वहाँ के नियमों को समझना था। वहाँ के शिष्टाचार को अपनाना था। किताबें, मार्गदर्शिकाएँ, शहरी सूचना के परचे जहाँ भी मौका मिलता समझने की कोशिश करता। सबसे पहले तो शहर के आवागमन को समझना ज़रूरी था। शहर का सब-वे सिस्टम और यातायात कारों के मुकाबले बहुत तेज़ था और सुविधाजनक भी। रेलें भी थीं, बसें भी थीं, स्टेटन आईलैंड के लिए फैरी भी थी और ज़रूरत पड़ने पर टैक्सी थी, ‘ऊबर’ थी, ‘लिफ्ट’ भी थी। शुक्रवार शाम से रविवार दोपहर तक के व्यस्त सामाजिक कार्यक्रमों के लिए जॉन और उसकी टीम में वह भी शामिल रहता था।

भाईजी द्वारा दिए गए आई फ़ोन और आई पैड को पास रखना ज़रूरी था। भाईजी किसी भी समय संपर्क करना चाहें तो उन्हें आसानी रहे। डीपी कहीं भी अटक जाए या रास्ता भटक जाए तो ‘जीपीएस’ का प्रयोग कर सकता है। सीखने के लिए इतना कुछ था कि वह देर रात तक बैठकर इन सब बातों को दोहराता था। बटन दबा-दबा कर मशीनों की कार्यप्रणाली से परिचित हो रहा था, ठीक वैसे ही जैसे हर शनिवार की रात सुबह की स्पीच के लिए जी-जान से तैयारी करता था, ठीक वैसे ही जैसे ढाबे में जल्दी उठकर चाय-नाश्ते की तैयारी करता था।

सबसे आसान था सात नंबर की सब-वे ट्रेन पकड़ कर मैनहटन पहुँचना। ऑफिस में वह पहला व्यक्ति होता था अपने समय से पहले पहुँचने वाला। चूँकि उसे काफी अतिरिक्त समय की ज़रूरत थी सारे सिस्टम की बारीकियों को समझने के लिए, इसलिए सबसे पहले पहुँचकर अपनी तैयारी कर लेना चाहता था। वह कोई काम बगैर पूरी जानकारी लिए नहीं करना चाहता था। जब तक काम की सरकारी अनुमति नहीं मिलती तब तक वह कंपनी में एक ट्रेनी के रूप में ही काम सीख सकता है, लायसेंस पाने के लिए परीक्षाओं की तैयारी कर सकता है। अंग्रेज़ी शब्दों के भारतीय उच्चारण इतने भिन्न हो जाते थे कि भाईजी के स्कूली बच्चे उसकी अंग्रेज़ी ठीक करने लग जाते। नए देश को अच्छी तरह समझना है तो वहाँ की सड़कों और उस पर दौड़ते शब्दों व ध्वनियों के साथ रहना उसे सीखना होगा, वही किया डीपी ने।

रोज़ सवेरे भाईजी जॉन डीपी से बीते कल की जानकारी लेते। डीपी के कई सवाल होते जिनके जवाब भाईजी देते। ग्राहकों से बात करने की कला निखरती गयी। वाकपटुता ने कई दोस्त बनाए, कई अच्छे सौदों के लिए रास्ता बनाया। अभी वर्क परमिट की प्रतीक्षा थी इसलिए आधारभूत काम करके भाईजी या संबंधित एजेंट को सौदे की बागडोर थमा देता। दिमाग़ी दौड़ बहुत दूर तक जाती और रास्ते में मिलने वाले मौकों को हथिया लेती।

जॉन भौंचक्का था उसके काम की भूख को देखकर। उसके दिमाग़ की तेज़ी को देखकर। मशीनों पर काम करना उसने जितनी तेज़ी से सीखा उतनी ही तेज़ी से वहाँ की कामकाजी प्रक्रिया को समझता रहा। आँकड़ों को मुँह जबानी याद रखने में उसका कोई सानी नहीं था। कोई डिग्री नहीं थी उसके पास पर सब डिग्रियों से परे था उसका दिमाग़। कई मशीनों को एक साथ पीछे छोड़ते हुए न जाने कितने आँकड़े मुँह जबानी याद थे उसे। इस बार दादा की स्मृति में जीवन-ज्योत के लिए जो धनराशि इकट्ठी हुई थी वह उसके एक-दो सालों के कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए पर्याप्त थी। जीवन-ज्योत का कार्य प्रभावी ढंग से आगे बढ़ रहा था। डॉक्टर चाचा के रूप में जीवन-ज्योत को जो नया मार्गदर्शक मिला था उसे सामाजिक स्वीकृति मिल रही थी।

दादा के भक्त दादा को परिसर में महसूस करने आते थे। उनकी अनुपस्थिति में भी सारे काम वैसे ही सुचारु रूप से चल रहे थे जैसे उनके होते हुए चलते थे। यह उनकी ऐसी दूरदर्शी कला थी जो समय से काफी पहले ही अपना नया स्वरूप ले चुकी थी।

क़ानूनी रूप से काम करने की अनुमति आने में दो महीने निकल गए। जॉन की ब्रोकरेज कंपनी ने स्पांसर किया, वकील साहब स्मिथ ने क़ानूनी तड़का लगाया और वर्क परमिट हाथ में था। तब तक डीपी ने अपना होमवर्क अच्छी तरह कर लिया था। अब वह रियल इस्टेट एजेंट का लायसेंस लेने के लिए तैयार था। डीपी के लिए सबसे अधिक ख़ुशी की बात थी ड्राइविंग परीक्षा पास करना। लिखित परीक्षा तो अपेक्षाकृत सरल थी, पर प्रायोगिक परीक्षा, जानलेवा थी। परीक्षक, उम्मीदवारों से हर तरह से गाड़ी चलवा कर संतुष्ट हो जाना चाहते थे। अब उसे भारतीय अधिकारियों के कामकाज के प्रति रवैये और अमेरिकी अधिकारियों की अपने काम के प्रति निष्ठा साफ़-साफ़ नज़र आने लगी थी।

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