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आघात - 2

आघात

डॉ. कविता त्यागी

2

एक क्षण तक पूजा सोच ही रही थी कि रणवीर को उसकी बात का वह क्या उत्तर दे, रणवीर तब तक बस से उतर चुका था । पूजा उस एक क्षण को रणवीर की ओर से भयमुक्त हो गयी, जब रणवीर उसे वहाँ पर दिखाई नहीं दिया था । वह अजीब-से भ्रमजाज में फँस गयी थी और सोचने लगी कि रणवीर यथार्थ में उसके पास आया था अथवा उसने कोई दुःस्वपन देखा था । उसने जोर से गर्दन को झटका देकर सिर हिलाया और फिर दोनों हाथों से सिर पकड़कर स्वयं पर झुँझलाने लगी -

‘‘क्या हो गया है मुझे ? क्यों मेरा चित्त स्वस्थ नहीं रह पा रहा है ? हे ईश्वर ! मेरी रक्षा करो ! मुझे इस विपत्ति से निकालो ! भगवान, प्लीज !!!’’

अपनी रक्षा के लिए ईश्वर को पुकारते-पुकारते पूजा को याद आया कि रणवीर ने कहा था, वह घर तक उसके साथ-साथ जाएगा । काॅलोनी में जाते हुए अपने साथ रणवीर की कल्पना करते ही उसका चेहरा पीला पड़ने लगा और हृदय आर्तनाद करने लगा -

‘‘क्या होगा, जब काॅलोनी वाले रणवीर को मेरे साथ देखेंगे ?... और जब पापाजी को पता चलेगा, तब ... ? वे तो जीते जी मर जायेंगे, यह सोचकर कि उनकी बेटी उनके दिये हुए संस्कारों और अपनी संस्कृति को विस्मृत करके अपनी स्वन्त्रता का अनुचित लाभ उठा रही है ।...और मम्मी तो मुझसे इतनी घृणा करने लगेंगीं कि मेरी शक्ल भी देखना पसन्द न करेंगी! मुझसे बात तक नहीं करेंगी ! कौन समझेगा मेरी विवशता को ? सब यही कहेंगे कि मेरी गलती है ! दो महीने पहले नेहा के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था । वह मेरी घनिष्ट मित्र थी, इसलिए मैं जानती हूँ कि वह बिल्कुल बेकसूर थी । फिर भी, गली-मुहल्ले वालों ने उस पर आरोपों की झड़ी लगा दी थी । न केवल उस पर बल्कि उसके मम्मी-पापा को भी खूब खरी-खोटी सुनाई थी कि पहले तो लड़कियों को कहीं भी जाने और कुछ भी करने की छूट देते हैं, जब वह लड़कों पर डोरे डाल-डालकर उन्हें अपने रूपजाल में फँसा लेती हैं, तब सफाई देते फिरते हैं और भगवान को याद करते हैं ! अपने पड़ोसियों और परिचितों के इसी प्रकार के आरोपों से तंग आकर नेहा के मम्मी-पापा ने उसको काॅलिज भेजना बन्द कर दिया था । नेहा भी अपने माता-पिता की इस दलील के आगे झुक गयी थी कि यदि उसकी बदनामी और बढ़ गयी तो बिरादरी में कोई अच्छे घर का लड़का उसके साथ विवाह करने के लिए भी तैयार न होगा !’’

अपने और अपने माता-पिता के विषय में किसी अनहोनी की कल्पना करके अपनी सहेली नेहा के विषय में सोचते हुए, जब पूजा की बस उसकी काॅलोनी के बस स्टाॅप के कुछ ही दूर थी, अनायास उसकी दृष्टि खिड़की से बाहर की ओर गयी । उसने देखा, रणवीर अपनी मोटर साईकल से उसकी बस के साथ-साथ चल रहा था और अब भी उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रहा था । उसकी मुद्रा देखकर पूजा को विश्वास हो गया कि इस धूर्त ने जो कुछ कहा है, यह कर भी सकता है । इस समय पूजा को केवल क्रोध नहीं आया, बल्कि उसके मनःमस्तिष्क से मूक स्वर भी उभरा -

‘‘पूजा, कुछ कर ! हाथ पर हाथ रखे बैठी रही, तो नेहा की तरह काॅलिज तो छूटेगा ही, घर परिवार की मान-प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल जाएगी ! एक ओर अपना भविष्य गर्त में जाएगा, दूसरी और परिवार का सुख-चैन !’’

पूजा का विवेक बार-बार परिस्थितियों पर नियन्त्राण करने की प्रेरणा दे रहा था और उसकी अबला-प्रकृति बार-बार अपनी विवशता प्रकट कर रही थी -

‘‘मैं क्या कर सकती हूँ ? मैंने तो रणवीर को कभी अपनी ओर से किसी प्रकार का सकारात्मक संकेत नहीं दिया !... और आज तो मैंने उसे चेतावनी भी दी थी कि मेरे इर्द-गिर्द चक्कर काटने का परिणाम उसके लिए अच्छा नहीं होगा । क्या प्रभाव पड़ा उसके ऊपर मेरी चेतावनी का ? कुछ भी तो नहीं !’’

मन और मस्तिष्क के बीच द्वन्द्व चल रहा था। अचानक पूजा चिल्लायी-

‘‘ड्राइवर ! भैया, प्लीज यहीं रोक दीजिए, मुझे पिछले स्टाॅप पर उतरना था, भूल से आगे निकल आयी !’’

‘‘तुम तो हमेशा अगले स्टाॅप पर उतरती हो ! गुरुजी की बेटी हो न, जो डी. एन. में पढ़ाते हैं ? परिचालक ने कहा ।

‘‘हाँ, वहीं उतरती हूँ, इसीलिए आज मुझे याद नहीं रहा था । लेकिन आज मुझे यहाँ कुछ काम है । प्लीज भैया, रोक दीजिए !’’

‘‘रोक रहा हूँ, जरा गाड़ी को सड़क के किनारे तो लगा दूँ ।’’ ड्राइवर ने गाड़ी को रोकते हुए कहा ।

बस रुकते ही पूजा नीचे उतर आयी । रणवीर अपनी बाइक सड़क-किनारे खड़ी करके उस समय तक बस के पास आ गया था और आते ही पूजा का हाथ पकड कर बोला -

‘‘आओ बेबी, मैं तुम्हें अपनी गाड़ी से घर छोड़ देता हूँ !’’

‘‘देखो, मैं तुम्हारी बाइक पर बैठने के लिए नहीं उतरी हूँ ! मैं तुमसे कुछ बातें करना चाहती हूँ !’’

‘‘हाँ, तो करो न बात ! मैं भी तो यही चाहता हूँ कि तुम मुझसे बातें करो ! मैं तुमसे मित्रता भी इसीलिए करना चाहता हूँ ! मेरे प्रेमपूर्ण हृदय की भी एकमात्र माँग यही है कि तुम मेरे साथ मधुर-मधुर वार्तालाप करो ; प्रेमालाप करो !’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ प्रेम-प्रलाप करना नहीं चाहती हूँ ! मैं तुमसे पीछा छुड़ाना चाहती हूँ !’’ पूजा ने बहुत ही आर्तस्वर में कहा ।

‘‘पूजा रानी ! तुम भली-भाँति जानती हो कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ ! तुम यह भी जानती हो कि मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोडूँगा !’’ रणवीर ने उसी चिरपरिचित धृष्टता से कहा और मुस्कराते हुए निर्निमेष पूजा की आँखों में देखने लगा ।

रणवीर की मुद्रा देखकर पूजा किंकर्तव्यविमूढ़-सी हो गयी । एक क्षणोपरान्त वह अपनी विवशता पर अधीर होकर फफक-फफककर रोने लग-

‘‘आखिर मैंने आपका क्या बिगाड़ा है ? क्यों आप मुझे बदनाम करने के लिए मेरे पीछे पड़े हैं ? मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, मुझे बक्श दीजिए । प्लीज ! प्लीज ! प्लीज !!!... आप नहीं जानते, आपकी यह नादानी मुझे और मेरे परिवार को किस गर्त में ले जाकर पटक देगी ! मेरा काॅलिज, यहाँ तक कि मेरी पढ़ाई भी छूट जाएगी,... और मेरे परिवार का मान-सम्मान, सब मिट्टी में मिल जाएगा !’’ कहते-कहते पूजा का गला रुँध गया ; हिचकियाँ बँध गयीं और वह दोनों हाथ जोड़कर विलाप करने लगी -

"प्ली.. इ.. इ.. ज ! मे... रा.... पी... छा ... छोड़ ... दो ! मैं तुम्हारा... यह... उपकार कभी नहीं भूलूँगी !’’

पूजा के आर्त-रूदन सेे रणवीर की मुद्रा में थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ । उसने गंभीरता का भाव-प्रदर्शन करते हुए विनम्रतापूर्वक कहा -

‘‘पूजा ! मैं तुम्हें रुलाना नहीं चाहता था । मेरा उद्देश्य तुम्हें कष्ट देना नहीं है ! मैं सचमुच तुमसे प्रेम करता हूँ ! यदि मैं तुम्हें बदनाम करना चाहता, तो बहुत पहले ही कर चुका होता ! दो वर्ष तक तुम्हारी स्वीकृति की प्रतीक्षा नहीं करता !’’ कहते-कहते रणवीर ने पूजा के दोनों हाथों को अपने दोनों हाथों में थाम लिया और पुनः अपने प्रेम का विश्वास दिलाने के लिए मधुर शैली में कहने लगा -

‘‘पूजा ! रोओ मत ! देखो, मैं ऐसा-वैसा आवारा लड़का नहीं हूँ, जैसा तुम मुझे समझती हो ! मैं उन लड़कों में से नहीं हूँ, जो लड़कियों को छेड़ते फिरते हैं ! मैं तुम्हारे पीछे इसलिये पड़ा हूँ, क्योंकि मैं अपनी बिरादरी की एक ऐसी लड़की के साथ विवाह करना चाहता हूँ, जो मेरी माँ के लिए अच्छी बहू और मेरे लिए अच्छी पत्नी सिद्ध हो सके ! दो वर्ष पहले जब मैंने तुम्हें देखा था, मैंने तुममें अपनी उस चाहत को पाया और फिर तुम्हारे लिए मेरी चाहत बढ़ती ही गयी । मुझे लगता है कि तुम मुझे लेकर कुछ अधिक आशंकित और भयभीत हो गयी हो ! जाओ, तुम निश्चिन्त होकर घर चली जाओ, मैं तुम्हारे साथ चलकर अब तुम्हें कष्ट नहीं दूँगा !’’ रणवीर ने अपने शब्दों से पूजा को आश्वस्त करते हुए उसके दोनों हाथ छोड़ दिये और मुस्कुराते हुए पुनः पूजा की ओर इस मुद्रा में देखने लगा जैसे कह रहा हो कि आज तो छोड़ दिया है, कल नहीं छोड़ेंगे ।

रणवीर से परोक्षतः आश्वासन पाकर पूजा प्रकृतिस्थ हो गयी थी । कुछ ही क्षणोपरान्त दूसरी बस आ गयी और पूजा उसमें चढ़ गई । पूजा ने अब पीछे मुड़कर नहीं देखा । उसको अगले स्टाॅप पर ही उतरना था, इसलिए बैठने की आवश्यकता न थी ।

अपनी कॉलोनी के बस-स्टाॅप पर उतरने के पश्चात् अपने घर पहुँचने के लिए पूजा को लगभग पाँच-छः सौ मीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती थी । उस दिन से पहले सदैव ही बस से उतरकर वह अति शीघ्र घर पहुँचना चाहती थी, किन्तु उस दिन वह बस से उतरकर कुछ दूर तक चली, पिफर एक वृक्ष के चारों ओर बने हुए चबूतरे पर बैठ गयी । वहाँ बैठकर वह उस सारे घटनाक्रम का विश्लेषण करने लगी जो काॅलिज से छूटने के पश्चात! घटित हुआ था ।

वर्तमान घटना का विश्लेषण करने के क्रम में उसे वह घटना भी याद हो आयी, जो उस समय घटी थी जब वह बारहवीं में पढ़ती थी । उस समय छः-सात किशोरवयः लड़कों का एक समूह प्रतिदिन स्कूल के बाहर खड़ा होकर मुँह से सीटी बजाकर, परस्पर अश्लील वार्तालाप करके और फिल्मी गीतों के कुछ भद्दे अंश गाकर छात्राओं को छेड़ता था । उसके बाद उन आवारा लड़कों का वह समूह लडकियों के साथ ही बस में चढ़ जाता था और स्कूल की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करके वे उन्हें सब लड़के परेशान करते थे ।

एक दिन दुर्भाग्यवश पूजा उसी बस में चढ़ गयी, जिस बस में आवारा किस्म के वेे छात्र थे । बस में चढ़ते ही उन लड़कों ने पूजा को अपनी शरारतों का लक्ष्य बना लिया । तभी पीछे से एक लड़का, जो अपने वेश से किसी स्कूल का छात्रा दिखता था, निकलकर आया । आते ही उसने उन शरारती छात्रों में से दो को जोरदार थप्पड़ जड़ दिया और चेतावनी देते हुए कहा -

‘‘भविष्य में कभी इस लड़की की ओर अपनी कुत्सित दृष्टि डाली, तो एक-एक की आँखें फोड़ दूँगा ।... और फिर किसी लड़की को तो क्या, किसी के भी दर्शन नहीं कर पाओगे !’’ चूँकि शरारती तत्त्व प्रायः कायर होते हैं, इसलिए वे सभी चुपचाप एक तरफ खड़े हो गये । उनमें से एक लड़के ने मात्र इतना कहा -

‘‘छोड़ो यार ! इसकी बहन होगी या गर्ल-फ्रैंड होगी । इससे उलझना ठीक नहीं है !’’

पूजा अपने भगवान का धन्यवाद कर रही थी कि उसी प्रभु की कृपा से इस देवदूत ने प्रकट होकर आज बचा लिया, वरना न जाने क्या हो जाता । तभी उस देवदूत ने पूजा के पास आकर कहा था -

‘‘पूजा ! आज के पश्चात् तुम्हारी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा ! तुम निश्चिन्त होकर स्कूल आती रहना !’’

पूजा उसकी ओर आश्चर्य से निर्निमेष देख रही थी । वह सोच रही थी-

"यह लड़का कौन है ? जिसे मेरा नाम ज्ञात है और सही समय पर आकर मेरी रक्षा की है !"

पूजा को इस प्रकार देखते हुए पाकर उस लड़के ने कहा -

‘‘मुझे इस प्रकार देखने की कोई आवश्यकता नहीं है । मेरा नाम अविनाश है । मैं तुम्हारे घर के पीछे वाली गली में रहता हूँ । तुम मुझे नहीं जानती हो, परन्तु मैं तुम्हें और तुम्हारे सारे परिवार को भली-भाँति जानता हूँ । प्रायः तुम्हारे पापा हमारे घर आते रहते हैं ।... और हाँ, आज की इस दुर्घटना को घर मत बताना, व्यर्थ में ही घर वाले चिन्तित हो जाएँगें ।’’

उस घटना के पश्चात् प्रतिदिन पूजा जब बस स्टाॅप पर पहुँचती थी, अविनाश उसको वहाँ खड़ा मिलता था और पूजा के साथ ही बस में चढ़ता था । इसी प्रकार स्कूल से छूटने के पश्चात् वह बस स्टाॅप पर पूजा की प्रतीक्षा करता था और पूजा के साथ ही बस में आता-जाता था । यद्यपि पूजा और अविनाश पूरे वर्ष बस में साथ-साथ जाते-आते थे, परन्तु कभी भी अविनाश ने पूजा के निकट आने का प्रयास नहीं किया । उसने कभी पूजा से बातें करने अथवा सामान्य कुशल-क्षेम पूछने की भी आवश्यकता नहीं समझी । फिर भी जब बस में अविनाश उसके साथ होता था, वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव करती थी । जब किसी दिन अविनाश विद्यालय से अनुपस्थित होता था और परिणामस्वरूप बस में पूजा के साथ भी नहीं होता था, उस दिन वह पूरे रास्ते बस में भय और आशंका से परेशान रहती थी । बारहवीं की परीक्षा समाप्त होने के पश्चात् पूजा को कभी कहीं अविनाश दिखाई नहीं दिया । बी. ए. में प्रवेश लेने के उपरान्त बस में बैठकर प्रायः उसकी आँखें अविनाश को ढूँढने का असफल प्रयत्न किया करती थी । धीरे-धीरे पूजा ने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि अविनाश पढ़ाई करने के लिए शहर से बाहर कहीं चला गया है ।

दो-ढाई वर्ष का समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् अचानक पूजा के मन-मस्तिष्क में अविनाश की स्मृति ताजा हो आयी, क्योंकि उसके जीवन में पुनः उसी प्रकार की अथवा उससे भी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गयी थी, जैसी ढाई वर्ष पूर्व हुई थी। अनायास ही वह अविनाश और रणवीर में तुलना करने लगी-

‘‘कितना अन्तर है दोनों में !’’

वृक्ष के चारों ओर बने चबूतरे पर बैठकर अतीत और वर्तमान परिस्थिति के विषय में सोचते-सोचते पर्याप्त समय हो गया था । पूजा की परिचित एक स्त्री, जो उतने समय में किसी कार्य हेतु वहाँ से होकर दो बार निकल चुकी थी, बोली -

‘‘पूजा, बेटा क्या बात है ? इतने समय से यहाँ अकेली क्यों बैठी हो ? किसी की प्रतीक्षा कर रही हो क्या ?

‘‘नहीं आंटी, चलते हुए मेरा पैर मुड़ गया था, इसलिए सोचा कि बैठकर कुछ देर आराम कर लूँगी, तो ठीक हो जाएगा ! अब ठीक है, मैं जाती हूँ ! नमस्ते आंटी !’’

घर पहुँचकर पूजा ने अन्य सभी सामान्य दिनों की तरह भोजन किया ! अपनी मम्मी के साथ बातें की और घर के कार्यों में उन्हें सहयोग दिया । वह नहीं चाहती थी कि घर में किसी को काॅलिज से घर तक के रास्ते की घटना का पता चले, इसलिए वह अपने सभी क्रिया-कलाप तथा हाव-भाव सामान्य बनाये रखना चाहती थी । वास्तव में वह अत्यन्त तनावग्रस्त थी और उसके अन्तः में विचारों का द्वन्द्व अपने चरम पर था । उसी अन्तर्द्वन्द्व की दशा में उसने निर्णय लिया कि वह काॅलिज छोड़ देगी ; घर से बाहर निकलना बन्द कर देगी । परन्तु, ऐसा करने में उसके समक्ष एक समस्या थी - अपने मम्मी-पापा को काॅलिज नहीं जाने का क्या कारण बतायेगी ?

कुछ समय तक सोचने के बाद पूजा ने इस समस्या का समाधन भी खोज लिया । उसने निश्चय किया कि वह पापा को बतायेगी -

‘‘पापा, आजकल काॅलिज के बाहर और सिटी बसों में कुछ लड़के काॅलिज की लड़कियोें को बहुत परेशान करते हैं ! आप जानते हैं ना, नेहा के साथ क्या हुआ था ? दो-तीन दिन पहले एक और लड़की के साथ ऐसा ही कुछ हुआ, और उसको भी विवश होकर काॅलिज छोड़ना पड़ा ! मैं नहीं चाहती हूँ कि बदनाम होने के पश्चात् काॅलिज छोडूँ ! इसलिए मैं अब घर पर रहकर परीक्षा की तैयारी करना चाहती हूँ ! इस बीच यदि कभी आवश्यकता हुई तो मैं काॅलिज चली जाया करूँगी !’’

अपनी बी.ए. की परीक्षा होने के समय तक की रूपरेखा बनाकर पूजा निश्चिंत हो गयी । अब उसका तनाव कम हो गया था और वह राहत का अनुभव करती हुई पूर्णतः प्रकृतिस्थ हो गयी थी । अपने पापा को अपनी योजना से सहमत करने के लिए उसने भूमिका बनानी आरम्भ कर दी, जिसका पहला चरण काॅलिज के बाहर का और घर से काॅलिज तक के रास्ते का यथार्थ शब्द-चित्र मम्मी के समक्ष प्रस्तुत करना था, जिसमें लड़कियों की सुरक्षा और उनकी अस्मिता भगवान के भरोसे रहती है ।

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