आघात
डॉ. कविता त्यागी
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चमन कौशिक डी.एन. इन्टर काॅलिज में अध्यापक थे । उनकी आयु लगभग छप्पन वर्ष की थी । छल-कपट और द्वेष-भाव से दूर वे भ्रष्टाचार के युग में इमानदारी के प्रतिनिध् िथे । धरती पर इमानदारी और सात्विक-वृत्तियों का अस्तित्व मिटने न देने के प्रयास के योगदान में वे अपने जीवन में धन का संचय नहीं कर पाये थे, इसलिए अपने परिचितों और सम्बन्धियों में से कुछ की दृष्टि में वे मूर्ख थे, कुछ की दृष्टि में सीधे तथा भोले-भाले । परन्तु अपनी दृष्टि में कौशिक जी एक कर्तव्यपरायण व्यक्ति थे और जो व्यक्ति उन्हें मूर्ख समझते थे, कौशिक जी की दृष्टि में वे महामूर्ख थे । वे अपने बच्चों से कहा करते थे -
‘‘स्वर्ग और नरक किसी दूसरे लोक में नहीं हैं, बल्कि इसी लोक में ; इसी धरती पर हैं । हर प्राणी के कर्मों का फल इसी जीवन में मिल जाता है, इसलिए व्यक्ति को कर्तव्यपालन करते हुए सदैव सद्कर्म में प्रवृत्त रहना चाहिए ।’’
अपने परिवार और समाज के प्रति कर्तव्य-पालन के साथ ही वाक् संयम कौशिक जी की जीवनचर्या का अभिन्न अंग था । खाने-पीने के विषय में भी जिह्वा पर चिरकालिक नियन्त्राण था और वे कठोर परिश्रमी भी थे । इतने अधिक गुणों के धनी कौशिक जी के सभी मित्र थे, परन्तु एक कमी थी - वे कभी धन का संचय नहीं कर सके थे ।
कौशिक जी का सेवा-निवृत्ति काल निकट आ रहा था । सेवा-निवृत्त होने से पहले वे अपनी दोनों बेटियों - पूजा और प्रेरणा का विवाह सम्पन्न कर देना चाहते थे । वैसे उनकी तीन सन्तानों में बेटा - यश सबसे बड़ा था । बेटे को पढ़ा-लिखाकर साॅफ्टवेयर इंजीनियर बना दिया था । उसके विवाह की चिन्ता कौशिक जी को नहीं थी । अब उन्हें केवल बेटियों के विवाह का कर्तव्य-भार भारी अनुभव हो रहा था । इस भार से वे शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति पाना चाहते थे । जिस प्रकार प्रत्येक पिता अपनी सुयोग्य पुत्राी के लिये सुयोग्य-सम्पन्न वर की तलाश करता है, वैसे ही कौशिक जी भी कर रहे थे । परन्तु धन संचय न करने की प्रवृत्ति उनकी सुयोग्य पुत्री हेतु सुयोग्य-सम्पन्न वर के चुनाव में बहुत बड़ी बाधा बनकर उपस्थित हो रही थी । जहाँ भी कौशिकजी वर की तलाश में जाते थे, वहाँ उनकी सादगी और शालीनता को देखकर वर-पक्ष के मुखिया अनुमान लगा लेते थे कि कौशिक जी से उन्हें अपने पुत्रा की अभीष्ट कीमत न मिल सकेगी । अतः वे विवाह न करने का कोई न कोई बहाना करके कौशिक जी से क्षमा याचना कर लेते और बेचारे कौशिक जी उन्हें क्षमा करके निराश होकर घर लौट आते थे । इस प्रकार की स्थिति का सामना वे पिछले दो वर्ष से कर रहे थे ।
कौशिक जी धन-संग्रह न करने की अपनी प्रवृत्ति का दुष्प्रभाव अपनी बेटियों के विवाह पर न पड़ने देना चाहते थे । वे चाहते थे कि कितना भी धन व्यय करना पड़े, किन्तु बेटियों को सुयोग्य वर तथा सम्पन्न घर मिले, ताकि विवाहोपरान्त वे सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें । अपनी इस समस्या के समाधन-स्वरूप कौशिक जी ने निश्चय किया कि वे गाँव की उस कृषि-भूमि का थोड़ा-सा भाग बेचकर, जो उन्हें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई थी, धन का प्रबन्ध करेंगे और बेटी का विवाह धूमधाम से करेंगे । कौशिक जी की पत्नी रमा अपने पति के इस विचार से सहमत नहीं थी । परन्तु, कौशिक जी ने एक बार जो निर्णय कर लिया, उससे पलटना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था । रमा ने उन्हें लाखों-हजारों बार समझाया -
‘‘जो सम्पत्ति तुम्हें अपने पूर्वजो से मिली है, उसे बेचने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है ! बड़े बनते हो कर्तव्यों का पालन करने वाले ! क्या तुम्हारा यह कर्तव्य नहीं बनता है कि पूर्वजों से मिली हुई सम्पत्ति को अगली पीढ़ी - अपने पुत्र को हस्तान्तरित कर दो ! बेटी को दहेज देना है, तो अपनी कमाई से दो !... ये बेटियाँ आज पैदा नहीं हुई हैं । तुमने समय रहते सोचा होता ; इनके विवाह की चिन्ता की होती, तो पैदा होने के समय से अब तक इतना धन इकट्ठा कर सकते थे कि दोनों बेटियों को अच्छा घर-वर मिल जाता !’’
कौशिक जी को पत्नी का आरोप प्रिय न लग सकता था, क्योंकि पत्नी ने उनकी प्रकृति पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था । अतः उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए आकाट्य तर्क प्रस्तुत किया -
‘‘देखो रमा ! हमारी और हमारे पूर्वजों की सम्पत्ति हमारे लिये है ; हमारे बच्चों के भविष्य के लिए है, न कि हम और हमारे बच्चे इस सम्पत्ति के लिए हैं ! इसलिए जिसमें हमारे बच्चों के अच्छे भविष्य की सम्भावना है, मेरी दृष्टि में वही उचित है ! अब प्रश्न पूर्वजों की सम्पत्ति का है, तो मेरे पूर्वजों से ही मैंने अपनी प्रकृति को पाया है ! मेरे पूर्वजों की आत्मा किस कार्य से प्रसन्न होंगी, किससे अप्रसन्न, यह मैं तुमसे बेहतर जानता हूँ ! उनकी आत्मा इस बात से कष्ट का अनुभव करती कि मैं - उनका वंशज करणीय-अकरणीय का विचार किये बिना अर्थहीन अर्थ का संग्रह करने में अपनी निर्मल आत्मा को मलिन करता ! इस बात से उन्हें प्रसन्नता होगी कि मैं अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग उनकी वंशजा के अच्छे भविष्य के लिये कर रहा हूँ !... और रही बात, सम्पत्ति को बेटे को हस्तान्तरित करने की, हमारे बुजुर्ग कह गये हैं - पूत कपूत का धन संचय, पूत सपूत का धन संचय !’’ कहकर कौशिक जी पत्नी की ओर धीरेे से हँस दिये ।
रमा जानती थी, उसके पति ने एक बार जो निश्चय कर लिया, उसको सही सिद्ध करने के लिए वे तब तक अपने पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते रहेंगे, जब तक परिवार में उनके निर्णय के विरोध की आवाजें बन्द न हो जाएँ ! अतः रमा ने अपनी चिर-परिचित मुद्रा में कहा -
‘‘जो करना है, करो ! मैं अच्छी तरह जानती हूँ, तुम अपने मन की ही करोगे ! मेरी बात कभी सुनी-मानी है आपने, जो आज सुनोगे और मानोगे !’’
रमा के इस प्रकार के वक्तव्य को सदैव ही कौशिक जी पत्नी की परोक्ष सहमति के रूप में ग्रहण कर लेते थे और विजय का अनुभव करते हुए मन-ही-मन कह उठते थे -
‘‘आखिर मिल ही गयी पत्नी की सहमति ! भला मिलती भी कैसे ना ! आखिर निर्णय किसका था !... और पत्नी किसकी है ! चमन कौशिक कोई ऐसा-वैसा व्यक्ति थोड़े ही है, जिसकी पत्नी सिर पर चढ़कर रहे ; पति की किसी बात का उल्लंघन करके पति का अनादर करे !’’
अन्त में कौशिक जी के निर्णय को सभी की सहमति प्राप्त हो गयी । अथवा यह भी कह सकते है कि कौशिक जी ने सभी को अपने निर्णय से सहमत मान लिया और सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कराने वाले पेशेवर मध्यस्थों से सम्पर्क स्थापित करके इस दिशा में अपना प्रथम कदम उठा दिया । दूसरी ओर उन्होंने पिछले दो वर्ष पहले आरम्भ किया हुआ वर की तलाश का अभियान और तेज कर दिया था । अब तक अपने इस अभियान में कौशिक जी प्रायः निराश होकर ही लौटते थे । उन्हें अपनी बेटी के लिए मनचाहा वर नहीं मिल पा रहा था । वे एक सुशिक्षित, हष्टपुष्ट, लम्बा-तगड़ा और कुलीन घर का लड़का तलाश कर रहे थे, किन्तु सर्वगुण-सम्पन्न वर मिलना बहुत कठिन था । जितने वर उन्होंने देखे थे, उनमें शेष सभी गुणों के होते हुए भी एक-दो गुणों का अभाव रह ही जाता था । किसी की लम्बाई कम तो किसी की मोटाई इतनी अधिक होती कि कौशिक जी को वह वर की अयोग्यता और एक भारी अवगुण दिखाई देने लगता था । कोई धन-सम्पन्न होता था, तो शिक्षा से उसका दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं होता, और कोई शिक्षित वर मिलता तो वह या तो बेरोजगार और निर्धन होता या रोजगार सम्पन्नता की स्थिति में इतना लालची होता था कि कौशिक जी स्पष्ट शब्दों में कह देते थे कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे लोभी के घर में कदापि न करेंगे, जो वधू से अधिक धन को महत्त्व देते हैं।
एक दिन कौशिकजी शाम को घर वापिस लौटे, तो वे अत्यन्त प्रसन्न थे । संयोगवश यह वही दिन था, जिस दिन उनकी बेटी पूजा ने काॅलिज नहीं जाने का निर्णय लिया था । अपने पापा को प्रसन्नचित्त देखकर पूजा ने अपना निर्णय और उसका कारण बताने के लिए यह अवसर अनुकूल अनुभव किया । जैसाकि पूजा ने अनुमान किया था, कौशिकजी ने उसके निर्णय को अपना समर्थन देकर उसको निश्चिंत कर दिया । उस समय कौशिक जी अपनी प्रसन्नता के विषय को अपनी पत्नी रमा को बताने के लिए आतुर हो रहे थे, इसलिए रमा को पुकारकर अपने पास बुलाया और दिन का घटनाक्रम सुनाना आरम्भ किया -
‘‘रमा ! आज सुबह विद्यालय जाते समय रास्ते में मेरी भेंट अपने बचपन के मित्र से हुई । बातचीत करते-करते मैंने उससे पूजा के लिए वर की चर्चा की, तो उसने बताया कि उसके दामाद का चचेरा भाई पूजा के लिए उपयुक्त रहेगा । मैंने अपना अध्यापन स्थगित करके तुरन्त उसके साथ जाने का कार्यक्रम बना डाला । देखो भई, मुझे तो वह लड़का ठीक लगा ! अब जैसा तुम्हें ठीक लगे, वैसा बता देना !’’
कौशिक जी की बात सुनकर उनकी पत्नी रमा की जिज्ञासा में वृद्धि हो रही थी । परन्तु, चूँकि बात आधी-अधूरी गोल-मोल करके कही गयी थी, इसलिए जिज्ञासा के साथ ही साथ उनकी क्रोधयुक्त झुँझलाहट भी बढ़ रही थी । क्रोध की मुद्रा में झुँझलाते हुए रमा ने कहा-
‘‘मुझे ठीक-गलत लगने के लिए आपने कुछ बताया है उस लड़के के विषय में, जिसे तुम देखकर आ रहे हो ? घर कैसा है ? लड़का कैसा है और क्या करता है ? देखने में कैसा है ? लम्बा है ? नाटा है ? मोटा है? पतला है ? कुछ भी बताने की आवश्यकता अनुभव की आपने ? पर कैसे बताते ! क्यों बताते ! कभी बताया है, जो आज बताते !....लेकिन एक बात ध्यान रखना ! पूजा हमारी बेटी है ! आपका उचित निर्णय उसको जीवन-भर प्रसन्न रख सकता है ; उसको सुखी-जीवन का आधर दे सकता है, तो आपका अनुचित निर्णय आजीवन दुःखों की दलदल में धँसा देगा मेरी भोली-भाली बेटी को ।’’
पत्नी की झुँझलाहट का आनन्द लेते हुए कौशिक जी ने मुस्कुराते हुए कहा -
‘‘सुबह से अब घर में आया हूँ, अभी तक पानी के लिए भी नहीं पूछा है तुमने ! मुफ्त में ही इतनी महत्त्वपूर्ण बातें जानना चाहती हो ?"
"जब तुम्हें कुछ बताना ही नहीं था, तो मुझे क्यों बुलाया था ? हँ... !’’
"बताएँगे, सबकुछ बताएँगे ! परन्तु, पहले कुछ खिलाओ-पिलाओ, सेवा सत्कार करो ! खा-पीकर थकान कुछ कम हो जायेगी, तो शेष बातें भी बता देंगें । इतनी उतावली क्यों हो रही हो ?’’
कौशिक जी की बातों से रमा का क्रोध कम न होकर और अधिक बढ़ गया -
‘‘उतावली मैं नहीं, तुम हो रहे थे ! तुम्हीं को इतनी जल्दी थी, अपनी बात बताने के लिए कि मुझे चाय-नाश्ता लाने के लिए रसोई में नहीं जाने दिया । बच्चों की तरह प्रसन्नता से उछलते हुए मुझे यहाँ बुला लिया । ऐसे लग रहा था कि बहुत बड़ा खजाना मिल गया है !" कहकर रमा नाक-भौं सिकोड़ती हुई चली गयी और रसोईघर में जाकर काम में व्यस्त हो गयी । कौशिक जी हाथ-मुँह धोने के लिए बाथरूम की ओर चले गये ।
कौशिक जी जानते थे कि उन्होंने अपने व्यवहार से पत्नी रमा को अप्रसन्न कर दिया है, परन्तु उन्हें इसका कोई खेद न था । उनके जीवन में यह कोई नई बात न थी । कुछ ही समय के पश्चात् बाथरूम से निकलकर वे रसोईघर की ओर बढ़े और रसोई के अन्दर झाँककर बोले -
‘‘कुछ बना क्या खाने-पीने के लिए ? मैं अपने कमरे में जा रहा हूँ, वहीं लेकर आ जाओ ! वहीं पर आराम से बैठ कर बातें करेंगे !’’ कहते हुए कौशिक जी अपने कमरे की ओर चल दिये । चलते-चलते उन्हें कुछ स्मरण हुआ और वे पुनः रसोईघर की ओर मुड़ गये । रसोईघर के दरवाजे के पास खड़े होकर बोले-
‘‘और हाँ, क्रोध के आवेश में चाय लेकर पूजा या प्रेरणा को मत भेज देना ! इस लड़के के विषय में विचार-विमर्श करना है ! अभी इसी समय ! फिर कहोगी कि मुझे तो कोई पूछता ही नहीं है ! रामनाथ, अरे वही, मेरा बचपन का मित्र, जिसने यह लड़का दिखाया है, कह रहा था कि सोमवार में ही रिश्ता पक्का कर देंगे, ताकि लड़का हाथ से न निकल जाए ! मंगलवार में हमारी तरह ही कोई दूसरा व्यक्ति भी वर की तलाश में इस लड़के को देखने के लिए आने वाला है ! वह अपनी बेटी के मामा को भी अपने साथ लेकर आ रहा है । यदि मामा की भी समझ में लड़का भर गया, तो वे लोग उसी दिन रिश्ता पक्का कर जाएँगे ।’’ अपनी बात समाप्त करके रमा की ओर से किसी उत्तर की अपेक्षा किये बिना कौशिक जी वापिस उसी कमरे की ओर चल दिये ।
चाय-नाश्ता तैयार हो चुका था । कौशिक जी के वक्तव्य से रमा ने अनुभव किया कि इस समय क्रोध-प्रदर्शन से अधिक महत्त्वपूर्ण उस लड़के के विषय में जानना है, जिसे कौशिक जी ने पूजा के वर के रूप में लगभग-लगभग स्वीकार कर ही लिया है । अतः रमा चाय-नाश्ता लेकर कौशिक के पीछे-पीछे उनके कमरें में चली गयी । रमा के पहुँचते ही कौशिक जी ने उस लड़के के विषय में परस्पर विचार-विमर्श आरम्भ कर दिया । कौशिक जी ने बताया -
‘‘लड़के के पिता का पाँच वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो चुका है । चार भाई-बहन हैं - दो भाई और दो बहनें । यह लड़का भाई-बहनों में सबसे बड़ा है । घर का सारा भार इसी के कंधों पर है। नोएडा में इसका छोटा-सा व्यापार है, उसी से घर खर्च चलता है । नोएडा के निकट ही गाँव में तीस-पैंतीस बीघा कृषि-भूमि है । उससे भी थोड़ी बहुत आमदनी हो ही जाती है ।... अन्य सम्पत्ति तो बहुत अधिक नहीं है, पर घर-मकान बढ़िया बना हुआ है । मुझे लड़का बड़ा होनहार, जीवन में तरक्की करने वाला लग रहा है । अपना व्यापार भी इसने अपने पिता के स्वर्गवास के पश्चात् अपने बलबूते पर स्वयं खड़ा किया है। शरीर से भी यह लड़का लम्बा, हष्ट-पुष्ट, चौड़े सीने वाला है । बातचीत करने में कुशल, प्रत्युत्पन्नमति और साहसी है । रमा, मुझे तो यह लड़का पूजा के लिए सुयोग्य सूझ रहा है ! अब बस, तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा है ! तुम हाँ कह दो, तो बात आगे बढ़ाएँ और रिश्ता पक्का कर दें !’’
‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या देखकर आप इस लड़के पर लट्टू हो गये हैं ! आपकी तलाश तो इससे कुछ भिन्न थी - लड़का सरकारी नौकरी करता हो, पर्याप्त चल-अचल सम्पत्ति का स्वामी हो ! लेकिन, न तो यह लड़का सरकारी नौकरी करता है, और ना ही इसके पास पर्याप्त चल-अचल सम्पत्ति है । मेरे विचार में तो यहाँ एक नकारात्मक बिन्दु उभर रहा है । ससुराल में जाते ही मेरी बेटी के कंधों पर ननदों-देवरों का भार आ पड़ेगा ! आधा जीवन ननदों-देवरों के काम-काज में बीत जायेगा ! फिर अपने बच्चे हो जाएँगे, तो उनकी चिन्ता हो जाएगी । हमारी बेटी अपना जीवन कब भोगेगी ! जरा सोचिये, ऐसा लड़का, जिसके ऊपर घर की सारी जिम्मेदारियों का भार हों, वह अपनी पत्नी को कितना सुख दे सकता है ?’’
रमा अपना तर्क देते-देते उदास हो गयी । उसकी आँखों में पानी भर आया और पति की ओर ऐसे विनय भाव से देखने लगी, जैसे मातृ-हृदय की पीड़ा में डूबी हुई आँखे कह रही हों कि मेरी नन्हीं-सी बेटी पर इतना अधिक भार डालकर उस पर अत्याचार मत करो ! उसे बख्श दो !
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