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योगिनी - 18

योगिनी

18

(पुनरावतरण)

बर्फ़ीला तूफ़ान थम चुका था और आकाश में बादल छंटने लगे थे. बादलों के बीच से कहीं कहीं तारे भी दिखाई देने लगे थे. हिमपात इतना अधिक हुआ था कि उन नक्षत्रों के टिमटिमाते प्रकाश में सम्पूर्ण धरा रजत-आच्छादित लग रही थी. ऊपर देखने पर मीरा को बर्फ़ीली चोटियां बहुत दूर नहीं लग रहीं थीं, परंतु मीरा जानती थी कि वे हैं बहुत दूर. हिमाच्छादन के कारण मीरा गौर्नरग्राट नामक रेल-स्टेशन की स्थिति का अनुमान नहीं लगा पा रही थी. और न उसकी दूरी का सही आकलन कर पा रही थी. वह इतना समझ गई थी कि वह गौर्नरग्राट से पर्याप्त दूर है और इस बर्फ़ीली रात में उसका गौर्नरग्राट वापस पहुंच पाना सम्भव नहीं है; उसे यह भी लगने लगा था कि रात्रि में उस भयंकर शीत में यदि उसे कोई शरणस्थल न मिला तो प्रातः होने तक अपने मस्तिष्क को क्रियाशील एवं जीवंत बनाये रख पाना असम्भव है.

मनुष्य को जीवन बिन चाहे, बिन मांगे और बिन हाथ फैलाये मिलता है- अतः वह प्रायः तब तक सम्वेदना की पूरी गहराई से जीवन की चिंता नहीं करता है, जब तक जीवन पर बन नहीं आती है. परंतु जीवन के छूटने की सम्भावना दिखते ही मन-प्राण जीवन से चिपकने से लगते हैं. मीरा के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. मीरा स्वभाव से निडर, उत्साही एवं अनजान के प्रति जिग्यासु रही है. यह उत्साह एवं जिग्यासा उसे एकाधिक अवसर पर घोर संकट में डाल चुके हैं. उसने इस विषय में अनेक बार बड़े-बूढों एवं हितैषियों की डांट-फटकार एवं हितोपदेशों को मौन रहकर सुना है, परंतु उसका मन है कि पुष्प, तितली, मोर, वारिद, सलिला, सागर एवं पर्वत को देखकर स्वच्छंद हरिणी की भांति ऐसी कुलांचें मारने लगता है कि समस्त उपदेशों एवं प्रताड़नाओं को विस्मृत कर अनजान को देख, सुन एवं स्पर्श कर आत्मसात कर लेने को व्याकुल हो उठता है और वह मन्त्रमुग्ध सी उनकी ओर चल पड़ती है. वह जब चार वर्ष की थी, और उसके पिता उसे भारत-नेपाल की सीमा पर स्थित शारदा नदी को दिखाने लाये थे, तब वन-पर्वत के बीच सर्पिणी सी बहती उस नदी को देखकर वह ऐसी पगला गई थी कि उसने पिता की उंगली छोड़कर पुल पर से छलांग लगा दी थी. उस दिन यदि ’रेस्क्यू-बोट’ पुल के ठीक नीचे न खड़ी होती तो १८ वर्ष पश्चात मीरा आज स्विट्ज़रर्लैंड के गौर्नरग्राट पर्वत को देखने और एक भयंकर बर्फ़ीले तूफ़ान में फंसने को बची ही न होती.

मीरा कुमायूं विश्वविद्यालय में ’भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन में रहस्य’ विषय पर शोध कर रही थी. वह उसी की एक प्रोजेक्ट पर काम करने स्विट्ज़र्लैंड आई थी और लौज़ान नामक नगर के एक होटल में रुकी हुई थी. प्रकृति प्रेमियों के लिये स्विट्ज़रलैन्ड के तीन पर्वत- युंगफ़्राउजौख, माउंट टिटलिस एवं गौर्नरग्राट- सबसे लुभावने पर्यटन स्थल हैं. उस अवकाश के दिन उसने गौर्नरग्राट नामक पर्वत पर जाने का कार्यक्रम बनाया था. पर्वतों पर यद्यपि धूप तो मैदानी इलाकों की अपेक्षा खिलकर निकलती है, परंतु यह अनिश्चितता प्रायः रहती है कि कब बादल छा जाये, वर्षा होने लगे, ओले पड़ने लगें और बर्फ़ गिर जाय. उस दिन मीता जब जागी तब देखा कि आकाश पूर्णतः स्वच्छ है और सूर्य बादलों की लुका-छुपी से मुक्त होकर चमक रहा है. मौसम विभाग की भविष्यवाणी भी थी कि लगभग सम्पूर्ण दक्षिणी स्विटज़रर्लैंड में उस दिन मौसम साफ़ रहेगा. अतः मीरा शीघ्रता से तैयार होकर लौज़ान स्टेशन आ गई. लगभग दस मिनट पश्चात विस्प जाने वाली ट्रेन लौज़ान स्टेशन पर आ गई. लौज़ान स्टेशन से चलने के पश्चात ट्रेन लेक-जेनीव के किनारे किनारे दौड़ने लगी. मीरा शीघ्र ही उस विशाल झील की अद्भुत सुन्दरता में रम गई. वह दृश्य सुन्दर होने के साथ-साथ रोमांचक भी था क्योंकि जैसे जैसे झील घूमती थी, वैसे वैसे तेज़ी से दौड़ती ट्रेन भी घूम रही थी और कहीं कहीं तो पानी के इतने निकट आ जाती थी कि लगने लगता था कि पानी में अब घुसी कि तब घुसी. झील के किनारे ही अगला स्टेशन वेवे था, जिसे श्वेत नौकाओं का नगर कहना अधिक उपयुक्त होगा- बांयीं ओर पहाड़ी पर बसे नगर के भवन और दांयीं ओर झील के किनारे पर लगीं अथवा बतख की भांति झील में तैरतीं अनगिनत नौकायें सभी.श्वेत रंग में रंगीं थीं. ट्रेन के वहां से चल देनें के कुछ मिनट पश्चात ही मौंट्रो स्टेशन आ गया. उसके दस मिनट पश्चात झील तो समाप्त हो गई, परंतु दायें-बायें दोनो ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ प्रारम्भ हो गए, जिनमें कुछ पर बर्फ़ झिलमिला रही थी. आगे मार्टिनी, स्यूं आदि स्टेशन की एक घंटे की यात्रा के उपरांत विस्प स्टेशन आ गया था, जहां मीता ने ज़र्मैट के लिये ट्रेन बदली. ट्रेन के विस्प से खिसकते ही पहाड़ की चढ़ाई प्रारंभ हो गई थी- ट्रेन मन्थर गति से दोनों ओर खड़ी पहाड़ियों के मध्य रेंगती हुई सर्पिणी सम चढ़ रही थी और मीरा का मन बंसी की धुन पर मस्त सर्पिणी की भांति उछाह से भर रहा था. अगला स्टेशन स्टाल्डेन आने के पूर्व दायीं ओर एक नदी बहती दिखाई दी, जिसका जल अन्य जलाशयों के गहरे नीले रंग के बजाय हरा-नीला सा था. ट्रेन के रुकने पर मीरा एकाग्रचित्त होकर उसकी कल-कल ध्वनि सुनती रही थी. लगभग एक घंटे की चढ़ाई एवं सेंट निकलौस का बड़ा स्टेशन पार करने के पश्चात ट्रेन ज़र्मैट स्टेशन पहुंची थी. ज़र्मैट लगभग छः हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर बसा एक पहाड़ी कस्बा जैसा था.

ज़र्मैट से गौर्नरग्राट की साढ़े चार हज़ार फ़ीट की कठोर चढ़ाई प्रारंभ होती थी. इस चढाई पर कोई सामान्य ट्रेन नहीं चढ़ सकती है. इन्जन के कहीं कम शक्ति लगा पाने अथवा फ़ेल हो जाने पर पूरी ट्रेन पीछे खिसक कर पहाड़ से नीचे गिर सकती है. अतः यहां से दोनों पटरियों के बीच कौग लगा दिये गये हैं, जिससे उनमें फंसकर नीचे खिसकती ट्रेन रुक जाये. इस ट्रेन को कौग-व्हील ट्रेन कहते हैं. ट्रेन पहाड़ पर बहुत धीरे-धीरे चढ़ रही थी और उसके चढ़ने पर कौग-व्हील की चिंघाड़ मीता को बड़ी अनोखी लग रही थी. ज़रमैट से फ़िडिलबाख और वहां से रिफ़िलआल्प तक की चढाई पर दोनों ओर मीरा को हरे भरे वृक्ष दिखते रहे थे. रिफ़िलआल्प तक आते आते चारों ओर बर्फ़ की पहाड़ियां दिखाई देने लगीं थीं. उसके पश्चात पर्वत पूर्णतः वीरान हो गये थे. कहीं घास तक नहीं उगी थी- चंहुओर बस पत्थर, पत्थर और पत्थर तथा पर्वत शिखाओं पर बस बर्फ़, बर्फ़ और बर्फ़. मीता को रोटेनबोडेन स्टेशन के निकट एक छोटी सी नीले पानी की तलैया दिखाई दी, जिसे देखकर मीरा आश्चर्य करने लगी कि पता नहीं यह कब और कैसे यहां बन गई होगी, परंतु उसके अगल-बगल के सभी यात्री फ़्रेच बोल रहे थे अतः वह उनसे इस विषय में कुछ पूछ न सकी. गौर्नरग्राट स्टेशन पर पहुंचते पहुंचते चढ़ाई बहुत अधिक हो गई थी और मीरा सहित सभी यात्रियों के रोंगटे उस समय खड़े हो गये जब गौर्नरग्राट का प्लेटफ़ार्म आने से कुछ पहले ट्रेन के इन्जन ने चढ़ना बंद कर दिया और गाड़ी खड़ी हो गई. फिर ट्रेन ढलान पर पीछे को उतरने लगी थी. लगभग दो मिनट तक पीछे उतरने के पश्चात ट्रेन रुकी थी. ड्राइवर ने फिर और अधिक शक्ति के साथ ट्रेन चढ़ाई थी- तब ट्रेन कठिनाई से प्लेटफ़ार्म तक पहुंच पाई थी...

गौर्नरग्राट स्टेशन से बाहर आते ही हिम-शिखाओं का एक अविस्मरणीय दृश्य मीरा के समक्ष उपस्थित हो गया था. मीरा ने एक सूचना-पट्टिका पर पढ़ा कि गौरनरग्राट स्टेशन की ऊंचाई १०१२६ फ़ीट है और वहां से १३००० फ़ीट तक ऊंची २९ बर्फ़ की चोटियां देखी जा सकतीं हैं. सूर्य की तेज़ धूप में ये चोटियां पिघलती चांदी सी चमक रही थीं और उनमें कुछ तो इतने निकट लगतीं थीं कि हाथ बढा देने पर पकड़ में आ जायेंगी. स्टेशन के निकट की पर्वत शिखा पर चढ़कर मीरा ने देखा कि नीचे घाटी में बर्फ़ की एक चौड़ी नदी जमी हुई थी. वह कैलाश-मानसरोवर गई तो नहीं थी, परन्तु उनके चित्रों को देखकर उसकी कल्पना में जो स्वयं को स्वयं से भुला देने वाला दृश्य उपस्थित होता था, कुछ-कुछ उसी प्रकार का दृश्य देखकर मीरा का मन मचलने लगा कि वह वहां पहुंचकर हिम-स्नान करे. वहीं अनेक पहाड़ी कौए उड़ते दिखाई दिये और उनके नीचे एक स्थान पर दो मृग (सम्भवतः कस्तूरी) दिखे, जो ऊपर सब की उपस्थिति से अनभिग्य रहकर तन्मयता से बर्फ़ में कुछ चाट रहे थे. मृगों को देखकर मीरा अपने मन को न रोक सकी और उधर ही चल दी. मीरा को नीचे नदी के तल पर उतरते समय यह भान तो हुआ कि बर्फ़ की नदी जितनी दूर दिखाई दे रही थी, उससे कहीं अधिक दूर थी और मृग तो और बहुत दूर थे, परंतु इस ग्यान ने उसे वापस लौटने की प्रेरणा देने के बजाय उसका अजनबी के प्रति आकर्षण और बढा दिया. हिम-सलिला के तल पर पहुंचने के उपरांत मीरा नदी की धारा की उलटी दिशा में ऊपर मृगों की ओर चल दी. कुछ दूर चलकर मीरा ऐसी मुग्धावस्था में पहुंच गई कि उसके मस्तिष्क में यह विचार आना ही बंद हो गया कि वह नदी के बर्फ़ीले तल पर ऊपर चढ़ते-चढ़ते गौर्नरग्राट स्टेशन से दूर होती जा रही है और मृग उसके आगमन का आभास पाकर धीरे-धीरे और ऊपर चलते जा रहे हैं. तभी आकाश में बदली घिरने लगी और उत्तर दिशा से वायु के झोंके आने लगे. इससे सलिला-तल एवं बर्फ़ीली चोटियों का रंग प्रतिक्षण परिवर्तित होने लगा- कभी श्वेत से भूरा, कभी गुलाबी, कभी बैंगनी, तो कभी कालिमामय. यद्यपि ठंड इतनी तेज़ी से बढ रही थी, जिसको अनुभव कर मीरा को वापस लौट जाना चाहिये था, परंतु आकाश में सूर्य की लुका-छिपी एवं हिम-शिखाओं का इन्द्रधनुषी खेल मीरा के मन को पागल बना रहा था. ऐसे में वापस लौटने की बात वह सोच भी कैसे सकती थी और फिर मृग-युगल की उससे दूरी भी कम होती जा रही थी. मीरा को पता ही नहीं चला कि वह कितनी और चल आई है; तभी आकाश पूर्णतः आच्छादित हो गया, वायुमंडल का तापमान बहुत नीचे गिर गया और हिमपात प्रारम्भ हो गया. फिर कुछ पलों में मृग-युगल भी उसकी आंखों से ओझल हो गये. तब मीरा प्रकृतिस्थ हुई और उसे बर्फ़ से अपने को बचाने का ध्यान आया. वह सलिला-तल से ऊपर आकर एक पर्वतखंड में बाहर निकले हुए एक प्रस्तर की आड़ लेकर खड़ी हो गई. सीधे ऊपर से गिरने वाली बर्फ़ से तो यह प्रस्तर त्राण देता रहा, परंतु शीघ्र ही वायु-वेग बढ़ने लगा और बर्फ़ का तूफ़ान आना प्रारम्भ हो गया. तूफ़ान में आई आड़ी-तिरछी बर्फ़ की बौछार मीरा के बदन से शीत के भाले की तरह टकराने लगी. मीरा ठंड और बर्फ़ के थपेड़ों की मार से सिकुड़ने लगी. कुछ घंटों तक तो वह यह आशा करती रही कि बर्फ़ का गिरना बंद हो जायेगा और तब वह वापस चल देगी, परंतु न तो बर्फ़ का गिरना थमा और न तूफ़ान का वेग कम हुआ. जब कृष्ण-पक्ष की काली रात्रि घिर आई, तब तूफ़ान थमा.

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