अकबर महान की भटकती आत्मा Raj Gopal S Verma द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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अकबर महान की भटकती आत्मा

किस्सा सन १८५७ की क्रांति के दिनों के आसपास की है.


आगरा किले पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो चुका था. वहां तमाम गुप्त रास्ते थे, ऐसे गलियारे, घुप्प अँधेरे में ढूंढ कर चलने वाले और खोज कर रास्ता बनाने वाले दरवाजे जो वाकई में भुतहा लगते थे. पर हमेशा लगता रहा कि भूत-वूत कुछ नहीं होता होगा. आवाजाही से सिर्फ चिमगादडों की चीं-चीं और इधर-उधर की फड़फड़ाहट, कुछ जंगली कबूतरों की गुटर-गूं और पास आने पर उनका उड़ जाना… बस इससे अधिक जीवंतता नहीं थी वहां. भूत क्या होते हैं, यह कोई कैसे जान सकता है, बशर्ते कि उसने उन्हें अपनी आँखों से देखा हो.


आगरा किले में राज कर रहे ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों के कान इन किस्सों को सुनते-सुनते पक गये थे, पर असलियत कोई नहीं जानता था. किले में काम करने वाले कारिंदे और नौकरानियां बताते थे कि ये भूत आगरा किले के हर दरवाजे, गलियारे और झरोखों के कोनों में, कुछ छत पर, और कुछ दीवार पर बने गहरे आलों में छिप कर रहते हैं. तमाम ऐसे जिन्नात किले की अलग-अलग मुंडेरों और दरवाजों के पास पीपल के पेड़ों के झुरमुटे में छिपे रहते हैं, ऐसा बताया गया था. जब रात गहरा जाती है तो ये आपस में मंत्रणा करते हैं, नृत्य करते हैं, कुछ वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़ा और रोना-धोना भी करते हैं. यानि कि भूत न हुए कोई ज़िंदा लोग हुए. या मान लीजिये कभी आपकी-हमारी तरह ज़िंदा रहे लोगों की आत्माएं.


जिन्न रूप धारण की हुई परियां भी कम नहीं होती. वे कुँओं या पानी के स्रोतों के पास बहुतायत से मिलती हैं… श्वेत-धवल वस्त्रों में अपनी खूबसूरती और सुगंध से वातावरण को महकाती हुई. शेष स्त्री आत्माएं खुले आम रात के अंधेरों में यहाँ-वहां बेरोक-टोक विचरण किया करती हैं. वे सब को देख सकती हैं, पर स्वयं अदृश्य रहती हैं, ऐसा माना जाता है.


इन भटकती भुतहा आत्माओं के बीच में जिसका राज चलता था वह कभी इस किले का सम्राट हुआ करता था, जिसने अपने खून-पसीने से सींचकर इस इमारत को यह विशाल और खूबसूरत रूप दिया था, पर वह अब हम ज़िंदा लोगों की दुनिया से विस्मृत हो चुका था. वह था मुगल सम्राट अकबर महान! उसे किसी ने कभी देखा नहीं था, पर अकबर की रौबीली आवाज और उसके आसपास होने का अहसास भर ही माहौल में दहशत भर देने के लिए पर्याप्त था.


अंग्रेज मजिस्ट्रेट के एक कारिंदे ने उस दिन जो वाकया देखा वह उसे भयाक्रांत करने और लगभग मूर्छित कर देने के लिए काफी था. एक दिन वह शाम के समय किले का मुख्य मार्ग पार कर दूसरी ओर बनी इमारत की ओर जा रहा था कि उसने अपने नाम को पुकारे जाने की आवाज सुनी. वह ठिठक कर रुक गया और घूम कर देखा, पर दूर-दूर तक कोई नहीं था. उसने सोचा कि शायद वह उसी का कोई साथी होगा जो उससे लुका-छिपी कर रहा था. वह निश्चिन्त होकर आगे चल दिया, परंतु कुछ ही क्षण बाद दूसरी दिशा से तेज आवाज आई,


“मक्खन सिंह, मक्खन सिंह…!”,


उसको अपनी पुकार साफ सुनाई पड़ी. उसने आसपास और दूर तक देखा भी, लेकिन किसी व्यक्ति के मौजूद होने के कोई चिन्ह वहां नहीं थे. थोड़ा आगे चलने पर फिर से मक्खन सिंह को आवाज आई,


“मक्खन सिंह, यह बताओ कि यह किला किसका है?”,


अब मक्खन सिंह के घबराने की बारी थी. वह बिना कोई उत्तर दिए तेज क़दमों से आगे बढ़ गया. बमुश्किल वह बीस कदम आगे ही गया होगा कि अगले दरवाजे से पहले ही इस बार बहुत सख्त और तेज आवाज ने अपना प्रश्न दोहराया. इस बार आवाज उसके बिलकुल निकट और दाईं तरफ से आई थी.


अब मक्खन सिंह समझ गया कि इस अदृश्य शक्ति को उत्तर देना बहुत जरूरी है, वरना न जाने क्या हादसा हो जाए. उसने सायास आत्मविश्वास बनाये रखा और जो उचित लगा वह जवाब दिया. वह बोला,


“मेरे भाई, तुम जो भी हो, ऐसा क्यों पूछते हो? क्या तुम्हें नहीं ज्ञात कि हम लोग कंपनी बहादुर के प्रसिद्ध राजप्रासाद में हैं?”


जैसे ही मक्खन सिंह ने “कंपनी” शब्द का उच्चारण किया, वह आवाज मक्खन सिंह के वाक्य पूरा करने से पहले ही बहुत जोर से चीखी. बोली,


“तुम झूठे हो, झूठे हो! यह इमारत मेरी है. मेरी! मेरी! मेरी!!”


और फिर विलाप-सा स्वर जो धीरे-धीरे दूर होता चला गया. पर मक्खन सिंह इस घटना से इतनी बुरी तरह डर गया कि अगला कदम उठाने के प्रयास में वह समतल जगह पर भी ठोकर खाकर जो गिरा तो मूर्छित हो गया.


कुछ घंटों बाद जब उसे होश आया तो मक्खन सिंह की अपने पैरों पर चलने की क्षमता नहीं बची थी. भयभीत मक्खन सिंह किसी तरह से रेंग-रेंग कर सुरक्षा गारद के कक्ष तक पहुंचा जहाँ उसने अपने साथ हुई घटना का विवरण वहां मौजूद लोगों को सुनाया.


वहां मौजूद मक्खन सिंह के एक सहयोगी गुलाम अली ने बताया कि उसने भी एक बार सम्राट अकबर की आवाज सुनी थी. उसने मक्खन सिंह को सुझाव दिया कि यदि फिर से उसे वह आवाज और प्रश्न सुनाई दे तो उसे कहना चाहिए कि मेरे सरकार यह किला और पूरी जायदाद आप ही की है. किसी और की नहीं.


मक्खन सिंह इस घटना से इतना डर गया था कि उसने सूर्यास्त के बाद घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया. वह अपनी जान के प्रति कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. परंतु एक दिन ऐसा आया कि उसे जरूरी सरकारी काम से बाहर जाना ही पड़ा. उस दिन फिर वही हरकत हुई.


“मक्खन सिंह… मक्खन सिंह!”


तेज अदृश्य आकाशवाणी-सी आवाज से वह फिर भयभीत हो गया. फिर वही आवाज, वही प्रश्न, और अदृश्य इंसान. यानि भूत-प्रेत का चक्कर. वह सांस रोक कर रुक गया. तब उस अदृश्य शक्ति ने कहा,


“बताओ तो कि यह किला… यह जायदाद किसकी है? बताओ… बताओ, किसका है यह किला?”


हालांकि मक्खन सिंह भयभीत था, पर उसे अपने साथी की दी हुई सलाह याद रही. उसने हिम्मत कर कहा,


“अकबर बादशाह हुजूर, यह आपका ही किला है, किसी और का कैसे होगा. सिर्फ आपका हुजूर!”


उसे किसी इंसानी शक्ति की धीमे से बड़बड़ाते की आवाज सुनाई दी, जो उस जिन्न की स्वीकृति और अहं के पूर्ण होने का परिचायक थी.


उसके बाद कभी भी भूत, जिन्न अथवा अदृश्य शक्ति ने मक्खन सिंह को परेशान नहीं किया, कम से कम अकबर महान के भूत ने तो नहीं.

००००

अकबर बादशाह की रूह को तो बाद में आगरा किला में महसूस नहीं किया गया पर इससे मिलते-जुलते भुतहा किस्से कम नहीं हुए. सर्दियों के दिन थे, और रात का समय था. सिपाहियों की गार्ड अपने ठिकानों पर मुस्तैद थी. एक पारी बदल रही थी, इसलिए किले में जाने और आने वालों की आवाजाही हो रही थी. तभी उनमें से एक घबराया और बदहवास सिपाही गिरता-पड़ता ड्यूटी रूम में आ पहुंचा.


“साहब… जल्दी चलिए, मैंने किले के उत्तरी बुर्ज पर एक आग का गोला जलते हुए और फिर धीरे-धीरे उसमें से निकलकर एक आकृति को मनुष्य का रूप लेते देखा है.”


“तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी मूल चंद?”,


मुंशी जालिम सिंह ने पूछा.


“मेरा यकीन कीजिए, और जल्दी चलिए, कहीं कोई हादसा न हो जाए”,


मूल चंद जिद्द पकडे था. उसने यह भी बताया कि,


“ऐसा लगता है कि कई लोग वहां हांडी पर कुछ पका रहे थे… मुझे डर लगा, क्योंकि वैसे भी अकेला और निहत्था था, तो मैं वहां रुका नहीं…”


अब तक और भी लोग इकट्ठे हो चुके थे. उनमें कुछ अनुभवी दीवान और उम्रदराज कारिंदे थे, जिन्होंने अच्चा और बुरा सब समय देखा था. इस किले से उन्होंने देश भर में राज होते हुए भी देखा था, और ताश के पत्तों-सा यह मुगल साम्राज्य का किला ढहते हुए भी देखा था. ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा जरूर था इस ऐतिहासिक किले पर, परंतु उन्होंने इस किले को संवारे रहने भर का भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया था. ऐसे में एक देसी सार्जेंट रहमत अली ने मूल चंद की बातों को गम्भीरता से लिया. वह अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ उस स्थल की ओर चल पडा. निकलते समय एक ब्रिटिश अफसर जेम्स कैरीमन भी वहां आ पहुंचा था. उसने किसी भूत-वूत के अंदेशे का उपहास उड़ाते हुए कहा कि,


“अगर किसी घुसपैठिये ने इस किले में आने की जुर्रत की है तो उसको ऐसी सजा दी जायेगी कि लोगों को इस तरह किले में प्रवेश करने से पहले सौ बार सोचना पड़े! किसी से मुर्रव्त की सोचना भी नहीं. ले आऊं जंजीरों में जकड़ कर!”


टुकड़ी चल पड़ी. बुर्ज के आसपास सब जगह की कड़ी छानबीन की गई. मक्खन सिंह भी साथ था. वहां आग के निशाँ भी थे और धुंवे के बवंडर भी अभी तक दिख रहे थे. नजदीक आकर देखा तो वाकई एक बड़ी कढाव में सूप जैसा कोई पदार्थ पकाए जाने का आभास हुआ. परंतु आश्चर्यजनक बात यह थी कि वहां कोई भी इंसान नहीं था. जो लोग वहां गये थे, वे चकरा गये और असहज हो गये. उन लोगों ने चप्पा-चप्पा छान मारा, पर कोई हो तो मिले भी. इतने में कढ़ाव में पकते पदार्थ में हलचल होनी आरंभ हुई. वे सभी लोग अभी असमंजस में थे कि उस देगची में एक काला गोला बनना आरंभ हुआ. गुब्बारे की तरह वह फूलता गोला पहले ऊपर की ओर उठा, फिर छिटक कर जमीन पर आ गिरा. वह एक मानव की आकृति की संरचना थी जिसके बड़ी दांत और काली-काली फूली हुई आँखें थी जो इधर-उधर मटक रही थी, जैसे किसी को खोज रही हों. अचानक उस आकृति ने मुंह खोला और कुछ बोला. क्या बोला, यह मक्खन सिंह को नहीं याद, पर इतना जरूर याद रहा कि उस गोले रूपी आकृति ने उसका नाम लेकर पुकारा था.


चीख-पुकार के बीच मची भगदड़ से सब कारिंदे और सिपाही तथा मुंशी जी भाग निकले थे. पर मक्खन सिंह वहीँ बेहोश हो गया था. उसके साथी उसे उसके हाल पर छोड़ गये थे. जब उसे होश आया तो उसके सर पर सूरज चढ़ आया था. न वहां आग थी और न ही देगची. जमीन पर भी आग, अधजली लकड़ियां या ऐसे अन्य कोई चिन्ह मौजूद नहीं थे.


बाद में उन लोगों ने बताया कि ऐसी आत्माओं के सामने टिकने का मतलब होता है कि आप उनके क्रोध का शिकार बनने के लिए उन्हें आमंत्रित कर रहे हो. कुछ आत्माएं तो इतनी बुत्री होती हैं कि चाहे आप लाख यत्न कर लो, वे आपका गला पकड कर तब तक दबोचे रखेंगी, जब तक कि प्राण न निकल जाएँ. खास तौर से भूतनी बनी औरतें… नहीं मृतात्माएं. पर मक्खन सिंह अभी भी संशय में था. उसने पूछा कि.


“क्या तुममें से किसी ने देखा है किसी प्रेतात्मा को… किसी स्त्री की आत्मा को?”,


“क्यों नहीं. ये भूतनियां बड़ा छलावा होती हैं. सुंदरियां होती हैं ये, बिलकुल परियों की तरह. बस पहचान यह कि इनके पैर… पंजा उल्टा होता है.”


सब लोग सांस रोके, टकटकी लगाये सुनते गये और मुंशी जी बताते चले,


“इन प्रेतात्माओं ने एक बार मेरे साहब की जान लेने की कोशिश की थी. तब मैं बहुत ही कम उम्र का था. तभी नौकरी आरंभ की थी. उस दिन वो पोइया घाट पर नदी के मुहाने पर बैठे हुए पानी के प्रवाह को निहार रहे थे. कई दिन से बारिश का मौसम बना था, सो पानी का बहाव भी अपने यौवन पर था. ऐसे में उन्हें पता भी नहीं चला कि कब सूर्यास्त हो चला है. जब देखा, तो उन्होंने उठने की कोशिश की. तभी एक खूबसूरत स्त्री उनके पास से गुजरी. उसने सफेद साडी पहन रखी थी, और घूँघट में अपना चेहरा छिपा रखा था…!”


उन्होंने एक विराम लिया और पास रखा पानी का पूरा गिलास एक ही सांस में गटक गये. शायद गला सूख चला था मुंशी जी का.


“फिर क्या हुआ?”


न जाने किसने पूछा, पर उत्सुक सब थे.


“होना क्या था. उसने चार कदम आगे बढ़ कर हल्के से अपना घूँघट हटा दिया. बेहद आकर्षक और अनिंद्य सुन्दरी थी वह. वह मुस्कुराई तो साहब के दिल में भी हलचल हुई. उसने उन्हें अपने पीछे आने का आमन्त्रण दिया, तो भला कैसे ठुकरा पाते वो. वो खुद भी बहुत स्मार्ट और दिलफेंक थे. उन्हें उस हसीना का आमन्त्रण ठुकराने का कोई कारण नजर नहीं आया. वह उसके पीछे-पीछे चलते गये. जब वे लोग काफी दूर नदी के दूसरे किनारे पहुँच गये, तभी अचानक हवा के एक तेज झोंके से उसकी सादी का नीचे का भाग काफी ऊपर उठ गया. उसके पैर देख कर…. ”,


“क्या? क्या हुआ?”,


कई स्वर एक साथ कौतूहल में डूब गये.


“अरे होना क्या था… साहब को बड़ा धक्का लगा. उन्होंने देखा कि हालांकि वह आगे की ओर चली जा रही थी, पर उसके पैर उल्टी दिशा में थे. ऐसा सुना भर था, पर उन्होंने जब ऐसा अपनी आँखों से देखा तो एकबारगी उनकी चीख निकल गई. अब वह प्रेतात्मा ताड़ गई थी कि उसकी पहचान हो गई है. उसने तत्काल अपना मुंह घुमाया और खुद को एक राक्षस के खतरनाक स्वरूप में परिवर्तित कर लिया. वह अपने जबड़े को खोलकर बड़े-बड़े दैत्याकार दांतों को चमकाते हुए उनकी ओर बढ़ी. वह उनके टुकड़े-टुकड़े करने का इरादा रखती थी, इसमें कोई शक नहीं था. परंतु तभी एक आदमी झोटा-बुग्गी के साथ कई लोगों को लेकर नदी से रेत लेने चला आ रहा था. उन्हें देख कर वह प्रेतात्मा नदी के रास्ते न जाने कहाँ अंतर्ध्यान होकर उड़न छू हो गयी.”


“चलो अच्छा हुआ…”,


कहकर मक्खन सिंह ने एक ठंडी सांस ली. क्यों न लेता, अभी ही भुगत कर जो आया था ऐसी ही किसी आत्मा को वह. और ये वही मुंशी जी थे जो शाम के वाकये के समय सबसे पहले दुम दबाकर भाग निकले थे.


“अच्छा क्या हुआ भला? आपको पता है उसके बाद क्या हुआ?”,


ऐसा बोलकर मुंशी जी ने कुछ नए रहस्योद्घाटन करने की-सी मुद्रा बनाई. बोले,


“उसके बाद कभी ठीक ही नहीं हुए वह अफसर बाबू. गोर-चित्ते अंग्रेज थे, पर भारतीयों से ऐसे घुले मिले रहते थे जैसे यही उनका वतन हो. फर्राटेदार उर्दू और हिंदी के साथ ही चुनींदा गालियाँ भी हर वक्त जुबां पर रहती थी. पर न जाने कैसा सदमा लगा था उनको इस घटना से कि वह सूखते चले गये. यूँ भी वह इकहरे बदन के थे, पर वह ऐसे मुरझा गये जैसे कोई फूल अपनी उम्र पूरी कर नष्ट होने लगता है.... अंदर ही अंदर लगा रोग घुन की तरह उन्हें खाए जा रहा था. उनकी जुबां से गालियाँ तो क्या, लोगों के नाम भी बमुश्किल निकल पाते थे.”


मुंशी जी थोड़ा रुके. उचक कर इधर-उधर देखा. यह सुनिश्चित कर कि कोई इस मीटिंग पर निगाह नहीं रखे है, बोले,


“मैंने उन्हें बहुत कुरेदा भी.. पुच्छे के पास भी ले गया. तांत्रिक से एक अनुष्ठान भी कराया, और शनि देवता के मंदिर में दान भी कराया. बस एक गलती हो गई… मनकामेश्वर मंदिर नहीं ले जा सका उनको. पर होनी को कौन टाल सकता है. न जाने कितनी बार कार्यक्रम बना, पर किसी न किसी बात पर टल जाता था. और नहीं ही जा पाए वो.”


“क्यों नहीं गये वो मुंशी जी?”,


जमीला जमादार वहां झाड़ू लगाती थी. कुछ गम्भीर गुफ्तगू सुन कर वह भी रुकी हुई थी. यह उसका प्रश्न था.


“वो इसलिए कि ईश्वर का साथ उस प्रेतात्मा को मिला हुआ था, किसी ऐसे साहब बहादुर को नहीं, जिसके हाथ हम लोगों के खून से रंगे हों! सब इलाज और टोन-टोटके बेकार गये. आखिरकार उस प्रेतात्मा ने ही उनकी जान ले ली.”


“ओहो, क्या बीमारी हुई थी उन अँगरेज़ बाबू को?”,


जमीला को बहुत रुचि आने लगी थी. इसलिए वह झाड़ू वहीँ किनारे रखकर पसर गई थी.


“बीमारी? बीमारी का कोई नाम तो हो… कोई ऐसी बीमारी ही नहीं थी उन साहब को. डॉक्टर भी नहीं समझ पाए कि इउनकी मौत का कारण क्या था.


“सदमा और प्रेतात्मा का साया… यह क्या बीमारी से कम है!”,


अब तक इस महफ़िल के सबसे कम उम्र के गार्ड जवां बख्त ने अपना ज्ञान दिया.


“दरअसल स्त्रियाँ जब प्रेतात्मा बन जाती हैं तब वे पुरुषों से कहीं अधिक खतरनाक हो जाती हैं. वे कुँओं, तालाबों, स्नानागारों, पानी के नलों, और शानो शौकत के प्रतीक फुव्वारों के इर्द गिर्द भटका करती हैं. रात भर यह आत्माएं श्रृंगार कर अनन्त आकाश में पहुँच जाती हैं. वहां वे परियों के रूप में राजा इंद्र के दरबार में मोहक नृत्य किया करती हैं. यह नृत्य की महफ़िल पूरी रात चला करती है, जब तक कि सूरज की पहली किरण न पड़ जाए. कुछ वे परियां या आत्माएं जो उस दरबार में प्रवेश करने से वंचित रह जाती हैं, बेमकसद भटका करती हैं, और अपने हिसाब चुकता करने के लिए मर्दों को निशाना बनाया करती हैं”


जवां बख्त के थोड़े से ज्ञान के बदले मुंशी जी ने अब तक इकट्ठा किया सारा ज्ञान मुफ्त में ही उंडेल कर रख दिया था. भला पीछे कैसे रहते वो कल के उस छोकरे की बात से. उसे विस्तार से समझाना और उसके पीछे छिपे दर्शन से सबको वाकिफ कराना उनका धर्म जो था.


तभी एक बग्घी आती दिखाई दी. सब लोग तितर-बितर होकर अपने-अपने काम में लग गये. पर कोई भी समझ नहीं पा रहा था कि प्रेतात्माओं का माजरा क्या है. सब अपनी ही उधेड़बुन में थे. जवां बख्त पेट में दर्द का बहाना क्र अपनी कोठरी में जाकर आराम करना चाहता था, पर वहां वह और भी अकेला हो जाता, इसलिए उसने छुट्टी नहीं ली. वह किसी ऐसी जगह तैनाती चाहता था जहाँ इन आत्माओं का कोई लफडा न हो.


… यह छोटी बेगम की बग्घी थी. उसके निकल जाने के बाद फिर से जवां बख्त मुंशी जी के पास आया. वह अपना खाता खोल कर उसमें खर्च और जमा का हिसाब मिलान कर रहे थे. उसे पास आया देख उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से बख्त को देखा.


“एक बात बताओ मुंशी हुजूर, कि इनसे बचने का तरीका क्या है? क्या यह बात सही है कि इनका आगरा किला में साया इसलिए है कि यहाँ इन फिरंगियों ने बहुत अत्याचार किये हैं. मुसलमानों को तो ये शुरू से ही अपना दुश्मन मानते आये हैं. लोगों को ज़िंदा जला दिया है, बेरहमी से मार डाला गया है. जमुना नदी में बहाई गई लाशों से न जाने कितने दिन तक उस नदी का पानी लाल रहा था. क्यों न मैं अपना तबादला फतेहपुर सीकरी के महल में करा लूँ. सुकूं तो रहेगा. फिर जान है तो जहान है. वहां तो नहीं भटकती होंगी ये प्रेतात्माएं?”


मुंशी जी टकटकी लगाये जवां बख्त की बातें सुन रहे थे. जब वह बोल चुका, तो उन्होंने चुपचाप अपने बही खातों को बंद किया, उन्हें एक फीते से बाँध कर लाल कपडे में रखा. फिर बगल में ही चुनी दीवार के एक आले में सहेज कर वापिस अपनी गद्दी पर आ बैठे. बोले,


“बेटा, ये मजहब, ये मन्दिर-मस्जिद और जगहों की दूरियां हम इंसानों की बनाई हुई हैं. ज़िंदा लोग ही दूसरे जीते-जागते लोगों के दुश्मन होते हैं. मौत के बाद क्या बचता है! इन अंग्रेजों की चमड़ी भले ही गोरी हो, पर उनके लहू का भी वही रंग है जो हम लोगों की रगों में बहता है. रही बात प्रेतात्माओं की, तो ये वो लोग हैं, वे आत्माएं हैं, जिन्हें न पूरी उम्र मिली, और न मोक्ष. इसलिए खुदा ने इन्हें ऐसी नियामत बख्शी है कि ये जो भी करें सब माफ़ है. पल में यहाँ और पल में वहां. ज़िंदा दिखते भी हैं, छू मन्तर भी हो जाते हैं. फतेहपुर सीकरी इनके लिए चुटकी भर का रास्ता है. भले ही तुम्हारे लिए चार घंटे का होगा. इन्हें खरामा-खरामा नहीं जाना. इसलिए यहीं रहो. खुदा को याद रखो और खुद को इंसानियत से लबरेज रखो. अल्लाह अपने बंदों का भला करता है...”,


उन्होंने अपने दोनों हाथ आसमान की ओर उठाते हुए दुआ की.


“पर फिर भी… फतेहपुर सीकरी… ”,


अब मुंशी जी को समझ आ गया था कि यह नौजवान नहीं समझने वाला. तब उन्होंने उसकी आँखों में झांका. एक मुस्कान उनके चेहरे पर दौड़ गई. फिर बोले,


“बहुत जिद्दी हो मियाँ. तो सुनो फतेहपुर सीकरी का भी किस्सा...!”


“मतलब वहां भी भूत और आत्माओं का डेरा है…”,


थोड़ा चिंतित होकर जवां बख्त ने पूछा. उसके माथे पर संशय की लकीरें उभर आई थी.


“बताया तो तुमको, कि उनके लिए कोई भी जगह पल भर की ही दूरी पर है. और अगर आप भले इंसान हो तो उन्हें तुमसे कोई शिकायत क्यों होगी?... पर फिर भी, सुन लो सीकरी की कहानी भी.”


जवां बख्त दिल थाम कर बैठ गया. मुंशी जी ने अपने ईष्टदेव को स्मरण किया और बताना आरंभ किया,


“बात ज्यादा पुरानी नहीं है. यह कुछ दिन पहले की ही बात है जब पूरा इलाका गदर के नारों और बगावत की जंग के नारों से गूँज रहा था. फतेहपुर सीकरी भी अछूता नहीं था. एक दिन किसी ने शिकायत की कि महल के अमुक हिस्से में कुछ बाग़ी छिपे थे, जहाँ उन्होंने कंपनी की हुकुमत का लूटा हुआ कुछ खजाना गुप्त रूप से गाड़ दिया था. पर किसी ने मुखबिरी कर दी. खबर कंपनी बहादुर से होती हुई आला हाकिमों तक पहुंची. पूरे किले और महल की जामा तलाशी ली गई. पर कुछ हो तो मिलता भी. आक्रोश में किले के सिपहसालार अंग्रेज कमांडेंट जॉन मिलर ने कई देसी पहरेदारों को कोड़ों से इतना मारा कि उनमें से एक मुशीर आलम ने वहीं दम तोड़ दिया."


मुंशी जी ने आगे बताया,


"मुशीर असल मे खुदा का बंदा था. बावक्त नमाजी, सच्चा इंसान पहले था, मुसलमान बाद में. इस मुल्क से उतना ही प्रेम करता था जितना कोई हिन्दू करता होगा. उसकी मौत से सब लोग सकते में आ गए थे. पर मरते दम भी मुशीर ने उफ तक नहीं किया था. जानते हो फिर क्या हुआ?",


जालिम सिंह जवां बख्त के चेहरे से झलकती बेचैनी को पढ़ सकते थे. बोले,


"चौथे दिन ही उस भले-चंगे जवान अंग्रेज अफसर को चक्कर आने शुरू हो गए. उसका चलना-फिरना दूभर हो गया. हर समय कोई अदृश्य शक्ति उससे प्रश्न करती, और बेइज्जत करती दिखती थी. वह अंदर से घबराया हुआ था. सातवें दिन ही वह अपनी ही हड़बड़ाहट में एक कुँवे में डूब कर मरा मिला. कुँवों में किसका डेरा होता है, जानते हो न?",


"और सुनो, मैंने आज तक एक भी वाकया ऐसा नहीं सुना जिसमें प्रेतात्माओं ने किसी बेकसूर इंसान की जिंदगी में दखल दिया हो. तुमको पता हो, तो मुझे भी बताना."


मुंशी जालिम सिंह ने कहा तो उसने स्वीकृति में सर हिलाया. जवां बख्त समझ गया कि वह भूतों और परियों के चक्कर में नहीं आएगा. हमेशा सच और न्याय के साथ खड़ा होगा. ये आत्माएं साफगोई वाले इंसानों से मधुर सम्बंध रखने के लिए ख्यात जो हैं!

००००