योगिनी - 19 - अंतिम भाग Mahesh Dewedy द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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योगिनी - 19 - अंतिम भाग

योगिनी

19

तूफ़ान के रुकने पर घनघोर अंधकार छा चुका था. जुगुनू की भांति यत्र-तत्र टिमटिमाते तारे ही पृथ्वी को केवल इतना प्रकाश प्रदान कर रहे थे कि मीरा अपनी परिस्थिति की भयावहता का वास्तविक आकलन कर सके. हिम-सलिला के मार्ग, जिससे वह आई थी, पर वापस जाना मृत्यु को सद्यः आमंत्रण देने के समान था, क्योंकि नई गिरी बर्फ़ उसे कहीं भी हिम-समाहित कर सकती थी. किसी दूसरे मार्ग की खोज और उसकी निरापदता की आश्वस्ति भी सम्भव नहीं प्रतीत हो रही थी.

मीरा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी और समझ नहीं पा रही थी कि इस बर्फ़ के बियाबान में उसे कहां शरण मिल सकती है. किटकिटाती शीत से मीरा का शरीर कांपने लगा था और उसके दांत रहरह कर बज रहे थे - मीरा को आज मृत्यु की निकटता एवं नृशंसता का आभास होने लगा था. आज वह अपनी आगा-पीछा सोचे बिना मनवांछित दिशा में चल देने की प्रवृत्ति पर पश्चात्तप कर रही थी, तथापि उसके मन-प्राण में व्याप्त जिजीविषा उसे किसी भांति बच निकलने की आशा भी प्रदान कर रही थी. इसी जिजीविषा से प्रेरित उसके मस्तिष्क ने उसे उस स्थान पर रुककर निश्चित मृत्यु के वरण की अपेक्षा किसी दिशा में चल देने को बाध्य किया. वह गौर्नरग्राट की दिशा में जाने के बजाय नीचे दक्षिण पश्चिम दिशा में चल दी, क्योंकि उसे वह ज़र्मैट की दिशा प्रतीत हुई, जिधर से वह गौर्नर्ग्राट को आई थी. वह एक एक पग सम्हाल कर रख रही थी, परंतु नई जमी हुई बर्फ़ पर सौ-दो सौ पग ही चली होगी कि दांयें पैर को आगे बढ़ाकर उस पर बल डालते ही टांग बर्फ़ में धंस गई. पीड़ा के कारण उसके मुख से अनायास ’‌‌‍‌‍‌हे ईश्वर’ निकला और वह अपने को सम्हालते-सम्हालते आगे मुंह के बल गिर पड़ी. उसे लगा कि उसका अंतिम समय निकट आ गया है, परंतु दायें पैर का तलवा नीचे लकड़ी जैसी किसी वस्तु पर टिक जाने से मीरा हिम-समाधि में अवस्थित होने से बच गई. कुछ पल तक वह अपने को प्रकृतिस्थ करती रही, तभी उसे लगा कि यदि पैर देर तक बर्फ़ में धंसा रहा तो संग्याशून्य हो जायेगा, और वह दोनों हाथों की सहायता से कुछ ऊपर उठकर अपने दायें पैर को ऊपर उठाने लगी. मर्मांतक पीड़ा से उसके नेत्रों में अश्रु छलकने लगे, परंतु पैर को आड़ा-तिरछा करते रहने के पश्चात वह उसे धीरे धीरे निकालने में सफ़ल हो गई. यह देखकर कि पैर में यहां-वहां खरोंच तो आई थी, परंतु हड्डी नहीं टूटी थी, उसे आंतरिक संतोष का अनुभव हुआ. उसे ध्यान आया कि उसके पैर को बर्फ़ में और अधिक धंसने से रोकने वाली लकड़ी जैसी वस्तु यदि उसे मिल जाये तो बर्फ़ पर चलने में बड़ी उपयोगी रहेगी. यह सोचकर उसने झुककर नीचे बने छिद्र में अपना हाथ डाल दिया और सप्रयत्न उस लकड़ी की छड़ी को निकाल लिया. उस छड़ी को देखकर ऐसा लगा कि सम्भवतः किसी यात्री द्वारा ही वह वहां छोड़ी गई थी. उस समय वह लकड़ी की छड़ी मीरा को ईश्वर-प्रदत्त लगी और उसके मन में आशा का पुनर्संचार हुआ.

उसने उठने का प्रयत्न किया, तो घुटने जकड़े हुए लगे और वह उठ न सकी. अपनी हथेलियों से घुटने सहलाकर और छड़ी को पकड़कर पुनः प्रयत्न करने पर वह किसी प्रकार खड़ी हो गई और मन-मन भर के भारी कदमों से आगे चलने लगी. अपने आगे की बर्फ़ की कठोरता का अनुमान लगाने एवं पर्वत पर नीचे उतरते समय अपने शरीर को संतुलित रखने में उसकी छड़ी सहायक सिद्ध हो रही थी. इस कारण मीरा ने नीचे उतरने की गति कुछ बढा दी, परंतु पर्याप्त चल चुकने के पश्चात भी उसे न तो कोई शरणस्थल दिखाई दिया और न कोई ऐसा चिन्ह जिससे आश्वस्त हो सके कि वह सही दिशा में चल रही है. उसकी शारीरिक क्षमता द्रुतगति से क्षीण होने लगी थी- उसके पांव सुन्न हो रहे थे, और मस्तिष्क वास्तविक एवं अवास्तविक के मध्य अंतर को विश्वस्त रूप से समझने में अक्षम होने लगा था. रोम-रोम में मृत्यु का भय व्याप्त हो रहा था. उसे किसी पहाड़ी पर झोपड़ी जैसी कोई वस्तु दिखाई देती और वह उधर चल देती, परंतु निकट पहुंचने पर वह मात्र भ्रम सिद्ध होता. ऐसे में उसका मनोबल और टूट जाता और यहां से बच निकलने की आशा और क्षीण हो जाती. ऐसे में मीरा को कभी मां की गोद की याद आती, जहां वह भय की स्थिति में अपने को छिपाकर सुरक्षित हो जाती थी, तो कभी पिता की उंगली की याद आती, जिसे पकड़कर वह निश्चिंत हो पर्वत पर चढ़ जाती थी. फिर उस हिमाच्छादित बियाबान में अपनी स्थिति का भान होने पर लगता कि वह ज़ोर-ज़ोर से रोये, परंतु न तो उसके आंसू निकलते और न रोने की कंठध्वनि.

आसन्न मृत्यु से बचने की प्राणेच्छा मात्र ऐसी शक्ति थी जो मीरा के पैर किसी प्रकार आगे बढ़ा रही थी- अन्यथा उसकी शक्ति समाप्तप्राय हो चुकी थी. वह लड़खड़ाने लगी थी और बर्फ़ पर गिरने वाली ही थी कि उसे कुछ दूरी पर एक कोठरी जैसी किसी वस्तु के होने का भान हुआ. उसे लगा कि पूर्व की भांति यह भी कोई भ्रम होगा, परंतु उस दिशा में कुछ दूर आगे बढ़ने पर कोठरी का द्वार भी दिखाई देने लगा. उसे देखकर मीरा के मन में जीवित बच जाने की आशा जागृत हो गई और उसके नेत्रों से प्रसन्नता के अश्रु झरने लगे. वह अपनी पूर्ण शक्ति एकत्र करके द्वार पर पहुंचकर बिना हिचक के द्वार खटखटाने लगी, परंतु न तो दरवाज़ा खुला और न भीतर से कोई आहट हुई. मीरा को एक एक पल भारी पड़ रहा था और उसके अंग अंग शक्तिविहीन हो रहे थे. पश्चिमी परम्परा के अनुसार बिना अनुमति किसी का दरवाज़ा बलपूर्वक खोलना न केवल असभ्यता थी, वरन यह गृहस्वामी द्वारा सशस्त्र आक्रमण का औचित्यपूर्ण कारण भी बन सकता था, तथापि ’मरता क्या न करता’ की स्थिति में होने के कारण मीरा ने दरवाज़े को अंदर की ओर ढकेल दिया. दरवाज़ा स्वतः खुल गया. अंदर पहुंचकर बाहरी ठंड से बचने के लिये मीरा ने बिना हिचके दरवाज़ा बंद कर दिया. अन्दर धुप अंधेरा था और मीरा को पहले तो हुछ भी दिखाई नहीं दिया और न कोई आहट सुनाई दी. कुछ पलों में नेत्रों के अंधकार में अभ्यस्त होने पर उसे कोठरी के फ़र्श पर एक अकड़े हुए युवक का शरीर दिखाई दिया. पहले तो मीरा उसे मृत समझ कर भयभीत हो गई, परंतु फिर अपनी प्रखर तर्कबुद्धि का उपयोग कर उसने सोचा कि हो सकता है वह अभी जीवित हो. वह आगे बढी और ’हलो..हलो’ पुकारने लगी. कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उसने अपना शीत से संग्याशून्य होता हाथ उसकी कलाई पर रख दिया. बहुत टटोलने पर भी नाड़ी में किसी प्रकार का कम्पन न मिला. मीरा ने अपनी दोनों हथेलियों को परस्पर रगड़कर पुनः नाड़ी को पकड़ा परन्तु फिर भी उसको जीवन का कोई आभास नहीं हुआ. तब उसने साहस जुटाकर अपना हाथ उसके ऊपरी वस्त्रों के अंदर डाल दिया एवं उसके हृदय की धड़कन को अनुभव करने का प्रयत्न किया. हृदय भी निस्पन्द था और उसे लगा कि उस अकड़े शरीर में जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं है. फिर भी अन्तिम प्रयत्न करते हुए उसने अपना हाथ उसके वक्ष पर फेरना प्रारम्भ कर दिया. कुछ देर में उसे ऐसा लगा कि उस युवक के वक्ष में कुछ गर्मी आ रही है और साथ ही उसके स्वयं के हाथ में भी रक्त का प्रवाह तेज़ हो रहा है. उसने अपने हाथ से उस युवक के वक्ष को और बलपूर्वक मलना प्रारम्भ कर दिया. कुछ क्षण पश्चात उसे हृदय में धड़कन का भी आभास होने लगा. अपनी उस दयनीय परिस्थिति में भी मीरा के नेत्रों मे प्रसन्नता के अश्रु छलक आये- एक तो अपने द्वारा प्रयत्न करते रहने से उस युवक का जीवन बचा लेने की सम्भावनाजनित प्रसन्नता और दूसरे विपत्ति की उस अवस्था से बच निकलने में एक साथी के मिलने की सम्भावना. मीरा अब बिना किसी हिचकिचाहट के उस युवक के पीछे लेट गई. उसने अपने शरीर के अग्रभाग से उस युवक के शरीर को यथासम्भव अधिक से अधिक ढक लिया. दोनों हाथों को उसके वस्त्रों में डालकर उसके दोनों वक्षों को मलना प्रारम्भ कर दिया. शनैः शनैः उस युवक के हृदय की धड़कन सामान्य होने लगी, परन्तु पर्याप्त प्रयत्न करने के पश्चात भी उसके शरीर के बाहरी अंगों में किसी प्रकार के कम्पन का आभास नहीं हुआ एवं उसके मुख से कोई शब्द नहीं निकला. उस युवक के शरीर के संसर्ग से मीरा के हाथ, वक्ष आदि अग्रभाग के अंगों में भी गर्मी आ रही थी, परंतु अब तक उसके हाथ थककर चूर हो चुके थे और वे और अधिक चल नहीं पा रहे थे. मीरा एक ही करवट लेटे हुए थक भी गई थी. अतः वह उठकर उस युवक के सामने आकर लेट गई और उसने अब उसके अग्रभाग के अंगों से अपना अग्रभाग मिलाकर उसके दाहिने हाथ को अपने बांयें हाथ में लेकर सहलाना प्रारंभ कर दिया. अब मीरा को उस युवक के हृदय की धड़कन की अनुभूति तो अपने वक्ष पर हो रही थी, परंतु देर तक प्रयत्न करने पर भी अन्य किसी अंग में हलचल नहीं हुई. तब मीरा ने अपना मुंह उसके मुंह पर रखकर अपनी श्वांस फुलाकर उसके मुख में डालना प्रारम्भ किया. इस पर भी युवक के किसी अंग में कम्पन नहीं हुआ. मीरा जानती थी कि यदि उस युवक को शीघ्र चेतना न आई, तो इतनी ठन्ड में उसका हृदय पुनः स्पंदनहीन होने लगेगा. अब एक निराशाजनक स्थिति उत्पन्न होने लगी थी, परंतु आसानी से पराजय स्वीकार कर लेना मीरा के स्वभाव में नहीं था. इसके अतिरिक्त पता नहीं परिस्थिति का प्रभाव था अथवा कोई पूर्व-सम्बंध जिसके कारण मीरा के मन में उस युवक से इतने अपनेपन की अनुभूति होने लगी थी कि वह किसी भी दशा में उसे खोने को तैयार नहीं थी. तभी उसे ध्यान आया कि कभी-कभी आकस्मिक पीड़ा देना भी अचेत को चेतन अवस्था में लाने में सहायक हो सकता है. यह विचार आते ही उसने अपने बांयें हाथ के अंगूठे और तर्जनी के नाखूनों को उस युवक के दाहिने हाथ में बलपूर्वक चुभाकर चिकोटी काटी. चिकोटी काटते ही उस युवक के शरीर में विद्युत का झटका सा लगा और न केवल हाथ में कम्पन हुआ, वरन उसके मुख से आह भी निकली. उसकी आह सुनकर मीरा को अपनी व्यथा पूर्णतः विस्मृत हो गई और उसके मुख पर अनायास मुस्कराहट आ गई. तभी उस युवक ने अपने नेत्र खोल दिये और अपनी परिस्थिति का अनुमान लगाने लगा. अपने को मीरा की बांहों में भरा पाकर वह घोर आश्चर्य में पड़ गया एवं उसे लगा कि वह किसी स्वप्नलोक में तो विचरण नहीं कर रहा है. उसे पूर्णतः चेतना की अवस्था में आया पाकर मीरा लजा गई और उससे दूर हटने लगी, परंतु ठंडक इतनी अधिक थी कि जहां-जहां मीरा के अंगों का स्पर्श समाप्त होता, वहां-वहां उस युवक एवं मीरा दोनों के शरीर अंधड़ में पीपल के पत्ते से कांपने लगते. अतः अपनी समस्त शक्ति लगाकर उस युवक ने मीरा को अपनी ओर खींचने का प्रयास किया. यद्यपि उसके प्रयास में पर्याप्त सामर्थ्य नहीं थी, तथापि मीरा स्वयं पुनः उससे और अधिक सटकर लेट गई. रात्रि भर दोनों में कोई एक-दूसरे से कुछ नहीं बोला- बस दोनों के बदन एक दूजे से बातें करते रहे. प्रातःकाल पूर्व दिशा में चमकता हुआ सूरज निकला जिसकी ऊष्मा से उनके तन और मन दोनों जीवंत हो उठे. मीरा उठकर कोठरी से बाहर आई, तो कुछ ही दूरी पर वह तलैया दिखाई दी, जो उसने ज़र्मैट से गौर्नरग्राट जाते हुए रोटेनबोडेन रेल-स्टेशन के निकट देखी थी. उसे देखकर मीरा आश्वस्त हो गई कि रोटेनबोडेन स्टेशन निकट ही है. वह उस युवक को साथ लेकर स्टेशन को चल दी.

आज वही युवक त्रिभुवन अल्मोड़ा जनपद के मानिला मंदिर का स्वामी है और मीरा उसकी स्वामिनी. दोनों योगविद्या एवं भारतीय दर्शन के प्रचार-प्रसार में दिन-रात एक किये रहते है. यदि काम से थक जाने के कारण किसी रात्रि त्रिभुवन जल्दी आलस्य के वशीभूत होने लगता है, तो मीरा उसके हाथ में ज़ोर से चिकोटी काट लेती है.

हेमंत चायवाला ने छठी इंद्रिय से अपने इष्टद्वय को पहिचान लिया है और उनकी गुटुरगूं को लुकछिपकर सुनने हेतु वह पुनः मानिला मंदिर जाने लगा है. उन दोनों के प्रेम-पगे क्रियाकलाप को देखते समय उसके झुर्रियों भरे चेहरे की मुस्कान देखते ही बनती है.

समाप्त