उम्मीदों का बना रहना Raj Gopal S Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उम्मीदों का बना रहना

शहर की एक पोश कॉलोनी बाग़ फरजाना में स्थित डॉक्टर के विशाल घर का छोटा सा हिस्सा था यह क्लीनिक जिसे आउट हाउस कह सकते हैं. घर जरूर विशाल था पर कुछ उजाड़-सा लगता था. लॉन का रख-रखाव न होने से जगह-जगह से घास की जगह उभर आए पीली मिट्टी के टुकड़े किसी पैबंद का-सा अहसास दे रहे थे. रंग-रोगन भी अपनी उम्र न जाने कब से पूरी कर चुका था. बहुत सन्नाटा था वहां. रिसेप्शन के नाम पर एक व्यक्ति जो सिर्फ दो मरीज होने के कारण शांत बैठा कभी मुख्य दरवाजे को देखता तो कभी दीवार को. प्रतीक्षा करने वाली एकमात्र बेंच का बांई ओर का हत्था भी टूटा था.


थोड़ी देर में गाड़ी के आने का हॉर्न बजा तो रिसेप्शनिस्ट सतर्क हुआ. डॉ अग्रवाल किसी कॉल से लौट कर आये थे और सीधे चैंबर में चले गए. दूसरा नंबर हमारा ही था. पांच मिनट में पहले मरीज से फारिग होकर उन्होंने 'नेक्स्ट' कहा तो हम लोग पहुंचे.


इन्वेस्टिगेशन के लिए कुछ प्रारंभिक जानकारी लेने के बाद ही डॉ अग्रवाल ने मैडम को बताया कि,


"शुक्र कीजिये कि आपको कोई बीमारी नहीं है. भली-चंगी हैं आप… बस खुश रहिए, धीरे-धीरे तीन से पांच किलोमीटर टहलने का नियम बनाइये, थोड़ा योगा कीजिये, और सादा भोजन कीजिये. टेंशन को दूर रखिये!"


डॉ साहब की उम्र रही होगी पचास वर्ष के आसपास. असमंजस में देख कर उन्होंने जोर देकर कहा,


"आप अपने डॉक्टर पर भरोसा कर सकते हैं. क्या आप खुश नहीं हैं कि आपको कोई बीमारी ही डायग्नोज़ नहीं हुई? बस अपना लाइफ स्टाइल सुधार लीजिए और बीमारी उड़न छू! दवाओं से दूर रहना भी स्वस्थ होने की निशानी हैं."


उन्होंने घंटी बजाने के लिए ‘बेल’ पर हाथ रख दिया था, पर कोई और पेशेंट नहीं था सो रिसेप्शनिस्ट स्वयं चला आया. डॉक्टर साहब ने उसको बोला कि इन लोगों की फीस वापिस कर दो.


"पर डॉक्टर साहब…",


उन्होंने मुझे रोकते हुए कहा कि,

"मेरा ख्याल है कि अनावश्यक दवाएं खाना भी एक तरह से खुद को सजा देना है… मैं जानता हूँ कि आपको मुझ पर भरोसा नहीं होगा, पर असलियत यही है कि आपको किन्हीं दवाओं की जरूरत ही नहीं है और न मैं कोई दवा लिखने जा रहा हूँ, तो मुझे फीस लेने का हक तो बनता ही नहीं."


फिर उन्होंने बहुत प्रेम से उस हिप्पोक्रेटिक ओथ के विषय में भी बताया जो हर डॉक्टर को प्रैक्टिस शुरू करने से पहले लेनी होती है. जिसमें आपको वचन देना होता है कि आप अपने मरीज को ईश्वर का साक्षात रूप मानेंगे, उनके इलाज के सम्बंध में हमेशा स्नेह, भरोसे, विश्वास और सौम्यता का व्यवहार बनाये रखेंगे, उन्हें मेडिकल इलाज के अलावा जीवन जीने के वैकल्पिक रास्तों का भी भान करायेंगे, बिना अपनी फीस खोने का लालच किये हुए… वगैरा- वगैरा.


क्लीनिक से निकलते समय एक स्लोगन पर निगाह पड़ी, जो उनकी दीवार पर टँगा था,


"दवा में कोई खुशी नही है ...और खुशी जैसी कोई दवा नही है."


बात लगभग तीन-चार साल पुरानी थी. तब आगरा शहर हमारे लिए अनजान-सा था. याद भी नहीं कि किसी ने रेफर किया था या यूं ही पहुंच गए थे डॉ वीरेंद्र अग्रवाल के पास. वो न्यूरोलाजिस्ट थे.


उस दिन की खुशनुमा स्मृतियां कई सालों तक मस्तिष्क में ठंडी हवा के झोंके की तरह ताजा बनी रही. पूरे जीवन में यह दूसरा अवसर था, जब किसी डॉक्टर ने बिना फीस और बिना दवाओं के अपने पेशेंट को स्वस्थ होने का नुस्खा दिया हो. इससे पहले एक डॉक्टर कोई दस साल पहले लखनऊ में मिले थे पर उनका किस्सा अलग था. उन्होंने इस लिए नहीं देखा था कि वे उस विशेषज्ञता के डॉक्टर नहीं थे. पर क्या फर्क पड़ता है, मैंने तमाम डॉक्टर्स को अपनी विशेषज्ञता से इतर विषयों पर पूरे कॉन्फिडेंस से मरीज का इलाज करते देखा है. वो अलग बात है कि उस इलाज में उनकी कितनी कुशलता हो, यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे. बात ज्ञान की कम भरोसे और अनुभव की अधिक है. ऐसे ही एक डॉक्टर ने कभी मुझे बताया था कि हम लोग उतना ज्ञान तो रखते ही हैं जो हर एरिया की बीमारी का थोड़ा-थोड़ा जान सकें. फिर अगर मरीज को यूँ ही मना कर दें, या वैकल्पिक इलाज के नुस्खे देने लगें… उसके लाइफ स्टाइल को सुधारने के मुफ्त के गुरु बन जाएँ, तो अंततः एक दिन खाली ही बैठना पडेगा.


नन्दिनी को कुछ अलग ही बीमारी थी. उस दिन अचानक नहीं, न जाने कितने साल हो गए थे. तब से जब हम लोग मेरठ में पोस्टिड थे. पर अब उसकी आवृति बहुत बढ़ गई थी.


वह अचानक उठ बैठती और जी मिचलाने की शिकायत करती. ऐसा नहीं था कि भोजन के बाद ही ऐसा होता. कभी भी ऐसा हो जाता जब वह बहुत बेचैन हो उठती. वोमिटिंग के बाद जब तक शरीर से अन्न का एक-एक दाना बाहर नहीं उलट देती, उसे चैन न पड़ता. यह स्थिति दिन या रात कभी भी हो जाती. रात के दो बजे, सवेरे पांच बजे, दोपहर में या शाम को. खाली पेट या पानी की उल्टियां भी होती. उल्टियां होने से पहले और घंटों बाद तक उसके सर की नसें खिंची रहती. निढाल पड़ी रहती बिस्तर पर. बेबस. उस समयावधि में उसकी बेचैनी की कल्पना भर की जा सकती थी.


काफी समय बीत गया था इस समस्या से जूझते हुए. ऐसा नहीं था कि और जगह न दिखलाया हो. एंडोक्रिनोलॉजिस्ट को भी दिखाया, गैस्ट्रो के डॉक्टर को भी, जिन्होंने देखने के बाद कहा कि वे गैस्ट्रोसर्जन हैं, इसलिए आपको गैस्ट्रोफिजिशियन को रेफर कर रहा हूँ. एंडोस्कोपी भी हुई, पेट के कोने-कोने में घूम आये कैमरे की तस्वीरों ने कोई भयावहता इंगित नहीं की तो थोड़ा सुकून मिला. किसी ने कहा कि यह ऑर्थो का केस है, कैल्शियम डेफिशिएन्सी का. कुछ परिचित उनमें सर्वाइकल के लक्षण ढूंढते थे, तो कोई थायराइड का असर बताता था. एक मित्र ने इसे उनकी अवस्था को सीधे माइग्रेन से जोड़कर देखने की चुनौती भी दे दी.


अब डॉक्टर अग्रवाल की सलाह को न मानने का कोई कारण नहीं था. मैडम रोज नियम से टहलने लगी. कभी बहाना करती तो मैं ही उनको मोटिवेट करता. खान-पान भी सुधारा. दिन में बार-बार चाय की जगह ताजे फल और खीर, टमाटर, चुकंदर के सलाद का परिवर्तन किया. कुछ ही दिन में थोड़े अच्छे परिणाम आने लगे. बमुश्किल दो-तीन महीने सिस्टम ने काम किया जब उन्हें लंबे समय के लिए अपने घर जाना पड़ा. लगभग ढाई महीने बाद लौटी तो नियम वहीं धराशायी हो चुके थे, कुछ वापिस आकर हौसले पस्त हो गये.


बीमारी फिर से लौट आई. इस बार थोड़ी और तीव्रता तथा अन्य जटिलताओं के साथ. अब सर के एक हिस्से की नसों में इतना खिचाव रहता कि उनके चेहरे से मुस्कुराहट एक अकसर नियमित बने रहने वाले दर्द के अहसास से बदल गई. खिंची हुई नसें चेहरे पर साफ़ दिखती. उनके अस्वस्थ रहने का असर घर के रोजमर्रा के कामों पर भी रहने लगा. पर क्या किया जाए? कोशिश की कि फिर से दिनचर्या ठीक की जाए. पर अब उनके लिए पांच सौ मीटर पैदल चलना भी दुष्कर हो गया था. तलुओं के जमीन पर रखते ही असहजता का अहसास होता.


लगभग डेढ़ साल हो गये थे. फिर से डॉक्टरों को दिखाने का सिलसिला आरंभ हुआ. वही चक्र जिसका कोई अंत ही नहीं. एक ओर्थोपिडीशियन से थोड़ा आराम मिला तो उसके बावजूद भी उनकी दवाओं का सिलसिला क्रमशः बढ़ता ही जाता. पन्द्रह दिन बाद बुलाते तो हर बार पहले से चली आ रही झोला भर दवाओं में से एक घटाते तो दो और नई गोलियां बढ़ा देते. हर बार कोई न कोई नया टेस्ट भी रेफ़र किया जाता जिसको एक ख़ास पैथोलॉजी या सोनोग्राफी लैब से कराने की ही हिदायत होती.


कहने का अर्थ यह कि दवाएं बढती गई, उन पर खर्च भी उसी अनुपात में बढ़ते रहे और हमारा बजट बिगाड़ते रहे पर स्वास्थ्य भी सुधरने के स्थान पर बिगड़ता गया. एक और अतिरिक्त बात हुई. उन पर पूरे दिन दवाओं का ऐसा नशा छाया रहता कि वह ऊंघती रहती. न सोने में, और न ही जागने में. मैडम कई बार रोने लगती अपनी हालत पर. ऐसे में इन डॉक्टर से निजात पाने की सोची. उनकी सब दवाइयाँ बंद कर दी. अभी भी लगभग चार हजार रुपए मूल्य की दवाएं शेष थी. उनके स्टाफ से इन्हें वापिस करने की बात की तो उन्होंने साफ हाथ खड़े कर दिए.


मैडम ने अपने परिचित मेडिकल स्टोर मालिक से बात की. वह ऐसी किसी भी दवा को आराम से बदल देता था जो चाहे उसके यहाँ से न भी खरीदी गई हो. बस वह एक्सपायरी सीमा के अंदर होनी चाहिए. पहली बार ऐसा हुआ कि उसने इन दवाओं को बदलने से इन्कार कर दिया. कारण,


“ये दवाएं कुछ अलग हैं, जो आसानी से और कहीं नहीं मिलेंगी. उनको ये बहुत कम दामों पर मिल जाती हैं… पर आम तौर पर वे आपसे चार्ज लिस्ट प्राइज का ही करते हैं. हम इन दवाओं को रखते ही नहीं हैं, क्योंकि उन डॉक्टर्स के अलावा इनका कोई मार्केट ही नहीं है”,


उन्होंने बताया.


“पर...ऐसा कैसे?”,


मैंने अपना असमंजस प्रश्नचिन्ह के रूप में उनके सामने ला खड़ा किया.


“आप ऐसे मानिए कि मार्केट में आल्टो कार भी बिकती है… और बी एम डब्ल्यू, ऑडी और मर्सीडीज भी. अगर आल्टो से ही काम चला करता तो लोग ऑडी क्यों लेते? पर जरूरी यह भी नहीं कि इन दवाओं में कोई कमी हो.”


मैं समझ गया था. उन्होंने मुस्कुराकर एक और बात बताई. चूँकि वह एक पारिवारिक सदस्य की तरह ही था, तो प्रिस्क्रिप्शन देख कर बताया कि,


“मैडम के पैरों में हल्का दर्द रहता है, पर घुटनों में तो नहीं है न? इसलिए वह गठिया नहीं है, और डॉक्टर साहब आपको जो दवा दे रहे हैं, वह उसी के लिए है जो इनके लिए स्ट्रांग और अनावश्यक है. साथ ही वोमिटिंग को रोकने के लिए टी डी एस यानि दिन में तीन बार उल्टी रोकने की दवा आपको दी जा रही है, तो उल्टी तो रुकेगी ही. पर यह कृत्रिम तरीका है. इसका इलाज कहाँ हुआ? वह समस्या कहीं और अपना रास्ता खोजेगी. फिर जो उनींदापन दिन-रात बना रहता है उसका कारण सीडेटिव की अच्छी-खासी डोज है, ताकि शरीर के किसी भी हिस्से में कोई दर्द हो तो उसका अहसास दबा रहे. लेकिन ये जो साइड इफ़ेक्ट देती हैं… उससे आपकी किडनी, लीवर, डाइजेस्टिव तथा न्यूरो सिस्टम तक प्रभावित होते हैं.”


ज्ञान प्रकाश शर्मा जी ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए, या कहिये कि मेरे संशयों को पुष्ट कर दिया. सामान्यतः एक डॉक्टर दूसरे डॉक्टर के इलाज पर अंगुली नहीं उठाता, चाहे उसकी दिशा कितनी ही गलत क्यों न जा रही हो. इसी तरह मेडिकल स्टोर और पैथोलॉजी या रेडियोलाजी वाले भी ऐसी जानकारी देने से बचते हैं, पर लाखों में एक लीक से हटकर चलने वाला इंसान भी आपके लिए एक देवता की तरह प्रकट हो जाता है. ज्ञान प्रकाश जी का ज्ञान मेरे लिए देव वाणी से कम नहीं था.


उन्होंने ही यह बताया कि अभी यह मामला निश्चित रूप से न्यूरो से सम्बन्धित है. आगरा में उस विशेषज्ञता के चर्चित डॉक्टर आर सी टंडन थे, पर उनके अपॉइंटमेंट स्लॉट में पौने दो महीने से पहले का समय खाली नहीं था. ज्ञान भाई डॉ अग्रवाल से परिचित नहीं थे, पर उनका कहना था कि एक बार उन्हें दिखाने में कोई हर्ज भी नहीं.


देर हो गई थी, सो अगले दिन सवेरे अकेले ही डॉक्टर साहब के अपॉइंटमेंट के विषय में पता करने निकला. जाना इसलिए पड़ा कि उनका नम्बर काम नहीं कर रहा था, न मोबाइल और न लैंडलाइन. कई साल बाद गया तो इलाका ही काफी बदल गया दिखता था, जो प्लाट खाली पड़े थे, उन पर अट्टालिकाएं बन चुकी थी, चौड़ी सड़क के दोनों ओर खूबसूरत मेंशन आकर्षित करते थे. ऐसे में डॉक्टर साहब का घर ढूंढना थोड़ा दुरूह था… था तो यहीं कहीं… एक राउंड लगाया पर नहीं मिला. फिर से गौर से देख कर धीमे से गाड़ी घुमाई तो उनका नाम लिखा बोर्ड दिख ही गया. दरअसल वह उनके नये विशाल खूबसूरत घर के सामने के अस्थायी पार्किंग लाट के साए में छिप गया था. उनके जिस पुराने मकान का नक्शा दिमाग में बसा था, उसको मुंह चिढाती हुई यह श्वेत-धवल और हल्के हरे रंग के मार्बल की खूबसूरत चमचमाती बिल्डिंग उस नक्शे से बिलकुल अलग जो थी.


गाडी पार्क कर रिसेप्शन पर गया तो वहां का अंदाज़ भी बदला था. डाक्टर साहब का वेटिंग लाउन्ज क्या सितारा होटल-सा लुक था. तीन स्टाफ थे, जिनमें से दो रिसेप्शन पर थे और एक कंप्यूटर तथा बिलिंग के लिए था. कक्ष में दो वाल माउंट एयरकंडीशनर गर्मी और उमस के इस मौसम में अच्छी-खासी सुकून दे रहे थे. दीवार पर एक विशाल एल ई डी टेलीविज़न… शायद ५५ इंच का, लगा था जिस पर ‘आज तक’ न्यूज चैनल के समाचार चल रहे थे. एक किनारे साफ़ गिलास और वाटर फिल्टर संयोजित था. भीड़ इतनी थी कि लगभग पचास लोग बैठे थे और २०-३० लोग एंट्रेंस से लेकर लाउंज तक में इधर-उधर खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. इस भीड़ में कौन मरीज और कौन तीमारदार है, यह चेहरों पर लिखा दिख सकता था. मरीज को बीमारी से जितना भी कष्ट हो, तीमारदार का चेहरा निरपेक्ष बना रहता है, खाली समय में यही आकलन किया. शायद इस भीड़ में मेरी भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी.


लेकिन पिछले तीन साल में इतना बदलाव… अद्भुत था! अच्छा लगा देख कर. शायद उनके काम की चर्चा और सौम्यता की मिसालें बहुत दूर तक फ़ैल चुकी होंगी अब. वैसे भी दूसरे न्यूरोलाजिस्ट डॉ टण्डन का पहले तो समय मिलना, फिर इनसे दूनी फीस और साथ में गर्म मिजाज होना, इससे मुझ जैसे लोग तो उन्हें नापसंद करने का अधिकार अवश्य सुरक्षित रखते थे. यहां दो दिन बाद का नंबर मिला, १०३, पर फिर भी जल्दी ही था.


किसी तरह से दो दिन कटे. चार बजे नंबर आने की सम्भावना थी, लेकिन पौने सात बजे बुलावा आया. वो भी रिसेप्शनिस्ट के बहुत मान-मनौव्वल के बाद. उसने मैडम की तबीयत अधिक खराब देख कर उन्हें किसी तरह से ५५ नंबर के बाद ही उसने डॉक्टर के पास भेज दिया. उन्होंने किस्सा समझा, कुछ पुराने डॉक्टरों के पर्चे देखे. पैथोलोजी रिपोर्ट पर भी निगाह डाली. वही चेहरा था, पर समय के साथ शरीर कुछ पुष्ट हुआ था और बालों में थोड़ी चांदनी उतर आई थी. बोले,


“कब से है समस्या?”


“बहुत सालों से… तमाम डॉक्टर्स को दिखाया पर कोई सही से नहीं समझ पाया. आपको भी दिखाया था. कई बरस पहले… याद होगा आपको कि आपने फीस भी वापिस कर दी थी यह कहकर कि इन्हें कोई बीमारी ही नहीं, लाइफ स्टाइल बदलने भर की जरूरत है…”


“कब दिखाया था मुझे आपने?”,


उन्होंने सामान्य भाव से पिछली रिपोर्ट्स पलटते हुए पूछा,


“कोई तीन साल पहले…”,


मैंने डॉक्टर साहब को अपडेट किया.


“ओहो… पुरानी बात है”,


कहते हुए वह स्वछंद भाव से हंस पड़े. फिर थोड़ा गम्भीर होकर बोले,


“देखो कई साल पुराना मर्ज है, धीरे-धीरे ही जाएगा. दवाइयां मत छोड़ना, इसी कैंपस में है मेडिकल स्टोर, सिर्फ वहीं से लेना. रिसेप्शन से एम आर आई की लैब का पर्चा ले लेना. उससे और भी सही आइडिया लगेगा मर्ज का. अगली बार आओगे तो एम आर आई की रिपोर्ट लेते आना. इलाज थोड़ा लम्बा चलेगा.”


उन्होंने “नेक्स्ट” कहने के लिए घंटी पर हाथ से पुश कर दिया था.


मेडिकल स्टोर पर दो लोग पर्चा लपकने को तैयार थे. उन्होंने जल्दी-जल्दी दवाएं निकाली. खाकी पुडियाओं में भरा. उन पर कितनी बार लेनी हैं, वो निशान बनाये और कंप्यूटर से बिल निकाल दिया. बिल हुआ कुल ४२४२ रुपये. कोई डिस्काउंट नहीं.


मरता क्या न करता दवाएं तो लेनी ही थीं. चलने को हुए तो रिसेप्शनिस्ट दौड़ता हुआ आया. एम आर आई के लिए रेफ़र किये जाने का पर्चा था-- किसी दास इमेजिंग सिस्टम के लिए.


घर आये. दिमाग लगाया तो सोचा आगे के लिए दवाओं में कम खर्चा हो इसलिए मोबाइल से उस पर्चे का फोटो खींच ज्ञान भाई को व्हाट्सअप कर दिया. एम आर आई को रेफर किये जाने वाले पर्चे की पिक्चर भी भेज दी थी उन्हें ताकि आइडिया लग सके कि कितना खर्च आयेगा. ब्लू टिक के दो मिनट बाद ही उनकी कॉल ही आ गई. बोले,


“अरे सर, ये डॉक्टर साहब भी उसी खेल का हिस्सा हैं अब. यह एक ऐसा खेल है जिसे आम आदमी आसानी से नहीं समझ सकता... इन दवाओं की लिस्ट प्राइस जरूर सवा चार हजार रूपये होगी पर उनके लिए इनका डिस्काउंटेड मूल्य हुआ बमुश्किल १२७५ रूपये. और एम आर आई के ४५०० रुपयों में से डॉक्टर साहब का कमीशन बना दो हजार रुपये. यानि कुल खर्च हुआ ४२४२ प्लस ४५०० प्लस फीस ५०० रुपये, कुल रु ९२५२. अगर कमीशन के बिना यह इलाज होता तो खर्च होते मात्र ४२७५ रुपये. अर्थात रु ४९७७ की सीधी दलाली.”


“ओह… यहाँ भी!”


मैंने सर पकड लिया. फोन पर मेरी आवाज से ही उन्हें मेरी दशा का भान हो गया होगा. बोले,


“यही सिस्टम है हमारे यहाँ डॉक्टर्स के नेक्सस का… डॉक्टर-मेडिकल स्टोर-पैथोलॉजी. इसमें हार किसकी होती है, सिर्फ और सिर्फ पेशेंट की. पर क्या किया जाए… जो लोग इस नेक्सस से दूर रहना चाहते हैं, उन्हें मरीज भी भाव नहीं देते. फलते-फूलते और मरीजों की भीड़ को देख कर ही नये मरीज भी आकर्षित होते हैं.”


मैंने उन्हें धन्यवाद कहा और कॉल डिसकनेक्ट कर दी. पत्नी को यह विवरण नहीं बताया वरना उनका इन डॉक्टर से बरसों पुराना जमा विश्वास उठ जाता. यह वही डॉक्टर थे जिन्होंने एक समय फीस भी वापिस कर दी थी और मुफ्त में स्वस्थ रहने का नुस्खा दिया था.


एक बात और… दवाओं में कोई खुशी नहीं है वाले सिद्धांत को प्रतिपादित करती किसी अनाम व्यक्ति की सुंदर पंक्तियां उनके इस नए क्लीनिक पर अब नहीं टँगी थी.


क्या ईश्वर का भी रूपांतरण उतनी ही तेजी से हुआ है, जितनी गति से इस बाजारवाद की संस्कृति ने हमें जकड़ लिया है? एक डॉक्टर ईश्वर का ही तो दूसरा रूप होता है, अब तक तो यही माना था. डॉ अग्रवाल पिछले तीन-चार साल पहले तक जिस हिप्पोक्रेटिक ओथ का सम्मान करते आ रहर थे, शायद उसका समय भी अब एक्सपायर्ड हो चुका था. हालांकि मुझे याद है कि उस समय उन्होंने यह भी बताया था कि इसी ओथ में यह भी प्रण लिया जाता है कि आप मरीज को वैकल्पिक इलाज के रास्ते बताने का भी प्रयास करेंगे. पर समय के साथ ऐसे बंधन ढीले पड़ जाते हैं. डॉ अग्रवाल अपवाद न थे.


पर, उम्मीदों का टूटना सच में बहुत अवसाद देता है. मेरी उम्मीद जरूर टूटी थी, नन्दिनी की अभी भी कायम थी. उन उम्मीदों का बने रहना उसकी स्वस्थता के लिए जरूरी था.