कौन दिलों की जाने!
चालीस
एक दिन साँझ पूर्व जब अस्ताचलगामी सूर्य ने अपने विविध रंग पश्चिमी क्षितिज पर बिखेरे हुए थे, आलोक और रानी लॉन में बैठे चाय पी रहे थे कि प्रोफेसर गुप्ता का फोन आया। वे पूछ रहे थे — ‘आलोक, घर पर ही हो?'
‘हाँ, क्यों?'
‘गपशप करने आना था।'
‘आ जाओ यार, तुम्हें पूछ कर आने की कब से जरूरत पड़नेे लगी?'
‘अरे भाई तुम ठहरे उन्मुक्त परिन्दे, पता नहीं कब, कहाँ अन्तर्धान हो जाओ!'
‘इन बातों को छोड़ो और सुनो! अकेले मत आना, भाभी जी को भी साथ लाना।'
‘हम दो मोलड़ों के बीच वह बेचारी क्या करेगी, बोर होगी। मैं अकेला ही आता हूँ।'
‘भाभी बोर नहीं होगी। तुम दोनों को सरप्राइज़ दूँगा। देख लेना, अकेला आया तो घर के अन्दर पैर नहीं रखने दूँगा।'
रानी आलोक के बात करने के लहज़े से ही जान गयी थी कि कोई बहुत करीबी अतिथि आने वाले हैं और जब बात खतम करने के बाद आलोक ने रानी को बताया कि मेरा ज़िगरी दोस्त पत्नी सहित आ रहा है और वे यहीं खाना खायेंगे, तो उसने पूछ लिया — ‘बोलो, क्या बना लूँ?'
‘अब यह तुम जानो! जो तुम्हें अच्छा लगे, बना लो। लेकिन याद रखना, यह गुप्ता फैमिली देर करने वालों में नहीं है, बहुत जल्दी आ धमकेंगे। जो कुछ बनाना हो, जल्दी से बना लेना। बाज़ार से कुछ मँगवाना हो तो ले आता हूँ।'
‘बाज़ार जाने की जरूरत नहीं। आप निश्चिंत रहें। उनके आने से पहले सब कुछ तैयार हो जायेगा।'
घंटे—एक पश्चात् प्रोफेसर गुप्ता पत्नी सहित पधार गये। रानी बाथरूम में थी। ड्रार्इंगरूम में बैठते ही गुप्ता बोला — ‘यार, बड़ी बढ़िया खुशबू आ रही है। ऐसी खुशबू से तो भूख और उग्र होती जा रही है। क्या यही सरप्राइज है? लेकिन इससे मिसेज़ गुप्ता बोर होने से कैसे बचेंगी?'
‘थोड़ी तसल्ली रख, मेरे यार। सरप्राइज़ भी देता हूँ,' इसके साथ ही अन्दर की ओर मुख करके पुकारा — ‘रानी, जल्दी आओ भई, गुप्ता जी बेताब हुए जा रहे हैं।'
एक महिला का नाम सुनकर प्रोफेसर गुप्ता और मिसेज़ गुप्ता दोनों के कान खड़े हो गये। कुछ ही पल बीते होंगे कि रानी आलोक द्वारा खरीदी गई साड़ीे, गले में मोतियों का हार, कानों में एकल—मोती टॉप्स, कलाइयों में काँच की हरे—लाल रंग की चूड़ियाँ और जन्मदिन के अवसर पर आलोक द्वारा दी गई हीरे की अँगुठी पहनेे ड्रार्इंग—रूम में पधारी। इस सौम्य वेश—भूषा में रानी का व्यक्तित्व और निखर उठा था। ना—मालूम मेकॲप के बावजूद उसका मुख—सौन्दर्य देखते ही बनता था। उसे इस रूप में देखकर प्रोफेसर गुप्ता और मिसेज़ गुप्ता को तो हर्ष—मिश्रित आश्चर्य हुआ ही, क्योंकि उन्होंने रानी को पहली बार देखा था, आलोक भी मन—ही—मन अति प्रसन्न था कि स्त्रियों के प्रति आम धारणा के विपरीत रानी बहुत कम समय में तैयार होकर आ गई थी और सुन्दर तो लग ही रही थी। रानी ने आते ही अतिथि—दम्पत्ति को हाथ जोड़कर नमस्ते की। प्रोफेसर गुप्ता और मिसेज़ गुप्ता, दोनों ने भी खड़े होकर रानी की नमस्ते प्रतिनमस्ते द्वारा स्वीकार की। मिसेज़ गुप्ता ने रानी का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बिठाया।
आलोक ने प्रोफेसर गुप्ता को सम्बोधित कर कहा— ‘ये हैं रानी, तुम्हारी भाभी। कैसा लगा सरप्राइज़?'
प्रोफेसर गुप्ता ने हास्य—मिश्रित रोष के साथ कहा — ‘बहुत बढ़िया। दिल ‘गार्डन—गार्डन' हो गया। आलोक यार, तू तो छुपा रूस्तम निकला। कानों—कान खबर नहीं और हमें भाभी जी के दर्शन भी करवा दिये।'
और सोफे से उठते हुए हाथ जोड़कर रानी को सम्बोधित करते हुए कहा — ‘भाभी जी, एक बार फिर मेरा नमस्कार स्वीकार कीजिए। मैं इतना प्रसन्न हूँ कि बयां नहीं कर सकता!'
रानी ने भी खड़े होकर गुप्ता जी की नमस्ते स्वीकार की और धन्यवाद करते हुए बैठ गई।
आलोक — ‘रानी को मैंने तुम्हारी भाभी तो बना दिया है, किन्तु हमारे रिश्ते पर सरकारी मोहर लगने में अभी महीना—भर और लग जायेगा, इसीलिये अपनी मित्र—मण्डली में से किसी को भी यह समाचार नहीं दिया है।'
‘आलोक, सरकारी मोहर की दरकार तो बाहर वालों के लिये होती है, घर वालों के लिये नहीं।'
इसके बाद आलोक ने गुप्ता—दम्पत्ति को सारी दास्तान — रानी के साथ बचपन की दोस्ती से लेकर वर्तमान तक की तथा आगे वे क्या करने की सोच रहे हैं — कह सुनाई। मिसेज़ गुप्ता ने सारी बातें सुनने के बाद कहा — ‘भाई साहब, आपने हमें विश्वास में लेना ठीक नहीं समझा। खैर, कोई बात नहीं, जरूर कोई मज़बूरी रही होगी। आपने थोड़ा—सा हिंट भी दिया होता तो हम आप लोगों को घर पर निमन्त्रित करते। लेकिन आप दोनों के जीवन के घटना—क्रम को जानकर मैं तो यही कहूँगी कि रानी भाभी के मन की मुराद तो पूरी हुई ही है, रश्मि भाभी के बिछोड़े के बाद चाहे आपने कभी भी अपने जीवन में आई कमी को प्रकट नहीं होने दिया, फिर भी कमी तो थी ही, जो अब बड़े सुन्दर ढंग से दूर हो गई है। दूसरे, जीवन के इस पड़ाव पर एक अदद साथी की बहुत जरूरत होती है वरना तो अकेलापन आदमी को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से जर्जर कर देता है। आपको तो रानी भाभी के रूप में ऐसा साथी मिला है, जिसके साथ तो नये सिरे से सम्बन्ध बनाने की भी समस्या नहीं है। अब तो परमात्मा से यही दुआ करती हूँ कि आप दोनों का जीवन पानी की तरह हो जिसमें कोई लकीर नहीं खिंच सकती। आपकी जोड़ी को किसी की नज़र न लगे, आप दोनों सदा खुश रहें।'
आलोक और रानी ने मिसेज़ गुप्ता का धन्यवाद किया और आलोक ने रानी को सम्बोधित करकेे कहा — ‘बातें तो बहुत हो गईं और होती भी रहेंगी। गुप्ता जी को तो भूख तड़पा रही होगी। रानी, जल्दी से खाने—पीने के लिये कुछ लाओ।'
रानी उठकर सूप और स्नैक्स ले आई। तदुपरान्त रानी और मिसेज़ गुप्ता ने मिलकर खाना लगाया और सबने खाने का लुत्फ उठाया। स्वादिश्ठ खाने के लिये रानी का धन्यवाद करके तथा उन्हें आगामी रविवार को अपने घर आने का निमन्त्रण देकर गुप्ता दम्पत्ति ने विदा ली।
रात को जब वे सोने की प्रक्रिया में थे तो आलोक ने रानी को कहा — ‘रानी, तुमने गुप्ता और भाभीजी की बहुत अच्छी तरह से खातिरदारी की। वे बड़े प्रसन्न थे। बहुत—बहुत धन्यवाद।'
‘आलोक जी, इसमें मेरा धन्यवाद करने वाली क्या बात है! मैंने तो एक गृहिणी का कर्त्तव्य ही निभाया है। घर आये मेहमान का उचित सम्मान करना तो हमारी परम्परा है।'
‘यह तो ठीक है। तैतिरेय उपनिषद् में उल्लेख आता है — अतिथि देवो भवः। किन्तु इसके विपरीत आजकल प्रायः देखने में आता है कि घर में कोई अतिथि आ जाये तो गृहिणी को लगता है, जैसे कोई बहुत बड़ी मुसीबत आ गई है। उसकी कोशिश तो यह रहती है कि अतिथि को खाना न ही खिलाना पड़े और यदि हालात ऐसे बन जायें कि खाना खिलाना ही पड़ेगा तो या तो कुछ—न—कुछ बना—बनाया बाज़ार से मँगवा लिया जाता है या फिर अन्यमनस्क भाव से थोड़ा—बहुत बना कर अतिथि को जल्द—से—जल्द विदा करने की इच्छा मन में बनी रहती है।'
‘आप ठीक कह रहे हैं। मैंने भी कई परिवारों में ऐसे हालात देखे हैं। ऐसी जगह जाने में भी संकोच होता है। शायद इसी सन्दर्भ में कहा गया हैः
आवत तो हर्षे नहीं, नैनन नहीं स्नेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह।।'
‘मेरे परिचितों में गुप्ता जैसे चार—पाँच और कपल्स हैं, जो बच्चों के बाहर सैटल होने के कारण अकेले रहते हैं, लेकिन मेरी उनके साथ भी गुप्ता जैसी ही घनिश्ठता है। तुम्हें उन सभी से मिलवाऊँगा। तुम्हें अच्छा लगेगा।'
‘आप जिन कपल्स से मिलवाने की बात कर रहे हैं, वे सभी रिटायर्ड लाइफ ही गुज़ार रहे हैं या इनमें से कोई बिज़नेस में भी है?'
‘ये सभी लोग मेरी तरह ही रिटायर्ड हैं।'
‘ये सभी फिजीकली तो ठीक—ठाक ही होंगे?'
‘हाँ, उम्र के साथ होने वाली कभी—कभार की थोड़ी—बहुत अस्वस्थता को नज़रअन्दाज़ कर दें तो सभी फिट ही कहे जा सकते हैं। लेकिन तुम्हारे प्रश्न का सबब?'
‘मेरा मतलब, इनको तो आप गैदरिंग वाले दिन बुलाओगे ही। तब इनसे औपचारिक परिचय हो जायेगा। लेकिन मैं सोच रही हूँ कि उसके बाद यदि हम यानी आपकी यह मित्र—मण्डली सप्ताह में एक—आध बार इकट्ठे मिलकर कभी पिकनिक का प्रोग्राम बना लें, कभी इकट्ठे कोई फिल्म देख लें, कभी किसी एक के घर इकट्ठे लंच का प्रोग्राम बना लें, साल—छः महीने में एकबार पाँच—सात दिन के लिये कहीं घूमने जाने का प्लान कर लें तो न केवल ज़िन्दगी की एकरसता को दूर रखा जा सकेगा, अपितु जीवन में नई ऊर्जा के स्रोत मिलेंगे और अकेलेपन की बीमारियों से भी बचा जा सकेगा।'
‘बड़ा अच्छा सुझाव है। इस विषय में पहले मैं गुप्ता से बात करूँगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारे सुझाव को सभी हाथों—हाथ लेंगे।'
इस तरह एक—दूसरे के साथ अपने मनोभाव तथा विचार साँझा करते—करते रानी और आलोक नींद के आगोश में समा गये।
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