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चौपाल

चौपाल शब्द बीते समय में बहुत मायने रखता था। अब ये महज़ किताबी शब्द बनकर रह गया है। जब कभी कहीं पर कुछ बुजुर्ग लोग बैठे हो जिन्होंने चौपाल पर अपनी जिंदगी के कुछ पल बिताए हो, तब उनके सामने चौपाल को जानने का प्रस्ताव रखिए फिर देखिये इस शब्द की महिमा वो कितनी उत्सुक्तास से करते है। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई अपने प्रेमी के बारे में करता है। कुछ समय बाद वो बुज़ुर्ग लोग भी हमारे बीच नही रहेंगे, जिन्होंने चौपाल वाला जीवन जिया है। फ़िर ये महज़ किताबी शब्द बनकर रह जाएगा और वक्त के चलते अनुपयोगी साबित होकर, कहीं दफन हो जाएगा। मैं यहां चौपाल के बारे में कुछ सुने हुए और कुछ अपने द्वारा देखे और महसूस किए तजुर्बों, किस्सों को बयां करूँगा।
लगभग मेरी उम्र 5 वर्ष रही होगी, हमारे गांव में एक चौपाल थी। उस समय उसके महत्व,ये क्यों है हमें कुछ मालूम नही था, लेकिन शाम होते ही वो हमारे खेलने का स्थान जरूर था। शाम को सभी छोटे छोटे बच्चे एकत्र होकर, "आईपाईस", "जेल भरो" , "कोड़ा है जमालशाही" जैसे खेल खेला करते थे। हम बच्चों के लिए वो जगह पसंदीदा इसलिए थी कि कोई वहां हमें मना नही करता था। कभी कभी दिन में बाज़ीगर, जादूगर अपना खेल दिखाने आया करता तो वो चौपाल वाले स्थान को ही चुनता था। सभी बच्चे, बड़े उन खेलों का लुफ़्त उठाते थे। बचपने में चौपाल स्थान हमारे लिए खेल का पसंदीदा स्थान भर था।
कभी कभी कुछ लोग वहाँ इकट्ठा होते तो बच्चों को वहाँ से अलग खेलने को कहा जाता था। क्यों? ये बात हमें बाद में मालूम हुई। चौपाल पर दिन भर लोगों का दल रहता था, कभी 4 ,कभी 5 तो कभी खूब भीड़ और शाम में बुजुर्गों का एक दल, जो मूढ़ों, चारपाई पर बैठा होता बीच में गुड गुड करती हुक्के की आवाज। वहीं चौपाल पर रास्ते के सहारे बनी दीवार पर बैठे कुछ नौजवान और रस्ते के सहारे खड़े नौजवानों का एक दल रहता। जो आपस में मजाक और वार्तालाप करता था । एक हम बच्चों का दल। ये नज़ारा हुआ करता।
लेकिन जो सबसे मार्मिक और महत्वपूर्ण बात, अब समझ में आती है। चौपाल केवल मनोरंजन भर के लिए कोई विशेष स्थान नही था, अपितु वो तो ग्रामीण सभ्यता को सौहार्दपूर्ण आगे बढ़ाने का केंद्र था। जब शाम में बड़े, बूढ़े, नौजवान आपस में मिलते थे, तो अपने दिन भर के कार्यों की चर्चा करते, किसी को कोई समस्या होती तो सभी के साथ साझा होने पर, गांव के अन्य लोग उसकी सहायता करते। गांव में क्या चल रहा है सब जानकारी चौपाल पर आकर साझा हो जाती। गाँव के आसपास क्या चल रहा है, सब मालूम हो जाता। बुज़ुर्ग लोग अपने अनुभव किस्से कहानियों के माध्यम से साझा करते थे इस प्रकार चौपाल पर संस्कृति, सौहार्द,सहयोग और ज्ञान का मेला हर रोज लगा करता था, गप्पो के ज़रिए दिन भर की थकान भी उसी चौपाल पर एकत्र होकर निकली जाती थी। सबसे महत्वपूर्ण था चौपाल का न्याय केंद्र होना जैसे आज कल कोर्ट कचहरी होते है तो उस समय का कोर्ट कचहरी चौपाल हुआ करती थी। जब कभी गांव में किसी के बीच विवाद होता तो गाँव के पंच(न्याय करने वाले), उसी चौपाल पर बैठते विवादित पक्ष पंचायत को बुलाते तब उसी चौपाल पर न्याय होता था। पंच मिलकर जो भी निर्णय करते वो सभी को मानना पड़ता था। वो सभी निर्णय एकदम न्याय पूर्ण ही होते थे। उन दिनों आज की तरह कोर्ट कचेहरी के चक्कर नही लगाने पड़ते थे, गवाह खरीदे नही जाते थे, वकीलों को धन लुटाना नही पड़ता था। जजों को घुस नही देनी पड़ती थी। आज की तरह तारीख़ पे तारीख़ नही पड़ती थी। सब कुछ एक दो दिन में हो जाया करता था। लेकिन हमने अपनी उस भारतीय गौरवशाली परम्परा, न्याय, संस्कार, सहायता,सामाजिक सद्भावना, के केंद्र चौपाल को स्वयं ही नष्ट कर लिया।
कुछ लोग आज की प्रणाली को सही ठहराते है। यदि पहले से संस्कारों में कमी आयी है, आधुनिक न्याय व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठ रहा है, सामाजिक सद्भाव में कमी आयी है तो निश्चित ही हम गलत है, पूर्व की वो व्यवस्था अद्वितीय थी। हमें उन चौपालों की स्मृतियों को आगे बढ़ाना चाहिए वो केवल इतिहास के रूप में क्यों न हो, हो सकता है कभी समाज आधुनिकता में जब कुछ दम शेष न रहे हो वो कोई प्रभावी युक्ति ढूंढे तो उस समय "चौपाल व्यवस्था" सर्वश्रेष्ठ उपाय लगे।
- राजेश कुमार

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