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श्रंगार का सम्मोहन

श्रंगार का सम्मोहन

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१. प्रथम प्रणय की ऊष्मा.

२. ऐ मेरे प्राण बता.

९. (अ) बन्सरी प्रीति की बज रही है विजन.

(ब) आओ न मेरे सजन.

१०. ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

११. प्रणय.

१२. मानस चंदन वन सा महकाती.

१३. मन प्राण गुपचुप कहेगा.

१४. वह क्या प्रिय तुम थे बोलो?

१५. कंगन निज खनका जाना.

१६. विडम्बना प्यार की.

१७. आज मन सूना- सूना है.

१८. तार हिय के तुम न छेड़ो.

१९. न पूछो मुझसे.

२०. दीप बोला एक दिन.

२१. अभिसारिका.

२२. युगल गुनगुना उठे.

२३. गुनगुना उठे अधर.

१. प्रथम प्रणय की ऊष्मा

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प्रथम प्रणय में जो ऊष्मा थी

और कहीं वह बात नहीं थी .

सुन प्रियतम पदचाप सिहरकर,

कर्णपटों में सन-सन होती थी.

स्वेद बिन्दु झलकते मुख पर,

तीव्र हृदय धडकन होती थी.

विद्रुम से कोमल अधरों पर,

मृदु स्मिति छवि निखरी थी.

लज्जा से थे जो लाल लजा के,

कपोलों की न कोई उपमा थी.

विहंस- विहंस प्रिय स्मृति में,

स्वयं सिमट मन में सकुची थी.

करतल आवृत मुखमन्डल पर,

व्रीड़ा की अनुपम सुषमा थी.

निरख निरख कर छवि दर्पण में,

वह प्रमुदित, हर्षित होती थी.

वस्त्राभूषण सज्जित तन में,

लावण्यमई अद्भुत गरिमा थी.

दो हृदयों के मौन क्षितिज पर,

भावों की झंझा बहती थी.

प्रेयसि की स्वप्निल चितवन में,

प्रिय छवि प्रतिबिम्बित होती थी.

प्रिय के प्रेम पगी दुलहिन में,

प्रणय उर्मियों की तृष्णा थी.

प्रथम प्रणय में जो ऊष्मा थी,

और कहीं वह बात नहीं थी.



२..ऐ मेरे प्राण बता

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?

वो झरोखे में छुपी

तेरे नयनों की चुभन,

गोरे रंग में जो घुली-

वो गुलाबों की घुलन,

तेरा तन छूकर आती

संदली मलय पवन.

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?

तेरी चूडी में बसी

मेरे दिल की धडकन.

मेरे आंगन में बजी

वो पायल की रुनझुन.

मेरी नींदें थपकाती

तेरे अधरों की धुन.

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?

तेरे घूंघट में छिपी

जो रतनारी चितवन,

वो कपोलों पे बसी

मृदु स्मिति की थिरकन,

मेरा अन्तर अकुलाती-

वो प्रिया-प्रिया की रटन.

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?

मेरे मन में जो लगी,

इक अनोखी सी अगन.

मेरे मानस में बसी,

तेरे अधरों की छुअन.

मेरा तन सिहराती

तेरे श्वासों की तपन.

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?

मेरे स्वप्नों में बसी

तेरी मरमरी सी बदन.

स्याह अलकें छितराती

छेडती मदमस्त पवन.

मेरा अन्तर तडपाती

तुझे पाने की लगन.

ऐ मेरे प्राण बता

क्या भुला पाओगे?


३.(अ) . बन्सरी प्रीति की

बन्सरी प्रीति की बज रही है विजन,

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

गुनगुनी धूप है सहला रही मन-बदन,

सनसनाती हुई बह रही शीतल पवन,

गुनगुनाती हुई उड़ा रही तन- वसन ,

अनसुनी प्रिय कथा सुना रही है मगन.

बन्सरी प्रीति की बज रही है विजन,

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

गुलाल किन्चती निशा, छुप गयी है गगन.

छुई- मुई सी उषा, लजा गयी बन दुल्हन.

प्रकृति ज्यों रति बनी, बढा रही है अगन.

बयार सन्दली बही, जला रही तन-बदन.

बन्सरी प्रीति की बज रही है विजन

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

धौंकनी श्वांस की बजा रही जल तरंग,

कामदेव तीर पर सजा रहे हैं सुमन,

करती नृत्य राधिका, ताल दे रहे किशन.

जी की कैसे कहूं ,आओ न मेरे सजन.

बन्सरी प्रीति की बज रही है विजन.

सनसनी सी उठी आओ न मेरे सजन.


(ब)... आओ न मेरे सजन

बन्सरी प्रीत की बज रही है विजन,

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

आओ न मेरे सजन.

दुन्दुभी बजा रही प्रात की प्रथम किरन.

अन्शुमाली प्यार से बढ़ा रहे हैं चरन.

गुलाल किन्चती निशा, छुप गई है गगन.

लाजवन्ती उषा लजा गई, बन दुलहन.

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

आओ न मेरे सजन.

गुनगुनी धूप है, सहला रही तन- बदन.

सनसनाती हुई चल रही शीतल पवन.

गुनगुनाती हुई, उड़ा रही तन- वसन.

अनसुनी प्रिय कथा सुना रही है मगन.

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

आओ न मेरे सजन.

श्यामली घटा उठी, उड़ा रही मन- कुरंग.

सावनी फुहार पड़ी, बढ़ा रही तन- अनंग.

धौंकनी श्वांस की, बजा रही जल- तरंग.

पी. पी. पुकारती, पिकी रंगी पी के रंग.

सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.

आओ न मेरे सजन.

प्रकृति ज्यों रति बनी, बढ़ा रही है अगन.

कामदेव तीर पर सजा रहे हैं सुमन.

बयार सन्दली बही, जगा रही है सपन.

करती नृत्य राधिका, ताल दे रहे किशन.

सनसनी सी उठी ,आओ न मेरे सजन.

आओ न मेरे सजन.

४...प्रिय तुम हो क्यों गुमसुम?

प्रकृति प्रिय का अनुपम दर्शन

तन में भर-भर उठती सिहरन

मन में भावों का उद्दीपन

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम?

पुष्पों पर भौरों का गुन्जन,

मदिर वायु का मूक प्रलोभन,

सांसों में भीषण आन्दोलन

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.

कोयल का उपवन में कूजन,

चकवे का सरि तट पर क्रन्दन,

कलियों का अलि लेते चुम्बन,

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.

नभ में श्याम घटा की भटकन,

सुरधनु के रंगों की थिरकन ,

फिर चंचल चपला का नर्तन,

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.

पायल की वह मीठी रुनझुन,

खन-खन चूडी कंगन की धुन.

अधरों पर गीतों की गुनगुन

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.

रात दिवस का मिलन सुहावन,

देख हृदय करता है नर्तन ,

आज तुम्हें सर्वस्व समर्पण

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.

तुम क्या जानो मेरी तडपन?

जब सर्वस्व किया है अर्पण,

फिर मैं तो रह गई अकिन्चन,

प्रिय तुम ऐसे में भी गुमसुम.


५. सावन ऋतु आ गई

सावन ऋतु आ गई, उमड़ रहे सघन घन,

रिमझिमी बयार में, बढ़ रही प्रेम- अगन.

मयूर नर्तक बना, नाच उठा छूम-छनन,

बावरी मयूरियां, छेड़तीं मल्हार- धुन.

कोयल गीत गा रही, सुर में हो के मगन,

गूंजते पपिहे के स्वर, थाप दे रही पवन.

प्रीत- प्रेम रस पगे, सुन के पी के वचन,

ललित-ललाम-लोचनी, लाज से हुई कुंकुम.

चिलमनों की आड़ से, चितवनों के बयन,

छेड़ते हिय भाव को, अकुला रहे हैं सजन.

सावन ऋतु आ गई,उमड़ रहे सघन-घन,

रिमझिमी बयार में, बढ़ रही प्रेम-अगन.

नीरजा द्विवेदी


६. तृषित हृद्य आतुर है

तृषित हृदय आतुर है कहो प्रिय

भूली -बिसरी वही कहानी

जब जग की सुधि बिसरा कर,

तुम थे राजा , मैं थी रानी.

तृषित हृद्य आतुर है कहो प्रिय--

प्रिय छेड़ो तुम एक बार फिर

वीणा की मृदु तान - सुहानी.

बन जाओ तुम गीत मधुर और,

बन जाऊं मैं नई रागिनी .

तृषित हृदय आतुर है कहो प्रिय---

प्रिय तुम तो हो चन्द्र गगन के,

मैं छिटकूं बन धवल - चांदनी,

तुम बनते सावन के घन तो,

बनती मैं बरखा दीवानी.

तृषित हृदय आतुर है कहो प्रिय--

प्रिय छेड़ो तुम एक बार फिर,

वंशी की मृदु तान पुरानी.

मन मयूर नाचे और बोले-सुन-

प्रथम प्रणय की नई कहानी.

तृषित हृदय आतुर है कहो प्रिय--.



७. जब स्नेहिल सन्सार सजाकर

जब स्नेहिलल सन्सार सजाकर,

देते तुम मुझ को आमन्त्रन,

तब मानस में खिलखिलाकर,

पुष्पित हो उठते पलाश-वन.

मन कह उठता झूम- झूम कर

आओ, आ जाओ रे प्रियतम.

निज गन्ध पराग बिखराकर,

कुसुमित हो उठते वन-उपवन.

जब कलियों के अंक पाश पर,

तन्द्रिल हो उठते भ्रमर- गन ,

कलियां कह उठतीं पुकार कर-

ना जाओ, ना जाओ साजन.

जब क्षितिज की सेज सजा कर,

ले ता गगन धरा का चुम्बन,

व्रीड़ा से होता लाल लजा कर,

रवि छिपता जाकर निज प्रांगन.

निशा कह उठती अकुला कर ,

प्रिय ले लो मेरा आलिन्गन.


८. सावन ऋतु आई

मेघा घिरे चहुं ओर

सखी री

पिया सुधि आई.

घटा घिरी घनघोर

सखी री

मैं अकुलाई.

तड़के बिजुरिया जोर,

सखी री

सो न पाई.

जी पे चले न जोर

सखी री

सावन ऋतु आई.

पी, पी न मचाओ शोर

सखी री

पिया सुधि आई.

छम-छम नाचे मोर

सखी री

मै बौराई.

पुरवइया करे झकझोर

सखी री

अगन लगाई.

चित में बसे चितचोर

सखी री

किशन कन्हाई.

९. राधा बोली नट नागर से

राधा बोली नट नागर से बृज कोछोड़ भले ही जाओ,

कैसे निकल सकोगे हिय से,ऐ कान्हा ये तो बतलाओ?

राधा बोली नट नागर से--

नयन युगल की नम शैय्या पर, प्रिय मैने तव छवि बसा ली.

अब उर से निकलोगे कैसे, मैने अपनी पलक झुका ली ?

बन्द पलक अब खोलूं क्योंकर ? सौतन प्रकृति लुभाने आती.

मेरे बरजने, समझाने पर , मोहक छवि दिखला मुस्काती .

राधा बोली नट नागर से--

कर्ण युगल में बन्द तेरे स्वर, ध्वनियां अन्य निकट ना आतीं.

तुम्हें भुलाऊं कैसे गिरिधर ? सुधियां मन कपाट खटकातीं.

तव छवि चित्रित है मम उर पर, मानो शिला खचित करवा ली.

अब न निकल सकोगे उर से , मैने अपनी पलक झुका ली.


१०. ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

बोलो मेरी सखियों बोलो-ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

इस निराश पंकिल जीवन में

आशा के जलजात खिलाये.

रस भर दे जो अन्तर्तम में

प्राणों में मधुमास बुलाये.

जीवन के हर सूने क्षण में

वीणा की मृदु तान सुनाये.

नयनों के खारे सागर में

मीठे जल का स्रोत बहाये.

बोलो मेरी सखियों बोलो ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

जो गवाक्ष से झांक- झांक कर,

निशि दिन मेरी वाट निहारे.

जब मैं कभी दिखूं एकाकी,

मेरे मन का बोझ उतारे.

जब झंझानिल के प्रकोप से

मेरी नौका हिल-हिल जाये.

तब मांझी बन मुझे बचाकर,

मेरी जो पतवार चलाये,

बोलो मेरी सखियों बोलो, ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

मेरे थकित पगों में जो, नव

स्वप्नों के नूपुर छनका दे.

जो मांसल भुजवल्लर्रियों में

आशा के कन्गन खनका दे.

जो पग चुम्बित केशराशि में,

सुखके सुन्दर सुमन सजा दे.

जो प्रवाल से इन अधरों पर

अन्तर की स्मिति छिटका दे.

बोलो मेरी सखियों बोलो, ऐसा प्रियतम कहां मिलेगा?

११. प्रणय

बंकिम चितवन की शैय्या पर,

लेटा प्रिय अंगड़ाई लेता.

नास्ररन्ध्र में उसकी महक पर,

श्वांस-श्वांस सुरभित हो उठता.

कण- कण लावा सा खिल कर

हृदय भावों की चुगली करता.

कर्णपटों में जिसकी आहट पर,

हृदय पटल स्पन्दित हो उठता.

व्रीड़ारत आरक्त कपोलों पर ,

पलाशी रंग गुलाल बिखरता.

चंचल कटाक्ष नयन सरिता पर,

चपला सा अठखेली करता.

मन-मानस में जिसकी छवि पर,

रोम- रोम सिहर सा उठता,

नूपुर, चूड़ी, कंगन धुन पर,

अधराधर कम्पन गीत मुखरता.

वाणी मौन हिय भाव छुपा कर,

अंग- प्रत्यंग वाचाल हो उठता.

नयन गवाक्ष में जिसकी झलक पर,

तन पुष्पित, प्रमुदित हो उठता.

कोमल भावों की प्रत्यन्चा पर,

अनंग पुष्प - तूणीर साधता.

शिराओं में ज्वाला दहका कर,

प्रिय प्रियतमा का साथ मांगता.

१२. मानस चन्दन वन सा महकाती>

प्रिये---

तेरा मुख कमल समान देख कर,

कमलिनी तुम्हें प्रिय जान लजाती.

भ्रमरावलियां लुब्ध घूम-घूम कर,

मुख चुम्बन को आतुर हो जातीं.

तेरे मुख की अपूर्व सुषमा पर,

चम्पा ईर्ष्या दग्ध कुम्हला जाती.

तेरा मोहक सौन्दर्य देखकर,

चांद में हीन भावना जागती.

रूपसि! तेरा गौरवर्ण देख कर,

चांदनी म्लानमुखा हो जाती.

आकाश -गंगा नक्षत्रों से सजती,

पर तेरा पारावार न पाती.

अतुलित रूपराशि की मोहकता,

जीवन को रसाप्लावित कर जाती.

प्रिये! तुम जब आलिंगन में आतीं,

मानस चन्दन- वन सा महकातीं.


१३ मन प्राण गुपचुप कहेगा

हिम धवल गिरि श्रंखला जब,

अन्शुमाली चुम्बन करेगा.

लावण्यमई निशा से छुप कर,

उषा का आलिन्गन करेगा.

पवन छेड़ेगा रागिनी तब,

मन- प्राण गुप- चुप कहेगा.

प्रिय का पथ निरखा करेगा.

पर्वतों की कन्दरा में जब,

हिमान्शु अठखेली करेगा,

वल्लरी के आगोश में छुप,

वृक्ष भी निःश्वासें भरेगा.

पंछी छेड़ेंगे रागिनी तब,

मन- प्राण गुप- चुप कहेगा.

प्रिय का पथ निरखा करेगा.

सरिताओं के कूल पर जब,

मृदु पवन मलयजी बहेगा,

क्षितिज में मुखड़ा छुपा कर,

नील- गगन आहें भरेगा,

कल- कल बहे तरंगिणी तब,

मन- प्राण गुप- चुप कहेगा.

प्रिय का पथ निरखा करेगा.

दुग्ध- धवल चन्द्रमा जब,

चांदनी को अलंकृत करेगा,

सम्पूर्ण जग उल्लसित होकर,

वीतरागियों का मन हरेगा.

प्रकृति होगी उन्मादिनी तब,

मन- प्राण गुप- चुप कहेगा.

प्रिय का पथ निरखा करेगा.

१४. वह क्या प्रिय तुम थे बोलो?

भोले बचपन ने ली जब,

मधु यौवन की अंगड़ाई.

आरक्त कपोलों पर जब,

छा गई सलज अरुणाई,

जब मचल रही थी मेरी,

अल्हड़, स्वप्निल तरुणाई,

तब सस्मित मुझे देखते-

वह क्या प्रिय तुम थे बोलो?

जीवन की झंझाओं में,

जब पथ न पड़ा दिखलाई.

घन घिरे विषादों के जब,

नयनों में बरखा छाई.

दैवीय प्रकोप से मेरी

नौका जब थी थर्राई,

तब बांह पसारे आये-

वह क्या प्रिय तुम थे बोलो?

जीवन के मरुथल में जब

जलबिन्दु न पड़े दिखाई,

बरसे न निर्मम बादल,

जब घटा न कोई छाई,

जब मृग-मरीचिका में फंस,

इन प्राणों पर बन आई,

तब जल की गागर लाये-

वह क्या प्रिय तुम थे बोलो?


१५. कंगन निज खनका जाना तुम.

कर्णपटों में चुपके-चुपके,

मन्थर गति से हौले-हौले,

आ नूपुर छनका जाना तुम,

कोई गीत सुना जाना तुम.

कोलाहल में चुपके- चुपके,

अपने कर से हौले -हौले,

कंगन निज खनका जाना तुम,

कोलाहल बिसरा जाना तुम.

हृदय स्थल पर चुपके-चुपके,

कविता बनकर हौले- हौले,

इन अधरों पर आ जाना तुम,

बुझती ज्योति जला जाना तुम.

सुधि के पट पर चुपके-चुपके,

लिये तूलिका हौले- हौले

मोहक चित्र बना जाना तुम,

विस्मृत याद जगा जाना तुम.

जीवन मरु में चुपके- चुपके,

सजल मेघ सम हौले -हौले,

जी भर जल बरसा जाना तुम,

हिय की तृषा बुझा जाना तुम.

इस खंडहर में चुपके-चुपके,

मधुर स्वरों में हौले- हौले,

प्रणयी गीत सुना जाना तुम,

मेरा हृदय गुंजा जाना तुम.

१६. विडम्बना प्यार की

सागर गगन की ओर उन्मुख,

उसका क्षितिज कहीं और है.

मेरी उपासना हो तुम मगर,

तेरी प्रेरणा कोई और है.

चांद चाहता पृथ्वी को है पर,

उसकी चाहना रवि ओर है.

ऊषा समर्पित रवि को है, पर

रवि आकर्षित निशा ओर है.

निशा अनुरक्त चन्द्र पर है,पर

उसकी चांदनी कोई और है.

हिमस्रोत से निकला जो निर्झर,

हो प्रफ़ुल्लित, कल-कल निनादित,

प्रेम उन्माद में उन्मत्त, समर्पित,

निर्झरणी के आलिन्गन को आतुर.

हा विभीषिका यह प्यार की है,

निर्झरिणी अर्पित सागर ओर है.

तोड़कर मृगतृष्णा के आकर्षण,

स्वीकार लो नियति के बन्धन.

उपलब्ध को त्यागकर मन-मृग

भागता मरीचिका की ओर है.

विडम्बना तो प्यार की यह है,

मन चाहता जिसे सब भूलकर,

उसकी चाहना तो कोई और है?


१७. आज मन सूना-सूना है

सजन गये परदेस आअ मन, सूना सूना है.

कह दो कोयल गीत न गाये,

भौंरे बन्द करें निज गुन्जन.

तितली भी अब उड़े न आकर,

खिले न फूल आज वन- उपवन.

बिन प्रिय के अब इन कलियों को कैसा छूना है?

सजन गये परदेस आज मन सूना- सूना है.

प्राणों में पदचाप छिपी है,

प्रिय मुझको भरमा जाते हैं.

कहीं छिपे, आस-पास हैं,

यह विश्वास दिला जाते हैं.

उन्हें याद कर दुख मेरा हो जाता दूना है.

सजन गये परदेस आज मन सूना-सूना है.

सुधियों के तुम साज़ न छेड़ो,

अन्तर्मन आहत होता है.

बिन प्रिय के श्रंगार किसी का,

बोलो, कब आदृत होता है.

बिन प्रिय के कब से जारी आंखों का चूना है.

सजन गये परदेस आज मन सूना- सूना है.


१८. तार हिय के तुम न छेड़ो

तार हिय के तुम न छेड़ो, रो पड़ूंगी, रो पड़ूंगी.

कंठ रुंधता, वाणी चुप है.

मौन में मुखरित ये दुख है

अश्रु कह देंगे व्यथा सब,

मैं भला क्योंकर कहूंगी?

तार हिय के तुम न छेड़ो, रो पड़ूंगी, रो पड़ूंगी.

शब्द स्तम्भित, भाव चुप हैं,

हृदय में अनगिनत दुख हैं.

लेखनी लिख देगी स्वयं सब,

मैं भला क्योंकर लिखूंगी?

तार हिय के तुम न छेड़ो, रो पड़ूंगी, रो पड़ूंगी.

तार खन्डित सुर भी चुप हैं.

रागिनी में प्रतिध्वनित दुख हैं.

वीणा दे देगी विदाई,

मैं तो कुछ ना करूंगी.

तार हिय के तुम न छेड़ो रो पड़ूंगी, रो पड़ूंगी


१९. न पूछो मुझसे.

न पूछो मुझसे,

कैसी हूं, क्या मै ज़िन्दा हूं?

कैसे कहूं कि खुदसे,

कितनी मैं शर्मिन्दा हूं?

कैसे भुलाऊं तुमको,

जाते नहीं खयालों से,

रोता है दिल मगर,

छुपाते हैं हम निगाहों से.

कोई गिला खुदा से,

न ही कोई ज़माने से,

फ़ोड़े करम हमीं ने,

खुद के ही कारनामे से.

न पूछो मुझसे,

कैसी हूं क्या मै ज़िन्दा हूं?

बैठे लगा के आग,

खुद के हि आशियाने में.

जाना नहीं कि ज़िद ,

बदलेगी इक फ़साने में.

मौका दिया न मुझको,

मेरी खता बताने में.

पल भर लगा न उनको,

बरसों का साथ भुलाने में.

न पूछो मुझसे ,

कैसी हूं, क्या मैं ज़िन्दा हूं?

२०. दीप बोला एक दिन--

दीप बोला एक दिन यह,

दीर्घ इक निःश्वांस लेकर-

"प्रेम पथ पर मीत कब तक-

दीप बन जलना पड़ेगा?

अग्निरथ पर मीत कब तक-

मुझको युंही चढ़ना पड़ेगा.

शलभ आया प्रीति लेकर,

मोहिनी सी प्रतीति लेकर,

पर मेरी चिर तृषा को,

बुझा न पाया प्राण देकर.

कौन जाने पीड़ा हृदय की,

हो मौन जो मैं सह रहा.

चिर तृषित हूं, चिर कुंवारा,

प्रेमवन्हि में तपता रहा.

अग्निरथ पर मीत कब तक,

मुझको यूं चढ़ना पड़ेगा.

प्रेम पथ पर मीत कब तक,

दीप बन जलना पड़ेगा?

प्रिय मिलन की साध लेकर,

राह में हूं प्रिय की खड़ा.

प्रज्ज्वलित करके हृदय निज,

प्रति क्षण मैं जलता रहा.

होगा क्या प्रिय से मिलन,या

अतृप्त युंही रहना पड़ेगा.

नीर भर धुंधले नयन से,

प्रिय का पथ तकना पड़ेगा.

प्रेमपथ पर मीत कब तक ,

दीप बन जलना पड़ेगा?

अग्नि रथ पर मीत कब तक

मुझको युंही चढ़ना पड़ेगा."

दीप से बोला शलभ तब-

नीर भर, भीगे नयन से-

"प्रेम पथ की पीर है यह,

मीत संग-संग सहना पड़ेगा.

अग्नि रथ पर मीत हमको,

हर घड़ी चढ़ना पड़ेगा."


अभिसारिका

प्रिय मिलन हित उमड़ पड़ीं जब,

अभिसारिका की आकांक्षायें,

रोकें पर ना रोक सकेंगी,

अभिसार में आती बाधायें.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

क्षण- क्षण में आती विपदायें.

गरज- तड़क न रोक सका नभ,

रोक सकीं न निर्झर सरितायें.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

रोक सकीं न ये झंझायें.

उपलवृष्टि रोकेगी क्या पथ,

रोक सकीं न जब उल्कायें.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

ये दुर्गम पर्वत, उपत्यकायें.

धरती धसक- धसक रोके पथ,

भू कम्पित हैं दसों दिशायें.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

ये बर्फ़ीली तीक्ष्ण हवायें.

हिमपात रोकेगा क्या पथ,

विफ़ल हुईं स्खलित शिलायें.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

प्रकृति की विप्लवी मुद्रायें.

जैसे शिव त्रिनेत्र को खोलकर,

भस्म काम को करने आये.

रोक रही हैं, क्या रोकेंगी,

ये जनम- मरण की श्रंखलायें.

प्रिय मिलन को आतुर होकर,

उमड़ीं जब प्रेमिल झंझायें.

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युगल गुनगुना उठे.

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खिलखिलाये जब गगन,

तारे झिलमिला उठे.

चन्द्र जब दूल्हा बने,

चांदनी लजा उठे.

वारुणी मचल उठे.

रागिनी सी गा उठे.

बावरी निशा बने.

झूमती सी नाच उठे.

जगमगाये रात्रि जब,

प्रेमी मुस्कुरा उठे.

धरणि खिलखिला उठे,

स्वप्न कसमसा उठे.

प्रेम की तरंग उठे.

मिलन की उमंग उठे.

बसन्ती बयार में,

युगल गुनगुना उठे.

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गुनगुना उठे अधर

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झूम के घटा उठी,

गुनगुना उठे अधर.

पवन सरसरा उठी,

स्फ़ुरित हुए रोम हर.

मलयजी ताल पर,

छलछला उठे निर्झर.

सावनी फ़ुहार उठी,

नाच उठी घर-डगर.

ताप तन का छीनकर,

बह रही गंगा अमर.

दग्ध हृदय के घाव पर,

मरहम लगाती लहर.

हिमाद्रि की छटा दिखी,

खिल उठा मन- मुकुर.

प्राणों का संचार कर,

जगमगा उठे प्रहर.

प्रकृति धन्वन्तरि बनी,

दिया जीवन का वर.

अवसाद मन का खींच,

सींच दिया अमृत प्रवर.

वानप्रस्थियों को फिर,

बुला रहे ग्राम- नगर.

वीतरागी को फिर ,

लुभा रहे गीत मनहर.

झूम के धरा उठी,

गुनगुना उठे अधर.

पवन खिलखिला उठी

नाच उठे रोम हर.


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