आघात
डॉ. कविता त्यागी
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कौशिक जी अपनी पत्नी की मनोदशा को भली-भाँति अनुभव कर रहे थे । वे कुछ क्षणों तक शान्त-गम्भीर मुद्रा में बैठे हुए विचारों की दुनिया में कहीं खो गये । रमा ने उनके कंधे को पकड़कर हिलाया तो अपनी विचार-मग्न स्थिति से बाहर आये और मुस्कुराकर बोले-
‘‘रमा, इस नकारात्मक सोच से शायद तुम अपने जीते-जी मुक्ति नहीं पा सकोगी ! मैं कहता हूँ, सकारात्मक सोचने की आदत डालो ! अब यह सोचो कि तुम्हारी बेटी जाते ही उस घर की मालकिन बन जाएगी ! सही कर रहा हूँ न मैं ?’’
‘‘आप न सही सोच रहे हैं और न सही कर रहे है ! जिस लड़के के सिर पर बाप का साया नहीं है ; घर का सारा भार उसके कंधों पर है, ऐसी स्थिति में वह पत्नी के लिए कुछ अच्छा कैसे और कब कर सकेगा ? यदि उसने करने का प्रयास भी किया तो माँ, बहनों और भाई की उपेक्षा का आरोप उस पर लगेगा, और इसका दोष मेरी बेटी पर मढ़ दिया जाएगा !’’
पत्नी का तर्क सुनकर कौशिक जी पुनः विचारलीन हो गये । उनकी मुद्रा बता रही थी कि वह पत्नी की बातों से असहमत होने का प्रयास कर रहे थे । इसके विपरीत उनका मन-मस्तिष्क पत्नी के विचारों का समर्थन कर रहा था। वे अनुभव करने लगे थे कि पूजा को रणवीर की पत्नी के रूप में अत्यधिक त्याग-तपस्या का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा, क्योंकि पिता की अनुपस्थिति में अपनी बहनों, भाइयों और माँ के प्रति रणवीर के कर्तव्यों में वृद्धि हो गयी है और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए उसे पूजा की उपेक्षा करनी ही पडेगी, ताकि उसका परिवार आश्वस्त हो सके कि विवाह करके रणवीर में कोई बदलाव नहीं आया है और वह अपने परिवार का अभी भी उसी प्रकार ध्यान रखता है, जैसे विवाह से पहले रखता था ।
पूजा के वर के रूप में रणवीर की सुयोग्यता को लेकर कौशिक जी का अन्तर्द्वन्द्व बढ़ता जा रहा था । रणवीर को अयोग्य स्वीकार करने तथा पूजा का विवाह उसके साथ अस्वीकार करने में कौशिक जी के समक्ष एक और समस्या थी, जो उनको निरन्तर व्यथित कर रही थी । वे अपने मित्र रामनाथ से कह चुके थे कि रिश्ता हमारी ओर से पक्का ही समझो ! सोमवार को लड़के की गोद में शगुन का रुपया रख देंगे और सगाई के लिए विवाह के निकट का कोई दिन निश्चित कर लेंगे, तभी दान-दहेज का लेन-देन भी हो जाएगा । अब कौशिक जी को यह चिन्ता सता रही थी कि वह अपने वचन से कैसे लौट सकते हैं ? अपने आज तक के जीवन में उन्होंने अपने प्राणों से अधिक महत्त्व अपने वचनों को दिया था । लेकिन, आज बात अपने प्राणों की नहीं, बेटी के प्राणों की थी । बेटी के प्राणों पर या बेटी के लिये घर-वर का चुनाव करने का अधिकार जितना उनका था, उतना ही वे उसकी माँ अर्थात् अपनी पत्नी का भी मानते थे । अब उनको उस समस्या के भँवर से निकलने का एक ही उपाय सूझ रहा था । वह उपाय था, पत्नी को अपनी बेटी पूजा का विवाह रणवीर के साथ करने के लिए सहमत करना । यह कार्य हठपूर्वक नहीं किया जा सकता था, बल्कि इसके अभीप्सित परिणाम के लिए कौशिक जी को पर्याप्त धैर्य और विनम्रता से अपने पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हुए पत्नी को समझाने की आवश्यकता थी । अतः कौशिक जी धैर्य धरण करके परिवार के सभी सदस्यों को एक-एक करके अपने निर्णय से सन्तुष्ट करने में जुट गये ।
चूँकि कौशिक जी के परिवार के सभी सदस्य भली-भाँति जानते थे कि एक बार निर्णय लेने के बाद उसको बदलना कौशिक जी की प्रकृति नहीं है । इसके विपरीत उस निर्णय की कार्य-रूप में परिणति के लिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं और परिवार के अन्य लोगों का समर्थन वे केवल पारिवारिक क्लेश से बचने के लिए जुटाते हैं, इसलिए परिवार के प्रत्येक व्यक्ति ने रणवीर के विषय में सकारात्मक सोचना आरम्भ कर दिया । शीघ्र ही सोमवार का दिन आ गया और रमा ने रणवीर के साथ पूजा का विवाह करने की कौशिक जी को अनमने से सहमति दे दी ।
उस दिन कौशिक जी सीना तानकर अपने मित्र रामनाथ से मिले । बातों ही बातों में उन्होंने कई बार अपने मित्र को बताया कि परिवार में उनका निर्णय वेद-वाक्य की भाँति माना जाता है । कोई विरोध करने की कल्पना भी नहीं करता, इसीलिए यह रिश्ता सम्भव हो पाया है ।
रामनाथ के बार-बार पूछने पर कि क्या रणवीर और पूजा के विवाह के सम्बन्ध में, परिवार के सब लोग सहमत नहीं हैं ? कौशिक जी ने मात्रा इतना ही कहा -
‘‘हाँ, रमा के मन-मस्तिष्क में रणवीर को लेकर पूजा के भावी जीवन से सम्बन्धित कुछ शंकाएँ उठ रहीं हैं ! परन्तु, मुझे विश्वास है कि उनकी सभी शंकाएँ निराधर हैं और शीघ्र ही वे उन शंकाओं से मुक्ति पा लेंगी !"
कौशिक जी की पत्नी के मनःमस्तिष्क में रणवीर को लेकर कुछ शंकाएँ उठ रही हैं, यह सुनते ही रामनाथ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी । कौशिक जी ने उसकी मनोदशा पर ध्यान न देकर पुनः कहना आरम्भ किया -
"देखो रामनाथ, मैं पूजा का विवाह रणवीर के साथ करने के लिए केवल इसलिए तैयार हूँ, क्योंकि रणवीर तुम्हारा रिश्तेदार है और तुम मेरे बचपन के मित्र हो ! मेरा अपना विचार है, बेटी का विवाह सदैव अपनी पुरानी जान-पहचान वालों में करना उचित रहता है ! वहाँ धोखे की सम्भावना नगण्य रहती है । अब रणवीर न सही, तुम तो अपनी पुरानी पहचान वाले हो ही !’’
कौशिक जी का समर्थन करते हुए रामनाथ जी ने अपना मत प्रस्तुत किया-
‘‘कौशिक जी ! स्त्री तो अपनी प्रकृति से ही शंकालु होती है । दूसरे, जब बात उसकी बेटी के जीवन-साथी का चुनाव करने की होती है, तो एक माँ का चिन्ता करना अस्वाभाविक भी नहीं है !... आप ईश्वर पर विश्वास रखिये ! बेटी अपना भाग्य ऊपर से लिखवाकर लाती है ! हमारे और आपके करने से कुछ नहीं होता है ! जो विधाता को स्वीकार है, वही होकर रहेगा ! उसी का नाम लेकर शुभ-कार्य का आरम्भ करो, सब कुछ शुभ-शुभ ही होगा !’’
पूर्व निर्धरित समय के अनुसार सोमवार के दिन कौशिक जी और रामनाथ के साथ रणवीर के घर पहुँच गये। कुछ समय तक औपचारिक बातचीत होती रही । तत्पश्चात् मुख्य बिन्दु - विवाह में कितना व्यय करने की क्षमता है ? पर आ गये । कौशिक जी किसी भी बात को घुमा-फिराकर करने वाले व्यक्ति न थे । अतः उन्होंने अपना बजट स्पष्ट बता दिया । कौशिक जी की ऋजुता से प्रखर बुद्धि वाले रणवीर तथा उसकी माँ की आँखों में चमक आ गयी । उनके मस्तिष्क में लालच का विस्तार होने लगा ; दहेज का दानव उनकी आत्मा में प्रवेश करके विकराल रूप धरण करने लगा । रणवीर ने अपनी माँ की आँखों में झाँककर देखा और पाया कि दोनों के मस्तिष्क में समान विषय पर एक समान विचार चल रहे हैं। माँ ने भी रणवीर की आँखों में देखा और दोनों ने क्षण-भर के पारस्परिक संकेत से ही मानो सारा-का-सारा भावी कार्यक्रम तैयार कर लिया । एक क्षण के बाद दोनों एक साथ उठे और रामनाथ जी से मुखातिब होकर बोले -
‘‘यदि कुछ आपत्ति न हो, तो क्या दो मिनट के लिए आप हमारे साथ आ सकते हैं ?’’
‘‘हाँ-हाँ, अवश्य!’’ कहते हुए रामनाथ जी कौशिक जी की ओर दृष्टिक्षेप करते हुए- ‘‘मैं अभी आता हूँ ।’’ कहकर कमरे से बाहर निकल गये ।
रामनाथ जी को कुछ-कुछ अनुमान हो गया था कि कौशिक जी का बजट सुनकर रणवीर और उसकी माता में दहेज का लोभ जाग्रत होकर वृद्धि की प्रक्रिया को प्राप्त हो रहा है । परन्तु, उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि वह लोभ किस सीमा तक बढ़ चुका है।
लगभग एक वर्ष पूर्व रणवीर की माता जी ने रामनाथ जी से बहुत ही विनम्र निवेदन किया था कि रणवीर के पिता की असमय मृत्यु के पश्चात् उसके ताऊजी का और नाते-रिश्तेदारों का ही अवलम्ब है। अतः किसी अच्छे कुल और अपनी धर्म-बिरादरी की सुयोग्य, पढ़ी-लिखी लड़की को देखकर वे रणवीर का विवाह सम्पन्न करवाने का प्रयास करें। उस समय रणवीर की माँ ने कहा था कि उन्हें दहेज की लेशमात्रा भी अभिलाषा नहीं है, केवल लड़की और उसका परिवार ठीक-ठाक होना चाहिए और इसके लिए वे उनकी आजीवन आभारी रहेंगी । लेकिन, आज रामनाथ जी ने अनुभव किया कि परिस्थिति पूर्णतः परिवर्तित है । उन्हें स्मरण हुआ कि कुछ महीने पूर्व जब रणवीर ने कौशिक जी को उनके घर पर बैठे हुए देखा था, तब उसने कौशिक जी और उनके परिवार के विषय में बातचीत करने में बहुत रुचि दिखाई थी । तभी उसने प्रार्थना की थी कि कुछ भी, कैसे भी जुगाड़ करके वे पूजा से उसका विवाह सम्पन्न करा दें । उस समय रणवीर के हृदय में दान-दहेज की नहीं, पूजा का पाणिग्रहण करने की लगन थी । इसीलिए अनुकूल समय पाकर कौशिक जी से इस विषय में बात करने में रामनाथ जी को कोई आपत्ति नहीं हुई थी ।
इन सभी बातों पर विचार करते हुए रामनाथ जी ने रणवीर की माता जी की ओर दृष्टिपात करके कहा -
‘‘क्या बात है बहन जी, कोई शंका है क्या ? यदि कोई शंका है, तो उसका समाधन अभी करना उचित है ! एक बार विवाह सम्पन्न होने के पश्चात् किसी भी शंका का समाधन कठिन हो जाता है । उस समय शंका न करना ही सर्वश्रेष्ठ होता है, वरना सम्बन्धें में कटुता आ जाती है और सम्बन्धें की कड़वाहट जीवन को नर्क बना देती है !’’ कहकर रामनाथ जी ने अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए अपनी दृष्टि रणवीर की माँ पर गड़ा दी । किन्तु वे अपने बेटे रणवीर की ओर इस आशय से देखने लगी कि मेरा उत्तर देना उचित नहीं है, तुम बात को आरम्भ करो । माँ का मूक संकेत पाकर रणवीर ने कहना आरम्भ किया -
‘‘अंकल, हम चाहते थे कि इनका जितना बजट है, उसे ये हमारे ढंग से, हमारी इच्छा-आवश्यकता के अनुसार खर्च करें !... यदि आपको आपत्ति न हो, तो इस विषय पर उनके साथ बैठकर विचार-विमर्श करना श्रेयष्कर होगा ! मेरे विचार से उसी वस्तु पर धन का व्यय उचित होता है, जिसकी हमें इच्छा और आवश्यकता होती है ! ऐसा करके हम भी सन्तुष्ट रहेंगे और ये भी !’’
रणवीर का अपनी बात कहने का ढंग ऐसा था कि रामनाथ जी उसका विरोध नहीं कर सके । उन्होंने जिज्ञासा व्यक्त की कि रणवीर और उसका परिवार कौशिक जी का धन किस प्रकार और किन वस्तुओं पर व्यय कराना चाहता है ? साथ ही कठोर मुद्रा बनाते हुए उन्होंने संकेत दिया कि कौशिक जी को उनके निर्धरित बजट से अधिक व्यय करने के लिए विवश करने की भूल न करें । रणवीर ने उनकी हिदायत को सहज भाव से स्वीकार करते हुए यथोचित शब्दों में उन्हें आश्वस्त किया और खर्च करने का अपना ढंग अथवा दहेज का अभीप्सित सामान अप्रिय न लगने वाले ढंग से क्रमशः बताना आरम्भ किया ।
‘‘अंकल, कौशिक जी मेरे लिए दुपहिया वाहन देना चाहते हैं और कैश भी देने की बात कर रहे थे ! अपनी बेटी को डेलीयूज की वस्तुएँ और कुछ पफर्नीचर आदि भी देंगे ही ! पर मैं टू-व्हीलर का क्या करूँगा ? मेरे पास तो पहले से ही बाइक है और फर्नीचर या अन्य सामान भी घर में पर्याप्त है । इसलिए अच्छा रहेगा कि इन सभी वस्तुओं और नकद राशि की बजाय ये हमें एक चार-पहिया वाहन कार दे दें और बारात का यथोचित स्वागत कर दें, इससे अध्कि हम कुछ नहीं चाहते हैं ! यदि हमारी बात मानने में इन्हें कुछ कठिनाई नहीं होगी, तो हमें बहुत अच्छा लगेगा ! अपने परिचितों-सम्बन्ध्यिों के समक्ष हम भी हीन-भावना का शिकार होने से बच जायेंगे और पूजा भी !’’
रणवीर की बात सुनकर रामनाथ जी असमंजस में पड़ गये । वे निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि मित्रता के धर्म का तन-मन-धन से निर्वाह करने वाले, मित्र के प्रति पूर्ण विश्वस्त, अपनी बात के धनी कौशिक जी के समक्ष रणवीर का प्रस्ताव रखा जाए या नही ? रखा जाए तो किस ढंग से रखा जाए ? कि उनकी भावनाओं और विश्वास को चोट न लगे । अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि सभी बातें कौशिक जी और रणवीर तथा उसकी माँ को आमने-सामने बैठाकर इसी समय स्पष्ट करना उचित है, ताकि भविष्य में इन दोनों सम्बन्धियों में परस्पर मतभेद और कड़वाहट की संभावना न रहे । उन्होंने गम्भीर मुद्रा में रणवीर से कहा -
‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझते हो, वैसा करो ! परन्तु कौशिक जी से तुम स्वयं इस विषय पर विचार-विमर्श करोगे ! मैं इन सब बातों से दूर रहना चाहता हूँ ! वे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए और न करने के लिए स्वतन्त्र हैं ! मैं उनसे किसी बात का आग्रह नहीं करूँगा !’’
रणवीर भी तो यही चाहता था कि वह अपना प्रस्ताव स्वयं कौशिक जी के समक्ष रखे । उसका आत्मविश्वास इतना पुष्ट था कि अपने प्रस्ताव में उसे न तो अनौचित्य का अनुभव हो रहा था, न संकोच का ।
अकल्पनीय आत्मविश्वास से परिपूर्ण रणवीर ने रामनाथ जी की स्वीकृति पाकर अपने विचार कौशिक जी के समक्ष इस युक्ति से प्रस्तुत किये कि उन्होंने बिना किसी प्रतिवाद के रणवीर की सभी बातें सहज स्वीकार कर ली । कौशिक जी ने न केवल रणवीर की तथा उसकी माँ की सभी माँगें स्वीकार कर ली, बल्कि वे उसकी वाक् पटुता से इतने प्रभावित हुए कि आत्मसमर्पण के भाव से उन्होंने कहा -
‘‘बेटे, आज तक मैं पूजा का पिता था, उसकी खुशियों का ख्याल करके मैंने उसके लिए सब कुछ किया है !...आज से मैं तुम्हारे लिए भी पिता-समान हूँ ! इसलिए तुम्हारे विवाह में सब कुछ ऐसे ही होगा, जैसे तुम चाहते हो ! इसके लिए यदि मुझे अपना बजट बढ़ाना भी पड़ा, तो मैं बढाऊँगा !’’
रणवीर और उसकी माँ कौशिक जी का उत्तर सुनकर अत्यन्त प्रसन्न थे, परन्तु रामनाथ जी कुछ विचलित हो गये । उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि रणवीर के समक्ष कौशिक जी का समर्पण-भाव उन्हें प्रिय न लगा था । सामान्य परिस्थितियों में अपने होने वाले दामाद की इस प्रकार की छोटी-मोटी बातें स्वीकार कर लेना कोई असामान्य घटना नहीं होती है । परन्तु, उस समय रामनाथ जी को कौशिक जी का उत्तर ऐसा लगा, जैसे कि नियति उन्हें भविष्य में घटने वाली किसी बड़ी घटना का संकेत देने का प्रयास कर रही है । उन्हें आशंका होने लगी कि जो बात कौशिक जी ने भाव-विह्वलता और त्याग की प्रकृति से वशीभूत होकर कह दी है, उसे शीघ्र ही रणवीर इतना विस्तार न दे दे कि कौशिक जी का बजट बिगड़ जाए और धीरे-धीरे रणवीर की दहेज-लिप्सा इतनी बढ़ जाए कि कौशिक जी की चादर ही छोटी पड़ जाए । यदि ऐसा हुआ तो दोनों पक्षों के सम्बन्ध्... ! और फिर पूजा... ! और फिर कौशिक जी... !
कौशिक जी के समर्पण-भाव-युक्त उत्तर के सम्भावित भविष्य की कल्पना करते ही रामनाथ बेचैन होकर उठ खड़े हुए -
‘‘कौशिक जी, एक मिनट के लिए बाहर तो आइये !’’
कौशिक जी तुरन्त उठे और रामनाथ जी के पीछे-पीछे बाहर की ओर चल दिये । कमरे के बाहर आकर उन्होंने रामनाथ जी की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली, तो देखा, रामनाथ जी के होंठ फड़क रहे हैं । वे बार-बार हाथ से कभी कुछ संकेत करने का प्रयास कर रहे हैं, कभी दोनों हाथों से आवेश में आकर अपना सिर पकड़ लेते हैं । ऐसा लगता था, जैसेकि वे कुछ कहना चाहते हैं, परन्तु अपनी बात कहने के लिए उपयुक्त शब्द उनके पास नहीं हैं ! अथवा वे कुछ कहना तो चाहते हैं, परन्तु उनकी अन्तरात्मा यह निश्चय नहीं कर पा रही है कि वे अपनी भावाभिव्यक्ति करें या न करें ?
डॉ. कविता त्यागी
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