Prakruti Natee ka Uddeepan books and stories free download online pdf in Hindi

प्रकृति नटी का उद्दीपन

प्रकृति नटी का उद्दीपन.

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१. ऋतुराज नवरंग भर जाये.

२. किसलय वसना प्रकृति सुन्दरी.

३. भागीरथी के तट पर सुप्रभात.

४. भागीरथी के तट पर सूर्यास्त.

५. प्रपात पतित जलधारा.

६. रात्रि शोभा.

७. निशा आगमन.

८. विरहिन प्रकृति.

९. दूल्हा देखो हृदय बना है.

१०. वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.

११. प्रियतम अम्बर बना हुआ है.

१२. प्रकृति नटी होश उड़ाये.

१३. नभ की पीड़ा.

१४. परिकल्पना.

१५. याद आ रहे दृश्य आज वे.

१६. प्रकृति खड़ी मनुहार करे है.

१७. प्रकृति और हम.

१८. वर्षा ऋतु.

१९. सावन मे बादल जब घिरते.

२०. झूम के घटा उठी.

२१. मानव को सद्बुद्धि दो दाता.

२२. युगल गुनगुना उठे.

२३. एकाकी.

२४. अभिसारिका प्रकृति.

२५. सावन ऋतु आ गई.

२६. जनवरी के माह मे.

२७. फ़रवरी के माह मे.

२८. शतो द लाविनी के शान्त वातावरण मे


ऋतुराज नव रंग भर जाये

प्रकृति दे रही मूक निमन्त्रण,

बसन्त ने रंगमन्च सजाया.

युवा प्रकृति का पा सन्देशा,

ऋतुराजा प्रियतम है आया.

तजी निशा की श्याम चूनरी,

हुई पूर्व की दिशा सिन्दूरी.

मन्द-सुगन्ध बयार बह रही,

मन आल्हादित, श्वांसें गहरी.

पुष्पित वल्लरि हैं झूम रहीं,

ज्यूं हौले-हौले शीश हिलायें,

मधुमक्खियां हैं घूम रहीं,

मदांध पुष्पों से पराग चुरायें.

कोयल हैं करें अन्ताक्षरी,

लगता जैसे हों होड़ लगायें.

श्यामा आ बैठे वृक्ष पर,

कोयल सा है मन भरमाये.

आम औ जामुन हैं बौराये,

भीनी-भीनी सुगन्ध बहाते.

आलिंगन को आतुर केले,

वायु वेग संग बांह फ़ैलाते.

हिल-हिल पीपल के पल्लव,

खड़-खड़ कर खड़ताल बजायें.

नवयौवना सी आम्रमन्जरी,

लजा-सकुचा कर नम जाये.

जीर्ण-शीर्ण सब पत्र हटाकर,

वृक्षों में नव कोंपल है आई.

प्रकृति सुन्दरी वस्त्र बदलकर,

दुल्हन सी बन ठन है आई.

गौरैया करती स्तुति-वन्दन,

पपीहा पिउ-पिउ टेर लगाते,

महोप करते हैं श्लोक पाठ,

कौए हैं कां-कां शोर मचाते.

बगिया में पुष्प खिले हैं

श्वेत, लाल, नीले औ पीले.

पुष्प पराग से हैं आकर्षित,

तितली और भौंरे गर्वीले.

नेवले घूम रहे आल्हादित,

प्रेयसि की खोज कर रहे.

दो पैरों पर हो खड़े देखते,

मित्र-शत्रु का भेद ले रहे.

प्रकृति खड़ी है थाम तूलिका,

पल-पल अभिनव चित्र बनाये.

धूमिल चित्र मिटा-मिटा कर,

ऋतुराज नव रंग भर जाये.


२. किसलय वसना प्रकृति सुन्दरी

पहन शाटिका पीली-पीली,

प्रकृति प्रिया ने रूप सजाया.

परिमल के मिस भेज सन्देशा,

प्रिय बसन्त को पास बुलाया.

त्याग निशा की श्याम चूनरी,

पहनी अंगिया आज सुनहरी.

पूर्व दिशा के स्वर्ण रंग में,

रंगी खड़ी है प्रकृति छरहरी.

शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन है,

वन-उपवन छाई हरियाली.

फ़ूले फ़ूल खड़े हैं लेकर-

कर में नव पराग की थाली.

नाच रहीं तितलियां मनोहर,

भौंरे गुन-गुन करते गुन्जन.

हरी-मखमली दूब बिछी है,

जहां ओस करती है नर्तन.

श्यामा अनिली भी कोयल से,

करती अन्ताक्षरी मनोहर.

फ़ैलाये निज बांह सभी को,

न्योता देते कमल सरोवर.

बौरा उठे आम बागों में,

मह-मह महुआ मदिरा ढारे.

कचनारों की गन्ध उड़ाकर,

खेल खेलते हैं सब न्यारे.

किसलय वसना प्रकृति सुन्दरी,

दुल्हन सी सजकर है आई.

प्रिय वसंत की बांहों में आकर

लेती हो प्रमुदित अंगड़ाई.


३. भागीरथी के तट पर सुप्रभात

देखा भागीरथी के तट पर ,

मैने इक अद्भुत सुप्रभात .

जब स्वर्णरश्मियों के रथ पर,

प्रकटे दिनकर ले कोमल गात.

देखा दिनकर को आते जब,

शरमाई ऊषा, मुख हुआ लाल.

श्यामल अवगुन्ठन का छोड़ साथ,

स्वर्णिम ऊषा का दिव्य भाल.


४. भागीरथी के तट पर सूर्यास्त

सुदूर क्षितिज में देखा मैने,

नवोढ़ा धरती का ज्वलन्त श्रंगार.

तट के पाषाणों के परोक्ष में,

प्रेमी- नभ से उसका अभिसार.

आते देखा दिनकर ने जब,

धरा- गगन का उन्मुक्त- प्यार,

रक्तिम आनन हो घटता पल-पल,

जा छिपा भागीरथी के उस पार.

पर पुरुष देख सकुचाई धरती,

हो उठी व्रीड़ा से लाल गात.

श्यामल अवगुन्ठन ओढ़े मुख पर,

हो गई नवोढ़ा भूमिसात.

भागीरथी के तट पर देखा,

ऐसा अद्भुत इक सूर्यास्त.

धरती और व्योम मिलन यह,

किया नेत्रों से आत्मसात.


५. प्रपात पतित जलधारा

जल प्रपात के नीचे पाषाणों पर,

चरण पटक आगे बढ़ता कर कल-कल.

अतांचलगामी रवि की छाया से,

शोणित सा लाल हुआ निर्मल जल.

आभास दिलाता प्राणिमात्र के दुख पर,

धरती माता हो आहत अन्तस्तल,

शीश पटक कर क्रन्दन करती है.

वेगवती इठलाती धारा बहती है.

प्रपात पतित जलधारा पर,

लहरों का आलोड़न, अठखेलन,

भावावेग से जैसे, माता का,

हो श्वांसोच्छ्वसित हृद-कम्पन;

विह्वल हो अश्रु विसर्जन करती है.

वेगवती इठलाती धारा बहती है.

निशा कटाक्ष से घायल दिनकर,

करे समर्पण नतमस्तक होकर.

वन में रात्रि विहंग का कुन्जन,

अथक शान्ति में झींगुर गुन्जन,

जैसे श्यामल अवगुन्ठन डाले मुख पर,

प्रकृति- नटी करती है नर्तन.

युवा रात्रि की झांझर बजती है.

वेगवती इठलाती धारा बहती है.


६. रात्रि शोभा

शुभ्र ज्योत्सना छिटक रही है,

रात्रि विहंग करते हैं गान.

पिउ, पिउ, पिउ, पिउ टेर पपिहरा,

खींच रहा विरहिन का ध्यान.

श्याम चुनरिया ओढ़ निशा ने,

ताना हीरक जटित वितान.

गन्धराज ने किया सुगन्धित,

तन- मन- हिय और प्राण.

चारु चन्द्र की प्रिया चमेली,

पुष्पों का पहने परिधान.

ओस बिन्दु झर-झर झरते हैं,

स्नाता के जल -बिन्दु समान.

ताल किनारे चमके जुगनू,

श्याम रात्रि में नक्षत्र समान.

झींगुर यूं झन- झन करते हैं,

वीणावादिनि ने छेड़ी तान.

सुदूर क्षितिज में चमक तड़ित ने,

किया भृकुटि पर शर- सन्धान.

यूं लगता है निशा -सुन्दरी,

तक- तक मारे चितवन -बान.

चरण युगल में बांध झांझरें,

बनी प्रकृति नर्तकी समान.

धवल चन्द्र रात्रि का प्रहरी,

करता पश्चिम ओर प्रयाण.

निरख रात्रि की अनुपम शोभा,

मन की पुलकन छेड़े तान.

७. निशा आगमन

आज चुनरिया श्यामल ओढ़े,

रजनी बन कर सजनी आई.

प्रियतम से मिलने को आतुर,

हौले से पग धरती आई.

दिनकर प्रिय को आते देखा,

प्रिया निशा बहुत सकुचाई.

नत आनन , गालों पर छाई,

व्रीड़ा की अद्भुत अरुणाई.

सुन्दरता देखी दिनकर ने,

अपनी सब सुध- बुध बिसराई.

हतप्रभ रहा देखता इक टक,

हृदय ने प्रेम रागिनी गाई.

सजनी को लेकर अंकपाश में,

प्रेमचिन्ह अंकित कर डाला.

और सकुचाई रजनी ने झट,

आनन पर नीला घूंघट डाला.


८. विरहिन प्रकृति

विरहिन सी लगती प्रकृति प्रिया

प्रातः उठते ही रोती है,

आंसू लगते हैं ओस सद्दृश,

उठती जो वाष्प सरोवर से,

लगती है इसकी आह विवश,

मिलता न कहीं भी ठौर- ठिया.

विरहिन सी लगती प्रकृति प्रिया.

मध्यान्ह ताप में दहता है,

मिलता न चैन इसको पल भर,

तन से गिरता है स्वेद बिन्दु.

जलता शरीर जलता बिस्तर,

यह किसे दिखाये फटा हिया.

विरहिन सी लगती प्रकृति प्रिया.

जब सांझ चतुर्दिक घिरती है,

अंधकार में खो जाती यह,

तारों से अश्रु चमकते हैं,

जगती आंखों से सो जाती.

जाने किसने यह त्रास दिया.

विरहिन सी लगती प्रकृति प्रिया.


९. दूल्हा देखो हृदय बना है.

सजी प्रकृति है दुलहिन जैसी,

दूल्हा देखो हृदय बना है.

निरख-निरख कर शोभा उसकी,

ये मन चन्चल हो बैठा है.

चन्दा तके वृक्ष के पीछे,

ज्यूं घूंघट से दुल्हन झांके.

कभी सकुच औ शरमा के,

नैन कटाक्ष चलाये हंस के.

एक श्याम घटा का रेला,

जा पहुंचा चन्दा के मुख पर.

कभी ढांप ले, फ़िर हट जाये

खुले केश सुन्दरी के मुख पर.

चपल चांदनी छिटक गई है,

ज्यूं प्रकृति विवस्त्र खड़ी है.

मलय पवन की सुगन्धि बही है

ज्यूं यौवन परिमल फैली है.

नील गगन में तारे जड़ के,

प्रकृति आई वस्त्र बदल के.

पहने आभूषण गन्धराज के,

झींगुर ध्वनि ज्यूं नूपुर छनके.

केशों में नक्षत्र सजा के,

मन्दाकिनी मेखला पहन के,

मुस्काई जब प्रकृति खिल के,

सब भूला मन बेसुध होके.

सजी प्रकृति है प्रेयसि जैसी,

ये मन प्रियतम बन बैठा है.

निरख-निरख कर उसकी शोभा ,

यह मन उन्मत्त हुआ है.


१०. वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.

वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.

दसों दिशायें गरज-गरज कर देती इसको आज बधाई.

नीले अम्बर से आनन पर,

सजल जलद का घूंघट डाले,

रिमझिम-रिमझिम पायल की धुन

सुनकर हृदय हुए मतवाले.

श्याम घटाओं की अल्कावलि,छू-छू डोल रही पुरवाई.

वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.

दिप-दिप दमके बिन्दी ऐसे

जैसे नभ में दामिनी चमके.

रोम-रोम हरियाली जैसे,

सोंधी गन्ध लिये मन महके.

अंग-अंग में रस बरसाती गिरि उपवन सर सरि में छाई.

वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.

झिल्ली झींगुर की झंकारें,

वाद्ययन्त्र की धुन सी लगतीं.

पिउ-पिउ रटता हृदय पपिहरा,

उसे व्यथायें किसकी ठगतीं?

मेरे अन्तर में अतीत की कैसी सुन्दर सुधि भर लाई.

वर्षा ऋतु दुल्हन बन आई.


११. प्रियतम अम्बर बना हुआ है.

सजी प्रकृति है दुल्हन जैसी

प्रियतम अम्बर बना हुआ है.

निरख-निरख यह अनुपम शोभा,

हृदय कमल सा खिला हुआ है.

छिटक रही हर ओर चांदनी,

वस्त्रहीन सी प्रकृति मचलती.

देख पवन के सुरभित झोंके

चेतन मन से आह निकलती.

उच्च शिखर पर चढ़कर चन्दा,

ताक रहा है नव दुल्हन को.

बड़े यत्न से समझाता है,

सदियों से पीड़ित निज मन को.

देख चांद की कुत्सित चालें,

दौड़ा- दौड़ा बादल आया.

श्यामल पट से उसे ढ़ांपकर,

चन्द्र कलंकी को भरमाया.

फिर नीली साड़ी में तारे जड़ के,

आई प्रकृति वस्त्र बदल कर.

तरह- तरह के गहने पहने,

नृत्य कर रही आज मचल कर.

बादल से केशों में सुन्दर,

नक्षत्रों के सुमन सजा कर,

मन्दाकिनी सी सुघड़ मेखला,

कटि से बांधे किन्तु लजा कर.

चली प्रकृति वर माला लेकर,

ग्रीवा झुका गगन नत तत्क्षण.

किंकर्तव्य विमूढ़ हुआ मन-

देख प्रकृति-व्योम का यह मिलन.

१२. प्रकृति न होश उड़ाये

प्रकृति नटी चर और अचर को नित नव नाच नचाये.

गगन धरा को, दिवस निशा को कही मिलाये, कहीं दुराये.

ऋतु बसन्त में कामदेव ने जड़ जीवित पर तीर चलाये.

तितली ले- ले अधरों का रस, पुष्पों के होश उड़ाये.

प्रकृति- नटी ने अवगुन्ठन में अभिनव चित्र सजाये.

सागर- सुरसरि को , नदिया- निर्झर को अंक लगाये.

बंध सरसिज के अंकपाश में भौंरा सारी रैन बिताये.

मोर- मोरनी, हंस- हंसनी को, नर्तन कर लुभाये.

दूर क्षितिज में दिवा भ्रमण कर श्रान्त पथिक रवि आये.

थाम प्रेयसि सन्ध्या का आंचल निज श्रम औ ताप मिटाये.

देख चन्दा की धवल चांदनी, प्रकृति खिल- खिल जाये.

प्रकृति- नटी का यह उद्दीपन, युगलों के होश उड़ाये.


१३. नभ की पीड़ा

तड़ित वेग से चपला चमकी,

हृदय विदीर्ण हुआ है नभ का.

प्रेयसि वसुन्धरा की पीड़ा,

देख जलद रुक- रुक कर रोया.

निरख धरा पर तान्डव हिंसा का,

आज धैर्य अम्बर ने खोया.

गरज- गरज करता वर्जना,

मान रखो प्रेयसि धरणी का.

उपलवृष्टि कर रहा निरन्तर,

नभ ने अपना धीरज खोया.

अश्रुसिक्त है आंचल अवनी का,

नभ भी आज सिसक कर रोया.


१४. परिकल्पना

नीला अम्बर है अवगुन्ठन प्रेयसि का,

श्वेत- जलद है उजला आनन जिसका.

घिरती श्याम घटायें नभ- स्थल की,

सघन अलकावलि हैं जैसे रूपसि की.

दप- दप दमके दामिनी ऐसे

झांके घूंघट से दुल्हन जैसे.

तड़ित वेग से चपला चमकी,

देती प्रकृति कटाक्ष की झलकी.

उमड़- घुमड़ घिर रही घटायें,

आकुल प्रेमी की उन्मत्त इच्छायें.

सन -सन बहती शीत हवायें,

स्वर में गातीं प्रणय कथायें.

यह नीला अम्बर, ये घिरी घटायें,

चपला चमके घन क्षण-क्षण गरजे.

ले प्रकृति का मूक आमन्त्रण,

वायु वेग की स्वर लहरी लरजे.


१५. याद आ रहे दृश्य आज वे

बचपन में जब घूमे थे हम, आमों की अमराई में,

याद आ रहे दृश्य आज वे, मुझको इस तन्हाई में.

वे टप- टप पानी की बूंदें,

वह हरियाली सावन की,

वे झूलों की बढ़ती पेंगें,

बातचीत वह बचपन की.

पोर- पोर वह पीड़ा उठती थी उन्मद पुरवाई में.

याद आ रहे दृश्य आज वे, मुझको इस तन्हाई में.

वह बरगद तपभ्रष्ट तपस्वी

बन कर हमें डराता था.

जटा- जूट फ़ैलाये अपनी,

ठोकर हमें लगाता था.

पके आम जब बीन- बीन हम खाते थे अंगनाई में.

याद आ रहे दृश्य आज वे, मुझको इस तन्हाई में.

कहां गये वे खरगोशी दिन?

कहां गईं हिरनी रातें ?

कहां गईं वे संग सहेली?

कहां गईं मन की बातें ?

सम्वेदनायें छिपी हुई हैं यान्त्रिकता की खाई में.

याद आ रहे दृश्य आज वे, मुझको इस तन्हाई में.


१६. प्रकृति खड़ी मनुहार करे है.

नव पल्लव के वसन हैं पहने,

मन्जरियों के पहने हैं गहने .

सुन्दर पुष्पों से परिधान सजाये,

सुगन्धित परिमल अंगराग लगाये,

प्रकृति खड़ी मनुहार करे है.

गजरे बनाये गन्धराज के,

कर्णफूल बने पलाश के,

आमों की माला पहनी है.

पीपल के नूपुर खनके हैं.

प्रकृति खड़ी मनुहार करे है.

तितली आ आकर उड़ जायें.

सुन्दर रंगों की छटा दिखायें.

अलि कानों में गुन- गुन गायें-

ज्यूं छेड़ी हों प्रणय कथायें.

प्रकृति खड़ी मनुहार करे है.


१७. प्रकृति और हम

सुख हो या दुख हो दोनों में

प्रकृति हमारा साथ निभाये.

भीष्म-ग्रीष्म में जब हर प्राणी,

तृषावन्त हो कुम्हला जाता,

तब वर्षा का बादल ही तो,

आकर सबकी प्यास बुझाता.

शीत सताता है जब हमको,

दिनकर धूपांशुक ले आये.

प्रकृति हमारा साथ निभाये.

वृक्ष बड़े हों या छोटे हों,

सब मिल कर आपस में रहते.

धूप- शीत, वर्षा सबको ही,

आपस में मिलकर ही सहते.

किन्तु धन्य हम मानव हैं जो,

मिलकर साथ नहीं रह पायें.

प्रकृति हमारा साथ निभाये.

हम अभ्यस्त हुए बिजली के,

चन्दा- सूरज भूल गये अब.

जब से घर में टंकी आई,

गंगा- सतलज भूल गये हम.

प्रकृति निमन्त्रण देती हमको,

किन्तु हमें विग्यान सुहाये.

प्रकृति हमारा साथ निभाये.


१८. वर्षा ऋतु

टप- टप बूंदें जल की टपकीं,

टर्र-टर्र बोली गूंजे मेढक की,

और झांझर गोरी की झनकी,

मेंढकी दे ढोलक पर थपकी.

झन-झन धुन गूंजे झींगुर की,

रात्रि विहंग का आलाप व मुर्की.

तन्मयता पर नभ औ धरती की,

ईर्ष्यातप्त तड़ित देती घुड़की.

बूंदें रिमझिम गिरतीं जल की,

मनके जैसी धवल माला की,

मोती भू पर छितरा वेणी की ,

सज्जा करती सुरबाला केशों की.

गिरतीं सरिता में बूंदें जल की ,

मोती सी कमल दलों पर चमकीं.

सजाने रूपराशि कमलिनी की,

कमल ने मुक्ता एकत्रित कीं.

देखी सुन्दरता जब वर्षा ऋतु की,

बाईस्कोप बनी दृष्टि नेत्रों की.

रसाप्लावित मन लेता हिचकी,

सुधि आई परदेसी प्रियतम की.


१९.सावन में बादल जब घिरते

मेघा घिर-घिर नभ में आते,

प्राणों में हलचल मच जाती.

कभी हुलस कर हम गाते,

कभी आंख आंसू भर लाती.

रिमझिम- रिमझिम मेघ बरसते,

भोली कोयलिया फिर गाती.

धानी - चुनरिया धरती ओढ़े,

अपने यौवन पर इठलाती.

गुलमोहर के फूल दहकते,

जैसे कामिनिया मुस्काती ,

आमों की अमराई में छुपकर,

प्रेम कथा दुहराई जाती.

ठुमक-ठुमक कर मोर नाचते,

पुरवइया सन-सन कुछ गाती.

गोरी झूले पर पेंग लगाते,

पी के सपनों में खो जाती.

कड़क-कड़क जब बादल गरजें,

धरती सहम- सहम सी जाती.

विरहनिया चातक सी तरसे,

सूनी सिजिया बैठ निहारती.

सावन में बादल घिरते जब,

प्राणों में हलचल मच जाती,

कभी हुलस कर हम गाते,

कभी आंख आंसू भर लाती.


२०. झूम के घटा उठी

झूम के घटा उठी,

गुनगुना उठे अधर.

पवन सरसरा उठी,

पुलक उठे रोम हर.

सावनी फुहार उठी,

नाच उठी घर-डगर.

मलयजी ताल पर,

छलछला उठे निर्झर.

संजीवनी प्रकृति बनी,

दे दिया जीवन का वर.

अवसाद मन का खींचकर,

सींच दिया अमृत प्रवर.

हिमाद्रि की छटा दिखी,

मुदित हुआ मन- मुकुर.

प्राणों का संचार कर,

जगमगा उठे प्रहर.

ताप तन का खींचकर,

बह रही गंगा अमर.

दग्ध हृदय के घाव पर,

मरहम लगाती लहर.

वानप्रस्थियों को फ़िर,

लुभा रहे गीत मनहर.

वीतरागियों को फिर,

बुला रहे जीवन के स्वर.

झूम के धरा उठी,

गुनगुना उठे भ्रमर.

प्रकृति खिलखिला उठी,

कर उठी जगर-मगर.

२१.मानव को सद्बुद्धि दो दाता

अश्रु बहा कहती धरती माता,

मानव को क्या हुआ विधाता?

जंगल ही सारे काट दिये हैं,

सरवर भी सब पाट दिये हैं.

जल बिन प्यासी मीन बिचारी,

प्यासे मरते हैं नर- नारी.

शीशम सारे सूख रहे हैं,

न जाने क्या लगी बिमारी.

यदि सारे तरु कट जायेंगे,

नये वृक्ष हम नहीं लगायेंगे,

पर्यावरण तब शुद्ध न होगा,

शुद्ध वायु को हम तरसेंगे.

वन्य जीवों की हत्या करके,

तस्कर चर्म- मांस बेच रहे हैं.

दुर्लभ हस्ति-दन्त पाने को,

अस्थि गजों की नोच रहे हैं.

आश्रयहीन, बेहाल, क्षुधित,

कंकाल बना वनराज बिचारा.

जीवन, भोजन,आश्रय के हित,

भटके दर- दर ज्यूं बनजारा.

यदि न जंगल, वृक्ष रहेंगे,

सरिता, सरवर जल हीन बनेंगे.

उमड़-घुमड़ नहिं घन बरसेंगे,

तो जलकूप कहां जल देंगे?

मौसम अपना रुख बदलेगा.

धरती का अन्तस दरकेगा.

कभी बाढ़, कभी सूखे से,

खेत धान्य बिन सून रहेंगे.

अन्न, जल बिना -कुपोषित

नौनिहाल भी न पनप सकेंगे.

दूषित वातावरण में पल कर,

निर्बल, रुग्ण, कृशकाय बनेंगे.

जब जर्जर होगी भावी पीढ़ी,

सोचो देश की क्या गति होगी?

अगर शत्रु बन विपदा आये,

क्या निर्बल रक्षक बन पायेगा?

अश्रु बहा कहती भारत माता,

मानव को बुद्धि दो विधाता.


२२. युगल गुनगुना उठे

खिलखिलाये जब गगन,

तारे झिलमिला उठे,

चन्द्र जब दूल्हा बने,

चांदनी लजा उठे.

वारुणी मचल उठे,

रागिनी सी गा उठे,

बावरी निशा बने,

झूमती सी नाच उठे.

जगमगाये रात्रि जब,

प्रेमी मुस्कुरा उठे,

धरणि खिलखिला उठे,

स्वप्न कसमसा उठे.

प्रेम की तरंग उठे,

मिलन की उमंग उठे,

बासन्ती बयार में,

युगल गुनगुना उठे .


२३. एकाकी

जब चन्दा की उज्ज्वल किरणों में,

सिकता के कण चम-चम करते,

तारागण प्रहरी बन रात्रि में ,

नभ में चहुं- दिश विचरण करते,

राका नील- गगन वारिधि में,

रजत रश्मियां विकरित करते,

तब निद्रानिमग्न जगत में,

नव स्वप्न सन्सार घुमड़ते.

परियां आतीं मन गवाक्ष में,

बाल हृदय पुलकित करते.

सुन्दरियां किशोर सपन में

आतीं, अभिनव भाव जागते.

युवा मिलन की आकांक्षा में,

सारी- सारी रात्रि जागते.

वृद्ध जराग्रस्त हो व्याधा में,

आहें भर कराहते- खांसते.

निशा के एकाकी प्रहर में,

तुम मानस में झिलमिल करते.

भाव परिपूरित नयन घट से

सुधि-जल ले प्रक्षालन करते.

२४. अभिसारिका-प्रकृति

सोन नदी पर, मैने बैठकर,

देखी इक शोभा अपरम्पार.

अस्तांचल को रवि जाता औ

निशा थी आने को तैय्यार.

मेरे हृदय में उन्हें देखकर,

उपजे अद्भुत, नूतन उद्गार.

रवि प्रेमी बन बैठा और

निशा नवोढ़ा करती श्रंगार.

नदी क तट पर मैने बैठकर,

देखी इक शोभा अपरम्पार,

अस्तांचलगामी रवि था और

निशा मुलकती थी नभ द्वार.

रवि ने पहना था पीताम्बर,

निशा ने पहना सतरंगा हार.

नीली चुनरिया उड़ा फराफर,

बहती थी बासन्ती बयार.

नदी के तट पर, जल में झांककर,

निशा ने किया सोलह श्रंगार.

लाल शाटिका डाली तन पर,

कंठ में डाला किरणों का हार.

स्वर्ण मेखला बांधी कटि पर,

गूंथे चूनर में स्वप्न हज़ार.

पाषाणों के पीछे छुपकर,

चली करने प्रिय से अभिसार.

इतने में रवि नीचे आकर,

बैठा वृक्ष के पीछे छुपकर.

मुग्ध हुआ वह देख- देख कर,

स्वर्णिम आभा श्यामल तन पर.

निशा ने देखा जब प्रिय मुख पर,

चौंक गई वह उसे देखकर.

श्याम चुनरिया झट से खींच कर,

बैठ गई वह वहीं लजा कर.

सोन के तट पर मैने बैठ कर,

देखी थी इक शोभा अपरम्पार.

अस्तांचलगामी रवि था और,

निशा मुलकती थी नभ द्वार.

आज हृदय में उन्हें देख कर,

उठते नूतन अभिनव उद्गार.

सोनांचल की धरती तुम करना

कोटि- कोटि नमन स्वीकार.


२५. सावन ऋतु आ गई

सावन ऋतु आ गई, उमड़ रहे सघन घन.

रिमझिमी बयार में, बढ़ रही प्रेम- अगन.

मयूर नर्तक बना, नाच उठा छूम छनन,

बावरी मयूरियां, छेड़तीं मल्हार -धुन.

कोयल गीत गा रही, सुर में हो के मगन,

गूंजते पपीहे के स्वर, थाप दे रही पवन.

प्रीत- प्रेम रस पगे, सुन के पी के वचन,

ललित ललाम लोचनी, लाज से हुईं कुंकुम.

चिलमनों की आड़ से चितवनों के बयन,

छेड़ते हिय भाव को, अकल्ला रहे सजन.

सावन ऋतु आ गई, उमड़ रहे सघन घन,

रिमझिमी बयार में बढ़ रही प्रेम अगन.

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२६. जनवरी के माह में

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जनवरी के माह में,

बढ़ गई ऐसी ठंड.

आदमी न जान पाये,

रात है या कि दिन.

खिली- खिली धूप है.

धुआं- धुआं हुआ गगन.

अनमनी बनी पवन,

छू गई कोहरे का तन.

धुन्ध में जा छिपी,

लजा रही रवि किरन.

प्राणि मात्र खोजते.

कहां गई रवि की तपन.

बादलों से घिर गया.

यह धरा और गगन.

प्रकृति थरथरा रही,

कांपता है जन- विजन.

तुषार ऐसे गिर रहा

हो रहा मुझे ये भ्रम,

प्रकृति ज्यूं सिसक रही

बहा रही है अश्रु कण.

सूर्य ऐसे छिप गया,

जैसे हो गया निधन.

कोहरा ऐसे घिर गया,

जैसे हो पड़ा कफ़न.

कैसे भूल पाऊं मैं

शीत में कोहरे का दिन.

कैसे कोई जान ले

रात नहीं, अभी है दिन.

आग के अलाव पर,

थरथरा रहे हैं जन.

शीत की लहर उठी,

ठिठुर गया तन- बदन.

बादलों के बीच से,

निकल पड़ी जब किरन,

नियाग्रा के फ़ाल्स का

जैसे हो गया दर्शन.

सूर्य के प्रकाश ने

भर दिया सुनहरा रंग.

प्रकृति मुस्कुरा उठी

मन बजाये जल-तरंग.

कैसे भूल पाऊं मैं

शीत मे कोहरे का दिन.

आदमी न जान पाये,

कैसे बीते रात- दिन.

शीत काल ने मुझे

दिखा दिये ऐसे रंग.

लेखनी मचल उठी,

बन गये नये ये छंद.

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२७. फ़रवरी के माह मे

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फ़रवरी के माह में मन हुआ अस्थिर.

चैन मिले घर में न ही मिले बाहर.

गुनगुनी धूप यूं ढा रही है कहर,

यक्षिणी जैसे चला रही तीरेनज़र.

अनमनी सी पवन, बह रही इधर- उधर.

विरहिणी बनी भटक रही डगर-डगर.

केश बिखरे हुए कर रहे सरर सरर.

पत्ते गिरते वृक्ष से, अश्रु आ रहे नज़र.

पतझड़ी हवा चली, पत्तियां रही हैं झर.

कहते हैं ऋतु बसन्त, है वीरानी का घर.

फ़रवरी के माह में मन हुआ अस्थिर.

चैन मिले घर में न ही मिले बाहर.

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२८. शतो द लाविनी के शान्त वातावरण में

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शतो द लाविनी के शान्त वातावरण में मैने सुना

प्रकृति का गुनगुनाना.

प्लम, पीच, ऐप्पल के वृक्षों पर

गौरैया का चहचहाना.

सुदूर वन में मोरों का बोलना-

सत्य है, स्वप्न है या है कल्पना?

मैपल के विशाल वृक्षों पर मैने देखा-

सघन पल्लवों का सनसनाना.

आल्प्स पर्वत के परोक्ष मे,

श्वेत, श्याम घटाओं का झांकना

और लेक जेनीव मे छवि निहारकर

शरमाकर इधर- उधर भागना.

सत्य है, स्वप्न है या है कल्पना?

सामने फैले विनयार्ड मे मैने पाया-

मक्के के लहलहाते पौधों में,

दूर तक हरियाले खेतों में या

ट्रैक्टरों से जोती गई धरती में-

कृषकों की सुगढ़ता का दिग्दर्शन.

सत्य है, स्वप्न है या है कल्पना?

मखमली हरे लौन में मैने देखा-

पुष्पित मनोहारी पुष्पों का

शीतल पवन के संसर्ग में झूमना.

भ्रमरों के आलिंगन, चुम्बन लेने पर

लजा कर विहंसना और

इठला कर इतराना, छिटकना..

सत्य है, स्वप्न है या है कल्पना?

लेडिग एवं जेन के कक्ष मे मैने पाई-

उनके वात्सल्यमय स्नेह की सतत अनुभूति

गवाक्ष से देखी मैने प्रकृति की अनुपम छवि.

हृदय का असीम उल्लास और

मन का मचलना, गुनगुनाना--

सत्य है, स्वप्न है या है कल्पना?

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