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काठ का उल्लू

गनेसीलाल एकटक, बैठक में रखी, उलूक- प्रतिमा को देख रहे हैं. उनका बड़ा बेटा मोहित, इसे किसी मेले से ले आया था. कहता था- “पिताजी क्या नक्काशी है...दूर से देखो तो साक्षात् उलूक का भ्रम होता है!” उन्होंने विरोध किया था. उनके हिसाब से तो मनहूस जीव की प्रतिकृति, मनहूसियत ही फैला सकती थी. किन्तु मोहित अड़ गया था, “यह लक्ष्मी का वाहन है...अशुभ कैसे हो सकता है?!” बच्चे का बचकाना आग्रह तो फिर भी टाला जा सकता था; किन्तु बच्चे की अम्मा ईसुरी, अपने लाल की हर बात मानती. दो दो जाहिलों से निपटना, गनेसी के बस में कहाँ था! फिर तो बैठक में, ‘देवी मैया की सवारी’, ‘दर्शनार्थ’ स्थापित कर दी गई. ‘उलूक महराज’ से टकराकर, गनेशीलाल की दृष्टि, स्वतः, ससुरजी की तस्वीर पर जा टिकती. जान पड़ता, वे उन्हें, तिरस्कार से डपट रहे हों, “काठ का उल्लू!” फोटो पर चढ़ी माला के सूखे हुए फूल, तब शूल जान पड़ते.

ससुरजी परलोक में भी, दामाद के निखट्टूपने का, शोक मनाते होंगे. उन्हें क्या खबर, जिसे वह खोटा सिक्का समझते रहे; वह दुनियां के बाजार में, किस तरह चल निकला है! काश कि वे इहलोक में आकर, उनके जलवे देख पाते!! कभी गनेसी का मानसिक स्तर भी, ईसुरी के समकक्ष था. टेलिविज़न, विडियो और चलचित्र की तमाम फंतासियां, उन्हें उलझाए रखतीं. उनकी बौद्धिक कसरत, पान की दुकान पर खड़े होकर, राजनीतिक- जुगाली करने तक सीमित रहती. ईसुरी तो फिर भी लड़की थी; ब्याह करके निपटाई जा सकती थी. लेकिन गनेसीलाल तो छुट्टे सांड की तरह, हाथ से बेहाथ हुए जा रहे थे- बाप के पैसों पर ऐश करना और नकल के भरोसे, कॉलेज की परीक्षाएं पास करना. पहलेपहल ये दोनों, अपनी सोसाइटी के क्लब- हॉल में मिले थे जहाँ ‘जम्बो साइज़’ का टी. वी. इनस्टॉल किया गया. बड़ी स्क्रीन पर, कार्यक्रमों का आनंद उठाने, सदस्य वहां जमा हुए थे. ‘रामायण’ जौर ‘महाभारत’ की लम्बी श्रृंखला, क्लब में, नियमित रूप से दिखाई जाती. ये दो अकर्मण्य जीव, रोज ही वहां टकराने लगे.

‘बुद्धू- बक्से’ ने उन्हें मिलाया; वही ‘बुद्धूपना’, उनकी हर मुलाकात को खास बनाता. टी. वी. के मगजमार धारावाहिक हों... चलताऊ टाइप मूवीज़ हों या फिर सोशल मीडिया की नौटंकी- वे प्रेम से, सबकी बखिया उधेड़ते. छोटे परदे से जुड़े गॉसिप पर भी, गहराई से मनन करते. दिल-दिमाग को खपा देने वाली, ‘महत्वपूर्ण चर्चा’, उनको आपस में जोड़ने लगी. गनेसी का सपना, बॉलीवुड में पैर जमाने का था. ‘चला मुरारी हीरो बनने’ उनकी पसंदीदा फिल्म थी- एक अज्ञात कुलशील अभिनेता, कैसे अपने संकल्प के बल पर, ऊंचा मुकाम पा लेता है. ईसुरी भी उन्हें ‘मुरारी’ के पदचिन्हों पर चलते देखना चाहती थी. कितु यहाँ समस्या कुछ और थी! गनेसीलाल के टेढ़े- मेढ़े और पान से पगे दांत, हीरो बनने की संभावना को रद्द करते थे. इसी से, उन्होंने अपना इरादा बदल दिया. अब वे अपने भीतर, खलनायक की पात्रता, तलाशने लगे थे. आदरणीय प्रेम चोपड़ा जी उनका आदर्श थे.

किन्तु गनेसी के पिता जगतराम को, उनकी यह अभिरुचि, फूटी आँख ना सुहाई; कॉलेज के स्टेज पर और सडकछाप नुक्कड़ नाटकों में, बेटे की हरकतें, उन्हें बचकानी लगतीं. भला नाट्यकर्मी का, कोई भविष्य हो सकता है? घर की दाल- रोटी भी ठीक से चला नहीं पाते! किन्तु ईसुरी से गनेसीलाल की दोस्ती, उनको गलत नहीं लगी. सम्पन्न परिवार की बेटी जो ठहरी. इधर ईसुरी के पिता दिनकरचंद को भी, गनेसी सरीखा दामाद चाहिए था...’डमी टाइप’- जिसे नकेल डालकर, कारोबार में झोंका जा सके. जिसकी अपनी कोई पहचान न हो...कुछ अलग कर दिखाने का माद्दा न हो; जो उनकी इकलौती संतान ईसुरी के साथ, घर- जंवाई बनकर रह सके. जगतराम ने भी इस संभावना पर विचार किया. बेटे की ‘नैया पार लगने का’ इससे बेहतरीन तरीका, समझ नहीं आया. ईश्वर ने दो और पुत्ररत्न देकर, उनको कृतकृत्य किया हुआ था; लिहाजा गनेसीलाल को, दिनकरचंद की ‘गोद में’ डाल देने से, उन्हें गुरेज ना हुआ. इस प्रकार जगतराम का बेटा और दिनकरचन्द्र की बेटी, प्रेम- धारा में बहते- बहते, यथार्थ की भूमि से जा टकराए.

ईसुरी और गनेसी की निर्मल, निश्छल सी प्रेम कहानी, सांसारिक- बखेड़ों में फंसकर रह गयी. गनेसीलाल की डोर, अब दिनकरचन्द्र के हाथों में थी. उनके मौज- मस्ती के दिन, हवा हो गये. व्यापार के दांव- पेंच और बाजार के तेवर, उन्हें आतंकित करते लेकिन धीरे- धीरे उन्होंने काम सीख लिया और एक कुशल व्यापारी के रूप में स्थापित हो गये. काम के साथ साथ, वे मक्कारियां भी सीख गये थे और चालबाजियां भी. उनके भीतर का अनगढ़ इंसान, परिपक्व हुआ; लेकिन ईसुरी वही की वही रही – सीधी- सादी, नासमझ, बेवकूफ! इस बीच वह दो बेटों की माँ बन गयी और दिनकरचन्द्र भी काल की गर्त में समा गये. यद्यपि परिवार की व्यस्तता में, ईसुरी को सोचने का अवसर कम ही मिलता; तथापि पति के, ‘भोंदूबकस’ से ‘चलता पुर्जा’ बनने तक के सफर की, वह साक्षी अवश्य थी.

परेशानी इस बात की, कि वह दुनियांदारी से अनजान थी. दुनियावी ऊंच- नीच का जो ज्ञान उसे मिला, वह सीरियलों और सिने- जगत के सौजन्य से मिला. यह अधकचरा ज्ञान, निश्चय ही उसे, उसकी स्थिति से उबारने के लिए, काफी नहीं था. वह यह महसूस कर रही थी कि उसके पतिदेव ने, आदरणीय प्रेम चोपड़ा जी से महज प्रेरणा ही नहीं ली, वरन उनके फ़िल्मी- चरित्र को, आत्मसात भी कर लिया! दिनकरचन्द्र के आध्यात्मिक गुरु स्वामी अभिराम, अब गनेसीलाल के गुरु थे. समृद्धि के सभी उपाय, गुरूजी ही उन्हें सुझाते. यह और बात थी कि अब, स्वामीजी की शिष्याएं भी, गनेसी की कृपापात्र थीं.

फिल्म ‘आर- पार’ में आदरणीय चोपड़ा जी का किरदार भी कुछ ऐसा था. ऊपरी तौर पर सात्विक और भीतरी तौर पर...! फिल्म ‘कटी – पतंग’ में तो वे बाकायदा, रासरंग में लिप्त दिखाए गये. इधर गनेसी, निजी जीवन में ही खलनायकी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे. कुछ- कुछ गिरगिटी लक्षण तो, उनकी भोली पत्नी को भी नजर आए. आश्रम की पुजारनों पर उनकी मेहरबानियाँ, समझ के परे थीं. फ़िल्मी –संसार वाली दूषित- प्रवृत्तियां, उनके आचरण में भी उतर आयी थीं. ईसुरी समझ नहीं पाई कि अब वह क्या करे?? कहते हैं कि सुरक्षा और संरक्षण के माहौल में पली- बढ़ी स्त्रियाँ, बुद्धि से परिपक्व नहीं हो पातीं. संघर्षों का स्वाद चखे बगैर, सोच का कुंद होना, स्वाभाविक है. ईसुरी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. ‘एक्सपोज़र’ के नाम पर पहले टेलीविजन और सिनेमा और अब आभासी जगत का उपकरण- उसका अपना स्मार्टफोन!

व्यग्र मनःस्थिति में उसे, चित्र- विचित्र सपने आते. एक सपने में उसने देखा कि आदरणीय प्रेम चोपड़ा जी का भूत पति के सर से उतारने के लिए, वह उनको, उन्हीं के पास ले गयी. स्वप्न की मूल अवधारणा, फिल्म ‘गुड्डी’ के उस प्रसंग से मिलती जुलती थी; जिसमें धरमजी से मिलकर, जयाजी उर्फ़ ‘गुड्डी’, अपने मोहजाल से निकल सकीं. जिनकी ‘गुंडई’ पर, गनेसी लट्टू हो रहे थे; यथार्थ में, वे सज्जन व्यक्ति थे. यह देख, उनको झटका लगा और वे बुरी आदतों से बाज आ गये. दूसरे सपने पर, छोटे पर्दे का असर था- धारावाहिक ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’...! उसमें एक ग्रामीणा नये तौर – तरीके सीखती है ताकि वह पतिदेव की दूसरी पत्नी से टक्कर ले पाए. ईसुरी को इतनी समझ जरूर थी कि वे लटके- झटके, पर्दे पर ही ठीक लगते थे; उस तर्ज पर, समस्या का समाधान नहीं था. इधर गनेसीलाल के रंग- ढंग बिगड़ते ही जा रहे थे.

उनकी नयी दोस्त मिन्नो बला की शातिर थी. कई ‘लिव -इन’ और तलाकों से गुजरने के बाद, ‘खेली- खाई’ का तमगा हासिल कर चुकी थी. ‘बाबाजी’ के आश्रम में, वह ‘पर्दे के पीछे वाले’ कारनामों की सूत्रधार कही जाती थी. ३० पार कर लेने के बाद, उसकी पूछ कम होने लगी थी. इसी से, ‘एडवेंचर’ छोड़, उसने ‘सेटल’ होने का मन बना लिया. अपने आधुनिक पैंतरों से, मिन्नो ने, गनेसीलाल को फांसने की पुरजोर कोशिश की. गनेसी का झुकाव उसकी तरफ हुआ जरूर... लेकिन यह दोस्ती, ‘टाइम- पास’ तक ही रही. आश्रम के आयोजन में, मिन्नो और पति को साथ देखकर, ईसुरी आशंका से काँप उठी. उनकी पूर्व प्रेमिकाओं से, कहीं ज्यादा खतरनाक थी- यह वाली. उसकी संगत में, पतिदेव के रंग- ढंग, बद से बदतर होते जा रहे थे. यहाँ तक कि माननीय चोपड़ा जी के अलावा आदरणीय शक्ति कपूर और आदरणीय रंजीत जी भी, उनके प्रेरणास्तम्भ हो गये थे.

गनेसी के व्यवहार की भनक, उनके सयाने हो रहे बच्चों को भी लग सकती थी; अतः ईसुरी ने अपनी विश्वसनीय सखी बरखा से सम्पर्क किया. बरखा के पति चंदन, उसके राखी- भाई थे. बचपन से लेकर किशोरावस्था तक, वे उससे राखी बंधवाते रहे थे. चंदन के पिता का स्थानान्तरण होने पर, भाई- बहन एक दूजे से दूर हो गये थे. बरखा ने पति को हालात का जायजा लेने, उनकी राखी- बहन के पास भैरोगढ़ भेजा. बरसों बाद, अपने प्रिय भाई को देखकर, ईसुरी की आँखें भर आयीं. बच्चों ने भी मामा का स्वागत किया. चंदन कार्यालय से अवकाश लेकर आये थे और बाबाजी के नाम से चलने वाली, सराय में ही रुके थे. वहां से मामले की पड़ताल, आसान थी. उन्होंने आश्रम के भी दो- तीन चक्कर लगाए. वहां मिन्नो और गनेसी को लेकर, लोग तरह- तरह की बातें कर रहे थे. उन दोनों को साथ– साथ घूमते पाकर, चंदन जान गये कि दाल में जरूर कुछ काला था.

इधर गनेसीलाल को फुर्सत नहीं थी, यह देखने की कि उनके घर में घटनाएँ, क्या मोड़ ले रही हैं. वह जल्दी उधर का रुख भी नहीं करते थे. सांझ ढले उनके दर्शन होते और भोजन से निवृत्त होकर, वे निद्रामग्न हो जाते. परिवार के अन्य तीन प्राणियों की, न तो उन्हें कोई सुध थी और ना ही चिंता. ऐसे में एक दिन, किसी अजनबी को ईसुरी के साथ बतियाते पाकर, उनके हाथों के तोते ही उड़ गये! कहते हैं, इंसान के अपने पाप ही उसे डराते हैं. वह जैसा खुद होता है, उसी सोच के चश्मे से, औरों को भी देखता है. गनेसी को लगा कि उनकी कुत्सित गतिविधियों से तंग आकर, पत्नी भी राह भटक गयी थी. दोनों बेटे स्कूल द्वारा आयोजित, एजुकेशनल टूर पर बाहर गये हुए थे. उनसे पूछना संभव न था. नौकरों से पूछताछ करने पर पता चला कि बीबीजी के गाँव का कोई बन्दा है.

गनेसी सोच में पड़ गये. यह ठीक था कि वे काफी- कुछ बदल गये थे. कुछ यूँ- मानों फिल्म ‘शहीद’ के सुखदेव से, ‘बॉबी’ फिल्म के प्रेम बन गये हों... वह प्रेम- जो ठसक से बोलता था, “प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा”! लेकिन ईसुरी भी तो ‘महासती- सावित्री’ मूवी की जयश्री गडकर नहीं रही; बल्कि “गुमराह’ की माला सिन्हा हो गयी थी! उन दोनों के बीच जो आत्मीयता की कड़ी थी, वह दरकती जा रही थी. वे संदर्भ- प्रसंग...वे सभी फ़िल्मी संदर्भ- प्रसंग, समय की धूल से, धूसरित हो गये थे!! गनेसीलाल ने जब, इस बात को लेकर, ईसुरी को आड़े हाथों लिया तो वह लज्जित नहीं हुई; उलटा चंडी बनकर, उनके ऊपर चढ़ बैठी, “देस- गाँव से कोई अपना आये तो क्या उससे बात भी ना करें...यही संस्कार हैं, भले परिवार के?!” जाने क्यों पत्नी के घुड़कने पर, पति के मुखकमल से, एक बोल तक नहीं फूटा! छल तो उसने भी किया... अपराध- भावना कुछ ऐसी कि प्रतिकार करते नहीं बना.

बरखा को जब पता चला कि गनेसी को, ईसुरी और चंदन के पवित्र सम्बन्ध पर शंका थी; वह आगबबूला हो उठी. घटियापन का ज्वलंत उदाहरण, उसके सम्मुख था! बरखा ने गनेसीलाल को, करारा जवाब देने की ठान ली. उसे अपनी सहेली को लेकर अफ़सोस हुआ. काश कि सुख- सुविधाओं ने, ईसुरी के वजूद को, भोथरा नहीं किया होता... उसे दीन- दुनियां की कुछ खबर रहती; काश कि फ़िल्मी- प्रपंच में उलझने के बजाय, वह मोहल्ले की औरतों संग, प्रपंच करती...सिनेमा के किरदार नहीं, बल्कि जीवन के वास्तविक पात्रों को परखती; काश कि अभिभावकों ने, उसको ‘बेबी’ बनाकर नहीं रखा होता...उसको खुद के लिए, लड़ना सिखाया होता. तब वह जरूर जानती कि दुनियां का असली चेहरा क्या है; कि अपना हक, कैसे छीनकर लेना है!

जो भी हो...गनेसी आत्ममंथन पर विवश हो गये. क्या कमी रह गयी थी उनमें?! ना तो वे अपने मन की कर पाए और ना ही उनकी पत्नी. कितना अच्छा होता, गर ज़िन्दगी भी मुंगेरीलाल के सपनों जैसी, हसीन और आसान होती. तब पति- पत्नी के स्वार्थ, आपस में नहीं टकराते. ज्यादा कुछ नहीं, फ़िल्मी पत्रकारिता में ही, वे नाम कमा लेते... और ईसुरी! वह तो फ़िल्मी- गॉसिप के, सजीव- प्रसारण की, एंकर होती! लेकिन...!! फिलहाल हालात बहुत नाजुक थे. हर संकट से, गनेसीलाल को उबारने वाले स्वामी अभिराम, इस बार भी संकटमोचन की भूमिका में आ गये. बाबाजी का कहना था कि संसार में वासनाओं का जाल, इतना प्रबल है कि दृढ़ आत्मशक्ति वाले भी उसमें फंस ही जाते हैं.

विश्वस्त सूत्रों से (यानी कि घर के पुराने नौकरों से) पता चला कि मेमसाब ने चंदन साब को कल ही, आने का न्यौता दिया है. सजावट के लिए फूलवाले को और मिठाईवाले को गर्मागर्म इमरती लाने वास्ते, फोन पर बोला है. गनेसीलाल की नींद हराम हो गयी. वह रोज ही घर, अँधेरा गहराने के बाद जाते थे. ईसुरी दिन के दस बजे से लेकर, रात नौ बजे तक, अकेली रहती थी....और फिर कल तो, प्रेमियों की बहुप्रतीक्षित चाँद- रात थी! चंदन और ईसुरी, गजब की चाल चल रहे थे! शाम ढलने के बाद, सात से नौ का समय, उनके लिए, नितांत निरापद था. गनेसी का हाल बेहाल था... ‘साजन की सहेली’ मूवी के विनोद मेहरा, उनको याद आते रहे; साथ वह गाना भी - “बेवफा तू बेवफा, किसी और के साजन की सहेली हो गयी”...जवाब में रेखा का, ललकार भरा तराना, “बेवफा, हाँ मैं बेवफा, किसी और के साजन की सहेली हो गयी” गनेसी अचरच में थे. सिनेमा का ग्लैमर जिनको लुभाता है; उन लोगों को, नाकारा और नाकाबिल ठहरा दिया जाता है. इसीलिये तो, वे उस वैचारिक फंसावट से निकल आये. किन्तु अब...! जिन सिनेमाई प्रसंगों को, अवास्तविक और नाटकीय समझकर, वह जीवन में आगे बढ़ गये...उन्हें फिर से कुरेदने लगे थे!

अगले दिन वे बेहद सतर्क थे. मिन्नो के साथ जाकर उन्हें, उन दोनों को, रंगे हाथ पकड़ना था. पहले तो पत्नी को जी भर लताड़ना था; फिर मिन्नो पर प्रेम जताकर, उसे ईर्ष्यालु बनाना था. तत्पश्चात बाबाजी की ‘एंट्री’ होनी थी. कड़वी घुट्टी जैसा उपदेश पिलाकर, उन्हें ईसुरी को शर्मिन्दा करना था. योजना पूर्वनियोजित थी...किन्तु उनको क्या मालूम कि वे, किसी और योजना के शिकार बन रहे थे! जैसे ही उन्हें सूचना मिली कि चंदन गिफ्ट का बड़ा सा पैकेट लेकर, सराय से निकल रहा था; उन्होंने मिन्नो के संग, घर की तरफ कूच किया. मन ही मन गनेसीलाल ने तय कर लिया कि पत्नी को अपने जीवन से, दूध की मक्खी सा निकाल फेंकेंगे. उन्होंने पहले ही जायदाद और कारोबार, अपने नाम कर लिया था. उसमें से कुछ संपत्ति और भरण- पोषण का खर्च देकर, ईसुरी से निजात पा सकेंगे, ऐसा सोच रखा था.

घर जाकर पता चला कि बैठक वाले दरवाजे से, प्रवेश वर्जित था; क्योंकि वहां मेहमान पधारे हुए थे. दूसरी तरफ से वे धड़धड़ाते हुए जो घुसे, तो सीधे बैठक में आकर दम लिया. वहां का नजारा देखकर, आँखें चौड़ी हो गईं. वहां चारों तरफ, ईसुरी और चन्दन के बड़े- बड़े पोस्टर लगे हुए थे; जिनमें किशोरी ईसुरी, अपने किशोर भाई चन्दन को या तो राखी बाँध रही थी, या फिर टीका लगा रही थी. गनेसी को बड़ा झटका लगा. उनकी पत्नी ने उन दोनों को, बिलकुल ही अनदेखा कर दिया. बड़ी ठसक से उसने, अपने भाई की आरती उतारी... उसे तिलक लगाकर मुंह मीठा कराया और राखी से उसकी कलाई सजाई. गनेसीलाल को जान पड़ा कि वे शर्म से, जमीन में गड़ जायेंगे! मिन्नो के अरमानों पर भी पानी फिर गया. इतने में गुरूजी आ गये थे. उन्होंने चेले- चपाटों को लेकर, धावा बोला. उन सबकी हालत देखने लायक थी. उनके मन इतने मलिन हो गये कि वे रक्षा- बंधन त्योहार का सूत्र, चंदन के आगमन से, जोड़ नहीं पाए! परन्तु अब तीर कमान से निकल चुका था. गनेसी कटघरे में थे. उनको ‘क्राइम पेट्रोल’ का वह प्रकरण याद आ गया जिसमें शक्की पति से तंग आकर, पत्नी उसे छोड़ गयी थी.

ईसुरी ने उन सबों को, सवालिया नजरों से घूरकर देखा. बाबाजी के प्राण, हलक में आ गये थे! ‘बाबागिरी’ के समूचे इतिहास पर, एक ही आघात में, कालिख पुत गई. अकस्मात् उनकी दृष्टि, उलूक- प्रतिमा पर पड़ी और वहीं उलझकर रह गयी. वे स्वयं को उस प्रतिमा से, एकाकार होता अनुभव कर रहे थे...और गनेसी! उनके कानों में तो ससुरजी द्वारा उछाला गया, विशेषण गूँज रहा था, “काठ का उल्लू”!!

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