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योगिनी - 1

योगिनी

1

कई बातें ऐसी थीं जो मीता के स्वभाव के प्रतिकूल थीं- उनमे से एक थी ब्राह्मवेला के पश्चात चारपाई तोड़ते रहना। अनुज से इस विषय में अनेक बार उससे बहस हुई थी और यदा कदा मानमनौव्वल से मिट जाने वाला अस्थाई किस्म का मनमुटाव भी हो गया था, परंतु सहरी की अजान अथवा मुर्गे की बांग सुन लेने के बाद मीता कभी बिस्तर पर नहीं लेटी थी। देर से सोने वाला अनुज उस समय गहरी नींद में होते हुए भी मीता के शरीर की उष्णता की कमी शिद्दत से महसूस करता था और मन मसोस कर रह जाता था। अन्य कुछ बातें भी मीता के स्वभाव के प्रतिकूल थीं जैसे अनुज के समान एकाग्रचित्तता- दिन भर के काम के बाद अनुज रात्रि भोज के उपरांत पुनः कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बकुल दृष्टि लगाकर बैठ जाता था, तब मीता पलंग पर तकिये के सहारे बैठकर उसके हाथ में हाथ डालकर ‘शांति’ सीरियल देखने, चंद्रमुखी के देवदास के प्रति अप्रतिम प्रेम पर बतियाने, ‘गुनाहों के देवता’ की सुधा के चंदर के प्रति चिरनियंत्रित प्रेम पर बहस करने, अथवा बड़े भैया के पुत्र बंटी की बर्थडे पर मायके जाने हेतु इसरार करने हेतु तरसती रहती थी। अनुज के मन को उसके कम्प्यूटर के माउस की उछल कूद आह्लादित करती थी, तो मीता के मन को कोयल की प्रत्येक कूक पर उसे चिढ़ाना, अमराई की महक को नथुनों में भरकर आंखें बंद कर लेना, बादल की गरज को आकाशीय ढोल समझकर सुनना, वर्षा की फुहार शरीर पर पड़ने पर रोमांच का अनुभव करना, हेमंत की ठिठुरन में रज़ाई की गर्मी को अंतस्तल में भर लेना अनुप्राणित करते थे।

कई बातें ऐसी थीं जो मीता के स्वभाव के विशेष अनुकूल थीं जिनमें कुछ थीं प्रेम के नवप्रस्फुटन की कथाओं को दत्तचित्त होकर पढ़ना, प्रेमाधारित पिक्चर देखना, प्रेम करने लायक हर व्यक्ति से प्रेमपूर्वक बतियाना, आदि। सम्भवतः इसी मनोभाव के वशीभूत होकर मीता ने अपनी बडी़ बेटी का नाम रखा था सुधा और छोटी बेटी का नाम रखा था पारो। कम्प्यूटर पर अपनी व्यस्तता के क्षणों में उनके लाड़ लड़ाने हेतु आ जाने पर अनुज प्रायः उन्हें झिड़क देता था, तब प्यार से पुचकारते हुए उन्हें अपने सीने से लगा लेना भी मीता की प्रकृति के अनुकूल था।

मीता आयु से युवा थी पर मन से चंचला किशोरी।

कुमाउूं /कूर्मांचल/ क्षेत्र में अल्मोड़ा जनपद को मंदिरों का जनपद कहा जा सकता है। मध्यकाल में यह क्षेत्र कत्यूरी राजा द्वारा शासित था, जिन्होने इसका बड़ा भूभाग श्रीचांद नामक गुजराती ब्राह्मण को बेच दिया था। चांद वंश के राजाओं ने यहां अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था। इस क्षेत्र की सुंदरता से अभिभूत होकर गांधी जी ने कहा था, ‘इन दीज़ हिल्स, नेचर्स ब्यूटी इक्लिप्सेज़ औल मैन कैन डू’। मानिला गांव अल्मोड़ा जनपद में छः हजा़र फी़ट की उूंचाई पर घनी पहाड़ियों के बीच स्थित है। मैदान से जाने पर कौर्बेट नेशनल पार्क के बाहर स्थित रामनगर कस्बे से सघन वन प्रारम्थ हो जाता है। फिर गरजिया, जहां से कौर्बेट पार्क का प्रवेश द्वार है, होते हुए मोहान पड़ता है। मोहान से मुख्य मार्ग छूट जाता है और बांयी ओर की पतली सड़क पर चलना पड़ता है। यहां से उूंचाई प्रारम्भ हो जाती है, और लगभग साठ किलोमीटर की निर्जन पहाड़ी यात्रा के उपरांत चीड़ एवं बांझ के वनों से घिरा गांव मानिला आता है। बस से उतरने पर गांव का कोई घर नहीं दिखाई देता है वरन् बायीं ओर बनी पांच पक्की दूकानें और उन पर बने छोटे छोटे घरों को देखकर एक कस्बे जैसा भान होता है, परंतु ये दूकानें और घर आधुनिकता की देन हैं। मानिला गांव के घर तो नीचे पहाड़ की ढलान पर दूर दूर ऐसे छितरे हुए बने हैं, कि गांव के उूपर के किसी स्थान से सम्पूर्ण गांव का अवलोकन सम्भव ही नहीं है।

मानिला में अभी सुबह नहीं हुई थी परंतु उच्चतम पहाडी़ के शिखर पर धुंधलका छंटने लगा था। रामनगर की ओर जाने वाली एकमात्र सड़क सुनसान थी- केवल मीता के चलने से उत्पन्न किसी की उपस्थिति के भान को छोड़कर। मीता भी अपनी गति केा इतना सघा हुआ एवं शांत बनाये हुई थी कि जैसे अपने चारों ओर व्याप्त नैसर्गिक छटा के सागर को कम्पित कर देने से डर रही हो। बीती सायं को वह बस से मानिला आयी थी। गर्मियों की छुट्टियों में उसकी बेटियांे को उसके बाबा दादी अपने पास गांव ले गये थे और फिर उसके पति को डेढ़ माह की टे्निंग पर बंगलौर जाना पड़ गया था। दो वर्ष पूर्व उसकी चचेरी बहिन के पति मानिला में नये खुले कालेज में प्राघ्यापक नियुक्त हो गये थे और तब से उसकी बहिन बार बार उससे सपरिवार मानिला आने का आग्रह करती रही थी। अपने पत्रों में वह मानिला की कुंआरी सुषमा की प्रशंसा करते नहीं थकती थी। मीता ने अनेक बार अपने पति के समक्ष मानिला चलने का प्रस्ताव रखा था परंतु उनके पास न तो समय था और न पर्वतों में रुचि। वह जब टे्निंग पर बंगलौर जाने लगे थे तो उन्होने मीता से कह दिया था कि इन दिनांें तुम यहां अकेली क्या करोगी, चाहो तो अपनी बहिन के पास मानिला चली जाओ। प्रथम बार अकेले इतनी लम्बी एवं दुर्गम यात्रा की कल्पना से मीता के मन में जितनी घबराहट हुई थी, उतना ही अनजाने अनोखे अनुभवों का रोमांच भी उत्पन्न हुआ था, और उसकी बस के रामनगर पार करने के पश्चात सघन वन में घुसते ही यह रोमांच क्षण-प्रतिक्षण द्विगुणित होता रहा था। मीता की बस जब मानिला पहुंची थी तब सूर्य अस्त होने के निकट था। मीता की बहिन एवं उसके पति उसे बस स्टेंड पर ही मिल गये थे और उन्होने मीता का हृदय से स्वागत किया था। उनका घर बाजा़र में एक दूकान के उूपर बना हुआ था, जिसके पीछे से रम्य घाटी एवं उसके उपरांत अनेक पर्वत शिखरों की श्रंखला दिखाई देती थी। उस रात्रि में वहां से गैरसेंण, भिकियासेंण आदि दूर दूर के कस्बों एवं निकटस्थ ग्रामों में झिलमिलाते प्रकाश को मीता तब तक देखती रही थी जब तक आकाश में घटाटोप बादल नहीं छा गये थे। मीता के गहरी नींद सो जाने पर घनघोर वर्षा हुई थी जो ब्राह्मवेला के कुछ समय पूर्व थम गई थी। जब मीता की नींद खुली तब उसकी बहिन के घर में सब गहरी नींद में सो रहे थे। किसी प्रकार की आहट किये बिना वह निवृत होकर चुपचाप घर से बाहर निकल आई थी। अपने घर में भी ब्राह्मवेला में अकेले ही जागने के पश्चात घर के सूनेपन को सह पाना मीता के लिये कठिन होता था और उससे बचने के उद्देश्य से वह मुहअंधेरे अपनी गली में टहलने निकल जाती थी।

सड़क के दोनों ओर गगनचुम्बी चीड़ के वृक्षों का सघन वन एवं आकाश मंे छाये बादल अंधकार उत्पन्न कर अनजान के आकर्षण को बढ़ा रहे थे और मीता के बदन की पांचों इंद्रियां पूर्णतः जाग्रत थीं। चीड़ की कांटेनुमा पत्तियों के बीच से बहने वाली बयार मीता के कानों में सरसराहट का अनहद नाद उत्पन्न कर रही थी एवं चीड़ की खुशबू उसके नथुनों से प्रवेश कर उसके तन-मन को उल्लसित कर रही थी। प्रातःकालीन ठिठुरन का स्पर्श उसके रोम रोम को कम्पित कर रहा था। कुछ दूर चलने पर सड़क दायीं ओर मुड़ गई थी और मीता के सामने मानिला के आस पासं के समस्त पर्वतीय शिखरों में उच्चतम शिखर खड़ा था। शनैः शनैः उस पर प्रकाश बढ़ रहा था। कुछ तो उच्चतम शिखर के आकर्षण और दूसरे कुछ नया करने की लालसा के वशीभूत हो मीता सीधे उस शिखर पर चढ़ने लगी थी। मीता जब लगभग एक तिहाई उूंचाई चढ़ चुकी थी तब उसे भान हुआ कि आगे चढ़ाई न केवल खड़ी है वरन् अत्यंत दुर्गम भी। उस पहाड़ पर प्रारम्भ में तो कुछ चीड़ के वृक्ष एवं झाड़ियां थीं, परंतु आगे पहाड़ बंजर था और मिट्टी गीली और फिसलनी। उसकी हिम्मत जवाब देने लगी और उसने नीचे वापस जाने का निश्चय किया परंतु उसके नीचे पैर रखते ही वर्षा के कारण गीली हुई्र मिट्टी खिसकने लगी। दो एक बार प्रयत्न करने पर उसकी समझ मे आ गया उूपर चढ़ने की अपेक्षा नीचे उतरना कहीं अधिक खतरनाक है। वह पुनः उूपर चढ़ने का प्रयत्न करने लगी, परंतु कुछ कदम चढ़ने के पश्चात ही चढ़ाई इतनी खडी़ हो चुकी थी कि एक कदम भी उूपर बढ़ाने का परिणाम होता सैकडों़ फीट नीचे घाटी में लुढ़क जाना। अब जहां पहुंचकर मीता एकटांग खडी़ थी वहां पर न तो कोई समतल भूमि थी और न पर्वत पर उगने वाली झाड़ियां। एक लटकते से पत्थर के सहारे मीता जीवन और मृत्यु की सीमा रेखा पर झूलते हुए सोचने लगी-

‘हे भगवान यहां सहायता के लिये किसे पुकारूं?, यहां फिसल गई तो घाटी में मेरे पार्थिव शरीर का किसी को पता भी नहीं चलेगा, मेरी बेटियों का क्या होगा?, अनुज पता नहीं क्या सोचेंगे?, और कैसे रहेंगे?, मैं भी कैसी बेवकूफ़ हूं कि बिना जांचे पूछे यहां अकेली चढ़ने लगी?..........क्या सचमुच आज यह मेरा अंतिम दिन है?................’

मीता का घैर्य जवाब देने लगा था और वह शनैः शनैः अपने अवसान की निश्चितता को स्वीकार कर शिथिल होने लगी थी कि उसे लगा कि कहीं से अकस्मात आकाशवाणी हुई,

‘अपनी जगह पर चुपचाप खड़ी रहिये, मैं आता हूं।’

और सचमुच कुछ देर में बायीं ओर से एक अधेड़ परंतु बलिष्ठ पुरुष प्रकट हो गया। उसने अपना हाथ बढ़ा कर मीता की बांह पकड़ ली और जिस दिशा से आया था, मीता को सहारा देते हुए और ढाढ़स बंधाते हुए उसी मार्ग से बांयी ओर ले जाने लगा। वह लगभग पंद्रह मिनट के प्रयत्न के पश्चात मीता को ऐेसे स्थान पर ले आया जहां खड़े होने के लिये पर्याप्त समतल भूमि थी और उूपर पहाड़ की चढ़ाई आसान थी। मृत्यु का इतनी निकटता से आभास एवं फिर बच निकलने के ज्ञान द्वारा उत्पन्न भावातिरेक से मीता शिथिल होकर मूर्छित होने लगी और उस व्यक्ति के कंधे पर लुढक गई थी। जब मीता की जान में जान आई तब उसनेे लजाकर अपने केा उसके कंधे से अलग किया और देखा कि वह एक अधेड़ आयु का पहाड़ी व्यक्ति था। मीता के रोम रोम से उस व्यक्ति के प्रति आभार टपक रहा था और ऐसे में शब्दों से आभार व्यक्त करना सर्वथा अर्थहीन था। उस व्यक्ति को भी मीता के बिना कुछ बोले ही उसके आभार-भाव, अपने पर उसकी पूर्ण निर्भरता, एवं उसकी लज्जा का तीक्ष्णता से भान हो रहा था।

सामान्य होने पर उस व्यक्ति के कहने पर मीता उसके पीछे पीछे स्वयं पहाड़ पर चढ़ने लगी, केवल यदा कदा दुरूह स्थान पर वह व्यक्ति मीता का हाथ पकड़कर उसे सहारा दे देता था। पहाड़ की चोटी पर पहुंचने पर मीता ने पाया कि वह एक अनिर्वचनीय रमणीक स्थान पर पहुंच गई है- घने वन के बीच सबसे उूपर एक प्राचीन मंदिर, जिसके नीचे बायीं ओर एक रंगा-पुता हुआ भवन जिसके चारों ओर अनेक पुष्पलतायें फैली हुईं थीं। वह व्यक्ति बोला,

‘मैं भुवनचंद्र हूं। यहीं मानिला गांव का रहने वाला हूं। यहां माँ अनिला के दर्शन करने आ रहा था, जब आप को लटके हुए देखा। माँ अनिला अत्यंत दयालु हैं और सबकी रक्षा करतीं हैं। उन्हींने ठीक समय पर आप के पास पहुंचा दिया। आप को आज पहली बार मानिला में देख रहा हूं- आप बिना किसीसे पूछे उस पर्वत पर क्यों चढ़ गईं?’

फिर जैसे उसे अपने समस्त प्रश्नों का उत्तर पहले से ज्ञात हो, मीता के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना आगे कहने लगा,

‘अब आप यहां आ गईं हैं तो माँ अनिला के दर्शन तो अवश्य करेंगी।’

और मीता की स्वीकृति मानते हुए मंदिर की ओर चलने लगा। मीता आज देवी दर्शन केा कैसे मना कर सकती थी? और उस व्यक्ति के पीछे पीछे चुपचाप चल दी। मंदिर में वह देवी माँ के दर्शन में देर तक घ्यानस्थ रही और उसकी प्राणरक्षा हेतु उस व्यक्ति केा समय पर भेज देने के लिये उन्हें मन ही मन धन्यवाद देती रही। उसके पीछे खडे़ उस व्यक्ति को मीता के मनोभावों का अनुमान हो रहा था और मीता की रक्षा का निमित्त बनने हेतु वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। मंदिर से बाहर निकलने पर भुवनचंद्र ने प्रस्ताव रखा,

‘यहां के स्वामी जी बहुत माने हुए संत हैं। वह प्रति प्रातः ग्रामवासियों एवं अन्य दर्शनार्थ आये हुए साधकों को योगाभ्यास भी कराते हैं। आप यहां तक आईं हैं तो उनके दर्शन भी कर लें।’

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