सौंदर्य Seema Jain द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सौंदर्य

दिपाली अपनी मां के सत्तरवें जन्मदिन पर मिलने आई थी। मां उम्र के साथ सिकुड़ती जा रही थी, इतनी बड़ी कुर्सी पर बैठी छोटी सी बच्ची लग रही थी। छोटे-छोटे सफेद बाल, चेहरे और शरीर पर झुर्रियां, एक निश्चल और मासूम सी मुस्कान।दिपाली को मां कभी भी खूबसूरत नहीं लगी थी।ड्रेसिंग टेबल पर एक क्रीम, एक घिसी हुई सी लिपस्टिक, एक पाउडर का डिब्बा और शिल्पा की बिंदी के अलावा कुछ खास नहीं होता था। मंगोड़ी पापड़ बनाने,उधड़ा फटा सिलने और न जाने घर के अनगिनत काम , कभी समय ही नहीं मिलता। बाजार में घूम घूम कर लिपस्टिक के नए शेड ढूंढने का, ब्यूटी पार्लर के चक्कर लगाने का। ना ही शौक था। वह कहती , "मां तुम पार्लर जाकर फेशियल तो करा लिया करो या आई ब्रो ही बनवा लिया करो।" हंसते हुए मां कहती, " क्या जरूरत है ,दो चार बाल ही तो होते हैं।प्लकर से निकाल लेती हूं।" फेशियल के नाम पर दही बेसन से चेहरा रगड़ लिया, हो गया।

लंबे बालों को सुबह नहाकर चोटी बना लेती और दिन भर की छुट्टी। जब सफेद होने लगे तो बस मेहंदी लगानी शुरू कर दी। कोई खास समारोह में जाना हुआ तो डाई लगवा लिया। वह भी पड़ोस की बिमला आंटी से। जब उन्हें जरूरत हुई तो खुद उनके लगा दिया। दिपाली को लगता मां को फैशन के बारे में कुछ नहीं पता। स्कूल की दोस्तों की मम्मी कितना बन ठन कर आती थी। अपने बच्चों को छोड़ने या पैरंट्स टीचर मीटिंग में। वह तो रिक्शे से स्कूल जाती थी और मीटिंग के लिए जब जाना होता था तो उसे बड़ी टेंशन हो जाती। दो दिन पहले मां की अलमारी टटोलती। कौन सी साड़ी पहनकर जाएगी तो उसकी इज्जत को धब्बा नहीं लगेगा।

वह कहती, " मां यह साड़ी, जो राखी पर मामी ने दी थी, वह पहनना पीटीएम में। पर इसका ब्लाउज कहां है?"

मां लापरवाही से कहती, " इससे मिलते जुलते रंग का ब्लाउज था दूसरी साड़ी का। तो मैंने इस साड़ी का सिलवाया ही नहीं।" वह भौंचक्की रह गई, " मां कितना अलग शेड़ है! एक ब्लाउज सिलवाने में इतनी कंजूसी?" मां हंसते हुए कहती, " दीपू यह कंजूसी नहीं है, किफायत है। तेरे पापा कितनी मेहनत करते हैं एक-एक पाई कमाने में। तो मुझे भी तो कुछ ध्यान से खर्च करना चाहिए।" पीटीएम में उसने मां के दोनों कंधों पर से साड़ी के पल्लू को मजाल है जो खिसकने दिया हो। मां का यह किफायत वाला फंडा वह कभी नहीं समझ पाई और मां उसका सौंदर्य प्रसाधन के पीछे का दीवानापन।

"जैसी हो, वैसी रहो। क्या जरूरत है इतनी लीपापोती की।" मां कहती। लेकिन दिपाली के लिए ड्रेस और कॉस्मेटिक जीवन की अनिवार्य वस्तु थीं। मां का क्या? किसी समारोह में जाना होता बस चटक लाल रंग की साड़ी पहनती, हल्का सा पाउडर और लिपस्टिक लगा कर तैयार हो जाती। उसके पिता की तरफ कनखियों से देखती। वे हल्की सी मुस्कुराहट के साथ सिर हिला देते। मां के गाल लाल हो जाते,पूरा मेकअप हो गया।दिपाली शिकायत करती, "मां आई लाइनर,ब्लशर और फाउंडेशन क्यों नहीं खरीद कर लाती हो?" मां हंसते हुए कहती, " तेरे पापा को ऐसे ही अच्छी लगती हूं। फिर क्यों यह सब चीजें लगाऊ?"

वह झुंझला कर कहती, " सुंदर और जवान दिखने के लिए।"

समय को पछाड़ने की इस दौड़ में वह अभी भी लगी हुई है।इतने केमिकल के इस्तेमाल के कारण वह असल में कैसी दिखती है, उसके बालों का असली रंग क्या है, उसे नहीं मालूम।

अब कुछ समय से मां के बारे में उसकी राय बदलती जा रही है। मां ने समय की छाप को चेहरे पर बहुत शालीनता से स्वीकारा। पिता के जाने के बाद भी उनकी तस्वीर देख उनके गाल अभी भी लाल हो जाते हैं। जिंदगी में बहुत मेहनत की, परिस्थितियों ने जैसा रखा, सहर्ष स्वीकार कर खुश रहीं।

दिपाली मां के पास आकर बैठी तो मां ने उसका हाथ पकड़ते हुए शरारत भरी मुस्कुराहट से पूछा, " इतनी देर से क्या देख रही है दीपू? अभी भी शिकायत है क्या, की मेकअप क्यों नहीं करती?" दिपाली ने हल्के से मां का हाथ दबाते हुए कहा, " नहीं मां तुम नैचुरली इतनी खूबसूरत हो, तुम्हें मेकअप की क्या आवश्यकता है?" उसके बच्चों को देख मां की आंखें में चमक, सूखे होठों पर मुस्कान और गालों पर खुशी की लाली छा गई। दिपाली मंत्रमुग्ध हो मां को देख रही थी।