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विक्टर और पाढ़ा

विक्टर और पाढ़ा

नीरजा द्विवेदी

यह कहानी सन 58 की है. उस समय मेरे पापा गोरखपुर में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे. गोरखपुर में डी.आई.जी. रेंज का नया पद सृजित हुआ था और उनके लिये आवास का प्रबंध होने तक जिस आवास में हम रहते थे उसके आधे भाग में डी.आई.जी. साहब के रहने का प्रबंध किया गया. आवास में सामने दो कमरे थे जो ड्राइंग रूम बनाये गये. इसके बाद एक गैलरी थी. गैलरी के दोनों ओर तीन-तीन कमरे थे. अंदर बरामदा था और रसोईघर था. अंग्रेज़ों के समय का एक रसोईघर बड़े से आंगन की बाउंड्री वाल के बाहर बना था. तीन कमरे और बाहर का रसोईघर डी.आई.जी. श्री ओंकार सिंह साहब को दे दिया गया क्योंकि उनकी पत्नी अधिकतर बहराइच में अपने फार्म की देखभाल के लिये रहती थीं. ओंकार सिंह साहब और उनके पुत्र बहुत बड़े शिकारी थे. उस समय शेर के शिकार पर प्रतिबंध नहीं था और बहराइच के जंगल शेरों से भरे पड़े थे. उन लोगों ने अनेकों शेरों का शिकार करके उनके शरीर को समूचा मढ़वा रक्खा था. ड्राइंग रूम की सामने की दीवार पर दरवाज़े के दोनों ओर दो आदमकद शेर लगाये गये थे जिनकी आँखें इतनी सजीव थीं कि उन्हें देखकर रात क्या दिन में भी कँपकँपी आ जाती थी. सबसे आगे के छोटे ड्राइंग रूम में प्रवेश द्वार के ऊपर एक मढ़ा हुआ शेर लगाया गया था जो ऊपर से कूदने की मुद्रा में था. उसे देखकर शरीर पसीने से लथपथ हो जाता था.

डी.आई.जी. साहब के आने से दो माह पूर्व हम लोगों के पास एक दिन न जाने कहां से एक अल्सेशियन कुत्ता आकर खड़ा हो गया था और जाने का नाम नहीं ले रहा था. अखबार में भी सूचना दी गई और थानों से भी पता किया गया कि किसी ने कुत्ते के खोने की रिपोर्ट लिखाई हो परन्तु उसके मालिक के बारे में कुछ पता न चला. कहीं से कोई सूचना न मिलने पर और हठपूर्वक हमारे अतिथि बन जाने पर विक्टर को हमें पालना पड़ा. धीरे-धीरे वह हमारे घर का सदस्य बन गया. उसका नाम विक्टर हम लोगों ने उसकी बहादुरी, फुर्तीलेपन और उसके भारी-भरकम डील-डौल को देख कर रक्खा था. वह ऊँचे कद का था और उसका रंग भूरा-काला मिला जुला था. माथे पर बीचोबीच काले रंग का टीका था. शुरू में तो विक्टर का पूरे आवास पर एकछत्र साम्राज्य था पर डी.आई.जी. साहब के आ जाने के बाद एक कठिन समस्या आ गई थी. उनके पास एक पाढ़ा (हिरन की एक प्रजाति) पला था, जो बकरी के कद का था. कुत्ते और हिरन में जानी दुश्मनी होती है. अब पाढ़े को आंगन के अंदर बाँधा जाने लगा और विक्टर को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. आँगन में दो दरवाज़े थे और चपरासी उनका प्रयोग अंदर आने के लिये करते थे. दरवाज़ों को बड़ी सावधानी से बंद कर दिया जाता था. विक्टर की घ्राण (सूँघने की) शक्ति बहुत तीव्र थी. वह जेम्स बौंड की तरह अपनी आंगन से बेदखली का कारण खोजने में लगा था. एक दिन उसका शक विश्वास में बदल गया और जब चपरासी पूरनसिंह आंगन में आने वाला था तभी विक्टर चेन तुड़ाकर पूरन सिंह को धक्का देते हुए आँगन में घुस गया. अब क्या था उसने एकदम पाढ़े के ऊपर हमला बोल दिया. पाढ़ा चिल्लाकर भागा. वह दृश्य आज भी हमारी आँखों के सामने साकार हो उठता है. आगे-आगे तीव्र गति से भागता पाढ़ा और उसके पीछे-पीछे भयंकर, रौद्र रूप में गुर्रा कर पीछा करता विक्टर. आवास के आँगन से निकलकर दोनों बाहर दौड़ने लगे. पाढ़ा आगे-आगे और विक्टर पीछे-पीछे बिजली की गति से दौड़ रहे थे. सब साँस साधे देख रहे थे. किसी में हिम्मत नहीं थी कि उन्हें रोक पाता. इतने में पाढ़ा आंगन की आठ फुट ऊँची दीवार फाँदकर अंदर आँगन में कूद गया. सबके मुँह आश्चर्य से खुले के खुले रह गये जब विक्टर भी पाढ़े के पीछे चहारदीवारी फाँदकर अंदर कूद गया और उसने लपक कर पाढ़े की टाँग अपने मुँह में दबा ली. ऐसा लग रहा था कि विक्टर अभी सबके सामने पाढ़े को चीर-फाड़ कर रख देगा. सबकी साँसें रुकने लगीं कि इतने में पापा ने जोर से डाँटा---‘’नो, विक्टर, नो’’. विक्टर ज़रा सा थमा कि मेरी छोटी बहिन ने विक्टर के मुँह से पाढ़े की टाँग छुड़ा दी.

इस घटना के बाद सब लोग बहुत डर गये थे. एक दिन एक साहब पापा के पास मिलने के लिये दफ्तर में आये. विक्टर उन्हें देखते ही प्रसन्नता से कूँ,कूँ करते हुए, उनसे चिपटकर, दुम हिलाते हुए उन्हें प्यार करने लगा. यह देखकर कोई संदेह नहीं रहा कि वही व्यक्ति विक्टर का असली मालिक है. उन्होंने बताया कि वह बहुत बीमार हो गये थे. उनके बचने की कोई आशा नही थी अतः अपने प्यारे कुत्ते को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के आवास पर छोड़ गये थे कि उनके न रहने पर उसका पालन-पोषण भली-भाँति हो जायेगा. ईश्वर की कृपा से अब वह स्वस्थ हो गये तो विक्टर का हाल लेने आ गये. हमें यह जान कर आश्चर्य हुआ कि उसका नाम सचमुच विक्टर था. हमने दिल पर पत्थर रखकर उनकी अमानत उन्हें सौंप दी.

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