‘थप्पड’ फिल्म रिव्यू - ब्रेव..! ब्रिलियन्ट..!! ब्यूटिफूल..!!! Mayur Patel द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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‘थप्पड’ फिल्म रिव्यू - ब्रेव..! ब्रिलियन्ट..!! ब्यूटिफूल..!!!

कोई बडी बात नहीं थी. बस एक थप्पड ही तो था. पहेली बार हाथ उठाया था उसने. पति-पत्नी के बीच इतना तो होता रहेता है. इतनी छोटी सी बात पे कोई तलाक ले लेता है क्या..?

एसे कई सारे डायलोग्स ‘थप्पड’ में सुनाई दे पडते हैं, और सिर्फ सुनने या पढने तक ये सही भी लगते हैं, लेकिन जब फिल्म ‘थप्पड’ में उन्हें देखा जाता हैं तब बात कुछ और ही होती हैं. यूं तो बात बस इतनी सी थी, लेकिन सच में बात इस से कहीं ज्यादा थी…

‘थप्पड’ की कहानी है हाउसवाइफ अमृता (तापसी पन्नु) की जो अपने पति विक्रम (पवेल गुलाटी) और सास (तन्वी आजमी) के साथ रहेती हैं. प्यारा सा ससुराल, अच्छा मायका, अच्छे पडोसी… सब कुछ सही था अमृता की जिंदगी में. एक रात कुछ एसा हो जाता है की विक्रम का हाथ उठ जाता है और अमृता के गाल पर पड जाता है एक थप्पड… उस एक थप्पड के चलते अमृता का अस्तित्व और आत्मसन्मान ध्वस्त हो जाते हैं और वो अपने पति से तलाक लेने का फैसला कर लेती हैं.

फिल्म के ट्रेलर से ही कहानी का पता चल जाता है. किसी को ये कहानी सीधीसादी तो किसी को सिली भी लग सकती है, लेकिन इस कहानी की जो प्रस्तुति की गई है वो बहोत बहोत बहोत ही दमदार है. सलाम करनी पडेगी निर्देशक अनुभव सिन्हा को जिन्होंने इस फिल्म को किसी भी प्रकार के मेलोड्रामा और रोनाधोना से दूर रख्खा है. ‘थप्पड’ में वो ही सिम्प्लिसिटी है जो उनकी पीछली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ में थीं. सलाम करनी पडेगी निर्देशक और मृणमयी लागू को जिन्होंने मिलकर इतनी धांसू स्क्रिप्ट लिखी है. गुंजाईश तो बहोत थीं की इस फिल्म में ड्रामा ठूंसा जाए, चिल्लमचिल्ली और मारपीट के दृश्य दिखाए जाए, एक सनसनीखेज कोर्ट रूम ड्रामा बनाया जाए, लेकिन लेखक-निर्देशक ने एसा बिलकुल भी न करके फिल्म को एकदम सीधेसादे, वास्तविक ढंग से बनाया है और ये ही इस फिल्म का सबसे बडा प्लस पोइन्ट है. न तो कहीं कोई कानफाडू बैकग्राउन्ड म्युजिक है और न ही कहीं कोई ओवरएक्टिंग. बडा ही नपातुला, बारिक, बहेतरिन काम किया गया है लिखावट एवं निर्देशन के लेवल पर.

क्या सच में किसी औरत को केवल एक थप्पड की वजह से डिवोर्स ले लेना चाहिए..? बात सिर्फ एक थप्पड की नहीं है, बात है एक औरत के आत्मसन्मान की जिसकी रक्षा करने का पूरा हक उसे होना चाहिए. जिस रिश्ते में वो खुश न हो, उस रिश्ते से छूटकारा पाना ही बहेतर होता है. फिल्म में हमारे पुरुषप्रधान समाज की सोच पर करारा प्रहार किया गया है लेकिन समस्त पुरुष जाती को विलन दर्शाया नहीं गया, जो की बडी ही अच्छी बात है. नायिका अमृता के डिवोर्स लेने की बात सुनकर खुद उसकी मां उसे कहेती है की थोडा एड्जस्ट करना सीख लो. क्यों..? क्यों की वो एक औरत है और डिवोर्स से सबसे ज्यादा नुकशान एक औरत को ही होता है हमारे समाज में… एसी तो कई सारी सिच्युएशन फिल्म में गढी गई हैं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दे. डायलोग्स भी फिल्म के मूड के हिसाब से एकदम सीधेसादे लिखे गए हैं लेकिन उन सीधेसादे डायलोग्स में भी इतना वजन है की वो दर्शकों के दिल पर गहेरी चोट कर दे. कमाल की लिखावट…

अभिनय में हर एक कलाकार ने अपना बेस्ट दिया हैं. किसी ने कहीं भी ओवर-एक्टिंग नहीं की हैं. तापसी पन्नु के क्या कहेने..! निःसंदेह ‘थप्पड’ में उन्होंने अपने करियर का सबसे मजबूत अभिनय किया हैं. थप्पड पडने से पहेले अमृता की रोजमर्रा की खुशहाल जिंदगी और थप्पड के बाद की अमृता की तूटी-बिखरी बोडीलेंग्वेज दिखाने में वो शत-प्रतिशत कामियाब हुईं हैं. उनका साधारण सा पहेनावा भी उनके किरदार को चार चांद लगा देता हैं. ‘थप्पड’वाली पार्टी के बाद, रात को वो लिविंग रूम का फर्निचर ठीक करने लगती हैं. उस सीन में उनका काम देखकर पता चलता है की कितनी उमदा अदाकारा हैं वो. तापसी की खामोशी इतनी असरदार ढंग से पेश की गई है की वो दर्शक को चुभने लगती है. फिल्म में कई सीन एसे हैं जिन में न तो कोई संवाद है, और न कोई बेकग्राउन्ड म्युजिक. हैं तो सिर्फ कलाकारों की हाजरी और उनके हावभाव. खामोशी में लिपटें वो सभी दृश्य इतने प्रभावशाली हैं की पूछो मत. सिनेमा नाम की कला का इतना उत्त्म प्रयोग बहोत ही कम देखने को मिलता है.

तापसी ने बिना बोले भी बहोत कुछ बोल दिया है इस फिल्म में. यकीनन अवोर्ड के लायक परफोर्मन्स..! उनके पति के रोल में पवेल गुलाटी भी तारिफ के काबिल काम कर गए है. बंदा अपने पत्नी से बेहद प्यार करता है, अपनी गलती का अहेसास भी है उसे और अपने वैवाहिक जीवन को तूटने से बचाने के लिए भी वो पुरजोर कोशिश करता है… ये पात्र एसा है की बावजूद उसकी गलती के दर्शक उसके प्रति सिम्पथी महेसूस करते हैं. वो कहीं भी, कभी भी विलन नहीं लगता. इस सफलता के लिए भी लेखक-निर्देशक और एक्टर पवेल अभिनंदन के पात्र हैं. विक्रम की गिल्टी को दर्शाने में पवेल पूरी तरह से सफल हुए है. आशा है की इतने अच्छे अभिनेता को बोलिवुड में और भी अच्छे रोल्स मिलेंगे. सहायक कलाकारों में अमृता के माता-पिता बने रत्ना पाठक शाह और कुमुद मिश्रा लाजवाब लगें. मिश्राजी को तो गले लगाने का मन हो जाए इतने बढिया पिता बने है वो. सेल्युट, सरजी. अमृता की सास बनीं तन्वी आजमी और अमृता के भाई की गर्लफ्रेन्ड के रोल में नाइला ग्रेवाल भी जचीं. अमृता की वकील के पात्र में माया सराओ ने तगडी परफोर्मन्स दी हैं. उनकी स्क्रीन प्रेजन्स जबरदस्त लगीं. इनके अलावा भी सभी कलाकारों ने सटिक काम किया हैं. दिया मिर्जा का पात्र अच्छा तो है पर उन्हें कम महत्त्व दिया गया है.

फिल्म में म्युजिक न के बराबर है, और कहानी में इस से ज्यादा फर्क भी नहीं पडता. टेक्निकल पासें अच्छे हैं.

कुल मिलाकर देखें तो ये फिल्म बहोत ही ब्रेव, ब्रिलियन्ट और ब्यूटिफूल है. इस ‘थप्पड’ की गूंज समाज के हर वर्ग तक पहुंचनी चाहिए. देश के हर मर्द, हर औरत को ये फिल्म देखनी ही चाहिए. 5 में से 4.5 स्टार्स. महिनों बाद किसी फिल्म के लिए ये शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं- ‘इसे कहेते है ग्रेट सिनेमा.’ मस्ट वॉच.