योगिनी
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अगले दिन योगासन की अंतिम क्रियाओं- अग्निसार प्राणायाम, भा्रमरी प्राणायाम, एवं शांतिपाठ- से पूर्व स्वामी जी ने मीता को अपने निकट बुला लिया एवं उससे इन क्रियाओं को कराने को कहा। मीता ने न केवल प्रत्येक क्रिया को उत्कृष्टता से करके दिखाया वरन् स्वामी जी की भांति स्पष्टतः से प्रत्येक क्रिया का वर्णन अपने कोकिलकंठी स्वर में किया। मीता के इस असाधरण कौशल की स्वामी जी ने प्रशंसा की एवं सभी साधक अत्यंत प्रभावित हुए- भुवनचंद्र तो मन ही मन ऐसे गद्गद हो रहा था जैसे उस प्रशंसा का केन्द्र विंदु वही हो। भविष्य में स्वामी जी प्रतिदिन प्रारम्भ के्र आधे आसन स्वयं कराते एवं शेष आधे मीता से करवाने लगे। इससे साधकगण उसे योगिनी कहने लगे।
इस प्रकार मीता की लगभग प्रत्येक प्रातः एवं सायं भुवनचंद्र के साथ बीतने लगी। भुवनचंद्र कभी उसे कोई शिखर दिखाने ले जाता तो कभी कोई घाटी दिखाने। अब दोनों एक दूसरे से काफ़ी खुल गये थे। बातों बातों में वे प्रायः अपने मन की अंतरंग बातें भी बोल जाते थे। भुवनचंद्र उसके पति एवं बच्चों के विषय में भी बहुत कुछ जान गया था।
जब मीता की वापसी का दिन निकट आने लगा तो भुवनचंद्र का मन उदास रहने लगा, परंतु मीता के हाव-भाव में कोई परिवर्तन भुवनचंद्र को दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अतः उसके मन की थाह लेने को एक सायं गांव से कुछ दूर घूमते हुए भुवनचंद्र अकस्मात बोला,
‘यहां आप को पति एवं बच्चों की बहुत याद आती होगी?’
मीता ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया,
‘हां, कभी कभी बच्चों की याद आती तो है, परंतु मैं जानती हूं वे बाबा-दादी के पास मस्त होंगे।’
पति के विषय में मीता ने कुछ नहीं कहा और भुवनचंद्र ने उसे कुरेदा भी नहीं। मीता द्वारा पति के विषय में कुछ न बोलने पर भुवनचंद्र के मन में उस रात देर तक ज्वार भाटा आता रहा।
उसी सायं टहलकर लौटने पर जैसे ही मीता अंदर घर में घुसी, उसकी दीदी ने उसके हाथ में एक टेलीग्राम थमा दिया।
‘तुम पहली बस से वापस आ जाओ। मैं ट्ेनिंग से वापस आ गया हूं। पारो को तेज़ बुखार है।’
मीता पारो के लिये अत्यंत चिंतित हो गई और दीदी से पूछा,
‘कल पहली बस कितने बजे जायेगी?’
दीदी के यह बताने पर कि पहली बस सुबह साढ़े पांच बजे छूट जाती है, और दूसरी दोपहर बाद जाती है, मीता तुरंत अपना सामान बांधने लगी। उसे रात भर नींद नहीं आई; परंतु यह ध्यान कर उसे आश्चर्य हो रहा था कि उसके मन में पारो की बीमारी के विषय में जितने चिंताजनक विचार आ रहे थे उससे कहीं अधिक भुवनचद्र के विषय में आते थे- उसके इस तरह अकस्मात चले जाने पर भुवनचंद्र को पता नहीं कैसा लगेगा?, मैं भी भुवनचंद्र को कैसे भूल पाऊंगी?, इस जीवन में उससे अब कभी मिलना हो पायेगा भी या नहीं?, कल मेरे न मिलने पर वह दीदी के पास मेेरे बारे में पुछने आ सकता है और पता नहीं दीदी से क्या पूछ दे और वह उसका वह क्या अर्थ लगायें?............’
प्रातःकाल दीदी ओर जीजा जी दोनो उसे बस स्टेंड पर विदा करने आये। वह दीदी से गले लगकर रो पड़ी, परंतु उसे लगा कि उसके अश्रुओं की अविरलता दीदी से बिछुड़ने के बजाय भुवनचदं से बिछुड़ने के कारण अधिक है। बस में खिड़की के बगल की सीट पर बैठकर उसके नेत्र तब तक भुवनचद के आकस्मिक दिखाई पड़ जाने की आशा में भटकते रहे जब तक इस आकस्मिकता की सम्भावना पूर्णतः समाप्त नहीं हो गईं।
उस दिन प्रातःकाल भुवनचंद्र को जब मानिला मल्ला मंदिर जाते हुए रास्ते में मीता नहीं मिली और मंदिर में भी नहीं मिली, तो उसे लगा कि हो न हो मीता अस्वस्थ है और उसका मन प्रणायाम के दौरान उचटा रहा- उस दिन उसने कोई चुटकुला भी नहीं सुनाया। समाप्ति पर वह जल्दी से मीता के विषय में पता लगाने को लौटा, परंतु फिर संकोचवश मीता की दीदी के घर नहीं जा सका; बस स्टेंड के निकट देर तक खोया खोया सा बैठा रहा। सायंकाल प्रतिदिन के निष्चित समय पर वह पुनः बस स्टेंड पर आया, परंतु मीता कहीं न दिखाई दी। तब उसको संदेह हुआ कि कहीं मीता वापस तो नहीं चली गई है। उसने बस स्टेंड के निकट स्थित चाय की दूकान पर जाकर हेमंत चायवाले से पूछा,
‘आज सबेरे की बस से कौन कौन सवारियां रामनगर गईं थीं?’
आती जाती सवारियों के कारण ही वह चाय की दूकान चलती थीं अतः हर सवारी को आशापूर्ण दृष्टि से देखना चायवाले छोकरे की आदत बन गई थी। वह बोला,
‘आज सबेरे तो बस दो ही सवारियां र्गइं हैं- एक तो डाक्टर साहब और दूसरी प्रोफे़सर साहब की महमान।’
बिना बताये मीता के अकस्मात चले जाने की बात जानकर भुवनचंद्र का चेहरा आश्चर्य, क्षोभ एवं अवहेलना की चोट से विवर्ण हो गया; उसका मन हुआ कि वह अविलम्ब प्रोफ़ेसर साहब के यहां जाकर मीता के अचानक वापस चले जाने का कारण पूछे, परंतु साहस जवाब दे गया। वह गुमसुम सा अपने घर की ओर चल दिया।
उस दिन के पश्चात भुवनचंद्र को किसी ने मानिला में नहीं देखा- तरह तरह की अफ़वाहें उडी़। जितने मुंह उतनी बात- बसंत रावत कहता कि सोते समय बाध उठा ले गया, तो दानसिंह कहता कि वह घरबार खुला छोड़कर मोहमाया त्याग कर निर्जन कंदराओं में तप करने हेतु बर्फ़ के पर्वतों पर चला गया है, और हेमंत चायवाला मन ही मन सोचता कि मैने उसे प्रोफे़सर साहब के यहां आई महमान के साथ अनेक बार प्रेम से बतियाते देखा था और वह अवश्य ही उन्हीं से मिलने नीचे चला गया होगा।
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