योगिनी
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चीड़ के वृक्षों से आच्छादित उूंची पहाडी़ के ढलान पर बसे मानिला गांव में मानिला (मां अनिला) के दोनों मंदिर - मानिला मल्ला और मानिला तल्ला- न केवल हिंदुओं की श्रद्धा के केन्द्र हैं, वरन् अपनी अद्भुत छटा के कारण सैलानियों को भी आकर्षित करते हैं। आज ग्रामों के नगरीकरण की मार से मानिला गांव कुछ कुछ एक मैदानी कस्बे जैसा लगने लगा है- बढ़ती आबादी, ग्राम में पानी की ऊंची टंकियां, सड़कों के किनारे खड़े होते बिजली के खम्भे, हाथों में मोबाइल और घरों में टी0 वी0, तथा रामनगर से आने वाली मुख्य सड़क पर बढ़ती चार पहियों के वाहनों की संख्या सभी कुछ इस तपोमय भूमि के आधुनिकता धारण कर लेने की कहानी कह रहे हैं। मुख्य सड़क के किनारे स्थित होने के कारण मानिला तल्ला मंदिर अपनी नैसर्गिक आभा त्यागकर कुछ कुछ एक मैदानी मंदिर का स्वरुप को ओढ़ चुका है, परंतु पर्वत शिखर पर स्थित मानिला मल्ला मंदिर अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण आज भी अपनी प्राकृतिक कमनीयता पूर्ववत संजोये हुए है। यद्यपि ग्राम मानिला से इस मंदिर को जाने वाली पहाड़ी पर एक डामर की सड़क बन गई है, तथापि सड़क के दोनों ओर लगे हुए वृक्षों और झाड़ियो से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है और वहां न तो कोई्र निर्माण कार्य हुआ है और न कोई दूकान खुली है। मानिला मल्ला मंदिर आज भी पूर्ववत चीड़ और साल के उूंचे उूंचे वृक्षों से ढका हुआ है।
जब मानिला मल्ला मंदिर के वयोवृद्ध स्वामी के गोलोकवासी हो जाने के उपरांत भुवनचंद्र वहां योगी स्वरुप में आकर बस गये थे और फिर कुछ समय पश्चात मीता उनकी संगिनी एवं योगिनी बनकर आ गई थीं, तब से मंदिर की ख्याति देश विदेश में दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती रही थी। योगिनी के व्यक्तित्व में अहर्निश निखार आ रहा था और उनकी ख्याति चहुंदिश प्रस्फुटित हो रही थी। योगिनी का गहन ज्ञान, ओजस्वी वाणी, एवं देदीप्यमान व्यक्तित्व बरबस लोगों को इस मंदिर पर खींच लाता था। वर्ष दो वर्ष में ही सुदूर देशों के लोग मानिला के मंदिर को मानिला की योगिनी के मंदिर से जानने लगे थे।
‘‘योगिनी जी! योर रिसाइटेशन आफ़ दी शांतिपाठ इज़ शियर एंचांटमेंट ऐंड दैट आफ़ गायत्री मंत्रा ब्रिंग्स दी सब्लाइम आफ़ वन्स सोल एलाइव। आई फा़इंड फ़ार मोर मैग्नेटिज़्म इन यू दैन ह्वाट आई हैड हर्ड अबाउट यू।’’ योगिनी जी! आप का शांति पाठ मुग्घ करने वाला है एवं आप द्वारा गायत्री मंत्र का पाठ आत्मा के सूक्ष्म तत्व को जाग्रत कर देता है। मैने आप के विषय में जितना सुना था, उससे कई गुना अधिक चुम्बकत्व आप के व्यक्तित्व में है।“- प्रातःकालीन योगाभ्यास के उपरांत एक अमेरिकन, जो कल सायं ही मंदिर पर आया था, योगिनी मीता से कह रहा था। इस पैंतीस वर्षीय अमेरिकन ने अपना नाम माइक बताया था। वह बड़ा बातूनी था और कल से ही मानिला मंदिर के प्राकृतिक, शांत, एवं भक्तिभाव जगाने वाले वातावरण का गुणगान करते थक नहीं रहा था। प्रातःकालीन योगसाधना में उसने बड़े मनोयोग से भाग लिया था और तदोपरांत योगिनी के सामने जाकर अपने हृदय के उद्गार व्यक्त किये थे। योगिनी ने उसे आपादमस्तक देखा, उनके होंठों पर एक मंद स्मित उभरी और उन्होंने कहा था, ‘‘थैंक्स’’।
योगी, जो योगिनी के बगल में अपने आसन पर प्रणायाम कर रहे थे, ने आंख उठाकर एक क्षण दोनों को देखा। उस क्षण उनके मन में ईष्र्या का लावा सा फूटा जिसे डन्होंने सागर-मंथन से निकले गरल सम गले में गटक लिया। फिर उन्होंने भी माइक की ओर एक क्षीण मुस्कान फेंकी। योगिनी ने तिरछी निगाहों से उन क्षणों में योगी के मन में हुए सागर-मंथन, फिर योगी द्वारा उससे उत्पन्न गरल को गटक जाने और फिर क्षीण स्मित के साथ माइक को देखने की प्रक्रिया को देखा। माइक द्वारा प्रशंसा किये जाने से योगिनी के मन में जो प्रफुल्ल्ता आई थी, वह तिरोहित हो गई और उनका मन ऐसे सिकुड़ गया जैसे ठंडी बयार का आनंद लेने अपने खोल से बाहर निकला शंख का कीड़ा किसी अवांछित वस्तु के सामने आ जाने पर एकाएक अपने खोल में सिकुड़ जाता है।
हेमंत चायवाला, भुवनचंद्र और मीता के प्रेम प्रसून के उदयन एवं प्रस्फुटन का आद्योपांत साक्षी रहा था- उन दोनों के योगी स्वरूप घारण करने के पूर्व मिलन, फिर अंतर्धान होने, एवं योगी तथा योगिनी के रुप में अवतरित होकर मानिला मंदिर में रम जाने की कोई घटना उसके लिये रहस्य नहीं थी। वह आज तक उनके प्रेम की थाह लेते रहने की उत्कंठा से अपने को मुक्त नहीं कर पाया था। अतः वह प्रायः ब्राह्मवेला अथवा संध्याकाल में ऐसे समय मानिला मंदिर आता रहा है जब योगी एवं योगिनी एकांत विहार हेतु वन वृक्षों की आड़ में घूमने निकलते थे। उन्हें कबूतर के जोडे़ की तरह गुटरगूं करते हुए छिपकर देखने में हेमंत केा रूमानी आनंद मिलता था। उसने अनेक बार योगिनी को योगी से अनवरत बोलते हुए एवं योगी को एकटक सुनते हुए देखा था। वह जिस दिन उन दोनों के प्रेम को जितना अधिक परवान चढा़ हुआ पाता था, उस दिन उतना ही अधिक प्रफुल्ल-चित्त रहता था। परंतु इस शास्वत सत्य को कौन टाल सका है कि जब चंद्रमा अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है, तभी उसमें ग्रहण लगता है- विगत कुछ वर्षों से हेमंत को योगी एवं योगिनी के एकांत विहार को लुकछिपकर देखते हुए कभी कभी ऐसा लगता था कि योगी कुछ कुछ अंतर्मुखी होता जा रहा है। यद्यपि योगिनी के नेत्रों में वह योगी के प्रति पहले जैसा ही आकुल आकर्षण देखता, परंतु उसे लगता था कि योगी का मन उस आकर्षण की प्रतिक्रियास्वरूप पूर्व की भांति उद्वेलित न होकर कहीं खोया खोया सा रहता है। हेमंत जिस दिन योगी को इस प्रकार खोया खोया सा देखता, उस दिन उसका स्वयं का मन भी खोया खोया सा रहता था।
प्रारम्भिक दिनों में सभी लोग केवल योगी को प्राथमिकता देते थे, और योगिनी को केवल उनकी शिष्या के रूप में देखते थे; परंतु शनैः शनैः मानिलावासियों एवं सुदूर प्रदशों से आने वाले दर्शनार्थियों को यह अनुभव होने लगा था कि योगी पढ़े लिखे नहीं हैं एवं उनका ज्ञान मात्र अनुभवजन्य एवं सीमित है जब कि योगिनी का ज्ञान अविरल स्रोतों से अर्जित है एवं उसका विस्तार हो रहा है। तब से अप्रयत्न ही सबकी श्रद्धा का भाव योगिनी पर सीमित होने लगा था। प्रारम्भ में योगी को यह अच्छा लगा था कि उनकी प्रेमिका की प्रतिष्ठा एवं ख्याति का विस्तार हो रहा था, परंतु जब दर्शनार्थी योगी के समक्ष ही उनकी उपस्थिति को नकारते हुए योगिनी के प्रति श्रद्धावनत होने लगे, तो उनका पुरुष-अहम् इस स्थिति को अंगीकार करने से इन्कार करने लगा था। इस मनःस्थिति केा छिपाने के प्रयत्न में वह कम मुखर होते गये थे और दर्शनार्थी उनकी ओर और कम ध्यान देने लगे थे। फिर अपने अंतद्र्वंद्व को नियंत्रित रखने के प्रयत्न में वह अपना अधिक समय दर्शनार्थियो से मिलने के बजाय मंदिर के प्रबंधन में देने लगे थे। योगिनी योगी के मन की गहराइयों में एक कुशल गोताखोर के समान प्रवेश कर उसकी थाह लेने में इतनी निपुण थी कि योगी अपनी मुस्कराहट में अपनी अकुलाहट को कितना भी छिपाना चाहे, योगिनी उसे पलमात्र में भांप कर स्वयं भी छटपटाने लगती थी। योगी के मन की दशा का कारण वह समझने लगी थी। वह यह जानती भी थी कि पुरुष का मन चाहे कितना भी विशाल क्यों न हो, वह अपनी महिला संगिनी को अपने से उूपर बढ़ते हुए निःस्पृह एवं ईष्र्यारहित भाव से देखने में अक्षम होता है और योगी के मन की वही दशा है। दर्शनार्थियों में योगिनी की मान-थाप का जितना विस्तार हो रहा था, योगी का मन उतना ही संकुचित होता जा रहा था। योगी को जब भी लगता कि कोई व्यक्ति उनके स्थान पर योगिनी को प्राथमिकता दे रहा है, तो न चाहते हुए भी उनके मन मे सागर मंथन प्रारम्भ हो जाता, जो उनके द्वारा गरलपान करने पर ही रुकता था। फिर म्ंाथन चाहे थम जाये, परंतु गरल अपना प्रभाव योगी के संत्रास के रूप में दिखाता रहता था। योगिनी उनके इस संत्रास को निरखती, समझती एवं अपने को और अधिक समर्पित कर उन्हें समझाने का प्रयत्न करती थी, परंतु योगी का चोटिल मन अपनी असामान्य स्थिति पर नियंत्रण करने के प्रयत्न में और अधिक घायल हो जाता था। फिर योगिनी को ऐसा लगने लगा कि उसके सद्प्रयत्नों का प्रभाव योगी के मन पर उल्टा पड़ रहा है तो उसने योगी की हीनभावना जनित इस प्रतिक्रिया के प्रति सचेष्ट तटस्थता ओढ़ ली थी, और उस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने पर उससे बच निकलने का प्रयत्न करने लगती थी। इसमें योगी को योगिनी का अपने प्रति प्रेम का भाव छीजता दिखता था।
उन्हीं दिनों दो माह तक योगसाधना सीखने माइक वहां आया था और मंदिर परिसर में ही रहने लगा था। वह योगिनी से सचमुच प्रभावित हुआ था और उसने अमेरिकनों के प्रत्येक अच्छी वस्तु की खुलकर प्रशंसा करने वाले स्वभाव की भांति अपनी उन्मुक्त प्रशंसा योगिनी के समक्ष प्रकट कर दी थी। उसके हृदय की गहराई से निकली प्रशंसा को योगी पचा नहीं पाया था और यह बात योगिनी ने भी भांप ली थी। योगिनी भी माइक के खुले व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सकी थी। वातावरण में सहजता लाने के उद्देश्य से योगिनी ने माइक से पूछ लिया,
‘‘माइक! ह्वाट डू यू डू इन दी यूनाइटेड स्टेट्स?’’
माइक ने सहज भाव से उत्तर दिया,
‘‘आइ्र ऐम ए रिसर्च स्कालर इन सोशल स्टडीज़ इन दी यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो. आई हैव बीन एसाइन्ड दी टास्क टु एसर्टेन ह्वाई विमेन आर स्टिल मीकली एक्सेप्टिंग दी डोमीनेंट रोल आफ़ मेन- पार्टीकुलर्ली इन लेस डेवेलप्ड सोसाइटीज़ ?’’
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