योगिनी
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भुवनचंद्र को मानिला से तिरोहित हुए अनेक वर्ष बीत चुके हैं- इन वर्षों में मानिला ने अनेक परिवर्तन देखे हैं। अब यह उत्तर प्रदेश के बजाय उत्तरांचल में स्थित है, रामनगर एवं भिकियासेंण जाने वाली सड़कों की दशा सुधर गई है, मानिला बाजा़र में कुछ नई दूकाने बन गईं है, राजकीय इंटर कालिज अब राजकीय परास्नातक महाविद्यालय बन गया है; अपना प्रांत बनवा लेने के बाद अब यहंा के लोग भी राजनैतिक दांव-पेंच, विकास योजनाओं में कमीशन खाने के खेल, एवं दबंगई के बल पर चुनाव जीतने की कला सीख रहे हैं। भुवनचंद्र के मकान एवं ज़मीन पर दबंगों ने पटवारी से मिलकर कब्जा़ कर लिया है। उसकी भैंस को पटवारी स्वयं खोल ले गया था जो अब मर चुकी है- उसकी पड़िया बड़ी हो गई है और ढेर सा दूध देकर पटवारी के नाती-पोतों की सेेहत बढ़ा रही है। उसके बागांे मंे पहले से कहीं अधिक फल होते हैं परंतु अधपके ही टूटकर नीचे बिकने चले जाते हैं।
मानिला मल्ला मंदिर के स्वामी जी का गत वर्ष देहावसान हो चुका है; चूंकि उन्होने किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया था अतः उनकी मृत्यु के कुछ माह पश्चात तक उनकी गद्दी खाली रही और योगासन का कार्यक्रम भी स्थगित रहा। फिर एक रात्रि एक जटा-जूट धारी परंतु स्वस्थ, बलिष्ठ, एवं प्रभावशाली मुखमंडल वाले साधु मंदिर पर आकर रुक गये। उनके व्यक्तित्व में इतना प्रभाव था कि गांव वालों ने उनसे अनुरोध कर उन्हें वहीं रोक लिया और नया स्वामी घोषित कर दिया। उन्होंने अपने पूर्वाधिकारी की भांति योगासन का कार्यक्रम पुनः प्रारम्भ कर दिया। फिर कुछ समय पश्चात पीत वस्त्रधारी एक सुमुखी योगिनी मंदिर पर आईं और वहीं की होकर रह गईं। तब से यौगिक क्रियाओं का प्रथम भाग स्वामी जी द्वारा एवं द्वितीय भाग योगिनी द्वारा कराया जाता है।
प्रोफे़सर साहब /मीता के जीजा जी/ का स्थानांतरण पहले ही हो चुका था और मानिला में किसी को ज्ञात नहीं कि अब वह कहां हैं। मीता की तो किसी को याद भी नहीे है- बस हेमंत चायवाले को छोड़कर। मीता जब मानिला आई थी तब वह किशोरावस्था में था और जब भुवनचंद्र बस स्टेंड के आस-पास रहकर मीता की प्रतीक्षा करता था तब वह अपनी चाय की दूकान से भुवनचंद्र को मिलने जाती मीता को कनखियों से देखा करता था। उस समय उसेे भुवनचंद्र की आतुरता एवं मीता की मधुर मुस्कान देखकर बड़ा रस मिलता था।
ग्रामवासियों में स्वामी जी एवं योगिनी के प्रति अटूट श्रद्धा है परंतु हेमंत चायवाला उनके विषय में अपने वक्ष में एक रहस्य छुपाये हुए है। जिस दिन कोई गांववाला उसकी दूकान पर चाय की चुस्की लेते हुए स्वामी जी एवं योगिनी के अत्यंत पहुंचे हुए होने के विषय में बहुत बोल जाता है उस दिन उसे अपने रहस्य को छिपाये रखने में बडी़ कठिनाई होती है, और उस रात्रि वह उनके विषय में अपने ज्ञान को मन ही मन दुहराकर अपने मन को शांत करता हैः
‘गांव के लोग उन्हें चाहे कुछ भी माने, पर मैं जानता है कि स्वामी जी भुवनचंद हैं्र और योगिनी जी प्रोफे़सर साहब की साली मीता हैं। जब यह पहली बार मानिला आईं थीं, तब मैने मंदिर में दर्शन करने के पश्चात नीचे आते हुए इनके द्वारा बोले जाने वाला शांति-मंत्र सुना था और वह मेरे कानों में रच-बस गया था। अब की जब यह सन्यासिनी के रूप में आईं तब पुनः प्रातःकाल मंदिर से लौटते समय उस स्वर को सुनते ही मुझे लगा था कि यह तो वही प्रोफेसर साहब की साली का हृदय के अंतरतम में प्रवेश कर जाने वाला स्वर है। फिर मैने उसी सायं मंदिर जाकर स्वामी जी एवं योगिनी जी के क्रिया-कलाप को निरखने का प्रयत्न किया था। जब मैं मंदिर की परिक्रमा करते हुए पीछे पहुंचकर घाटी में देख रहा था तो थोडी़ सी दूरी पर एक वृक्ष की आड़ में स्वामी जी और योगिनी जी एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले अंतरंग वार्तालाप में निमग्न दिखाई्र दिये थे। उस समय मंदिर में मैं अकेला दर्शनार्थी था अतः एक खम्भे के पीछे खडे़ होकर मैं उनकी बातें सुनने लगा था। स्वामी जी योगिनी जी की आंखों में झांकते हुए बोले थे- ‘इतने वर्ष कैसे बिताये मीता?’
पुरानी यादों में खोई हुई सी मीता ने उत्तर दिया था- ‘एक मशीन की तरह। यहां से वापस जाने पर पहले पारो के ज्वर ने दिन रात व्यस्त रखा। पारो का ज्वर मेरे वापस पहुंचने के पश्चात कई दिन तक चला था। बाबा-दादी के पास गांव में एक विवाह समारोह में खाना खा लेने से उसे टायफा़यड हो गया था। बुखार ठीक होने से पूर्व ही स्कूल की छुट्टियां समाप्त हो चुकीं थीं, अतः उसके ठीक होने पर अनुज सहित दोनों बेटियों के पालने पोसने से लेकर बेटियों का होम-वर्क कराने और उन्हें सुयोग्य बनाने का सारा उत्तरदायित्व मेरे कंधे पर था। बेटियां बढ़ने लगीं और पहले सुधा आस्ट्ेलिया पढ़ने चली गई और जाकर वहीं की हो गई; और फिर पारो जर्मनी पढ़ने चली गइ्र्र। पारो के जाने के उपरांत जब व्यस्तता कम हुई तो एक प्रकार का खालीपन मेरे जीपन मंे भरने लगा। तभी एक दिन अनुज बोले कि उनकी कम्पनी उन्हें तीन वर्ष के लिये अमेरिका भेज रही है, दस दिन में जाना है। वह वहां जाकर मकान आदि का प्रबंध कर मुझे बुला लेंगे। वह शीघ्रता से अपना बचा हुआ काम पूरा करने में और व्यस्त हो गये। फिर जल्दी जल्दी चले गये। तब मुझे लगने लगा कि मैं सम्पूर्ण संसार में अकेली हूं। उन दिनों तुम्हारे साथ बिताये मधुर क्षणों की याद प्रायः आने लगी, परंतु मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं था कि अब तुम कहाॅ हो। अमेरिका जाने के पश्चात प्रारम्भिक महीनों में अनुज मुझे फोन करके कहते रहे कि अभी उपयुक्त मकान नहीं मिल पाया है। फिर उनके फोन आने कम होने लगे। नौ-दस माह के उपरांत फोन आना बिल्कुल बंद हो गया और मेरे द्वारा फोन मिलाने पर ज्ञात हुआ कि वह नम्बर कटवा दिया गया है। फिर उड़ती हुई खबर मिली कि उन्होने कम्पनी बदल ली है ओर एक गोरी मेम के साथ उसके फ़्लैट में रहने लगे हैं। मेरे लिये यह समाचार एक ऐसे झंझावात के समान था जो वृक्ष की शाखा को उससे तोड़कर अलग फेंक देता है। मुझे अपना घर काटने को दौड़ता हुआ लगने लगा। मेरे मुहल्ले में मेरी एक पडो़सन रहतीं थीं जो प्रायः हरिद्वार जाकर शांति-कुंज में रहतीं थी और लौटकर वहंा की व्यव्स्था की प्रशंसा करतीं थीं। अतः मुझे अभी तक के अपने समस्त बंधन त्यागकर सन्यासिनी बनकर हरिद्वार में शांति-कंुज में शेष जीवन बिताने का विचार आया और एक दिन मुंह अंधेरे मैने सन्यासिनी का वेश घारणकर रेलवे स्टेशन की राह पकड़ ली। परंतु क्या सन्यासिनी भी समस्त माया मोह से मुक्त हो पाती है? जब टिकट खरीदने पंक्ति में खडी़ हुई्र तो पता नहीं कैसे तुम्हारा ध्यान आ गया और टिकट-विंडो पर अप्रयास ही मुंह से ‘हरिद्वार’ के बजाय ‘रामनगर’ निकल गया। आगे क्या बताउूं- यह कहना कठिन है कि यहां हम दोनों में किसने दूसरे को पहले पहिचान लिया था। उसके पश्चात तो आगे मेेरे जीवन का एक एक पल तुम्हारा अपना रहा है।’
यह कहकर योगिनी मीता स्वामी भुवनचंद्र की आंखों में झांकते हुए मुस्करा दी थीं। फिर स्वामी जी से प्रश्न किया था- ‘आप ने कैसे बिताये ये बीस वर्ष?’
स्वामी जी बोले थे- ‘तुम्हारे बिना बताये चले जाने पर मैं विछोह, अवसाद, अवहेलना एवं अपमान के ऐसे सागर में डूब गया था कि यहां रहकर विक्षिप्त हो जाने अथवा आत्महत्या कर लेने के अतिरिक्त मेरी कोई अन्य गति हो ही नहीं सकती थी। अतः जिस दिन तुम गईं थीं, उसी रात्रि में मैंने किसी को कुछ बताये बिना वीतराग सन्यासी की भंाति घर छोड़ दिया था और केदारनाथ की ओर चल दिया था। रास्ते में मुझे नागा साधुओं का एक समूह मिला जिनका साथ पकड़कर मै केदारनाथ पहुंच गया था। मैं उन साधुओं की जमात में न तो अपने को रमा पा रहा था और न तुम्हारी याद को जड़ से निकाल फेंकने में सफल हो रहा था, अतः वापसी में कुछ दूर तक ही उनके साथ वापस लौटा था और गुप्तकाशी के निकट पहाड़ की एक कंदरा में कुटिया बनाकर रहने लगा था। मै वहां पर अपने को इतना व्यस्त रखने का प्रयत्न करता था कि तुम्हें अथवा तुम्हारे निर्मम बिछोह केा याद करने का न तो समय मिले और न सामथ्र्य बचे। प्रातः-सायं लम्बी योगसाघना करने के अतिरिक्त मैं दिन में केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर आ जाता था एवं बूढ़े, अपाहिज एवं असहाय दर्शनार्थियों को सहारा देकर उूपर से नीचे एवं नीचे से उूपर ले जाता था। मैने अपना खाना पीना मुख्यतः कंद, मूल, फल तक ही सीमित कर दिया था। केदारनाथ-यात्रा का मौसम समाप्त होने पर मै उूपर उूपर ही गंगोत्री, गोमुख, यमनोत्री, बद्रीनाथ, माणा, हेमकुंट आदि की ओर निकल जाता था। मै वह प्रत्येक कष्ट ओढ़ना चाहता था, जो तुम्हारी स्मृति को मेरे मस्तिष्क से दूर रखे। परंतु क्या मैं सचमुच तुम्हे कभी भूल सका? कदाचित नहीं - तब भी नहीं जब बद्रीनाथ के उूपर स्थित माणा गांव में मैं भूख से त्रस्त होकर निमोनियाग्रस्त हो गया था और मुझे अपना अंत निकट लगने लगा था। सत्य तो यह है कि तब मुझे तुम्हारी इतनी अधिक याद आइ्र्र थी कि मेरे अश्रु रुकने का नाम नहीं ले रहे थे- मेरे मन में बस एक विचार अंतिम इच्छा के रूप में आ रहा था कि इस संसार से विदा होने के पूर्व कम से कम एक बार तुम मेेरे सामने आ जातीं और मै तुम्हारे समक्ष अपना हृदय उंडे़ल कर रख सकता। और जब मै निमोनिया से बच गया तब मुझे विश्वास हो गया कि मै कहीं भी जाउूं, तुम्हारी यादों से दूर नहीं जा सकता हूं। तब मैने सोचा कि जब यादोें से छुटकारा असम्भव है तो क्यांें न मानिला वापस चलकर तुम्हारा पता लगाया जाये? मेरे द्वारा पूछताछ से किसी को मेरे तुम्हारे सम्बंधों के विषय में कोई संदेह न हो, इस उद्देश्य से मैं साधु के वेश में ही मानिला आया। यहां आकर ज्ञात हुआ कि तुम्हारे जीजा जी कई्र वर्ष पहले ही कहीं स्थानांतरण पर चले गये हैं। रात्रि विश्राम हेतु मै मंदिर पर चला आया। यहां ज्ञात हुआ कि पहले वाले स्वामी जी तो पहले ही गोलोकवासी हो चुके थे। दूसरी प्रातः यहां के गांव वालों ने मुझे मंदिर पर सर्दी में कुड़कुड़ाते देखा और मुझमें न जाने क्या असाधारण शक्ति समझकर हाथोंहाथ ले लिया और मंदिर के स्वामी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया।’
यह कहकर स्वामी जी चुप हो गये थे।
मैंने विस्फारित नेत्रों से यह प्रेमालाप देखा सुना था और जब मुझे लगा था कि भुवनचंद्र एवं मीता उठने वाले है तो मैं जल्दी से परिक्रमा पूर्ण करने हेतु आगे चल दिया था।
यह दृश्य यादकर हेमंत को एक अनोखे गर्व का अनुभव होता है कि मानिला में ही नहीं सम्पूर्ण संसार में केवल वह ऐसा व्यक्ति है जो मानिला के स्वामी जी एवं योगिनी जी का रहस्य जानता है। उसने निश्चय किया है कि वह इस रहस्य को किसी को बताकर अपने गर्व को कभी कम नहीं होने देगा एवं अपने नेत्रों के समक्ष फले फूले भुवनचंद्र एवं मीता के प्रेम को दुनिया वालों की कलुषित निगाह से सदैव बचाकर रखेगा।
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