कौन दिलों की जाने! - 25 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 25

कौन दिलों की जाने!

पच्चीस

रमेश के जाने के बाद रानी घर में अकेली रह गई। सोचने लगी, वकील साहब ने बातों—बातों में आलोक तथा उनकी दोस्ती सम्बन्धी सारी जानकारी हासिल कर ली है। मेरे बाद काफी देर तक रमेश जी वकील साहब के साथ रहे। वकील साहब ने मुझसे जो जानकारी ली है, उसमें से कई बातें रमेश जी को पहले से ज्ञात नहीं थीं। वकील साहब ने रमेश जी को सारी बातें अवश्य बताई होंगी। रमेश जी और वकील साहब में क्या—क्या विचार—विमर्श हुआ, मुझे कुछ भी नहीं बताया रमेश जी ने। वकील साहब ने दुबारा मुझे बुलाया नहीं। समझ में नहीं आता कि आलोक को क्या बताऊँ। कुछ पल दुविधा में गुज़रे। जब नहीं रहा गया तो आलोक का नम्बर मिलाया — ‘हैलो आलोक! घर पर ही हो?'

‘नहीं, मैं अपने एक मित्र के साथ हूँ। मैं घंटे—डेढ़ घंटे में घर पहुँच कर तुमसे बात करता हूँ,' इतना कहकर उसने फोन बन्द कर दिया।

वैसे तो रमेश के ऑफिस जाने और लच्छमी के काम कर चुकने के बाद रानी प्रायः ही घर में अकेली रहती है, किन्तु अब कुछ दिनों से उसे लगता है, जैसे अकेले में घर काट खाने को आता हो। ऐसा पहली बार हुआ है कि आलोक से बात करनी चाही, लेकिन नहीं हो पाई। दिल डूबने लगा। जब और कोई रास्ता नहीं सूझा तो अपने को व्यस्त करने की गर्ज़ से उसने अपनी सहेली मिसेज़ वर्मा को फोन किया — ‘हैलो अलका, काम से फारिग हो गई क्या, दोपहर में फ्री हो?'

‘काम से तो फारिग हो चुकी हूँ, किन्तु आज छुट्‌टी का दिन होने के कारण ‘इन्होंने' फिल्म देखने का प्रोग्राम बना रखा है। कहो, कोई खास बात थी?'

‘कुछ खास नहीं। मैंने सोचा, यदि तुम फ्री होती तो इकट्ठे बैठकर गप्प—शप्प मारते।'

‘सॉरी, आज तो नहीं आ पाऊँगी।'

रानी मन मसोसकर रह गई। आज पहली बार उसके फोन करने पर आलोक व्यस्त मिला। गपशप के लिये सदा तैयार रहने वाली मिसेज़ वर्मा के पास भी आज उसके लिये समय नहीं था। टी.वी. ऑन किया। कई चैनल बदले, लेकिन आज टी.वी. देखने को मन तैयार नहीं था। आखिर टी.वी. बन्द कर अलमारी में से ‘आपका बंटी' उपन्यास उठाया और पढ़ने का प्रयास किया, किन्तु एक—दो पन्ने पढ़ने के बाद वापस अलमारी में रख दिया। जब मन में बेचैनी हो तो पढ़ने में भी मन नहीं लगता। मन तो बेचैन था आलोक से बात करने को, इसलिये किसी भी काम में मन न लगना स्वाभाविक था। पजरे में बन्द पंछी जैसे फड़फड़ाता है, लगभग वैसी ही मनोदशा में रानी घर में ही इधर—उधर चक्र काटने लगी। काम में व्यस्त होकर ही ऐसी दशा में मन को कुछ चैन मिल सकता है। चाहे रविवार की ताश—पार्टी से आकर रमेश कभी—कभार ही डिनर करता था, तो भी खाना तो बनाना ही था। रानी ने स्वयं को व्यस्त करने के इरादे से रसोई की ओर रुख किया।

कोई दो—एक घंटे बाद आलोक का फोन आया। तब तक रानी रसोई के काम से निवृत हो चुकी थी। मन भी कुछ शान्त था। आलोक अच्छी तरह जानता था कि यदि उसने रानी से सॉरी कहा तो वह बुरा मान जायेगी, इसलिये उसने सीधे सॉरी कहने की बजाय स्पष्टीकरण के अन्दाज़ में कहा— ‘शुक्रवार रात को घर पहुँच कर तो मैं सो गया था, किन्तु कल दोपहर से ही मुझे तुम्हारी कॉल की प्रतीक्षा थी। मैंने अपनी ओर से जानबूझ कर फोन नहीं किया। आज सुबह ही मेरे एक मित्र ने अपने बेटे के कॅरियर के सम्बन्ध में कुछ डिस्कस करने के लिये बुला लिया। साथ ही उसने लंच इकट्ठे करने का आग्रह कर दिया। उसके साथ बैठे हुए तुमसे बात करना मैंने उचित नहीं समझा। अब बताओ क्या—क्या हुआ? कोई विशेष चिंता वाली बात तो नहीं?'

रानी ने सारी बातें आलोक को बताईं। वकील के पास राय लेने के लिये जाने तथा रमेश द्वारा तलाक की बात सुनकर आलोक को थोड़ा झटका जरूर लगा, फिर भी उसने रानी को समझाया कि जीवन—संघर्ष में धैर्य रखने से ही पार लगा जा सकता है और आश्वस्त किया कि यदि रमेश जी तलाक पर अड़ते हैं तो भी उसे अकेली नहीं रहना पड़ेगा। साथ ही कहा कि अगर वह घर पर अकेली है और जरूरत समझती है तो वह आ सकता है। लेकिन रानी ने उसे आने से मना कर दिया।

रात को बेड पर लेटे—लेटे रमेश मिस्टर खन्ना से हुई बातचीत पर विचार करने लगा। उसके मस्तिष्क में परस्पर विरोधी विचार उभरने लगे। मिस्टर खन्ना द्वारा दी गई पुनःविचार करने की सलाह के बावजूद वह इस बात पर तो पक्का मन बना चुका था कि जो हालात बन गये हैं और जैसा रानी का रवैया है, उसके चलते उनके वैवाहिक जीवन की गाड़ी का पहले की तरह पटरी पर आना तो असम्भव है। विकल्प यही है कि तलाक लेकर अलग हो जाया जाये। ऐसा होने पर ही पल—पल, दिन—प्रतिदिन के मानसिक तनाव से छुटकारा सम्भव हो सकता है। वह मिस्टर खन्ना द्वारा सुझाये विकल्पों पर विचार करने लगा। क्या उसे रानी के चरित्र पर सन्देह करके तलाक की कार्रवाई करनी चाहिये अथवा रानी को आपसी सहमति से तलाक के लिये तैयार करना चाहिये। पहले विकल्प पर सोचते हुए वह विचार करने लगा कि यदि वह ऐसा कदम उठाता है तो पहली बात तो यह है कि रानी के चरित्र पर आक्षेप लगाने के लिये उसके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं सिवाय रानी की मिस्टर खन्ना के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति कि आलोक और रानी एक रात इकट्ठे रहे थे या कि वे रमेश की अनुपस्थिति में एक—दूसरे से मिलते रहे हैं। कोर्ट में इतने से सन्देह पर रानी के विरुद्ध केस चलाना नासमझी होगी, सम्भवतः मिस्टर खन्ना भी इस आधार पर केस करने को तैयार न हों! दूसरे, यदि केस कोर्ट में कर भी दिया जाये तो भी परिणाम मेरे हक में होने के बहुत कम चाँस हैं। इसके अतिरिक्त कोर्ट में केस करने पर रानी भी चुप तो बैठेगी नहीं, क्योंकि उसकी प्रतिश्ठा भी दाँव पर लगी होगी। जिस तरह के उनके सम्बन्ध हैं, उनके चलते चाहे परोक्ष रूप से ही सही, आलोक उसकी हर सम्भव सहायता करेगा। जिस तरह का कोर्टों का रवैया है, कौन कह सकता है कि कोर्ट में केस करने पर कितनी देर तक मुकद्दमा चलेगा। इस असीमित व अन्तहीन कालावधि में मानसिक तनाव तो लगातार झेलना ही पड़ेगा। इस तरह विचार करते हुए रमेश ने इस विकल्प को तो पूरी तरह से खारिज़ कर दिया। दूसरे विकल्प पर विचार करने पर उसे लगा कि जिस तरह से रानी आलोक के साथ अपनी दोस्ती से टस—से—मस नहीं होना चाहती, उसके चलते वह आसानी से तलाक के लिये अपनी सहमति दे सकती है। इसके लिये अर्जी देने के लिये एक साल से अलग रहने वाली शर्त पर खन्ना साहब से दुबारा पूछा जा सकता है। यहाँ तक सोचकर उसने स्वयं को काफी हद तक हल्का महसूस किया। सोचा कि एक—आध दिन में खन्ना साहब से बात करने के बाद ही रानी से पूरे मसले पर बात करनी चाहिये। इसके बाद उसने स्वयं को सोने के लिये ढीला छोड़ दिया। जब आदमी मानसिक तनाव से मुक्त हो और शारीरिक तौर पर थका हो तो नींद आते देर नहीं लगती। रमेश के साथ भी यही हुआ। कुछ ही देर में वह नींद की बेहोशी में चला गया।

***