एक जिंदगी - दो चाहतें - 33 Dr Vinita Rahurikar द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक जिंदगी - दो चाहतें - 33

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-33

शनिवार शाम को मौसी-मौसाजी वापस चले गये क्योंकि उन्हें रविवार सुबह ही किसी कार्यक्रम में जाना था। बुआ-फूफाजी भरत भाई के यहाँ चले गये। दोनों नौकरों ने पूरा घर साफ करके हर कमरा व्यवस्थित कर दिया। सावित्री और तनु ने पूजा घर का सारा सामान समेटा और ठीक से संभालकर ड्रावर में रख दिया।

''यहाँ अब इस सब का क्या काम, ये पूजा का सामान तो आप ही ले जाओ चाची।" परम ने उन्हें सामान ड्रावर में रखते देखा तो कहा।

''अरे घर-गृहस्थी है। तीज-त्यौहार, पूजा-अनुष्ठान तो चलते ही रहेंगे। घर में सब वस्तुएँ होनी चाहिये, एकदम से जरूरत पडऩे पर कहाँ भागता फिरेगा।" चाची ने कहा।

शाम को पाँच बजे सावित्री और सतीश भी अपने घर वापस चले गये। रसोइये ने दोनों के लिए रात खाना बनाकर रख दिया और वो और दोनों नौकर भी वापस चले गये।

घर में एकदम से सन्नाटा छा गया। दो दिन घर में इतनी चहल-पहल रही और अब घर एकदम से खाली हो गया। तनु दो कप चाय बना लाई और वो दोनों बाहर झूले पर आकर बैठ गये। ढलती शाम के सुरमई अंधेरे में घर के अंदर का सन्नाटा और भी अधिक गहरा लग रहा था। घर के अंदर दोनों से बैठा ही नहीं गया। झूले पर बैठते ही परम ने सिगरेट सुलगाई और लम्बे-लम्बे कश लेने लगा। गुरुवार दोपहर से ही उसने सिगरेट नहीं पी थी।

रात खाना खाकर दोनों जल्दी ही ऊपर सोने चले गये। दो रातों से जागरण चल रहा था। उपर कमरे में जाते ही परम तनु पर टूट पड़ा।

''मेरी लाल मिर्ची...। तीन दिन से तरस रहा हूँ। छूने भी नहीं मिला।" परम उसे बाहों में जकड़कर बोला।

''देखना जी संभलकर। मुँह जल जायेगा।" तनु हँसते हुए बोली।

''अरे यहाँ दिल में आग लगी है तू मुँह जलने की क्या बात कर रही है।" परम उसे लेकर बिस्तर पर गिर गया।

———

दु:ख के दिन जेठ की दोपहरी जैसे होते हैं। लम्बे ऊबाउ और त्रासदायक। जो खत्म होने में ही नहीं आते। और सुख के दिन थकान के बाद की रात की तरह होते हैं जो कब गहरी नींद में गुजर जाती है पता ही नहीं चलता। परम की दो महीने की छुट्टियाँ खत्म होने में आ गयी थी और उसका वापस ड्यूटी पर जाने का समय आ गया था। तनु अब उदास रहने लगी थी। परम का मन भी अंदर से जाने कैसा होता रहता था। जयपुर में घर मिला हुआ था तब वह तनु को आराम से अपने साथ रख सकता था लेकिन तब उनकी शादी नहीं हो पायी थी।

और जब शादी हो गयी तो परम की पोस्टिंग पुंछ सेक्टर में हो गयी जहाँ वह तनु को ले नहीं जा सकता था। अभी तक उनका घर नहीं बना था तो वो दोनों तनु के पिता के ही घर पर रहते थेे जब परम छुट्टी पर आता था। फिर जब घर बनवाया तो छ: महीने परम ने छुट्टी नहीं ली थी ताकि घर सेट करने के लिए और उसमें तनु के साथ रहने के लिये उसे लगातार दो महीना मिल जाये चैन से।

वो चैन खत्म होने में अब बस कुछ ही दिन रह गये थे। शादी के डेढ़ सालों में पहली बार ऐसा हुआ था कि वो अपने घर में अकेले पति-पत्नी की तरह पूरी स्वतंत्रता से साथ में रहे थे।

अबकी बार ड्यूटी पर वापस जाना परम की जान पर बन आया सा लग रहा था। पर ड्यूटी तो ड्यूटी है।

निभानी तो हर हाल में पड़ेगी।

वह तनु को खुश रखने का प्रयत्न करता लेकिन देखता था कि बार-बार तनु की आँख भर आती थीं। वह अपना मुँह दूसरी ओर छुपाकर चुपचाप अपने आँसूं पोंछ लेती थी। परम के सीने में मरोड़ सी उठती। काश अभी वह तनु को भी साथ ले जा सकता। उसे अपने पास रख सकता।

काश!

लेकिन 'काश' यह इच्छा होती है जो कभी पूरी नहीं होती है। हमेशा अधूरी ही रह जाती है।

दिनों की उल्टी गिनती शुरू हो गयी थी। अब तनु रात भर भी परम के सीने से चिपक कर सोती थी। और परम...

परम की आँखों में नींद कहाँ। वह रात भर जागकर तनु के सिर पर हाथ फेरता एकटक उसे देखता रहता। कभी उसे घर के सामान की चिंता होती कि सबकुछ है कि नहीं, उसके जाने के बाद तनु को परेशान न होना पड़े। कभी तो तनु को अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाता। वो बचे हुए दिनों का एक-एक क्षण पूरी तरह से तनु के साथ जी लेना चाहता था।

एक-एक दिन बीतते-बीतते आखरी वह दिन भी आ गया जब दूसरे दिन परम को वापस जाना था। इस छुट्टी की ये आखरी रात थी जब दोनों साथ थे। परम उस दिन देर तक तनु के साथ गरम पानी के शॉवर के नीचे खड़ा रहा। पानी के साथ उसकी आँखो से लगातार आँसू भी बह रहे थे। वह आज की रात को तनु के साथ पूरी तरह से जी लेना चाहता था पूरी रात वह तनु को प्यार करता रहा।

दूसरे दिन सुबह दोनों जाकर परम के चाचा-चाची और तनु के माता-पिता से मिल आये।

घड़ी की सुईयाँ तेजी से सरक रही थी। परम पैकिंग करने लगा। यूनिफॉर्म तो वह यहाँ लाया ही नहीं था। बस कुछेक कपड़े ही थे। तनु की माँ ने और सावित्री ने खाने का ढेर सारा सामान परम के साथ दिया था। शारदा ने तनु से कहा कि वह परम के जाने के बाद उन्हीं के पास आकर रहे। परम की भी यही इच्छा थी कि तनु उसके जाने के बाद अपनी माँ के साथ ही रहे लेकिन तनु ने कहा कि वह अपने घर ही रहेगी। तब शारदा ने परम को आश्वासन दिया कि वह अपने यहाँ की विश्वसनीय सर्वेंट को तनु के पास रख देगी ताकि तनु अकेली न रहे। परम आश्वस्त हो गया।

परम की बस रात साढ़े ग्यारह बजे थी। साढ़े आठ बजे तक दोनों ने खाना खा लिया था। साढ़े दस बजे भरत भाई का ड्राईवर आने वाला था परम को बस स्टेण्ड पर पहुँचाने के लिए।

तनु परम के कंधे से लगकर सिसक पड़ी।

''मत जाओ मुझे छोड़कर।"

''ऐ पगली। तू तो हमेशा मुझे हिम्मत बंधाती रहती है। तू ऐसे कमजोर पड़ जायेगी तो मेरा क्या होगा।" परम उसके सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला।

''मैं कैसे रहूँगी अब आपके बिना।" तनु बिलखते हुए बोली।

''मेरे लिये रहना क्या आसान होगा तुम्हारे बिना? बस जानू छ: महीने की बात और है, बस फिर मैं ऐसी जगह पोस्टिंग ले लूँगा जहाँ मुझे अपना क्वार्टर मिल जाये और तुम्हें साथ रख सकूँ।" परम भीगे गले से बोला।

तनु की आँखों से लगातार आँसू बहे जा रहे थे।

''ऐ तनु लिपिस्टिक लगाकर आ ना।" अचानक परम बोला।

''क्यों?" तनु आश्चर्य से बोली।

''जा ना बाबा, लगाकर आ।" परम आग्रह से बोला।

तनु जाकर लिपस्टिक लगा आयी।

''इस पर अपने होंठों के निशान दे न।" परम ने अपना मोबाइल तनु के चेहरे के सामने कर दिया।

तनु ने अपने होंठ मोबाइल के कवर पर रख दिये उसके लाल होंठ सफेद कवर पर छप गये।

ड्राइवर गाड़ी लेकर आ गया। परम और तनु पूजाघर में गये और प्रणाम किया। परम ने तनु की मांग में सिंदूर भरा। परम ने बैग उठाया और तनु का हाथ पकड़कर बाहर आ गया। पैर मन भर भारी हो रहे थे। जैसे-तैसे उसने घर को ताला लगाया। ड्राइवर ने बैग लेकर पीछे डिग्गी में रख दिया। कार में बैठने के बाद परम ने नजर भर कर अपने घर को देखा। जहाँ पिछले दो महीनों की उसकी और तनु की जिंदगी के सबसे खास दौर की यादें बसी हुई थी। आधे घण्टे में ही दोनों बस स्टेण्ड पहुँच गये। बस निकलने में अभी बीस मिनट बाकी थी।

''अपना ध्यान रखना तनु। और देख रोना बिलकुल नहीं। वरना वहाँ मेरे लिए ड्यूटी निभाना मुश्किल हो जायेगा।" परम उसे समझाते हुए बोला।

तनु ने रोते हुए हामी भरी।

''भाग बुच्ची। पता है रोते हुए बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती है।"

परम उसके आँसू पोंछते हुए बोला।

बस निकलने का समय हो रहा था। परम कार से उतर गया। ड्रायवर ने उसकी बैग बस में चढ़ा दी। परम ने नजर भरकर तनु को देखा और उसे अपने गले से लगाकर फिर पलटा और तेजी से बस में चढ़ गया। अगर वो दो क्षण भी और तनु के पास खड़ा रहता तो जा नहीं पाता।

''अपना ध्यान रखना तनु।" परम ने बस के दरवाजे पर खड़े होकर कहा और हाथ हिलाकर उसे विदा किया।

तनु भी हाथ हिलाने लगी। बस धीरे-धीरे आगे बढऩे लगी। आँसुओं के बीच धुंधली होती हुई परम की बस आखीर में ओझल हो गयी।

तनु कार में बैठ गयी। सिर बुरी तरह से सुन्न सा हो रहा था। कब घर अया, कब उसने ताला खोला पता ही नहीं चला उसे। ड्रायवर उसे अंदर गया देखकर गाड़ी लेकर वापस चला गया। तनु नीचे के सारे दरवाजे बंद करके ऊपर आ गयी।

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