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एक अजनबी शाम का अफसाना

अजनबी…तुम जाने पहचाने से… लगते हो… ये बड़ी अजीब सी बात है...!


समिधा गुनगुना रही थी. मन मे क्या था कौन जाने, पर रोमांच तो था ही. क्यों न हो! आज की खुशनुमा शाम का आगाज़ जो हो चला था. हाँ, ऐसा ही कुछ रूटीन बन गया था कि अकसर उसकी शामें थोडा रोमांटिक और कुछ रोमांचक हो जाती.


समिधा ने बाथरूम से निकल कर पहले वॉल क्लॉक पर निगाह डाली. सर्द मौसम में यूं भी शामें जल्दी आ जाती हैं. चार बज कर बत्तीस मिनट हुए थे. बालों को शैम्पू करना जरूरी भी नहीं था, पर अगर किया है तो अभी उसे ड्रायर भी करना था. आई लाइनर, लिपग्लॉस, थोड़ा और मेकअप भी!


“डार्लिंग, चाय लोगी या कॉफी? बना लाऊं कुछ?”,


पास आकर आशीष ने पूछा तो समिधा ने उसके हाथों को चूमते हुए कहा,


“अभी तो बिना नशे के ही नशा हो रहा है डिअर ...! फिर बीयर पार्टी की क्यों ऐसी-तैसी कराता है मैन चाय-कॉफी पिलाकर!”,


कहकर खिलखिलाई समिधा तो आशीष की हंसी भी एकबारगी वातावरण को उन्मुक्त बना गई. उसने समिधा को अपने अंक में छिपा लिया, और बोला,


“देखो… आज क्या रहता है...”


“हम्म”,


समिधा एक हाथ से ड्रायर कर रही थी, दूसरे से बालों को संभाले थी. और फिर ऐसे में ज्यादा बोलने का मन नहीं था उसका था. वह जानती थी कि ऐसे समय में खुद आशीष भी उससे बहस करने से कतरायेगा. चुप ही रही. उसके पास समय की भी कमी थी अभी. फिर भी वही हुआ. आशीष बिना किसी आरोप के अपनी सफाई देने लगा था.


“बस कुछ दिन और… फिर हम लोग बहुत दूर चले जायेंगे. इतनी दूर कि वहां तुम होंगे और हम. कोई और नहीं. न कोई फालतू की यादें. नई जगह, नई जिंदगी और.. नया रूप… !”


“आशीष तुम्हीं बताओ. अब कैसे भरोसा करूं… और फिर नया रूप?... न आशीष न! अब विदा करो, अलविदा ही बोल दो इस रास्ते को, जिसमें न कोई नाम है, न पहचान और न रिश्ता. तब कुछ ज्यादा ही मस्त रहोगे. इंसान अगर चाहे तो कम आमदनी में भी अच्छे से रह सकता है”,


जब रहा ही नहीं गया तो समिधा बोली.


“हो सकता है कि तुम्हारी सोच ठीक हो पर बहुत और भी फैक्टर्स काम करते हैं. छोटी सी जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीना इतना भी आसान नहीं है, यह तो तुम भी समझती हो न!”,


आशीष ने बात सम्भालनी चाही.


पर समिधा बात करते-करते भावुक हो चली थी. अकसर ऐसा अवसर आना आम था. आशीष भी समझता था. ऐसे मौके पर वह इमोशनल कम, व्यवहारिक अप्रोच पर अधिक ध्यान देता था. वह यह भी जानता था कि अभी उसके तर्कों की धज्जियां उड़ाते उसे देर नहीं लगेगी. पर फायदा किसका होगा? शायद किसी का भी नहीं. उलटे नुक्सान होने का खतरा अलग था.


आशीष ने धीरे से उसके होंठों को अपनी मध्य अंगुली से ढाँप लिया था. पर उसकी आँखों मे थोड़ा नमी उभरती देखकर उसने समिधा को पहले धीमे से, फिर कस कर अपने सीने से सटा लिया. उसके होंठों पर जड़े चुम्बन से समिधा सिसक कर रह गई. कुछ देर वह यूँ ही चिपकी रही, फिर उससे दूर होती हुई बोली,


“मकड़ी के जाले को देखा होगा न? न जाने कितनी बार जाले को तहस-नहस कर देते हैं हम लोग. और मकड़ी मर भी जाती है. पर बच जाती है तो या तो वहां या फिर किसी और जगह फिर से जाल बुनना शुरू कर देती है. बिना यह जाने कि वही खतरा अभी भी मंडरा रहा है! और यूँ भी मैं एक स्त्री हूँ… मेरे मन में भी कुछ कोमल भावनाएं मौजूद हैं… एक नन्हा सा दिल मचलता है किसी और नन्हीं सी जान के लिए. उम्र बढती जा रही है, पर न जाने कब डॉक्टर्स की इजाजत होगी.”,


और उसने एक नि:श्वास ली.


“पर समी..!”,


आशीष ने फिर सफाई देनी चाही.


“अरे, मैं मकड़े को दोष थोड़े ही दे रही हूं…! और ले रही हूँ न मैं ट्रीटमेंट. मैं तुमसे एक-एक बात शेयर करना चाहती हूँ, तो इसका मतलब एक ट्रस्ट है न, जो तुममें मैंने खोजा है… अच्छा जाओ तुम, इससे पहले कि मैं कमजोर पड़ जाऊं. पर जल्दी ही आ जाना, वादा करो! इस बार एक मिनट भी फालतू नहीं..!”,


कहते हुए समिधा ने मुस्कुराते हुए उसकी बात काट दी थी.


आशीष भी जल्दी से अपने किसी अनजाने काम के लिए कानपुर के लिए निकल गया था. अमृत सिंह के व्हाट्सएप्प मैसेज ने कन्फर्म कर दिया था कि उसका आना पक्का है. वह आधे घंटे में आ पहुंचेगा.


समिधा समझदार थी. अपना भला-बुरा समझती थी. यह भी जानती थी कि किससे दोस्ती रखनी है, और कितनी रखनी है. लखनऊ विश्वविद्यालय से पी जी एम के बाद मैनेजमेंट में डिप्लोमा कर कई साल पहले ही कॉर्पोरेट वर्ल्ड की दुनिया को भी देख-समझ चुकी थी. वैवाहिक जीवन के कुछ असहज महीने भी बिता चुकी थी वह. आज की नारी थी, सो दोनों ही जगहों को ठोकर मार आई थी… एक-एक मौक़ा देने के बाद-- पूना के अपने मल्टीनेशनल सॉफ्टवेयर कंपनी के एच आर चीफ के नटराजन पर चिल्लाने के बाद, और बाद में पति परमेश्वर कहे जाने वाले जन्तु शिवेंद्र की बेहुदगियों से झुंझला कर. यानि, सिंगल थी, और बिंदास भी. पर कुछ तो करना ही था. दोनों सहारे ढूँढने थे. साथ के, और काम के. इसलिए कुछ काम शुरू कर दिया था. सहारे के रूप में आशीष भी मिल ही गया था.


स्मार्टफोन की खोज अभी हाल की ही तो बात है. एक दशक भी नहीं हुआ होगा. और सोशल मीडिया भी तभी आया. ख़ास तौर से फेसबुक! अगर फेसबुक न होता तो न जाने कितनी प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती, और कितने अरमान दिलों में ही टिमटिमाते कर यूँ ही उनका अवसान हो जाता. सोशल मीडिया में समिधा की जान बसती थी. खुशनुमा पार्टियां और नये-नये लोगों से मिलना समिधा को बहुत भाता था. अगर दुनिया की बेरुखी के विषय में सोचने लगती समिधा तो आज यहाँ न होती, या तो किसी साइकैट्री वार्ड में… या बेहूदे पति के घर झाड़ू-पोंचा लगाते हुए.


...पांच बजकर बीस मिनट हो गए थे. एक तो जनवरी की सर्दी वैसे भी जानलेवा होती है, फिर शाम को नहा-धो कर मेकअप करना.. वो भी उस फेसबुक फ्रेंड के लिए जिसे कभी देखा ही नहीं. थोड़ा उबाऊ है, पर कहीं रोमांचक भी. और खुशनुमा रहना… सोशलाइज होना भला किसे नहीं अच्छा लगेगा, सोचा समिधा ने.


वह आ रहा है, तो कितने देर बाद पहुंचेगा, इसको जानना समिधा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था. सो, अमृत से मिले सन्देश के बाद भी समिधा ने उसको कॉल कर बात की.


“अमृत, कहां पहुंचे?”


“बस, दस मिनट लगेंगे. सदर में रहता हूँ, तो वाया डॉलीबाग पहुंच रहा हूं. दो मिनट का काम है वहां. न्यू हैदराबाद इतनी भी दूर नहीं”,


कहकर अमृत ने एक खुशनुमा-सी आभा बिखेर दी! उसकी सौम्य हंसी से इतनी दूर होते हुए भी अमृत की निकटता का अहसास हो रहा था समिधा को.


आज समिधा ने साड़ी की बजाय जीन्स और डार्क रेड टॉप पहना था. इतनी ठंड में भी उसने सिर्फ एक स्टॉल लपेटा हुआ था. बैडरूम में तो वार्मर की कृत्रिम गर्माहट काफी जो थी. अमिधा की उम्र सत्ताईस साल थी, पर सत्रह साल से अधिक नहीं लगती थी. आकर्षक नयन-नक्श, स्लिम, लगभग साढ़े पांच फीट की हाईट, गोरा रंग, घने लम्बे और काले बालों के साथ हल्की नीली आंखें-- सब कुछ एक पैकेज के रूप में था उसके पास. कुछ ईश्वर प्रदत्त, कुछ आशीष के सहयोग से. और इस पैकेज को पाकर आशीष का इतराना कभी-कभी खुद समिधा को भी अच्छा लगता था. पर अगले ही क्षण वह विचारों के समुद्र में कहीं गहरी खो जाती… और गहराई में मंथन करते रहने से भी कुछ हाथ न लगता. अपना भविष्य अनन्त समुद्र-सा ही लगता उसको. ऐसा अथाह समुद्र जिसका कोई ओर-छोर न हो!


इसी ऊहापोह में पता ही न चला कि कब दस मिनट भी बीत गए. उसके विचारों को ब्रेक लगा जब डोर बेल की धुन ने उसे आगन्तुक के आगमन की खबर दी. उसका अनुमान सही था.


दरवाजे पर एक लगभग पैंतालीस वर्ष का परिपक्व व्यक्ति, एक बड़े से रेड रोजेज के बुके के साथ सायास मुस्कुराने का प्रयास कर रहा था. एक झलक में ही उसे लगा कि कोई खास आकर्षण नहीं था उसमें. साधारण व्यक्तित्व था उसका. औसत कद, थोड़ा भरा-पूरा शरीर, खिचड़ी बाल और सांवला रंग. उस पर काले रंग का सूट तो कतई भी नहीं जांच रहा था.


“मिसेज़ सिंह? आई एम अमृत!”,


थोड़ा सम्भल कर उसने परिचय दिया.


“ओह हाय. कम ऑन! आप ही का वेट हो रहा था”,


समिधा ने थोड़ा बेपरवाह, और थोड़ा संयत होते हुए बुके को थाम एक थैंक्स बोला. अमृत ड्राइंग रूम में प्रविष्ट कर चुका था.


अमृत ने बैठकर उस ड्राइंग रूम में एक नजर डाल ली थी. न्यूनतम सामान के साथ, एक सोफा, दीवान तथा साइड रैक में कुछ किताबें, एक शोकेस में सजी क्राकरी मौजूद थी. दीवार पर दौड़ लगाते घोड़ों की एक फ्रेम की हुई पेंटिंग थी, तो ठीक विपरीत दीवार पर आशीष और समिधा की फोटो भी टंगी थी-- पर दोनों अलग-अलग फ्रेम में.


तब तक समिधा दो ग्लास पानी ले आई थी. सर्व करते हुए पूछा,


“कोई दिक्कत तो नहीं हुई न? थोड़ा हट कर है यह लोकेशन!”


“नहीं, ऐसी भी कोई दिक्कत नहीं हुई. इन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं को पहचानना मुश्किल नहीं है. अपना तो काम ही वो है. पर रहने वालों की पहचान में समय लगता है. भला हो इस सोशल मीडिया का, और आपके इस इन्विटेशन का, वरना जिंदगी सूनी-सूनी सी चल ही रही थी. बस काम किये जाओ, जैसे इंसान न हुए, पैसा कमाने की मशीन हुए…”,


हंसते हुए मन हल्का किया अमृत ने. लगता था वह ढेरों बातें करने की ख्वाहिश लिए आया था.


“क्या बात कही अमृत! चार दिन की मुलाकात में अगर तुमसे इतना अपनापन लग रहा है तो यह तो सिर्फ फेसबुक का कमाल है. वरना इस बोरिंग जिंदगी को भला क्यों ढोया जाए. तुमने तो मेरे मन की बात कह दी!”,


समिधा ने एक विशिष्ट अपनत्व से कहा तो अमृत को रोमांच हो आया. उससे रहा न गया. बोला,


“आप बहुत खूबसूरत हैं. और सोच से भी... इतनी खूबसूरत कि मेरी उम्मीद से भी ज्यादा…!”


“बस… ज्यादा भी तारीफ न कीजिये. कभी नजर न लग जाये इस चार दिन की दोस्ती को हुज़ूर!”


अमृत का दिल मचल गया. वह उठा और समिधा के नजदीक जा बैठा. इस अचानक की नजदीकी से समिधा के गाल भी उतनी ही तेजी से सुर्ख हो चले थे. वह प्रतिरोध नहीं कर पाई जब अमृत ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया.


अमृत एक खिलाड़ी था, यह उसके दो-चार मिनट के दुस्साहस और अनुभव से समझ आ रहा था. आभासी मित्रता के दायरों का अतिक्रमण करने की व्याकुलता उसके चेहरे पर छाई हुई थी. आंखों की चमक में कुछ स्वर्णिम पलों की आभा और जगमग सितारों की चमक थी. यौवन की भीनी-भीनी खुशबू से उसके नथुने अनियंत्रित हो रहे थे. शरीर की ताजगी की मादकता और कुछ कृत्रिम सुगंधें अपनी भूमिका बखूबी निर्वहन कर रही थी. अब एक हाथ से वह समिधा की हथेली सहला रहा था, और दूसरे से उसके लम्बे बालों से खेल रहा था.


समिधा बात करने की स्थिति में नहीं थी. उसकी सांसें अनियंत्रित हो रही थी. वह ऐसी हिरणी-सदृश्य दिख रही थी, जिसे अपने आखेटक से प्रेम हो गया था. ऐसा लगता था कि वह अपने खुद का शिकार होकर ही परम सुख की प्राप्ति कर आनन्दित होने को चर्मोत्कर्ष मान बैठी थी.


धीमे-धीमे पुरुष हाथ उसके शरीर के अलग-अलग हिस्सों को टटोलने के उपक्रम में अग्रसर होना ही चाहते थे कि समिधा की नशीली आंखें, जो अनायास ही बंद हो गई थी, खुली, और वह छिटक कर पुरुष पकड़ से दूर हो गई. लगता था कि उसका नशा उतर गया था. वह उठी और तेजी से भीतर चली गई.


पर-पुरुष तो था ही अमृत. और चार दिनों की आभासी बात, फिर पहली मुलाकात भर. सो, कुछ संयत होकर बैठ गया. थोड़ी चिंता भी हुई कि कहीं नाराज तो नहीं हो बैठी समिधा. वह तो दीवाना बन गया था उसका, और दोस्ती को दूर तक चलाये रखना चाहता था.


कुछ मिनट यूँ ही बीते, फिर हौले से समिधा चौखट पर आ खड़ी हुई. नीची निगाह कर बोली,


“क्या लेंगे आप? चाय कॉफी या… कोई हार्ड ड्रिंक?”


अमृत को खुद पर गुस्सा आ गया. क्यों वह फ़ालतू में ही इतना डर रहा था. अरे उसमें भी तो कुछ होगा न जो समिधा जैसी खूबसूरत लड़की उस पर मर मिटी. हां, रुपया-पैसा ही सही. आज फिर उसका तीर सही निशाने पर जा लगा है. उससे पहले कि वह चुपचाप जाकर दो कप चाय बना लाये, अमृत ने ऐसे चॉइस रखी जैसे वह मेजबान हो, और समिधा को आमंत्रित कर रहा हो.


“जो हुजूर को पसंद हो… सिर्फ वही! आज की शाम आपके नाम!”,


अमृत का संकोच आत्मविश्वास में बदल गया था. उसे खुद यह बदलाव अच्छा लग रहा था. उस पर समिधा की सहज मुस्कान उसे कुछ अधिक मॉडर्न बनाने पर तुली थी.


“किंगफिशर चलेगी न? आपके लिए हार्ड? पर मुझे सॉफ्ट के अलावा और कुछ सूट नहीं करता”,


नारी सुलभ मासूमियत से समिधा ने कहा तो अमृत के लिए और कुछ कहने की गुंजाइश ही कहां बची थी.


“जो हुक्म सरकार!”


और समिधा उधर किचेन में गई, इधर अमृत ने कोई रोमांटिक धुन गुनगुनानी शुरू कर दी.


“अमृत…!”


कुछ ही पलों में समिधा ने अपनी मधुर आवाज वहीं में उसे पुकारा.


अमृत उठकर गया तो समिधा ट्रे लिए खड़ी थी. बोली,


“बैडरूम में कम्फ़र्टेबल रहेगा न… या आप जैसा बोलो!”.


“अरे वाह, बैडरूम की तो फीलिंग ही अलग होती है न. उससे बेहतर तो जन्नत भी नहीं होगी. चलिए.”


आगे-आगे समिधा और पीछे-पीछे अमृत. सब कुछ कल्पनातीत. अगर अमृत ने हिम्मत न की होती, तो क्या ऐसी शाम उसे जीवन मे कभी नसीब हो सकती थी, उसने और भी बहुत कुछ सोचा. धन-दौलत, बीवी-बच्चे और व्यापार, सामाजिक प्रतिष्ठा, पर बेहतरीन फीलिंग तब आती है जब आपकी प्रेयसी का साथ हो. या पत्नी प्रेयसी बन कर दिखाए. प्रतिभा तो शादी के कुछ दिन बाद से गृहस्थी और फिर दोनों बच्चों में जो उलझी, तो पता ही नहीं चला कि शादी की चौदहवीं वर्षगांठ कैसे बीत गई.


“अब क्या इरादा है जनाब! खुश हो जाइए. न जाने कब मिले ऐसा मौका, या न भी मिले”,


आंखों में आंखे डालकर कहते हुए समिधा ने उसकी तंद्रा भंग की. ड्रिंक बनाये. मुस्कुराहटों में दो जाम ऐसे टकराये कि उनके टकराव से जो ऊर्जा निकली, वह दिलों के अरमानों को प्रज्ज्वलित करने के लिए काफी थी. दोनों ने एक दूसरे की सेहत और खुशियों के नाम बीयर की आधी-आधी बोतल खाली कर दी थी. समिधा को अब सुरूर कुछ ज्यादा हो चला था. वह ब्लैंकेट के भीतर सिमट गई. पर अमृत ने उसका हाथ नहीं छोड़ा था, सो वह भी कम्बल में चला आया.


“न… ऐसे नहीं,”


और उसने इशारा किया कपड़े उतारने का. और खुद भी चली गई अपनी ड्रेस चेंज करने.


वह पिंक कलर के गाउन, और खुले बालों में आ गई थी. पास आते ही समिधा पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ा अमृत. पर समिधा ने उसे झटक दिया. बोली,


“आदमी हो या जानवर! सब्र तो करो. देखो कितने निशान डाल दिये हैं तुमने खरोंचों के इतनी ही देर में…”,


कुछ अपनेपन और कुछ झुंझलाहट से कहा समिधा ने. वो बात अलग है कि अमृत ने ऐसा कोई निशान नहीं देखा उसके शरीर पर. लेकिन क्या कहे वह “सॉरी” के अलावा! फिर से वह संभलकर समिधा की हथेली को सहलाने लगा.


अचानक डोर बेल बजी.


समिधा बिस्तर से ऐसे उठी, जैसे किसी ने स्प्रिंग को छोड़ दिया हो. उसको चुपचाप बिस्तर में पड़े रहने का इशारा कर वह गेट पर पहुंची.


“आशीष?”


“हां, कानपुर कल जाना होगा, आज का प्रोग्राम कैंसिल हुआ”,


कहते हुए वह बैडरूम की तरफ बढ़ चला. बिस्तर में पड़े अमृत को काटो तो खून नहीं. इतना भी मौका नहीं था उसके लिए कि वह उठकर अपने कपड़े समेट लेता.


“तुम… ?”


इतना दयनीय भी हुआ जा सकता था, यह अमृत की स्थिति देख कर समझ आ रहा था. पर आशीष के ऊपर तो खून सवार हो था. उसने किनारे पड़ी अपनी बेल्ट से अमृत की धुनाई शुरू की तो उसकी चीखें निकल गई.


“अभी पुलिस बुलाता हूं, और तुम दोनों का इंतज़ाम करता हूँ. ये गुल खिलाये तुमने… है कौन यह?”


उसने समिधा को घूर कर धकियाते हुए कहा. अमृत गिड़गिड़ाता रहा पर आशीष ने पुलिस बुला भी ली. ऐसे में अमृत को लगा कि लोग यूँ ही बदनाम करते हैं पुलिस को. बमुश्किल पांच मिनट ही लगे होंगे उन्हें आने में.


“कौन हो आप और इनके घर कैसे घुसे? हिम्मत तो देखिए श्रीमान जी की”,


घुसते ही पुलिस इंस्पेक्टर ने सवाल दागा. वायरलैस पर तरह-तरह के मैसेज आ रहे थे. इंस्पेक्टर उसे हिरासत में लेने के लिए उतावला दिख रहा था.


पुलिस के सामने अमृत की रही-सही हिम्मत भी जाती रही. स्कूल समय में पिता के बाद किसी ने आज पहली बार उसके ऊपर हाथ उठाया था. मुंह पर दायीं आंख के नीचे चोटों के निशान और कालापन उभर आया था. पुलिस इंस्पेक्टर ने भी दो थप्पड़ रसीद कर दिए थे उसे. कितनी ग्लानि हुई थी… वही जान सकता है. सिपाही ने उसका अर्धनग्न अवस्था में मुंह छिपाते हुए और घटनास्थल का वीडियो भी बनाना शुरू कर दिया था.


वीडियो पूरा होने के बाद साथ आया सिपाही डायरी खोल कर बैठ गया. समिधा एक कोने में सहमी बैठी थी.


“ले जाइए इस छिनाल को भी!”,


आशीष ने इंस्पेक्टर को कहा. पर अब तक अमृत रास्ते पर आ गया था, बोला,


“मैं बर्बाद हो जाऊंगा. प्लीज मुझे जाने दो. मैं माफी मांगता हूं.”


आशीष की आंखों में उतरा खून बरकरार था. बोला,


“ऐसे कैसे जाने दूँ. आज तो आर-पार होकर ही रहेगा. इस कुलच्छिनी पर मेरा तो पहले ही शक था… अब यह भी नहीं बचेगी.”


वह समिधा को मारने दौड़ा. पर इंस्पेक्टर बीच मे आ गया. वह पसीज गया लगता था.


“गुनाह तो किया है इन दोनों ने ही. पर पुरुष का कसूर ज्यादा है, औरत का क्या है, पानी का-सा मन है, जिधर बहाव मिला, बह चला. पर इनको तो सोचना चाहिए था. ये सब काम करने थे तो कोई सेफ जगह, कोई होटल वगैरह ढूंढते. ऐसा कोई करता है क्या. और फिर जिन्दगी इन दोनों की ही बर्बाद नहीं होगी. इनके साथ आप और इन महाशय की पत्नी और परिवार भी जुड़ा होगा. ख्वामखाह उनकी जिन्दगी भी नर्क बन जायेगी.”


अच्छा-खासा ज्ञान दे डाला था इंस्पेक्टर सुबोध सिंह ने.


‘सर जो आप कहें, मैं करूंगा, मुझे इस झंझट से निकालो. प्लीज़…”,


कहकर अमृत इंस्पेक्टर के पैरों से लिपट गया. उसका रोमांस तो उड़न छू हो ही गया था, उम्र पर प्रौढ़ता के लक्षण हावी हो गए थे.


“अरे मुझे तो ड्यूटी करनी है, चलो, तैयार हो जाओ, अभी हवालात, सवेरे जेल जाना होगा. मजिस्ट्रेट के सामने पेश करेंगे बारह बजे दोपहर तक. जिसको पैरोकारी करनी हो, खबर करा देना. समय मिलेगा उसके लिए. अभी कॉल करके महानगर थाने को आमद बता देता हूँ.”


“नहीं सर, जो है ले लो. मुझे बख्श दो”


अमृत ने अपनी सोने की चेन, और दो अंगूठियाँ उतार कर इंस्पेक्टर के हाथ में रख दी थी. पर इंस्पेक्टर का चेहरा सख्त मिजाज हो चला था. बोला,


“मेरे बारे में जान लेना मिस्टर. मैं थोड़ा सख्त किस्म का पुलिस वाला हूँ. मामले को रफा-दफा करने में भरोसा नहीं रखता. अंजाम तक पहुंचाऊंगा, यकीन मानिए. अपने मौहल्ले में क्या शहर में मुंह दिखाने काबिल न रहेंगे! जानते भी हो कि किन-किन धाराओं में चालान होगा तुम्हारा? और फिर ये औरत अगर तुम्हारे खिलाफ बयान दे गई कि मुझे फुसलाया गया था, तो कम से कम दो साल तक जमानत होना तो भूल ही जाओ!”


इंस्पेक्टर उसे पाठ पढ़ाकर किसी को कॉल कर दूसरे केस की प्रगति की अपडेट ले रहा था. तब तक अमृत ने सारी हिम्मत जुटा कर धीमे से ऐसा कुछ कहा कि सुबोध सिंह बिफर पड़ा. बोला,


“इतने से क्या होगा? कर सकते हो तो कम से कम पांच लाख का इंतजाम करो. बिल्डर हो. अंत-शंट चूना लगाते हो लोगों को. दस-बीस लाख तो यूँ ही पड़े रहते हैं, फुटकर कामों के लिए आप लोगों के पास… या फिर रहने दो, कोर्ट में भुगतो, शायद छूट ही जाओ. बस थोड़ी बहुत बदनामी ही तो होगी. पैसा तो बचा रहेगा न!”,


कुछ व्यंग किया इंस्पेक्टर ने.


अमृत गिडगिडाता रहा. धंधे में मंदी का भी वास्ता दिया, पर इंस्पेक्टर ने कोई ध्यान नहीं दिया. उल्टे सिपाही को घटना का विवरण शीघ्रता से पूरा करने को निर्देशित कर डाला.


अमृत समझ गया था कि यूँ ही छुटकारा नहीं होने वाला है उसका. उधर रह-रह कर आशीष भी आक्रामक हो रहा था. कभी वह अपनी पत्नी को दुत्कारता, कभी अमृत पर हमला करता. इंस्पेक्टर ने उसे डांटते हुए दो बार कानून हाथ में न लेने की सलाह भी दी.


अंततः साढ़े तीन लाख पर सौदा पटा. उसने फोन करके नकद रुपयों की व्यवस्था की. डेढ़ घण्टे में पैसा आ गया. एक कड़ी चेतावनी और नसीहत के बाद अमृत को जाने दिया गया. चेन और एक अंगूठी वापिस कर दी गई, पर एक अंगूठी पर इंस्पेक्टर का दिल आ गया था, सो, वह उसे नहीं लौटाई गई.


अमृत के जाते ही, लखनऊ की न्यू हैदराबाद कॉलोनी के इस किंग अपार्टमेंट के सातवीं मंजिल के फ्लैट में पार्टी हुई. दो लाख रुपये समिधा और आशीष के हिस्से आये थे, एक लाख सुबोध सिंह और पचास हजार सिपाही के नाम. समिधा ने सेलीब्रेट करने के लिए पैग बनाये और सबकी सेहत की दुआएं की. सहारा गंज के रॉयल कैफ़े से बटर चिकेन, तंदूरी रोटियों और चिकन बिरयानी का आर्डर दे दिया गया था. यह शाम फिर से खुशनुमा जो हुई थी!


“आज तो बहुत जल्दी शिकार किया तुमने मैडम जी … !”,


इंस्पेक्टर ने समिधा को हंसकर कहा.


“अरे जल्दी की क्या बात है… इन हरामी लोगों को तो, बस एक अदद लड़की का मुखौटा रखो सामने और फिर देखो. ऐसे मिमियाते फिरेंगे कि गले में घंटी बाँध कर टहला लो! चेहरा नहीं सिर्फ फोटो देख कर बता सकती हूँ कि कितने सेकंड्स में गिरेगा ये आदमी… इनकी जात ही ऐसी है. यहाँ नहीं तो कही और. वो तो शुक्र हो कुछ भली औरतों का, जो इनके ऐबों को छिपाते और ढ़ोती फिरती हैं. निकल आई ऐसे जंजाल से मैं तो…!”


सुबोध सिंह समिधा मैडम से ज्ञान प्राप्त कर बेशर्मी से हंसते रहे. सिपाही और आशीष के चेहरों पर तनाव नहीं था पर वे ताबेदारी की मूरत बने खड़े थे. जब रहा नहीं गया तो बोल ही पड़े,


“वैसे दाद देनी पड़ेगी आपकी…! हुस्न और अक्ल साथ हों तो अच्छे-अच्छे लोगों को रेंगने पर मजबूर कर दे औरत. और लगता है कि ईश्वर ने फुर्सत में बनाया है आपको तो, सारे गुण चुन-चुन कर डाल दिये हैं!”


“गुण या अवगुण भी!”,


कहकर खुद ही समिधा ठहाका मारकर हंस पड़ी. इन अठखेलियों को समिधा अच्छी तरह समझती थी. हर स्त्री की सिक्स्थ सेंस वैसे भी प्रबल होती है, फिर समिधा तो माहिर खिलाड़ी थी. कुछ पढाई, कुछ साथ और कुछ हालात ने ऐसा सिखाया था कि अब कोई आसानी से उसके दिल के दरवाजे पर दस्तक नहीं कर सकता था. और अगर दस्तक की भी तो वह झिरी से झांक कर ही सख्ती से विदा करना जानती थी. सुबोध सिंह से भी उसने सिर्फ व्यवसायिक सम्बन्ध बनाये थे. सीमाओं के अतिक्रमण की इजाजत उसको भी नहीं थी.


उधर थोड़ी दूर पर ही विख्यात हनुमान मंदिर की पूजा की घंटियां और लखनऊ विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक भवन के कॉरिडोर में जगमग रोशनी से अलग ही छटा बिखर रही थी, पर समिधा फेसबुक पर कुछ और नई प्रोफाइल खंगालने के लिए अपने स्मार्टफोन को ब्राउज कर रही थी. हिस्से में आये करारे नोटों के सामने कुछ घंटे पहले का उसका अपराधबोध शायद वाष्पीकृत हो चुका था.

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