आघात - 6 Dr kavita Tyagi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

आघात - 6

आघात

डॉ. कविता त्यागी

6

घर में पूजा के विवाह की तैयारियाँ चल रही थी । विवाह के थोड़े ही दिन अब शेष बचे थे । कार्य बहुत अधिक थे और समय बहुत कम, इसलिए सभी लोग कार्य करने में व्यस्त थे । विवाह की निर्धारित तिथि से आठ दिन पहले अचानक रमा को ज्ञात हुआ कि चमेली बुआ अपने भाई से मिलने के लिए गाँव में आई हुई हैं । चमेली वृधँधावस्था को प्राप्त कर चुकी कौशिकजी के गाँव की एक लड़की थी, जिसकी ससुराल रणवीर के गाँव में थी । अतः चमेली को पूजा के विवाह समारोह में सम्मिलित करने के लिए रमा ने अपने बेटे यश को भेजकर मेरठ बुलवा लिया ।

चमेली बुआ घर आयी, तो रमा बहुत प्रसन्न हुई । आज बहुत समय के पश्चात् रमा उनसे मिली थी । वैवाहिक कार्यों की व्यस्तता होने के बावजूद रमा ने बुआ से पर्याप्त समय तक बातचीत की और अन्त में कहा -

‘‘बुआ जी, पूजा पर आपका जितना स्नेह बचपन में था, आगे भी इतना ही रखना ! मैं इस बात से बहुत प्रसन्न हूँ कि ससुराल में पूजा की कुशल-क्षेम जानने के लिए आप उसके पास रहेंगी ! आपसे बातें करके मेरी चिन्ता कम हो गयी है !’’

पूजा के लिए रमा की चिन्ता स्वाभाविक थी । परन्तु, उसकी कुशल-क्षेम के लिए चमेली से अपेक्षाएँ रखना कितना उचित है ? वह इस अपेक्षा को पूरा कर सकती है अथवा नहीं ? यह सोचकर रमा शान्त-सी हो गयी । चमेली भी यह अनुभव करके चिन्ता के गहरे समुद्र में डूबने-उतराने लगी कि पूजा गाँव के रिश्ते से उसके भाई की पुत्री है । उसकी ससुराल के गाँव में ब्याहकर जा रही है, ऐसी स्थिति में रमा का उससे पूजा का ध्यान रखने की आशा करना स्वाभाविक ही है ! पूजा की कुशल-क्षेम का ध्यान उसे रखना भी चाहिए ! परन्तु कैसे ? क्या यह सम्भव होगा ?

चमेली बुआ को चुप देखकर रमा के मनःमस्तिष्क पर नाना शंकाओं के बादल मंडराने लगे । अपनी शंकाओं से व्याकुल होकर रमा ने अपने ही विचारों में खोई हुई चमेली बुआ को झिंझोडते हुए उनकी चुप्पी का कारण जानने का आग्रह किया । बुआ अब यथार्थ-जगत की यथार्थ-स्थिति का अनुभव करके बोली -

‘‘अब मैं क्या कर सकती हूँ, रमा ! सगाई करने से पहले तो चमन ने मुझसे बात नहीं की ! अरी, वह तो मुझसे मिलने भी नहीं गया !’’

‘‘बुआ जी, तब के लिए मैं उनकी ओर से क्षमा माँगती हूँ !’’

‘‘अब क्षमा माँगने से कुछ नहीं होगा ! रमा, अब बहुत देर हो गयी है !’’

‘‘पर बुआ जी हुआ क्या है ?’’

‘‘कुछ नहीं हुआ है !... कुछ हुआ भी हो, तो अब न तुझे पूछना चाहिए और न मेरा बताना ठीक है !’’

‘‘बुआ जी, कुछ तो बताओ ! आखिर ऐसी क्या बात है ? जिसे आप बताना उचित नहीं समझती और जिसने आपको विचलित कर दिया !’’

‘‘जो बात है, समय आने पर तुम सबको स्वयं उसका पता चल जाएगा ! बस, अब.मैं और कोई बात नहीं करना चाहती हूँ !’’ इतना कहकर चमेली बुआ उठ खड़ी हुई और विदा लेकर शीघ्र ही वापिस चली गयी ।

चमेली बुआ, जिनको रमा अपनी बेटी के वैवाहिक समारोह में सम्मिलित करने के लिए उत्सुक थी, कुछ ही घंटो में वापिस चली गयी । इस घटना से अपनी बेटी के भावी जीवन को लेकर रमा की चिन्ता इतनी बढ़ गयी कि उसकी रातों की नींद उड़ गयी । अब विवाह के किसी कार्य में उनका चित्त नहीं रमता था । अपनी इस चिन्ता को रमा ने कौशिक जी के समक्ष प्रकट किया । परन्तु, जैसाकि उसका अनुमान था, कौशिक जी से उसको कोई सन्तोषजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली । कौशिक जी ने अति सीमित शब्दों में उत्तर देकर कहा -

‘‘रणवीर एक सप्ताह में हमारा दामाद बन जाएगा ! उसके विषय में तुम्हारा छिद्रान्वेषण उचित नहीं है ! इसलिए अच्छा यही रहेगा कि तुम अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखो !... दोष किसमें नहीं होता ? थोड़ा-बहुत दोष सभी में होता है !’’ कौशिक जी अपनी पत्नी रमा को विवाह के कार्यों में व्यस्त रहने की सलाह देकर अपने कार्य में व्यस्त हो गये ।

कौशिक जी का उपेक्षा-भाव रमा के लिए कोई नई बात न थी । अपने सम्पूर्ण वैवाहिक-जीवन में हर कदम पर ऋ हर विषय पर उसको पति की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा था । परन्तु आज उसकी बेटी के जीवन-साथी का प्रश्न था, इसलिए वह शान्त होकर नहीं बैठ सकती थी । चिन्ता के भँवर में फँसी हुई रमा अब वैवाहिक कार्यों में यन्त्रावत् अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही थी । उसके अन्तः से उत्साह समाप्त हो चुका था । उत्साह का स्थान इस ऊहापोह ने ले लिया था कि वह क्या करे ? क्या न करे ? एक ओर वह विवाह-कार्य में कोई विघ्न नहीं डालना चाहती थी, तो दूसरी ओर वह रणवीर के साथ पूजा को परिणय-सूत्र में बाँधने के विषय में सोचते ही अनेक अशुभ कल्पनाओं के घेरे में घिर जाती थी । विचारों के इसी अन्तर्द्वन्द्व में फँसी हुई रमा ने निश्चय किया कि वह गाँव में जाकर पुनः चमेली बुआ से मिलेगी और रणवीर के विषय में विस्तृत तथा वास्तविक जानकारी प्राप्त करेगी ।

रमा भावात्मक रूप से अत्यन्त विचलित थी, इसलिए बाजार का बहाना करके उसी दिन वह घर से गाँव के लिए चल पड़ी थी। बस में बैठकर वह बार-बार सोच रही थी कि यदि उसका पति इतना लापरवाह न होता और एक बार पुनः अपने निर्णय के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करके रणवीर के विषय में विस्तारपूर्वक विश्वसनीय सूत्रों से वास्तविकता ज्ञात कर लेता, तो आज विवाह के कार्यों को छोड़कर उसको गाँव में नहीं जाना पड़ता । इसी प्रकार के अनेक विचारों में तल्लीन रमा को पता भी न चला कि बस में बैठे हुए उसे कितना समय बीत चुका है ? जबकि वह नियत स्थान अपने गाँव पहुँच चुकी थी ।

कंडक्टर गाँव का नाम लेकर बस-स्टैंड की आवाज दे रहा था । गाँव का नाम सुनकर अचानक रमा की विचार- श्रंखला टूटी, तो वह चैंककर अपनी सीट से उठी । शीघ्रतापूर्वक वह बस से उतरी और तेज-तेज कदमों से चमेली के भाई के निवास-स्थान की ओर बढ़ी । चमेली बुआ से बातें करके शीघ्रातिशीघ्र घर वापिस लौटने की चिन्ता में उसके पैर उल्टे-सीधे पड़ रहे थे । लम्बा घूँघट डाले हुए जब रमा चमेली के भाई सम्पत के द्वार पर पहुँची, सबसे पहले उसे चमेली की भाभी के दर्शन हुए । वह रमा की स्वर्गीय सास की सखी भी थी, अतः परिचय की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी । रमा ने उनके चरण स्पर्श किये और उनके साथ घर के अन्दर चली गयी । घर के अन्दर सम्पत की पुत्र-वधुओं के साथ रमा का औपचारिक परिचय हुआ । तत्पश्चात् पानी-चाय का उपक्रम तथा कुछ अन्य औपचारिक बातें हुई । उस समय रमा का शरीर तथा वाणी सम्पत के परिवार के साथ था, किन्तु उसका मन अपने लक्ष्य पर था । यही नहीं, उस समय वहाँ किये जाने वाले सभी औपचारिक उपक्रम उसके मानसिक कष्ट का कारण बन रहे थे ।

चाय-नाश्ते के बाद कुछ समय बातें करते हुए बीत गया, जिससे रमा का अन्तःकरण विचलित हो रहा था । उसने घड़ी देखते हुए अपने बैग से निमन्त्रण पत्र निकालकर चमेली की भाभी की ओर बढ़ाते हुए कहा -

‘‘चाची जी, पूजा के विवाह में शामिल होने के लिए आपको मेरे साथ आज ही चलना है ! आप तो जानती ही हैं, मुझे विवाह-सम्बन्धी कर्मकाण्डों का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है । ऐसी परिस्थिति में अनुभवी महिला का घर में होना आवश्यक है । मैं चाहती हूँ कि आप और बुआ जी इस कमी को पूरा करके मुझे अनुगृहीत करें !... मेरा विनम्र निवेदन है कि बहुओं और बच्चों को भी विवाह में अवश्य आएँ ।’’

‘‘रमा ! मैं तो आज तुम्हारे साथ नहीं चल पाऊँगी ! तुम चमेली को अपने साथ लेकर जा सकती हो, यदि वह प्रसन्नता से जाना चाहे !... हाँ, मैं इतना कह सकती हूँ कि पूजा बिटिया के विवाह में आशीर्वाद देने के लिए अवश्य आऊँगी ! परन्तु, बहुओं के विषय में और बच्चों के विषय में मैं कुछ नहीं कह सकती ! आजकल के बच्चे अपने बड़ों की सुनते-मानते कहाँ हैं ? हमारे समय की बात कुछ और थी !’’

परिवार के सभी लोगों को आमन्त्रित करके रमा ने चमेली बुआ जी से बातचीत आरम्भ की । साथ चलने का आग्रह बुआजी ने भी अस्वीकार कर दिया और विवाह के दिन ही आने का आश्वासन देकर रमा के मर्म को टटोला । चमेली बुआ को आयु की परिपक्वता के साथ-साथ स्त्रियों की समय-समय पर होने वाली मनोदशा का अच्छा ज्ञान और अनुभव प्राप्त हो चुका था । वे रमा के चेहरे पर उभरने वाले हाव-भाव से उसकी बेचैनी को भाँप गयी थी और उसके कारण का अनुमान भी कर चुकी थी । अतः वे रमा के कुछ कहे बिना ही बोली -

‘‘रमा बहू, तेरे हृदय की चिन्ता को मैं समझ सकती हूँ ! आज तेरे यहाँ आने के पीछे भी मैं तेरी बेटी के लिए तेरी चिन्ता देख रही हूँ ! बेटी के भविष्य की चिन्ता ही तुझे यहाँ खींचकर ले आयी है ! तू मुझसे रणवीर की वास्तविकता जानना चाहती है, इसलिए मुझे और भाभी को लिवाने के बहाने यहाँ आयी है ! परन्तु, रमा, अब इतनी देरी हो चुकी है कि... ! मैं केवल इतना कह सकती हूँ कि रणवीर पूजा के लायक नहीं है, परन्तु मैं यह भी जानती हूँ कि चमन अपने निर्णय से कभी न लौटेगा ! यही उचित भी है । रिश्ता यदि एक बार टूट जाता है, तो दोबारा जुड़ना कठिन हो जाता है ! शहर में एक बार जुड़ भी जाता है, गाँव में तो यह सब बहुत ही कठिन है ! एक बार रिश्ता टूटते ही लड़की में सौ दोष हो जाते हैं !’’

चमेली बुआ की बातों ने रमा का आगे का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था ; निराश भी किया था तथा बेटी के प्रति चिन्ता में वृद्धि भी की थी । किन्तु, अब रमा के समक्ष चुपचाप बेटी का विवाह रणवीर के साथ करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था ।

ज्यों-ज्यों विवाह का दिन निकट आता जा रहा था, त्यों-त्यों रमा की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी । वह अपनी व्याकुलता न तो किसी के समक्ष प्रकट कर सकती थी और न व्याकुलता का कारण किसी को बता सकती थी । बेटी के विवाह का निर्धारित दिन आ गया था । लेकिन, रमा के मन में बेटी के विवाह को लेकर लेशमात्र भी उत्साह नहीं था । पास-पड़ोस की स्त्रियाँ रमा को उदास देखकर उसे समझाने का प्रयास करती थी ; सांत्वना देती थी -

‘‘माँ की आत्मा ऐसी ही होती है !... पर बेटी-धन को अपने घर भी तो नहीं रखा जा सकता ! ईश्वर ने स्त्री को बनाया ही ऐसा है ! जिस घर में खेलती-कूदती है ; बडी होती है, बड़ी होकर एक दिन उसी घर से विदा होकर ससुराल चली जाती है । पहले खुद अपने माता-पिता से दूर चली जाती है और फिर अपनी कोख से जन्म देकर जिस बेटी को पाल-पोषकर बड़ा करती है, उसको अपनी आँचल-छाँव से दूर भेजना पड़ता है !’’

तभी दूसरी महिला बोली-

‘‘अरी, इसमें इतना दुःख मनाने की बात नहीं है ! यह तो समाज की रीति है । थोड़े ही दिन नैहर की याद सताती है ! जब अपना घर बस जाता है, तब बेटी को माँ-बाप बुलाते हैं, तो उसको उनके पास जाने का अवकाश भी नहीं मिलता ! तुम सब अपने आप को ही देख लो, कितना समय मिलता है तुम्हें अपने नैहर जाने का ?’’

उसके तुरन्त पश्चात तीसरी स्त्राी ने हँसकर वातावरण को हल्का बनाते हुए कहा -

‘‘ठीक ही कह रही है पुष्पा ! अपना घर तो रमा को इतना प्यारा है कि एक दिन तो क्या, एक-दो घंटे का समय भी नहीं निकाल पाती है घर-गृहस्थी से ! बेटी का घर बसने जा रहा है, तो इसके होठों की हँसी गायब हो गयी है !’’

उन स्त्रियों की बातें सुनकर रमा सोचने लगी -

‘‘समाज की व्यवस्था को मैं भी समझती हूँ ! बेटी की माँ होना और एक दिन उसको ससुराल के लिए विदा करने की विवशता का अनुभव ही मुझे कष्ट देता, तो वह सामान्य बात थी ! परन्तु, मैं तो जानते-बूझते अपनी बेटी को नरक में धकेल रही हूँ ! ये बेचारी जानती नहीं हैं कि मेरे मन-मस्तिष्क को बेचैन करने वाली कौन-सी बात हर पल काँटे की तरह मेरे हृदय में चुभ रही है ?’’ सोचते-सोचते अचानक अपने विचारों से जागती-सी रमा बोली -

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है ! मैं प्रसन्न हूँ !’’... और तभी बाहर से एक स्त्री ने आते हुआ कहा -

‘‘पूजा की मम्मी ! बारात तो आ गयी है ! बस, अब फेरे पड़ेंगे, तो कन्यादान करके कुछ खायेंगे-पीयेंगे ! क्यों पूजा की मम्मी ! आपको भूख नहीं लगी ? मुझे तो व्रत-उपवास का अभ्यास नहीं है, इसलिए भूख से प्राण निकल रहे हैं ।’’

स्त्रियों का एक समूह, जो ध्यानपूर्वक इस स्त्री की बातें सुन रहा था, उसमें से एक स्त्री बोली -

‘‘व्रत-उपवास तो मन की श्रद्धा होती है ! जब मन से व्रत रखा जाता है, तब भूख से प्राण नहीं निकलते हैं ! ... वैसे भी बेटी के विवाह में माँ का उपवास रखना जरूरी होता है, तुम्हें उपवास रखने की जरूरत नहीं थी !’’

उपवास रखने वाली उस स्त्री ने कोई उत्तर देना आवश्यक नहीं समझा और मुँह बिचकाकर दूसरी ओर चली गयी । स्त्रियों के उस समूह में पुनः, किसी दूसरी स्त्री के विषय में चर्चा चलने लगी थी, जैसेकि उनका काम अपने समाज की प्रत्येक स्त्री पर टीका-टिप्पणी करना ही था, और वे सब अपने कार्य को बड़ी लगनपूर्वक कर रही थी ।

घर के मुख्य द्वार पर वरमाला का आयोजन किया गया था । वरमाला के पश्चात् फेरों का कार्यक्रम था । कार्यक्रमानुसार जब दूल्हन की वेशभूषा में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सजी-सँवरी पूजा दूल्हे को वरमाला पहनाने लगी, तब उसके पैरों तले से धरती खिसक गयी । रणवीर को देखते ही उसकी ऊपर की साँस ऊपर तथा नीचे की साँस नीचे रह गयी । उसके माथे पर पसीने की बूँदे छलक आयीं और वरमाला पहनाने के लिए ऊपर उठे हुए उसके हाथ वापिस नीचे की ओर लटक गये । वहाँ उपस्थित स्त्री-पुरुषों में से कोई भी यह नहीं समझ पा रहा था कि पूजा को अचानक क्या हो गया है ?

अभी तक पूजा अपनी सखियों से घिरी हुई थी । उसकी ऐसी हालत देखकर सखियों में व्याकुलता बढ़ने लगी । कोई सखी उदास हो गयी, तो कोई हँसकर वातावरण की बोझिलता को कम करने का प्रयास कर रही थी । पूजा की बुआ चित्रा, जो अभी तक अन्य वैवाहिक कार्यों में व्यस्त थी, उसे भनक पड़ी, तो वह दौड़कर घटना-स्थल की ओर दौड़ी आयी । वहाँ आते ही चित्रा ने पूजा की सखियों को थोड़ा-सा एक ओर हटाकर पूजा को बाँहों में भरकर कहा -

‘‘पूजा, घबराते नहीं गुड़िया ! अभी तो तू अपने घर में है ! अभी से इतनी नर्वस होगी, तो आगे कैसे चलेगा ? ससुराल में भी लड़की को ऐसा ही परिवार मिलता है, जैसा नैहर में ! पति के रूप में वहाँ जीवन-साथी होता है ! माता-पिता, भाई-बहन जीवन-भर साथ नहीं निभा सकते ! चल, हाथ ऊपर उठाकर वरमाला दूल्हे को पहना दे !’’ इसके पश्चात् पूजा के कानों में पफुसपफुसाकर बोली -

‘‘अपने अधिकारों के लिए शेरनी बनकर जंग लड़नी पड़ती है ! ससुराल में इस तरह कमजोर बनकर रहेगी, तो साँस लेना भी कठिन हो जाएगा ! सब तेरे सिर पर तांडव करेंगे, पति भी और उसका सारा परिवार भी ! समझी बच्ची !’’

अपनी बुआ की बातें सुनकर पूजा कुछ प्रकृतिस्थ हुई । वह बुआ की ओर देखने लगी, जैसे कह रही हो कि वह अनिर्णय के भँवर में फँसी हुई है और इस भँवर से निकलने के लिए उसे बुआ की सहायता की आवश्यकता है । पूजा की हालत देखकर चित्रा बुआ ने पुनः कहा -

‘‘पूजा, गुड़िया, घबड़ा मत, मैं तेरे साथ हूँ !’’

पूजा ने रणवीर को वरमाला पहना दी । चित्रा और पूजा की सखियाँ पूजा को पुनः घर के अन्दर लेकर आ गयीं और रणवीर तथा उसके अन्य साथी आकर मण्डप में कर बैठ गये । पंडित जी ने मन्त्रोच्चारण आरम्भ कर दिये । कुछ समय पश्चात् पूजा को मण्डप में बुलाया गया और कुछेक घंटो के मन्त्रोच्चारण तथा अग्नि देवता की परिक्रमा के साथ वर-वधू की प्रतिज्ञा के पश्चात् पूजा और रणवीर जन्मजन्मान्तर के लिए परिणय-सूत्र में बँध गये ।

भारतीय संस्कृति की परम्परा के अनुसार वर-वधू के परिणय की पावन बेला प्रातः पाँच बजे तक चलती रही । तत्पश्चात् विदाई का उपक्रम आरम्भ हो गया । विदाई की अनेक रस्मों का निर्वाह करते हुए जब पूजा की विदाई हो गयी, तब पूजा की माँ रमा पशफूट-फूटकर रोयी । बेटी की विदाई सभी को रुला देती है, किन्तु रमा का रोना असामान्य था । कौशिक जी भली-भाँति जानते थे, रमा की इस असामान्य रुलाई का क्या कारण है ? परन्तु वे इस कारण को प्रकट करके उसे विस्तार नहीं देना चाहते थे ।

चित्रा अपनी भाभी रमा को फूट-फूटकर रोते देखकर यह अनुमान लगा चुकी थी कि केवल पूजा का वियोग उनके कष्ट का कारण नहीं है । वह इस बात का भी आभास कर रही थी कि उसकी भाभी के रोने का कारण उसके भाई को ज्ञात है । उसने बार-बार रमा को चुप कराने का प्रयास किया । अपने प्रयास में विफल होने पर उनके दारुण कष्ट के कारण को जानने की इच्छा भी चित्रा में बलवती हो चली थी । अतः वह रमा को सहानुभूतिपूर्वक पकड़कर अन्दर एकान्त कमरे में ले गयी ।

रमा ने चित्रा को अपनी बेटी पूजा के समान पाला-पोषा था । चूँकि रमा के विवाह के समय चित्रा मात्र आठ वर्ष की थी, इसलिए चित्रा भी रमा को माँ का-सा सम्मान देती थी और अपना प्रत्येक सुख-दुख उसके साथ बाँटती थी । दोनों में प्रेम और विश्वास माँ-बेटी का-सा तथा व्यवहार सखियों जैसा था । कमरे में आकर रमा चित्रा के सीने से लगकर फफक पड़ी- ‘‘चित्रा, मेरी... पूजा... !’’

‘‘भाभी, मुझे बताइये ! क्या बात है ? क्यों आपको पूजा की इतनी चिन्ता हो रही है कि आपके आँसू ही नहीं रुक रहे हैं ?... मैं जानती हूँ कि कोई बात अवश्य है, जिसे आपने हम-सबसे छिपाया है !’’

‘‘हाँ, एक बात ऐसी है, जो मैंने तुमसे छिपायी है ! पर क्या बात है, मुझे भी नहीं पता !’’

‘‘आपका मतलब क्या है ? भाभी ! एक ओर आप किसी बात से इतनी परेशान है कि आपके आँसू नहीं रुक पा रहे हैं, दूसरी ओर, आप यह नहीं जानती कि आप किस बात से परेशान हैं ? तब क्या मैं यह समझ लूँ कि बेटी का वियोग आपको सहन नहीं हो पा रहा है और उसी वियोग में आपके आँसू नहीं रुक पा रहे हैं !... पर मैं जानती हूँ कि यह सच नहीं है !’’

‘‘हाँ, तुम सही कह रही हो ! मेरे ये आँसू बेटी के वियोग के नहीं हैं ! इससे कुछ अधिक कष्टकारक बात है, जो मुझे रुला रही है !’’

‘‘क्या ?’’

‘‘चित्रा ! तुम्हारे भैया ने पूजा का रणवीर के साथ विवाह निश्चित करने से पहले उसके विषय में कुछ जानने का प्रयास नहीं किया था और विवाह निश्चित कर दिया था ! रणवीर हमारी पूजा के योग्य लड़का नहीं है । यदि तुम्हारे भैया ने पहले ही उसके घर-बार और उसके चरित्र के बारे में जानकारी जुटायी होती, तो आज मेरी बच्ची को उस नरक में न जाना पड़ता !’’

‘‘आप यह कैसे कह सकती हैं कि रणवीर पूजा के योग्य लड़का नहीं

है ? या उसका घर-बार ठीक नहीं है ?’’ चित्रा ने रमा की बात को निस्सार घोषित करने की मुद्रा में कहा ।

‘‘तुम्हारे गाँव की लड़की, जो वहाँ तीस वर्ष पहले ब्याही गयी थी, रणवीर के बारें में हर बात जानती है । उसी ने मुझे बताया कि रणवीर का चाल-चलन ठीक नहीं है ! मैंने उनसे और बहुत कुछ भी जानना चाहा था, पर कुछ बताने से उन्होंने मना कर दिया । शायद कुछ बताकर वह रणवीर की कोई बुराई नहीं लेना चाहती थी ।’’

‘‘हमारे गाँव की कौन-सी लड़की है, जो रणवीर के विषय में हर बात जानती है ?’’

‘‘चमेली बुआ है न, सम्पत चाचा की बहन । रणवीर से सम्बन्ध पक्का से पहले ये चमेली बुआ से मिल लेते, तो वह रणवीर के बारे में एक-एक जानकारी दे देती ।’’ रमा ने माथे पर हाथ रखकर पछिताने की मुद्रा में कहा ।

‘‘भाभी, किसी के कहने-सुनने से कुछ नहीं होता ! होता वही है, जो राम रचि राखा ! पूजा के भाग्य में जो होगा, उसे कोई नहीं मिटा सकता ! अपनी पूजा सावित्री है ! अपने भाग्य को सँवारने की सामर्थ्य है उसके कर्मों में ! देखना, दो दिन बाद कैसी खिलखिलाती हुई आयेगी हमारी पूजा ! तब आपकी सारी शंकाओं का समाधन हो जाएगा !’’

चित्रा की बातों से रमा की चिन्ता कुछ कम हो गयी थी । फिर भी, बेटी का वियोग तो था ही । जिस बेटी को जन्म दिया ; बीस वर्ष तक पालन-पोषण करके गुड़ियों की तरह सहेज कर रखा था, उसे इतनी सरलता से भुलाया तो नहीं जा सकता था। अतः उसकी सुखकामना करते हुए अपने आँसुओं पर नियंत्रण करके घर के कार्यो में व्यस्तता का उपक्रम करते हुए बोली -

‘‘ठीक है, मेरी माँ, अब चलो ! इतना काम फैला पड़ा है, इसे करने में मेरा हाथ बँटा दो, तो जल्दी यह सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा !’’

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com