दास्ताँ ए दर्द ! - 15 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्ताँ ए दर्द ! - 15

दास्ताँ ए दर्द !

15

सत्ती के मायके के लोग वैसे ही निम्न मध्यम वर्ग के थे | उनसे जितनी सहायता हुई उन्होंने की |उनकी भी सीमाएँ थीं | बिंदर की दोस्ती पीने-पिलाने के चक्कर में सत्ती के गाँव वाले बल्ली से हो गई |उसे यह तो पता नहीं था कि बल्ली उसके तयेरे भाईयों का पक्का दोस्त है और उनका रोज़ का ही उठना-बैठना, पीना-पिलाना है | बस, जाल में फँसता ही तो चला गया और बल्ली से उसकी ऎसी दोस्ती हुई कि वह अपनी सारी सलाहें उससे ही लेने लगा | वह घर से रात-रात भर ग़ायब रहने लगा | बल्ली तो जाने कबसे सत्ती पर नज़रें गड़ाए बैठा था |

"देख यारा ! अपने पिंड के हरमिंदर सिंग लंदन रहते हैं, आजकल आए हुए हैं | वहाँ काम वाली नहीं मिलतीं तो वो अपनी बीमार बेबे के लिए एक औरत ले जाना चाहते हैं | तू अगर सत्ती को भेज देगा, तुम सबकी जिनगी सुधर जाएगी | "

" ना--ना ऐसे अपनी घरवाली को कहीं और काम के लिए कैसे भेज सकता हूँ और फिर मेरी बेटी पिंकी ? मेरी बेबे तो उसके बिना मिनट नीं रह सकदी | सारा दिन उसीके साथ रहती है तो जिन्दा रहती है |"

पल्ले पीए हुए था फिर भी इतना तो समझ रहा था |

"ले--तब तो और भी वधिया---" बल्ली ज़ोर से हँसा |

" तेरी बेबे के पास तेरी बेटी पलेगी और तेरी वोटी तेरा घर पालेगी --"

अब तक घर के मालिक को गए हुए तीन माह हो चुके थे, बीजी यानि सासु माँ के मुख के बोल ही जैसे बंद हो गए थे | इस अचानक लगे झटके से वह खड़ी होतीं भी तो किस बल-बूते पर ? उनकी आँखों के सामने सत्ती और पिंकी का जीवन तार-तार हो रहा था | कितने अरमान थे मुखिया के ! वह तो चाहते थे कि वह काम करें, करवाएँ और उनका पूरा परिवार बस मज़े करे |

अपना सोचा हुआ किसी बिरले के ही भाग्य में होता है | वो बिरले सत्ती के ससुर नहीं थे |

सोची-समझी योजना के अनुसार बिंदर ने हरमिंदर सिंग से सत्ती को मिलवा दिया | पता नहीं कैसे करके अपनी दुखियारी माँ को भी पटा लिया | वह चुप ही बनी रही, देखती रही जो उसके सामने हो रहा था | एक आह के साथ उसने अपनी नन्ही पोती को अपने सीने में भींच लिया और प्यारी बहू को मन पर पत्थर रखकर सात समुन्दर पार जाने की हामी भर दी |

सत्ती के ससुर ही तो गए थे, उसके माँ-बाप और भाई-भाभी तो ज़िंदा थे | लेकिन होनी को कोई नहीं टाल सका | दबे स्वर में किए गए विरोध का कोई वज़न नहीं पड़ा | बिंदर के पिता अक्सर अपने बड़े भाई के बेटों की करतूतों के देखकर अफ़सोस करते हुए कहते थे -'बिनाश काले बिपरीत बुद्धि !' आज उनका अपना बेटा विपरीत बुद्धि की जंज़ीरों में जकड़ गया था |

प्रज्ञा के सामने अपनी कहानी सुनाते हुए सत्ती ज़ार-ज़ार रो पड़ी | जिन आँखों में से आँसू सूख गए थे, वो न जाने कहाँ से बाढ़ बनकर उसकी आँखों के समुन्दर में काले बादल बन घिर आए| कैसा टूट जाता है न इंसान !

हरमिंदर साहब सबको बड़े भले लगे | बेचारा अपनी बीमार माँ की सेवा के लिए ही तो ले जाना चाहता था, आख़िर उसमें बुराई भी क्या थी ? जैसे अपने बड़ों की सेवा, वैसे ही उस बूढ़ी औरत की सेवा जिसके बेटे की बीबी मर गई थी और संतान कोई थी नहीं | वह बेचारा तो अपनी माँ की सेवा ही करना चाहता था | सत्ती वैसे भी बड़ों की बहुत इज़्जत करती थी, उसके लिए यह काम कोई मुश्किल न था |

वह फूट ही तो पड़ी थी जब बिंदर ने उसकी गोदी से छह महीने की प्यारी सी बच्ची को झपट लिया था | पता नहीं क्यों लेकिन सत्ती को लगा उसकी गोदी सूनी हो गई है | वह लुट गई है और उसका कोई भी नहीं है | सास की आँखें विवशता के आँसुओं से भरी थीं और बिंदर की शराब की लाली से !

"रात को तो रहण दे, सुबे छड़ आना ---"माँ ने आजिज़ी की पर बिंदर जो माँ की ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखता था, वही चिल्लाकर बोला था ---

"इसका प्यो लेके जाएगा, रात में ही सिंग साब चले जांगे हवाई अड्डे ---सुबह का हवाई जहाज हैगा --तैनू पता नी तो सँभाल इस पिल्ली को और बैठ घर में ----" जिस नन्ही सी बिटिया के जन्मते ही घर में किलकारियाँ भर उठीं थीं, उसी का आज यह हाल था | पहले कुछ दिन तो वह चीख़-चीख़कर रोई, बाद में इतनी सहमने लगी कि उसकी रोने की आवाज़ भी सुबकियों में बदल गई | उसे भी शायद पता चल गया था कि उसका भी सब-कुछ लुट चुका था और वह निरीह भी अब दादी की तरह बेचारी बन गई थी | कली खिली भी नहीं थी, दाँत तक न आए थे, दूध के आलावा किसी चीज़ का स्वाद चखा तक न था कि उसके मरने का समय शुरू हो गया |

रात को सत्ती को हरमिंदर सिंग के यहाँ रहना पड़ा | पूरी रात उसका सीने कच्चे दूध की सिसकारी से भीगता रहा | उसकी बच्ची भूखी होगी ! वह एक नन्ही बच्ची की माँ थी जिसका सीना अपनी बच्ची को समेट लेने के लिए धड़क रहा था | उसे यह कहकर एक कमरे में सोने के लिए भेज दिया गया था कि सुबह के चार बजे हवाई -अड्डे के लिए निकलना है |

हरमिंदर के घर पार्टी चल रही थी और उसके मन की घुटन उसे पीसे जा रही थी | बार-बार मन पूछता --'कहीं गलत हाथों में तो नहीं जा रही --?'

अपने आपको जवाब देने के लिए उसके पास शब्द ही नहीं थे, एक ख़ाली आसमान जैसा मन जिसमें दूर-दूर तक कोई पंछी तक न दिखाई दे |

पार्टी में उसका पति भी शामिल था | थोड़ी ही देर में आसमान पर लाल धब्बे छितरने लगे| उससे किसीको कोई हमदर्दी न थी और उस अशक्त औरत में विरोध करने की ताक़त नहीं थी और रात में जो खिलवाड़ उसके शरीर से हुआ, उसके अंदर उसे नकारने की शक्ति ही नहीं थी |शायद इन कुछेक घंटों में उसे तीन लोगों ने पीसा था | पड़ी रही वह एक मिट्टी के लौंदे की तरह जिसमें ऊपर वाला शायद प्राण डालना भूल जाता हो |

आख़िरी मर्द ने उसे कुचला, एक लात उसके कूल्हे पर लगाई और बड़ी अदा से बोलकर गया ;"साली ! देख ले अब --क्या हालत है ? मेरे साथ ब्याह जाती तो महारानी बनाकर रखता | देख, अपने खसम को, वो पड़ा है बेवड़ा ---हट्ट, हो गया काम मेरा --" सत्ती ने अँधेरे में पहचाना, बिल्लो था वो !

ये प्यार था ? उसका दिमाग़ चक्कर खा रहा था, पूरा शरीर कँपकँपा रहा था | सब भूलती जा रही थी वो, एक नन्ही बच्ची की माँ होने के निशान उसके कुर्ते पर सूखकर रोने लगे थे और वह गुम थी, एकदम चुप्प !जाने कैसे काँपते पैरों चलकर वह गाड़ी में बैठी, कोई मज़बूत हाथ उसे लगातार कसकर पकड़े रहा था | हवाई अड्डे पर जहाँ उसे बैठा दिया गया, वहीं वह मूर्ति बनी चिपकी रही | जहाँ आदेश मिला फिर से टूटे हुए पैरों से घिसटती सी चलने लगी | पता नहीं कैसे अपने लोगों से दूर सात समुन्दर पार पहुँच गई ! अपने ?? इन्हें अपना कहते हैं ? ये अपने हैं, प्यार करने वाले हैं तो परायों की, दुश्मनों की कोई ज़रुरत और जगह ही नहीं होनी चाहिए इस दुनियावी मंच पर !

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