आघात - 23 Dr kavita Tyagi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आघात - 23

आघात

डॉ. कविता त्यागी

23

पूजा और रणवीर अस्पताल में भर्ती सुधांशु को लेकर चिन्तित थे। वे सभी कार्यों को छोड़कर उसके स्वास्थ्य को सर्वाधिक महत्व दे रहे थे। रणवीर की माँ भी अस्पताल में सुधांशु को देखने के लिए आयी थी। माँ को देखते ही रणवीर के चेहरे पर सन्तोष और अपने बेटे की चोट के कारण उत्पन्न हृदय की पीड़ा की रेखाएँ उभर आयी। वह मानो सारी पीड़ा को माँ के आँचल में उडे़ल देना चाहता था, परन्तु, काश ऐसा हो पाता !

रणवीर की माँ ने अनुभव किया कि उसका बेटा अपने बेटे की चोट के बहाने अपनी पत्नी के अति निकट आ गया है। पूजा के प्रति बढ़ी निकटता को माँ ने अपने प्रति दूरी के रूप में ग्रहण करते हुए कुछ देर औपचारिक व्यवहार किये, उसके उपरान्त रुखाई के साथ कहा -

‘‘रणजीत के विवाह का दिन दूर नहीं है ! विवाह के सामान खरीदने के लिए रुपयों की जरूरत है ! तुझे तो अपने बीवी-बच्चों से फुरसत नहीं है, पर मुझे तो सभी काम करने हैं!’’

‘‘मम्मी जी, अब सबसे पहला काम सुधांशु का इलाज करवाना है !’’

‘‘सुधांशु का इलाज करवाना तेरे लिए पहला काम है ! जैसे तुझे अपने बेटे की चिन्ता है, वैसे ही मुझे भी अपने बेटे की है!’’ माँ ने अपने हृदय का विष वमन करते हुए कहा।

रणवीर की माँ अपनी कड़वाहट को अपने व्यवहार और शब्दों द्वारा उगलकर अस्पताल से बाहर निकल आयी। माँ के जाने के पश्चात् रणवीर असमंजस में पड़ गया कि आखिर वह क्या करे ? पहले अपने दुर्घटनाग्रस्त बेटे का इलाज कराए या अपने छोटे भाई के विवाह सम्बन्धी कार्य करे? किंकर्तव्यविमूढ़ रणवीर कुछ समय तक शान्त गंभीर मुद्रा में बैठा रहा । पूजा भी अपने पति की दशा देखकर चिन्ता में डूब गयी। अपने पति के लिए उत्पन्न हो चुकी विषम परिस्थिति का वह भली-भाँति अनुमान लगा रही थी । वह अपने पति के तर्क से पूर्णतया सहमत थी और आश्वस्त भी थी कि एक पिता होने का दायित्व-निर्वाह करते हुए रणवीर बेटे के स्वास्थ्य को प्रथम कार्य मानकर चल रहा है। फिर भी, पूजा के मन की गहराई में कहीं न कहीं एक प्रकार का अज्ञात-सा भय था। उस भय को वह प्रत्यक्ष रूप से न तो अनुभव कर पा रही थी और न ही व्यक्त कर पा रही थी, इसलिए वह रणवीर पर अपनी दृष्टि निर्निमेष गड़ाये हुए थी। वह अपने अज्ञात-अव्यक्त प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा-सी कर रही थी, कि आज ऊँट किस करवट बैठेगा ? रणवीर अपने तार्किक वक्तव्य पर दृढ़ रह पाएँगे ? अथवा भाई के विवाह का प्रबन्ध करने के लिए अपने बेटे को उसके भाग्य-भरोसे छोडकर चले जायेंगे ?

लगभग एक घण्टे तक रणवीर और पूजा सुधांशु के स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार-विमर्श करते रहे तथा चिकित्सक के परामर्शानुसार उसको दवाईयाँ आदि देते रहे। तत्पश्चात् रणवीर उठकर बाहर जाते हुए बोला -

‘‘मैं तुम्हें कुछ रुपये देकर चला जाऊँ? तुम्हें दवाई लाने के लिए जरूरत पड़ सकती है !’’

‘‘तुम कहाँ जा रहे हो?’’

‘‘देखा नहीं था तुमने, मम्मी अभी किस तरह नाराज होकर गयी है ! मुझे वहाँ विवाह-सम्बन्धी प्रबन्ध करने के लिए जाना ही पडेगा ! जाना ही चाहिए मुझे ! आज जिस बात को माँ ने कह दिया, कल सारा समाज भी कह सकता है !’’

‘‘लेकिन, यहाँ.......? सुधांशु के पास ?’’

‘‘यहाँ तुम हो न !’’

‘‘मैं अकेली......?’’ पूजा ने अपना अन्तिम वाक्य निराश होकर तथा रणवीर की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए कहा था । पूजा की उस दृष्टि से पता नहीं रणवीर के अन्तःकरण में क्या हलचल हुई थी। शायद वह आज पुनः माँ और पत्नी की विरोधी आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विषय में सोचकर अनिर्णय की स्थिति में आ पहुँचा था । या शायद कुछ समय पहले उसने माँ के पास जाने का जो निर्णय लिया था, पत्नी के प्रश्नों ने उसे झकझोरते हुए उसके निर्णय पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था, इसलिए रणवीर झुँझलाते हुए कठोर दृष्टि से पूजा की ओर देखते हुए बोला था -

‘‘मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि इसके इलाज का खर्च तुम्हें देकर जाऊँगा ! मैं इससे अधिक न ही कुछ कह सकता हूँ और न ही कर सकता हूँ ! जैसा तुम्हें उचित लगे, करना !’’

इतना कहकर रणवीर तेज कदमों से बाहर निकल गया और एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूजा की आशंका सत्य सिद्ध हो गयी थी । अभी तक उसे मात्र अज्ञात-सा भय सताता रहा था कि रणवीर बेटे को उसी चोटिल अवस्था में अस्पताल में छोड़कर न चला जाए, अब यह घटना यथार्थ में घटित हो चुकी थी। अपने बेटे सुधांशु की अस्पताल में अकेले देखभाल करने के अतिरिक्त पूजा के पास कोई विकल्प नहीं था । न केवल दुर्घटनाग्रस्त सुधांशु की, बल्कि प्रियांश की देखरेख का दायित्व भी अकेले पूजा पर आ पड़ा था।

पूजा के समक्ष यह विकराल समस्या आ खड़ी हुई थी कि चोटग्रस्त सुधांशु और प्रियांश दोनों को एक साथ वह अकेली कैसे सम्हाल पाएगी ? नन्हें-से प्रियांश को न तो वह अस्पताल में लाना चाहती थी, और न ही उसको घर में अकेला छोड़ा जा सकता था । दूसरी समस्या यह भी थी कि जब वह सुधांशु की दवाई आदि लेने के लिए बाहर जाएगी, तब अस्पताल में सुधांशु के पास कौन रहेगा ? सुधांशु को बिस्तर पर अकेला छोड़ना भी उचित नहीं था । यद्यपि वह प्रियांश को अस्पताल में नहीं रखना चाहती थी, फिर भी उसने दोनों समस्याओं का एक समाधन खोज लिया। उसने निश्चय किया कि जब तक वह सुधांशु को डाॅक्टर के परामर्शानुसार अस्पताल में रखेगी, तब तक प्रियांश को भी अपने साथ रखेगी। ऐसा करके न प्रियांश घर में अकेला रहेगा और न ही अस्पताल में सुधांशु को किसी परिस्थिति विशेष में अकेला छोड़ना पड़ेगा। अपने निश्चय के अनुरूप अगले दिन से पूजा ने प्रियांश को विद्यालय भेजना बन्द कर दिया और दोनों बेटों की स्वयं देखरेख करने के लिए प्रियांश को भी अपने साथ ही अस्पताल में रख लिया। एक सप्ताह तक इसी प्रकार चलता रहा । बीच-बीच में रणवीर एक-आधा घण्टे के लिए बेटे की कुशल-क्षेम जानने के लिए आता रहता था । उस समय उसके चेहरे पर चिन्ता का भाव नहीं होता था । रणवीर को बेटे के स्वास्थ्य के प्रति चिन्तित और गम्भीर न देखकर पूजा की चिन्ता तथा गम्भीरता बढ़ जाती थी । उसको रणवीर पर क्रोध भी आता था, किन्तु वह अपने क्रोध का घूँट पीकर चुप रह जाती थी ।

एक सप्ताह पश्चात् सुधांशु को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी । उस दिन पूजा सुबह से ही विश्वास-अविश्वास के हिंडोले में झूलती रही थी । अनेक बार उसको लगता था कि रणवीर बेटे को अस्पताल से डिस्चार्ज कराने अवश्य आएगा और अनेक बार वह सोचने लगती थी कि यदि रणवीर को बेटे की इतनी ही चिन्ता होती, तो क्या वह उसे इस प्रकार छोड़कर चला जाता ! अन्त में उसके विश्वास की जीत हुई । रणवीर समय पर तो नही आया, परन्तु कुछ विलम्ब से ही सही, अस्पताल आ पहुँचा। विलम्ब से आने की पूजा द्वारा शिकायत करने पर उसने बताया कि वह अपने एक मित्र को अस्पताल में भेजकर पहले ही अस्पताल से सुधांशु के डिस्चार्ज की सभी औपचारिकताएँ पूरी करा चुका है। रणवीर के इस उत्तर से पूजा सन्तुष्ट हो गयी थी । रणवीर-पूजा अब पुनः सहयोग और सद्भाव की मनःस्थिति प्राप्त कर सुधांशु को प्रसन्नतापूर्वक घर ले आये।

एक ओर सुधांशु के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, दूसरी ओर रणजीत के विवाह की निर्धरित तिथि निकट आ रही थी । रणवीर अपने भाई के विवाह सम्बन्धी कार्यों में तन-मन-धन से समर्पित था और पूजा से भी यही अपेक्षा करता था कि वह भी सभी मतभेद भुलाकर वैवाहिक कार्यों में सहयोग करे ! पूजा पति के मनोभावों का सम्मान करते हुए अपने दोनों बेटोें के साथ सास के पास चली गयी। वहाँ पर उसने विनम्रता के साथ अपनी सामर्थ्य-भर सहयोग किया, परन्तु उसे यथायोग्य सम्मान न मिला। उसके प्रति आज भी सास-ननद और देवर का छिद्रान्वेषी दृष्टिकोण ही था । आज भी परिवार के सभी सदस्य अपने पुराने अंदाज में पूजा का तिरस्कार करके नयी दुल्हन को अपेक्षाकृत अधिक स्नेह और सम्मान दे रहे थे। पूजा को नयी दुल्हन को मिलने वाले स्नेह तथा सम्मान से कोई कष्ट न था । वह स्वयं भी उससे सस्नेह व्यवहार कर रही थी, परन्तु स्वयं को मिलने वाले तिरस्कार और उपेक्षा से उसका हृदय व्यथित हो रहा था, फिर भी होठों पर हँसी थी । प्रत्यक्षतः उसने अपने चित्त की पीड़ा किसी प्रकार भी व्यक्त नहीं होने दी। तीन-चार दिन में सभी रस्में पूरी कराने के बाद पूजा वापिस लौट आयी।

वहाँ से लौटकर कई दिन तक पूजा का चित्त अशान्त रहा । वह वैवाहिक समारोह में हुए कटु अनुभवों के विषय में ही सोचती रही कि आखिर उसकी सास उससे क्या चाहती है ? पर्याप्त सेवा-श्रद्धा और निष्ठा रखने पर भी वह उससे सन्तुष्ट क्यों नहीं रह पाती हैं ? क्यों कभी भी उससे प्रसन्न नहीं रहती है ? पूजा ने अपने प्रश्नों के साथ अपनी मनःस्थिति को रणवीर के समक्ष प्रकट किया, तो उसने किसी भी बात को गम्भीरता से न लेते हुए पूजा को परामर्श दे डाला कि ऐसी बातों को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता नहीं होती है।

समय अपनी गति से चलता रहा । पूजा अपने गृहस्थ जीवन को समय की आवश्यकता के अनुरूप जीने लगी। रणजीत के विवाह के लगभग दो महीने पश्चात् ही उसकी पत्नी की ओर से रणवीर के पास फोन आना आरम्भ हो गया कि वह सास के दुर्व्यवहारों से पीड़ित है । फोन पर सम्पर्क करते समय वह हर बार चेतावनी देकर कहती थी कि यदि उसकी समस्या का समाधन शीघ्र नहीं किया गया, तो वह सदैव के लिए ससुराल छोड़कर अपने मायके चली जायेगी और उनके विरुद्ध दहेज की शिकायत लेकर कोर्ट में जायेगी या आत्महत्या कर लेगी ! रणवीर उसके प्रत्येक फोन पर तुरन्त वहाँ जाकर माँ को समझाने का प्रयास करते हुए कहता -

‘‘मांँ, अभिलाषा के साथ मधुर व्यवहार किया करो ! इसे अपनी बेटी सुषमा की तरह रखो, ताकि उसे यह घर अपना लगे। पूजा की बात और थी ! अभिलाषा इतनी सीधी नहीं है कि तुम्हारी सब बातें सहन करेगी !’’

रणवीर की बातें सुनकर माँ भी तुरन्त प्रत्युत्तर में अपनी शिकायत प्रस्तुत करके आँसू बहाना आरम्भ कर देती थी -

‘‘सारा दोष मेरा ही है ! तेरी नजर में इसका तो कोई दोष हो ही नहीं सकता ! सुबह दस बजे तक सोती है ! चाय भी मैं इसे बिस्तर पे देती हूँ। उठने के बाद भी सारा दिन बनाव-सिंगार में लगी रहती है ! कभी एक फली की दो नहीं करती है, घर में कितना भी काम पड़ा रहे ! हाय रे, मेरी किस्मत ! बड़ी बहू को तो आराम से रखने के लिए घर से अलग ले गया। छोटी बहू मेरी छाती पर मूँग दल रही है, तो भी बेटा मेरे ही सिर दोष मढ़ रहा है ! मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं, नहीं तो मेरा आदमी मुझे अकेले मुसीबत झेलने को छोड़कर स्वर्ग ना सिधारता ! हाय...हाय...हाय...!’’

‘‘मम्मी जी, ये घड़ियाल के आँसू कम-से-कम मेरे सामने तो मत बहाओ ! मैं आपका ही बेटा हूँ ! बपचन से आपको पहचानता हूँ !’’ रणवीर मुस्कराकर माँ को भली-भाँति आभास करा देता था कि वास्तव में उस पर उन आँसुओं का और माँ के द्वारा की गयी शिकायतों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है।

इसी प्रकार समझते-समझाते छः माह व्यतीत हो गये। अपने विवाह के लगभग छः माह पश्चात् एक दिन अचानक अभिलाषा पूजा के घर पर आ पहुँची। रणवीर उस समय घर में नहीं था। जब तक रणवीर घर आया, तब तक पूजा के समक्ष अभिलाषा ससुराल से सम्बन्धित हुई-अनहुई सभी बातों का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत कर चुकी थी । रणवीर के आते ही उसने नाटकीय मुद्रा ग्रहण करते हुए घोषणा कर दी कि वह उस घर में नहीं जायेगी ! उसकी अधिकारपूर्ण शैली में कही हुई बात से पूजा असमंजस में पड़ गयी। बहुत समझाने-बुझाने के बाद उसने कहा कि वह एक शर्त पर उस घर में वापिस जा सकती है कि उसका पति रणजीत परिवार से अलग होकर उसके साथ रहे !

रणवीर ने अभिलाषा की शर्त को सहज ही स्वीकार कर लिया। अब समस्या थी, माँ और बहन के प्रति उत्तरदायित्व वहन करने की ! कौन इस उत्तरदायित्व को वहन करे ? घर से दूर रहकर रणवीर ? या घर के दूसरे कोने में माँ-बहन के पास रहने वाला रणजीत ? इस संदर्भ में रणवीर ने अपने छोटे भाई रणजीत से विचार-विमर्श किया । रणजीत ने सीधे-सपाट शब्दों में अपना मत व्यक्त कर दिया कि वह अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार होते हुए नहीं देख सकता है और न ही दुर्व्यवहार करने वालों के साथ सम्बन्ध रखना चाहता है ।

रणजीत का नकारात्मक उत्तर मिलने के पश्चात् रणवीर ने उस पर किसी प्रकार का दबाव बनाने का प्रयास नहीं किया। माँ ने भी दोनों बेटों में से किसी के साथ रहने की अपेक्षा उनसे अलग, स्वतन्त्र रहने की इच्छा व्यक्त की थी । लेकिन अपनी इस इच्छा का दोषारोपण उन्होंने बेटों पर ही किया कि जब बेटों को माँ से अधिक अपनी पत्नी पर भरोसा हो, तो उनसे अलग रहना ही ठीक है । रणवीर ने माँ का प्रस्ताव स्वीकार किया और गाँव की कृषि से होने वाली सम्पूर्ण आय को उनके खर्च के लिए देने का वचन दिया। रणजीत अपने बड़े भाई के इस निर्णय से सहमत नहीं था, क्योंकि अभी तक उस आय पर रणजीत का स्वामित्व रहता था । उसने भाई का विरोध करते हुए कहा कि यदि गाँव से आने वाली आय पर माँ का अधिकार होगा, तो उसका खर्च कहाँ से चलेगा ? रणजीत की इस समस्या के समाधन के रूप में रणवीर ने अपना व्यापार उसको सौंप दिया और अपने लिए कुछ नया कार्य करने की योजना बनाने लगा । रणवीर के इस निर्णय से पूजा के गृहस्थ-जीवन में आर्थिक अभाव के घने बादल छा गये। अनेक बार पूजा ने रणवीर के निर्णय पर प्रश्न उठाते हुए अपनी और बच्चों की आवश्यकताओं, समस्याओं से उसको अवगत कराया, तो रणवीर ने कुछ दिन समस्याओं में और कष्टों में जीने की नसीहत देते हुए शीघ्र ही कोई नया व्यापार करने का आश्वासन दिया। पूजा के पास अब कष्टों के साथ अभावग्रस्त जीवन जीने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था और रणवीर अपना नया व्यापार आरम्भ करने के लिए अधिकांश समय घर से बाहर व्यतीत करने लगा ।

शीघ्र ही रणवीर ने सम्पत्ति के क्रय-विक्रय का नया कार्य आरम्भ कर दिया। अब उसके सामने अपने कार्य को ऊँचाई पर ले जाने की चुनौती थी। ऐसे समय पर पूजा उसके लक्ष्य में बाधा नहीं बनना चाहती थी । अतः वह न तो अपनी आर्थिक समस्याओं का तथा न ही समय पर पति के घर न आने पर अपने अकेेलेपन और बच्चोें को पिता की कमी का आभास होने की समस्या को रणवीर के समक्ष प्रकट करती थी । न ही कभी रणवीर को इस बात का अनुभव होता था कि माँ-बहन-भाई और धनार्जन के अलावा पत्नी और बच्चों के प्रति भी उसका कुछ दायित्व है । हाँ, यह बात अलग थी कि पूजा को उस समय रणवीर से कोई भी प्रत्यक्ष शिकायत नहीं थी, क्योंकि वह पति को आर्थिक-उन्नति में व्यस्त अनुभव करके सन्तुष्ट रहती थी।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com