मकसद Raj Gopal S Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मकसद

“क्या बताऊं, कैसे समझाऊं तुमको. कुछ सुनती ही नहीं तो समझोगी कैसे अनन्या”,


भुनभुनाता हुआ प्रसनजीत अपना मोबाइल उसके हाथ से लेकर बाहर निकल आया. गुस्से में प्रसनजीत घर से निकल गया. क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं था कि वह अपने पति के किसी पर-स्त्री से निकट संबंधों के विषय में पूछने का साहस कर सके? उसकी सासू माँ भी आ गई थी. वह उल्टे उसे ही नसीहत दे रही थी कि,


“कितनी बार समझाया… ज्यादा बंधन में न रखा कर उसे. मर्द है. थोड़ा बहुत भटकते हैं सभी, आदत होती है उनकी इधर-उधर मुंह मारने की, पर घूम-फिर कर तो यहीं आता है न वो?”,


अनन्या ठीक से सुन नहीं पाती तो क्या, उसे हर इन्सान के होठों की बुदबुदाहट तक को भाषा में तब्दील करने की शक्ति भी तो उसी ईश्वर ने दी है, जिसने उसे उसके कानों से शक्तिविहीन कर दिया था.माँ है उसकी तो बुराई में भी अच्छाई का अंश ढूंढ ही लाती है. अब तो उसे समझ ही नहीं आता कि प्रसनजीत में कोई कमी है भी… या वही ज्यादा सोचती है. शायद जमाना इतना ही बदल चुका हो!


बमुश्किल तीन साल की रही होगी वह. अब तो ठीक से याद भी नहीं, पर न जाने कैसे हुआ. बताते हैं कि टाइफाइड के लगातार तेज बुखार की तीव्रता के प्रभाव से उसकी सुनने की इन्द्रियाँ शिथिल पड़ती गई, और अंत में वह समय भी आया जब आसपास के ही नहीं कोलकत्ता, मुंबई और नई दिल्ली के बड़े अस्पतालों के ई एन टी विभाग के जाने-माने डाक्टरों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए. ऐसी स्थिति पांच लाख में से एक पेशेंट के साथ आती है, पर दुर्भाग्य भी तो देखिए कि यह पांच लाखवां इंसान अनन्या को ही बनना था, बहुत कम सुन पाता था उसे, हियरिंग ऐड लगाने के बाद भी!


दिन छिपने के समय का गया जीत अभी तक लौटा नहीं था. ग्यारह बज गये थे. घर का काम, चौका-चूल्हा समेट कर वह दिन भर की थकान से चूर सोने के लिए बिस्तर लगा रही थी. कृष्ण, यानी उसका दो साल का नन्हा बेटा, जिसमें उसकी जान बसती थी, पहले ही सो चुका था.


उसकी आँखों के सामने सब चलचित्र-सा चलने लगा. कम सुनने के बावजूद उसका लाड़ घर में कुछ ज्यादा ही था, ख़ास तौर से बड़ी बहन की अपेक्षा. उसे कोई दिक्कत नहीं थी, इसलिए माँ और पिता का सारा स्नेह अनन्या के ऊपर ही उडेला जाता. दोनों के जिगर का टुकड़ा थी वह. कृतिका ने भी कभी इस बात का मुद्दा नहीं बनाया कि अनन्या को ज्यादा प्यार क्यों दिया जाता है.


उसने जम कर पढ़ाई की. मेधावी थी, सो ग्रेजुएशन तो किया ही, कंप्यूटर एप्लीकेशन और वेब डिजाइनिंग में डिप्लोमा भी कर लिया. दिक्कतें? बहुत दिक्कतें आई. स्कूल से लेकर कॉलेज तक में, पर कुछ उसने अनदेखी की, कुछ उसने समझदारी से पार कर ली. केवल अपने अध्यापकों के हाव-भाव और नोट्स से पढ़कर उसने जब ग्रेजुएशन किया, वो भी अच्छे नंबरों से तो उसे स्वयं भी विश्वास नहीं हुआ था.


ऐसा नहीं था कि उसका इलाज असाध्य हो. पर डॉक्टर्स कहते थे कि यह 'अनप्रेडिक्टेबल' जरूर है. सम्भावनाएं हैं भी और नहीं भी. आम भाषा में कहें तो उसका इलाज एक जुआ था. ऐसा जुआ जिसमें उसकी श्रवण धमनियां फिर से अपनी पूर्व अवस्था में आ सकती थी, पर यह उतना ही दुरूह था, जितनी यह बीमारी. उसके पिता कहने को तो अधिकारी थे, एक स्वशासी संस्थान में, पर उनके खर्च भी कम न थे.उनकी दो बेटियाँ और गाँव में परेंट्स भी उनके ही सहारे थे. ऐसे में क्या बचता होगा. यह भली भांति समझा जा सकता है. उन्होंने हिम्मत कर एक बार कलकत्ता के एक विख्यात हॉस्पिटल में उसका इलाज कराया भी, पर बमुश्किल पांच प्रतिशत रिकवरी हुई. खर्चा हुआ था साढ़े छह लाख, जिससे उनकी जी पी एफ़ की सारी बचत भेंट चढ़ गई थी.


कई डॉक्टर्स ने उन्हें हताश भी किया जब वह कहते थे कि वास्तव में इसका कोई इलाज ही नहीं. कानों की ये धमनियां वापिस सुनने लायक हो जाएं तो यह मेडिकल विज्ञान का चमत्कार ही हो सकता है. बस इलाज के नाम पर खर्च करते जाओ, वो भी बेतहाशा.


वह आकर्षक थी. सिर से पैर तक नैसर्गिक आकर्षण की प्रतिमूर्ति, वह कोई विशेष श्रृंगार नहीं करती थी. पर सुंदरता श्रृंगार के बिना भी अपना आभामंडल बिखेर देती है. सौंदर्य प्रसाधन तो उसमें सिर्फ अतिरिक्त योगदान करते हैं. बड़ी-बड़ी गोल आंखें, लंबे, घने काले बाल… बिल्कुल स्ट्रेट, छरहरा बदन और चेहरे पर हमेशा बनी रहने वाली स्वाभाविक स्मित.


दिल्ली में जब उसे एक निजी अस्पताल में दिखाना था, तो अनन्या ने स्वयं ही जिद पकड ली थी, कि उसे कोई इलाज नहीं कराना है. क्यों कराये वो इलाज… मृग मरीचिका के पीछे जाने से किसी की प्यास बुझी है कभी? वास्तविकता को जितना जल्दी समझ लिया जाए, बेहतर होता है, इतना वह समझती थी. हाई स्कूल में थी उस समय वह. पिता ने बहुत जोर दिया, पर वह पाषाण हो गई थी. आंखों से आंसूओं की बूंदें एक-एक कर टपकती रही, मगर उसका निर्णय अटल रहा.


साढ़े तीन साल ही तो हुए होंगे जब प्रसनजीत ने उससे रिश्ते की पहल की थी. उसकी माँ-पिता और बहन सभी तो आये थे. एक बार नहीं, कई बार. तब उसने खुद कोई जल्दी नहीं दिखाई थी, पर यह पहल उसके मानवता में विश्वास को गहरा जरूर कर गई थी. फिर भी उसने समय लिया, और प्रसनजीत को, उसके परिवार को भी यह समझने का समय दिया भी कि कहीं उन लोगों को उसके सुनने की शक्ति के न होने से कोई असहजता तो नहीं.


जब वह सब अनुकूल जान गई, तो उसके ख्वाबों में भी रंग भरने लगे. उसका मन भी कुलांचे भरने लगा. भरमार और तितलियों की आँख-मिचौलियों के लम्हों में वह अपने राजकुमार को ढूँढने लगी. आखिरकार उसके सीने में भी एक नन्हा दिल था, स्पंदन थी और आँखों में एक स्वर्णिम संसार बसने के स्वप्न तैरते थे.


नई गृहस्थी बसी और नये लोगों से प्रेम मिला तो वह तर गई. अनन्या के संशय के घनेरे मेघ न जाने कहाँ मटमैले बादलों की तरह हवा में उड़ गये. उसकी धडकनों में अगर शेष था तो सिर्फ जीत के लिए प्रेम. उसकी आँखों में भी जो स्नेह दिखता तो वह धन्य हो उठती. कौन करता उस जैसी ऊंचा सुनने वाली लड़की से बात… कैसे कटती उसकी जिंदगी! वह इंसान नहीं, देवता है, अनन्या सोचती.


पर स्वप्न सच हों, यह जरूरी नहीं. समय बीतते-बीतते संबंधों में उदासीनता आने लगी, फिर झुंझलाहट और अंततः संशय के साथ ही आक्रोश भी. अब पति को लगता कि अनन्या उसकी जिम्मेदारी है, पत्नी नहीं. उसका एक इशारा ठीक से न समझ पाना प्रसनजीत के आक्रोश में बदलने लगता. उसकी मुट्ठियाँ तन जाती, आवाजें तो वह साफ़ सुन नहीं सकती थी, इसलिए उसके गुस्से की तीव्रता का पैमाना तो भावों को पढ़ कर ही हो पाता था पर इतना साफ़ दिखता था कि पति को इस बेमेल रिश्ते से अरुचि होने लगी थी. कोई कारण नहीं था, पर बहाने कम भी न थे. उसे आवाजें नहीं सुनती पर टेलीविज़न चैनल्स के कार्यक्रमों और हिन्दी फिल्मों में वह उनके पात्रों के सुख-दुःख और उस सबको महसूस करने की शक्ति अवश्य रखती थी जिसे कोई और भी रखता हो. लेकिन उसके मनपसंद कार्यक्रमों को लेकर भी घर में तूफ़ान आ खड़ा होता. रोमांटिक कार्यक्रमों को म्यूट कर देखने भर से उसके चरित्र का आकलन किया जाने लगा तो अनन्या का मन जितना हाहाकार कर उठता होगा, उसे सिर्फ वह खुद ही जान सकती है.


बात तब बढ़ गई जब ममेरे भाई को लेकर उसे बुरा-भला सुनना पडा. सुशांत और वह बचपन से एक ही माहौल में पले-बढ़े थे. सब त्यौहार साथ मनाते और खुशियों को साझा करते, पर उसके आने से भी प्रसनजीत के तेवर बदलने लगे. अपनी बेबसी पर पहली बार जी भर कर रोना आया उसे और घर जाकर अपने पिता के सीने से लिपटकर बोली थी,


‘इस घुटन में नहीं जी पाऊँगी मैं. आप अपनी बेटी को प्यार करते हो तो उसे रहने दो अपने पास ही. मैं हर दिन इम्तहान देते-देते थक चुकी हूँ.’


फिर पिता ने जो उसकी ससुराल पक्ष के लोगों से जो सख्ती दिखाई तो प्रसनजीत सहित पूरा परिवार शर्मिंदा हुआ. मान-मनौव्वल के बाद वह फिर लौट गई थी. उन दिनों वैसे भी उसके शरीर मे एक नन्हीं जिंदगी की आहट आ चुकी थी, इसलिए तनाव में नहीं रहना चाहती थी. एक दु:स्वप्न को विस्मृत कर खूबसूरत ख्वाब देखना किसे बुरा लगता है!


… मुख्य द्वार पर लगी घंटी बजने के अहसास मात्र से उसने समय देखा. रात के ११.४२ बजे थे. दरवाजा खोला तो प्रसनजीत था. नशे में धुत. इतना नशा था उसे कि वह खुद ही संभल नहीं पा रहा था. बेड रूम में आते ही धडाम से गिरा. धीमी आवाज में बोला,


“सॉरी… पर मैं क्या करूं. अमिता... मेरे दिमाग से निकलती ही नहीं!”


“मतलब?”


उसने दिमाग लगाया. सोचा कि शायद उसके समझने में कोई गलती हुई हो… वैसे भी उसे सुन कहां पाता है. भ्रम हो सकता है कोई. पर ऐसा नहीं था यह इसलिए समझ आ गया कि उसने नशे में ही जेब से अपना मोबाइल निकाल कर अमिता की मुस्कुराती फोटो दिखाई.


वह बहक चुका था. पूरी तरह से. अफसोसजनक यह था कि वह जो सुन रही थी और देख रही थी, सब सच था.


प्रसनजीत की आँखें मुंदी जा रही थी. वह देखते ही देखते नींद के आगोश में चला गया, बिना यह जाने कि इस सब तनाव के बावजूद भी अनन्या आधी रात तक उसकी इंतजार में जागती रही है.


अनन्या पलंग के दूसरे किनारे बैठी थी. उसे अपने विवाह के दरकते बंधन का अफ़सोस नहीं था. अफ़सोस था तो इस बात का कि उसने ख्वाब देखने की हिम्मत क्यों की. क्या वह नहीं जानती कि ईश्वर ने ही उसके लिए कुछ वर्जनाओं का निर्धारण किया हुआ है. उनको तोड़ कर स्वतंत्र होने की सोच का फल तो उसे भुगतना ही था!


उसकी बात किसी को समझ नहीं आती थी, या उन लोगों को इसे समझने में कोई रुचि ही नहीं थी. सो उसने अपनी डायरी का एक कोरा पन्ना फाड़ा और उस पर प्रसनजीत को यूँ लिखा,


“प्रेम कोई मजबूरी नहीं, आत्मा से बंधने की अपरिहार्यता का ही नाम है. अगर आत्मा पर प्रेम का रंग नहीं चढ़ सका तो वह प्रेम का निषेध होगा, प्रेम तो नहीं! हम स्त्रियाँ न जाने क्यों ऐसे अनजान रंग को अपनी आत्मा पर चढाने के ख्वाब क्यों बुना करती हैं… ख़ास तौर से उनके लिए जिनके लिए यह अर्थहीन है. सिर्फ बाहरी आकर्षण, देह और स्पर्श… बस यही है स्त्री उनके लिए. और कुछ भी नहीं! शेष जो है वह उसी पुरुष के पास है जो स्त्री का सम्मान करना भी नहीं जानता और इस क्रिया में अपनी पूरी जाति के ऊपर भी प्रश्न चिन्ह लगा देता है.


अगर देह या वाह्य आकर्षण ही इतना आवश्यक है, तो उसके लिए तुम अन्य बहुत से रास्ते बना सकते हो. बहुतों को फुसला सकते हो, अपना ज्ञान बखार सकते हो, पर तुम किसी स्त्री के मन की गहराइयों तक पहुँच सकते हो, इसमें मुझे संदेह है. मुझे अपने विषय में पहले भी भ्रम न था, न अब है. हाँ, इस मध्य अवश्य कुछ अहसासों को पंख लगे थे, जो टूट चुके हैं… और नये पंख उग आयें, उनसे पहले ही मैं उन्हें नोच दूंगी. अब मैं सिर्फ इसलिए जिऊँगी कि कृष्ण को एक ऐसा इन्सान बनाना चाहती हूँ, जो कम से कम इतनी तो समझ विकसित कर सके.”


उसने उठकर खुद को फ्रेश किया. मुंह धोकर ताजगी महसूस की, और नींद में कुनमुनाते बेटे को चूम कर सामान पैक करने लगी. जरूरी सामान पैक कर वह निश्चिन्त हो गई थी. अब तनाव की लकीरें भी प्रसनजीत के प्रेम-प्रसंग की सहमति के दायरे से अवमुक्त होकर वाष्पीकृत हो चुकी थी.


कल भोर सवेरे उसे अपनी नई जिंदगी, नये सफर पर निकलना जो था. उसे यदि ईश्वर ने ही इस रूप में बनाया था, तो उसी रूप को अपनाकर ही उसे अपना रास्ता बनाना ही होगा! अगर वह किसी से इस संबंध में बात भी करती तो लोगों का वही संशय सामने होता. वे पूछ बैठते कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि प्रसनजीत का परिवार स्वयं रिश्ता लेकर आया, कई बार, पर संबंध निभ भी नहीं पाए. खुद उसके पास भी जवाब नहीं है कि क्यों? क्यों उसने आशाएं जगाई थी उसमें. पर अब वह सब अतीत होने जा रहा था. आज से, अभी से ही. उसके पास जीने का मकसद है-- उसका कृष्ण!


प्रसनजीत, उसके पेरेंट्स या कोई भी उससे पूछेगा तो क्या कहेगी वो? उसके पास उत्तर है,


“... तुम नहीं समझोगे!”


००००