कौन दिलों की जाने! - 43 - अंतिम भाग Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 43 - अंतिम भाग

कौन दिलों की जाने!

तिरतालीस

अप्रैल के दूसरे सप्ताह का एक दिन। सुबह मंद—मंद समीर बह रही थी। बेड छोड़ने तथा नित्यकर्म से निवृत होकर आलोक और रानी लॉन में झूले पर बैठे मॉर्निंग टी की चुस्कियाँ ले रहे थे कि सौरभ का फोन आया — ‘पापा, हमने कल रात दिल्ली लैंड किया था। हम हयात रिजेंसी में रुके हुए हैं। आप हमें मिलने आ जाओ।'

सौरभ की दिल्ली आकर मिलने की बात सुनकर आलोक ने आश्चर्यचकित हो प्रश्न किया — ‘क्यों, इतनी दूर आकर पटियाला आये बिना ही वापस जाना है क्या?'

जवाब देते हुए सौरभ कुछ हिचकचाते हुए बोला — ‘पापा .... दरअसल बात यह है कि आपकी पोती अभी कच्ची उम्र में है .... हम नहीं चाहते कि घर में ‘उस लेडी' को देखकर उसके मन में उलटे—सीधे सवाल पैदा हों! इसलिये हम ..........।'

सौरभ अभी बात कर ही रहा था कि आलोक ने आवेश में फोन बन्द कर दिया। उसके अन्तर्मन का उद्वेग उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था। सौरभ ने रीडॉयल किया, किन्तु आलोक ने फोन काट दिया। आलोक की उद्विग्नता रानी से छिपी न रही। आलोक द्वारा सौरभ के फोन को काट देने के बाद रानी ने कहा — ‘फोन काटने की बजाय सौरभ की पूरी बात तो सुन लेते!'

‘अब और सुनने को रह ही क्या गया है?'

इस बार रानी ने अधिकार के स्वर में कहा — ‘अब अगर फोन आता है तो सुन लेना।'

रानी के कहते—कहते सौरभ का फोन फिर आया। आलोक ने स्विच ऑन किया। तल्ख आवाज़़ में कहा — ‘हाँ, बोलो!'

‘पापा, जैसा आपने बताया था कि ‘यह लेडी' और आप बचपन में दोस्त थे तथा अब दुबारा मिले तो वह अपने लम्बे समय के विवाहित जीवनसाथी को छोड़कर आपके साथ रहने लगी है। इसके पीछे उसकी क्या मन्शा रही होगी, कभी आपने जानने की कोशिश की है?'

आलोक को सौरभ की यह बात सुनकर बड़ा गुस्सा आया, किन्तु संयम रखते हुए जवाब दिया — ‘पहली बात तो यह है कि रानी ने अपने जीवनसाथी को नहीं छोड़ा, बल्कि उसके पति को हमारी दोस्ती नागवार गुज़री और उसने ही तलाक का फैसला लिया था। रानी तो चाहती थी कि उसे अपने पति के साथ रहते हुए बचपन की दोस्ती निभाने का मौका दिया जाये। दूसरी बात यह है कि मैं भी नहीं चाहता था कि हमारी दोस्ती रानी के विवाहित सम्बन्धों में दरार पैदा करे। लेकिन परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं, जिनका खुलासा फोन पर सम्भव नहीं है, कि रानी के पति ने तलाक के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा। ऐसे हालात में रानी को अपनाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, बल्कि ऐसा करके मैंने अपना कर्त्तव्य ही निभाया है। तुमने भी तो अपनी पसन्द से विवाह किया था। तुम्हारे विवाह का आधार एक—दूसरे के प्रति समर्पण कम, कॅरियर की डिमांड अधिक थी। हमने एक—दूसरे का होने से पहले इस तरह का कोई ‘व्यापारिक' समझौता नहीं किया है।'

आलोक की दो—टूक बात सुनकर सौरभ ने फोन काट दिया। रानी को सम्बोधित कर आलोक ने कहा — ‘देख लिया आज की पीढ़ी का रवैया? खुद तो कुछ भी कहने का अधिकार समझते हैं, यदि उन्हें आईना दिखाया जाता है तो बर्दाश्त नहीं होता।'

सौरभ से बात करने के पश्चात्‌ आलोक को लगा, जैसे किसी ने प्रातःकाल की पवित्र शान्ति को दहकते अँगारों से भस्म कर दिया हो!

दसेक दिन बाद की बात है। आलोक अपने दैनिक नियमानुसार नाश्ता करने के उपरान्त पुस्तकालय वाले कमरे में बैठा ओशो की पुस्तक ‘मैं मृत्यु सिखाता हूँ' पढ़ रहा था। उस समय मोहल्ले के दो—तीन बुजुर्ग भी समाचार पत्र पढ़ रहे थे। डाकिये ने डोरबेल बजाई और आलोक को एक रजिस्टर्ड पत्र थमा दिया। पत्र दिल्ली से किसी वकील की ओर से आया था। खोलकर देखा। सौरभ ने वकील के माध्यम से लीगल नोटिस भिजवाया था, जिसमें उसने अचल सम्पत्ति में अपना हिस्सा माँगा था। पत्र के अन्त में लिखा था कि यदि पन्द्रह दिन के अन्दर सन्तोषजनक उत्तर न मिला तो अदालती कार्रवाई की जायेगी। पत्र पढ़ने के बाद आलोक के मनोभावों में कई तरह के उतार—चढ़ाव आये। उसने किताब उलटी कर टेबल पर रखी और अन्दर आया। देखा कि रानी रसोई में व्यस्त है। मुड़ने लगा तो रानी ने पूछा — ‘आलोक जी, कुछ चाहिये था क्या?'

‘नहीं, बस वैसे ही।'

जवाब देने के लिये जैसे ही आलोक ने रानी की ओर मुँह किया कि उसके माथे पर आयी पसीने की बूँदें तथा मुख पर छाई चिंता की रेखाएँ रानी से छिपी न रहीं। काम बीच में ही छोड़कर वह आलोक के पास आयी और उसके माथे पर आये पसीने को अपने आँचल से पोंछते हुए पूछा — ‘आखिर कोई बात तो है जो आप इतने चिंतित और उदास हैं?'

‘तुम रसोई से फारिग हो लो, फिर बैठकर बात करते हैं।'

‘आप बेडरूम में चलो, मैं पाँच मिनट में आई।'

आलोक सीधा बेडरूम में जाने की बजाय पुस्तकालय वाले कमरे में गया, खुली किताब बन्द करके अलमारी में रखी तथा अन्दर आ गया। कुछ ही मिनटों में रानी अपना काम निबटाकर कमरे में आई और आलोक जो बेड पर अधलेटी अवस्था में था, के पास बैठ गई और उसके माथे व चेहरे पर हाथ फिराते हुए पूछा — ‘अचानक ऐसा क्या हुआ कि आप इतने उदास और परेशान लग रहे हो?'

आलोक ने डाक से आया हुआ पत्र कुर्ते की जेब से निकालकर उसके सामने कर दिया। रानी ने पत्र देखा। पत्र एस. के. अस्थाना वकील के लेटरहैड पर टाईप किया हुआ था। पत्र पढ़ने के बाद रानी बोली — ‘इस नोटिस से आप परेशान हैं?'

‘नहीं रानी, मैं नोटिस से परेशान नहीं हूँ। परेशान हूँ तो उसका कारण है सौरभ की सोच तथा उसका व्यवहार। दिल्ली आकर भी उसने हमसे मिलना ठीक नहीं समझा। हमें बिना मिले और अपनी ससुराल होकर वापस चला गया, मैंने बर्दाश्त कर लिया। लेकिन वह इतनी नीची सोच रखता है कि हमारे जीते—जी इस घर में हिस्सा माँग लेगा, मैं सोच भी नहीं सकता था। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि सौरभ ऐसा निकलेगा! मैं भी उम्र के हर दौर से गुज़रा हूँ, मेरा भी बाप था, लेकिन उनके सामने कभी इस तरह से पेश आने की जुर्रत तक नहीं हुई। मेरी और रश्मि की परवरिश का यह प्रतिफल!'

आलोक के मन में सौरभ के प्रति अत्यन्त विक्षोभ था, घृणा थी। सौरभ की आत्महीनता की तीव्रता पर उसका अन्तःकरण चीत्कार कर उठा था।

‘आप परेशान न हों। घर क्या हमने अपने साथ लेकर जाना है? आखिरकार तो सौरभ और उसके बच्चों को ही मिलना है।'

रानी की बातों से आलोक की परेशानी तो कम नहीं हुई, अपितु वह और आवेश में आ गया। उसने कहा — ‘मैंने अभी तक इस विषय में कभी सोचा नहीं था, किन्तु इस पत्र के आने के बाद मैंने तय कर लिया है कि सौरभ को एक कौड़ी भी नहीं दूँगा।'

रानी ने देखा कि आलोक अपने स्वभाव के विपरीत आचरण कर रहा है और बहुत परेेशान है, तो उठकर रसोई से पानी का गिलास ले आई। आलोक को गिलास पकड़ाते हुए कहा — ‘इतने परेेशान होने की जरूरत नहीं, इसका भी समाधान निकल आयेगा।'

‘रानी, तुम्हें नहीं मालूम, मैंने यह घर किस प्रकार खरीदा था! बठिण्डा वाला घर बेचने के बाद जो रुपया—पैसा मिला, वह सारा तो सौरभ की डॉक्टरी की पढ़ाई और पूर्णिमा के विवाह में लग गया। आस्ट्रेलिया सैटल होने के बाद से सौरभ ने न कभी एक पैसा भेजा है, न मैंने कभी माँग की है। हाँ, इतना जरूर है कि जब सौरभ की बेटी होने वाली थी, तब मेरी और रश्मि की जाने—आने की टिकटों का खर्चा उसने वहन किया था। यह घर तो मेरी स्वयं की छोटी—मोटी बचतों और बैंक लोन से खरीदा गया है। लोन की किश्तें अभी भी बाकी हैं।'

‘जैसा आपने बताया है, ऐसी स्थिति में किसी अच्छे वकील की सलाह लेकर इस नोटिस का जवाब भिजवा देंगे। आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। आप पुस्तकालय में देख लो, यदि कोई पढ़ने वाला न हो तो दरवाज़ा बन्द कर आओ। इत्मीनान से खाना खाते हैं, फिर थोड़ा आराम कर लेना। आप खुद ही तो कहा करते हो कि जीवन में ऐसी कोई रात नहीं होती जिसका अन्त प्रभात में न हो। उसी तरह ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका समाधान न हो।

समाप्त